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PAHUJA LAW ACADEMY

LECTURE – 1

प्रस्तावना

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LECTURE – 1

मुख्य प्रश्न

 
  1. भारत सरकार अधिनियम 1935 की विशेषताओं का उल्लेख करें?
 
  1. भारत शासन अधिनियम 1858 द्वारा किये गये परिवर्तनों को बताईए?
 
  1. रेग्युलेटिंग अधिनियम 1773 द्वारा किये गये परिवर्तनों को बताईए?
 

भारत का संवैधानिक विकास

भारत के संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि निम्न को माना जाता है।

(1) 1773 का अधिनियम

(2) 1813 का अधिनियम

(3) 1833 का अधिनियम

(4) 1858 का अधिनियम

 

भारतीय राजनीतिक व्यवस्था किसी राजनैतिक क्रान्ति का परिणाम नहीं है, बल्कि यह जनता के मान्य प्रतिनिधियों के आपसी विचार-विमर्श एवं बहस का परिणाम है। भारतीय संविधान को भली-भाँति समझने के लिए हमे संवैधानिक विकास के इतिहास को जानना होगा।

भारत के संवैधानिक विकास के इतिहास को दो चरणों में बाँट कर पढ़ा जाता है-

(i) ईस्ट इण्डिया कम्पनी के अधीन भारत का शासन (सन् 1773-1858 तक)

(ii) सम्राट के अधीन भारत का शासन

(iii) सन् 1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट से लेकर सन् 1858 के पहले तक भारत में ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन था। ईस्ट इंडिया कम्पनी अपने चार्टरों या कानूनों के माध्यम से भारत पर शासन करती थी। 1773 के एक्ट से लेकर 1858 तक का चार्टर एक्ट ईस्ट इंडिया कम्पनी पर नियंत्रण व निरीक्षण करने के लिए पारित किया गया था, चूंकि कम्पनी एक संवैधानिक संस्था नहीं थी, इसलिए कम्पनी द्वारा बनाये हुए कानूनों को भारतीय संविधान के इतिहास में शामिल नहीं किया जा सकता।

वास्तव में भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 1858 के एक्ट से प्रारंभ होती है। चूंकि यह एक्ट भारत की जनता पर सीधे शासन करने के लिए पारित किया गया था।

1773 का रेग्युलेटिंग चार्टर:

इस चार्टर [एक्ट] द्वारा भारत में एक सुनिश्चित शासन पद्धति की नींव पड़ी इस एक्ट के पारित होने के पूर्व बंगाल, मद्रास और बम्बई प्रेसीडेन्सी तीनों में एक-एक गवर्नर होते थे। वे एक दुसरे से स्वतंत्र भी थे। लेकिन इस एक्ट के द्वारा बम्बई और मद्रास प्रेसीडेन्सी को बंगाल प्रेसीडेन्सी के अधीन कर दिया गया, तथा बंगाल के लिए एक गवर्नर जनरल की नियुक्ति की गयी। गवर्नर जनरल के कार्यों की सहायता करने के लिए एक चार सदस्यों की कार्यकारिणी का गठन किया गया। पिट्स एक्ट द्वारा बिट्रेन में एक “कोर्ट ऑफ डायरेक्टर” का गठन किया गया तथा सन 1774 में कलकत्ता में एक “सर्वोच्च न्यायालय” की स्थापना की गयी। उल्लेखनीय है कि यह भारत का अंतिम अपीलीय न्यायालय नहीं था, क्योंकि इसके विरुद्ध अपील ब्रिटेन स्थित प्रीवी काउन्सिल में की जा सकती है।

नोट: बंगाल का गवर्नर जनरल बारेन हेस्टिंग्स को नियुक्ति किया गया, यही ऐसा गवर्नर जनरल था, जिस पर ब्रिटिश संसद ने महाभियोग चलाया गया किन्तु वह सिद्ध नहीं हुआ।

1784 का पिट्स इंडिया एक्ट

इस एक्ट के द्वारा कम्पनी के इस एक्ट द्वारा दोहरा प्रशासन प्रारम्भ हुआ, राजनीतिक तथा व्यापारिक कार्यों को अलग कर दिया गया। व्यापारिक कार्य को कम्पनी के हाथों में रहने दिया गया, लेकिन राजनीतिक कार्यों पर नियंत्रण व निरीक्षण रखने के लिए बिट्रेन ने एक “बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल” का गठन किया गया “बोर्ड ऑफ़ कंट्रोल” के सदस्यों की नियुक्ति सम्राट करता है। (छ: सदस्य)

1813 का चार्टर एक्ट (राजलेख)

इस एक्ट द्वारा भारत में कम्पनी के व्यापारिक एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया तथा बिट्रेन के सभी निवासियों को लाइसेंस लेकर भारत में व्यापार करने की छूट दे दी गयी। लेकिन इसके बावजूद कम्पनी का चाय और चीनी के साथ व्यापारिक एकाधिकार बना रहा। इसी एक्ट के द्वारा ईसाई मिशनरियों का भारत में प्रवेश हुआ तथा उन धर्माधिकारियों को भारत में रुकने के लिए या व्यवस्था करने के लिए एक धर्म विभाग की स्थापना की गयी, उल्लेखनीय है कि इस पर होने वाला सम्पूर्ण व्यय भारत से किया जाता था। इसके द्वारा एक अच्छा कार्य यह हुआ कि प्राथमिक शिक्षा पर प्रतिवर्ष एक लाख रुपया खर्च करने का प्रावधान किया गया। कम्पनी को भारत में बने रहने के लिए 20 वर्ष का और लाइसेंस दिया गया।

नोट: गाँधी जी ईसाई मिशनरियों के द्वारा किये जाने वाले धर्म परिवर्तन के विरोधी थे।

1833 का चार्टर एक्ट

इस एक्ट के द्वारा बंगाल के गवर्नर जनरल का पद समाप्त कर दिया गया और उसे सम्पूर्ण भारत का गवर्नर जनरल घोषित कर दिया गया। बंगाल के अंतिम गवर्नर जनरल (लार्ड विलियम बैटिंग) है। अत: स्पष्ट है कि इस अधिनियम द्वारा भारत में शासन के केन्द्रीयकरण या एकात्मक शासन प्रणाली की शुरुआत हुई थी। इस एक्ट द्वारा कम्पनी का चाय और चीनी के साथ ही व्यापारिक एकाधिकार समाप्त कर दिया गया। गवर्नर जनरल की कार्य-कारिणी में सर्वप्रथम एक अतिरिक्त सदस्य या चौथे सदस्य की नियुक्ति की गयी थी। इसे विधिसदस्य कहा गया है। इसी एक्ट द्वारा भारत में सर्वप्रथम लार्ड मैकाले की अध्यक्षता में एक विधि आयोग का गठन किया गया जिसने भारत की प्रथम विधिसंहिता तैयार की, इसके द्वारा सबसे महत्वपूर्ण कार्य यह हुआ कि 1843 में दास प्रथा का पूर्णत: उन्मूलन कर दिया गया कम्पनी को भारत में बने रहने के लिए 20 वर्ष का और लाइसेंस दिया गया।

1853 का चार्टर एक्ट

इस एक्ट में कहा गया कि अब कम्पनी भारत में तभी तक रहेगी जब तक सरकार चाहेगी इसके द्वारा प्रतियोगी परीक्षाओं का भारत में आयोजन होने लगा तथा सभी के लिए परीक्षा में भाग लेने का अवसर उपलब्ध कराया। इस एक्ट का महत्वपूर्ण कार्य यह था कि कार्यपालिका व विधायिका का पृथक्करण प्रारम्भ हुआ तथा सम्पूर्ण भारत के लिए एक विधान मंडल की स्थापना की गई।

भारत सरकार अधिनियम 1858

भारतीय संविधान की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि इसी एक्ट से प्रारम्भ होती है। ऐसा इसलिए कि इसके पहले भारत का शासन ईस्ट इण्डिया कम्पनी के हाथ में था जो कि विभिन्न चार्टरो व कानूनों के माध्यम से शासन करता था। लेकिन इसके द्वारा ईस्ट इंडिया कम्पनी के शासन को समाप्त कर दिया गया और भारत का शासन सम्राट के नाम से होने लगा तथा भारत का शासन ब्रिटिश संसद द्वारा पारित सीधे अधिनियमों के माध्यम से होने लगा इस एक्ट की निम्नलिखित विशेषताएं इस प्रकार हैं-

(i) कोर्ट ऑफ डायरेक्टर और 1784 में स्थापित बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल दोनों को समाप्त कर दिया गया और इसके स्थान पर ‘सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इंडिया’ या ‘भारत सचिव या भारत के मंत्री की नियुक्ति की गई तथा भारत सचिव के कार्यों में सहायता करने के लिए 15 सदस्यों की एक भारतीय परिषद् या इंडिया काउन्सिल का गठन किया गया। इसके 8 सदस्यों की नियुक्ति सम्राट द्वारा तथा 7 सदस्यों की नियुक्ति ब्रिटेन स्थित निदेशक बोर्ड करता है या, उल्लेखनीय है कि इण्डिया काउन्सिल में कोई भी भारतीय सदस्य नहीं था।

(ii) भारत सचिव ब्रिटिश संसद का सदस्य था और वह वहीँ बैठता भी था। वह आवश्यकतानुसार भारत के शासन के सम्बन्ध में सभी सूचनाएं ब्रिटिश संसद को उपलब्ध कराता था।

(iii) भारत सचिव ही भारत स्थित वायसराय के कार्यों पर निगरानी रखता था तथा उसकी कार्यकारिणी के सदस्यों को नियुक्ति करता था।

(iv) भारत सचिव और उसकी कार्यकारिणी के सदस्यों को वेतन भारतीय कोष से दिया जाता था।

(v) इस अधिनियम द्वारा ‘गवर्नर जनरल’ के नाम को बदल कर वायसराय कर दिया गया। वास्तव में उसी व्यक्ति को गवर्नर जनरल के साथ-साथ वायसराय भी कहा गया वह अपना कार्यकारिणी के माध्यम से भारत का शासन करता था उसे गवर्नर जनरल कहते थे और जब वह देसी रियासत के शासक से ब्रिटिश सम्राट के प्रतिनिधि के हैसियत से कोई सम्बन्ध रखता था तो उस समय वायसराय कहा जाता था।

भारतीय परिषद् अधिनियम, 1861

विधि निर्माण के क्षेत्र में भारतीय का सहयोग प्रारम्भ करने के लिए ब्रिटिश संसद ने इस एक्ट को पारित किया। इसके द्वारा वायसराय की कार्यकारिणी में सर्वप्रथम गैर सरकारी सदस्यों की नियुक्ति का प्रावधान किया उल्लेखनीय है कि गैर सरकारी सदस्यों के अंतर्गत भारतीय व अंग्रेज दोनों हो सकते थे, इसके द्वारा भारत में सर्वप्रथम-

विभागीय प्रणाली की नीव पड़ी, अर्थात वायसराय के कार्यकारिणी के सदस्यों को एक-एक विभाग सौंप दिया इस प्रकार हम कह सकते हैं कि इसी अधिनियम के द्वारा सर्वप्रथम-

प्रतिनिधि संस्थाओं का भी उदय हुआ, तथा भारत में सर्वप्रथम विधायी विकेंद्रीकरण की नीव पड़ी अर्थात विधि निर्माण के कार्यों का अधिकार प्रान्तों की विधायिकाओं को मिला।

वायसराय को अध्यादेश जारी करने का अधिकार नये प्रान्तो के निर्माण का अधिकार तथा प्रान्तों में गवर्नरो की नियुक्ति का भी अधिकार मिला तथा इसी एक्ट के द्वारा भारत में सर्वप्रथम “भारतीय दंड संहिता” तथा सन 1862 में भारत के तीन प्रान्तों कलकत्ता, बम्बई और मद्रास में एक-एक “उच्च न्यायालय” की स्थापना की गयी।

नोट:

(1) भारत का अंतिम गवर्नर जनरल और प्रथम वायसराय “लार्ड कैनिंग” थे।

(2) 1 नवम्बर 1858 को महारानी विक्टोरिया का घोषणापत्र को इलाहबाद में पढ़कर लार्ड कैनिंग ने सुनाया था जिसमें ईस्ट इंडिया क. की समाप्ति और देसी रियासत के साथ सम्बन्ध का जिक्र किया गया।

(3) 1858 की क्रान्ति के समय ब्रिटिश प्रधानमंत्री ‘लार्ड पामस्टर्न’ थे।

भारतीय परिषद् अधिनियम 1892

सन् 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन हुआ। कांग्रेस तथा भारतीय जनता के प्रबल जनमत के दबाव में आकर ब्रिटिश संसद ने 1861 के एक्ट में सुधार करते हुए इस एक्ट को पारित किया इसकी कुछ विशेषताएं निम्न है-

(1) वायसराय की कार्यकारिणी में गैर सरकारी सदस्यों की संख्या में वृद्धि की गयी।

(2) भारत में सर्वप्रथम भारतीयों को वार्षिक बजट पर बहस करने का अधिकार या वित्तीय नीति की आलोचना करने का अधिकार मिला लेकिन उन्हें न तो मत देने और न ही पूरक प्रश्न पूछने का अधिकार था।

(3) प्रान्तों की विधायिकाओं में कुछ सदस्य नगर पालिकाओं जिला बोर्डो, विश्वविधालयों आदि के सदस्यों के द्वारा मनोनीत होकर आने लगे। इस प्रकार अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली की नीव पड़ी। इसके साथ यह भी माना जा सकता है कि प्रतिनिधि सरकार की नीव पड़ी।

भारतीय परिषद् अधिनियम 1909 या मार्ले मिन्टो सुधार

लार्ड कर्जन की “बांटो और राज करो” की प्रतिक्रियावादी नीति को आगे बढ़ाते हुए ब्रिटिश संसद ने इस एक्ट को पारित किया इसे मार्ले मिन्टो सुधार भी कहा जाता है। क्योंकि यह एक्ट तात्कालिक भारत सचिव लार्ड मार्ले और तात्कालिक वायसराय लार्ड मिन्टो के संयुक्त प्रयासों का फल था इसकी महत्वपूर्ण विशेषताएं निम्नलिखित है-

(1) विधि और प्रशासन दोनों क्षेत्रों में भारतीयों का सहयोग प्रारम्भ किया गया;

(2) वायसराय की कार्यकारिणी में सर्वप्रथम एक भारतीय सदस्य की नियुक्ति की गयी जिसका नाम सतेन्द्रनाथ टैगोर था।

(3) वार्षिक बजट पर बहस करने के साथ-साथ पूरक प्रश्न भी पूछने का अधिकार दिया गया;

(4) प्रान्तों की विधायिकाओं में कुछ सदस्य नगर पालिकाओं जिला बोर्डों, विश्वविद्यालयों के सदस्यों के द्वारा चुन कर आने लगे अर्थात अप्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत हुयी।

(5) इस एक्ट का सबसे दुर्भाग्य-पूर्ण पहलू यह रहा कि मुसलमानों का भारत में पहली बार धर्म के आधार पर अलग से प्रतिनिधित्व दिया गया अर्थात भारत में साम्प्रदायिकता का उदय हुआ।

भारत सरकार अधिनियम 1919

इस एक्ट को मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार भी कहा जाता है। संसदीय शासन प्रणाली की शुरुआत अगस्त घोषणा पत्र- स्थानीय संस्थाओं का स्वशासन की दिशा में क्रमिक विकास हेतु तथा उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिए ब्रिटिश संसद ने इस एक्ट को पारित किया जिसे मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार भी कहा जाता है। इसकी प्रस्तावना की घोषणा 20 अगस्त 1917 को मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड ने किया था। इसलिए इसे अगस्त घोषणा पत्र के नाम से भी जाना जाता है। इसकी रिपोर्ट जुलाई 1918 में प्रकाशित हुआ यह एक्ट 1919 में बना तथा इसे 1921 में क्रियान्वित किया गया इसके महत्त्वपूर्ण विशेषताएं निम्न है-

(1) केंद्रीय विधान मंडल को द्वि सदनात्मक बनाया गया अर्थात केंद्र में दो सदन की स्थापना की गयी निम्न सदन को विधान सभा कहा गया जिसमें कुल 145 सदस्य थे तथा उच्च सदन को राज्य परिषद् कहा गया जिस में कुल 60 सदस्य थे।

(2) इस एक्ट के द्वारा केंद्रीय सूची व प्रांतीय सूची का निर्माण किया गया केंद्रीय सूची पर क़ानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार को प्राप्त था तथा प्रांतीय सूची पर कानून बनाने का अधिकार प्रान्त की सरकार को प्राप्त था।

(3) इसके द्वारा प्रान्तों में द्वैद्ध शासन प्रणाली लागू की गयी। द्वैध शासन का अर्थ दोहरा सरकार या दो सरकारों द्वारा किया जाने वाला विषयों को आरक्षित तथा हस्तांतरित दो भागो में बांटा गया आरक्षित भाग के अंतर्गत ऐसे विषय रखे गये जो अधिक महत्वपूर्ण थे जैसे [वित्त पुलिस कारागार आदि] तथा जिस पर क़ानून बनाने का अधिकार गवर्नर और उसकी कार्यकारिणी के सदस्यों को प्राप्त था [हस्तांतरित भाग के अंतर्गत ऐसे विषय रखे गये जो कम महत्व के थे और जिस पर क़ानून बनाने के अधिकार भारतीय मंत्रियों को था।] मंत्रियों द्वारा बनाये हुए क़ानून पर गवर्नर का हस्ताक्षर आवश्यक था। आवश्यकता पड़ने पर गवर्नर वीटो भी कर देता था। इस भाग के अंतर्गत स्थानीय स्वशासन, शिक्षा, सड़क आदि जैसे विषय रखे गये थे।

(4) इस एक्ट द्वारा यह माना जा सकता है कि आंशिक प्रांतीय स्वायत्तता की नींव पड़ी

(5) प्रांतीय विधायिकाओं के सदस्य जनता के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से चुनकर आने लगे अर्थात भारत प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली की शुरुआत हुई।

(6) साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व का विस्तार किया गया मुसलमान के साथ-साथ सिक्खों को भी अलग से प्रतिनिधित्व दिया गया।

(7) इस एक्ट द्वारा भारत के लिए एक हाई कमिश्नर या उच्चायुक्त की नियुक्ति की प्रावधान किया गया।

(8) इसी एक्ट (1919) द्वारा एक लोक सेवा आयोग का गठन का प्रावधान किया गया तथा एक महालेखाकार एवं लोकलेखा समिति का भी गठन किया गया।

इसमें यह प्रावधान किया गया कि इस एक्ट के 10 वर्ष बाद एक संवैधानिक आयोग का गठन किया जाएगा जो कि इस बात का पता लगायेगा की भारत में शिक्षा का प्रसार कहाँ तक हुआ तथा स्थानीय स्वशासन का विकास कहाँ तक हुआ है। इसी की जांच करने के लिए सन् 1927 में एक साइमन कमीशन का गठन किया गया जिसके 7 सदस्य अंग्रेज थे। 3 फरवरी 1928 को साइमन कमीशन भारत आया इसने अपनी रिपोर्ट 1930 के गोलमेज सम्मलेन में रखी।

इस आयोग में कोई भी सदस्य भारतीय नहीं था; फलतः भारत के सभी राजनीतिक दलों ने इस कमीशन का बहिष्कार किया। आयोग की रिपोर्ट से यह स्पष्ट था कि वह भारत में उत्तरदायी केन्द्रीय सरकार की स्थापना के विरुद्ध था।

आयोग की रिपोर्ट श्वेत पत्र (white paper) में उल्लेखित सुधारों पर विचार करने के लिए उसे संसद की सेलेक्ट समिति को सौंप दिया गया। इस समिति के सुझावों के आधार पर ब्रिटिश संसद में एक विधेयक लाया गया जो पारित होकर 1935 का भारत सरकार अधिनियम कहलाया।

मांटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार के दोष सन् 1919 का अधिनियम भारतीय नेताओं की उत्तरदायी सरकार की मांग को पूरा न कर सका। नेताओं ने पूर्ण स्वराज की मांग की और आन्दोलन बढता ही गया। अतः द्वैध शासन असफल रहा।

 

LECTURE – 1

वैकल्पिक प्रश्न

 
  1. कोर्ट ऑफ डायरेक्टर का गठन किस एक्ट के द्वारा किया गया था?

(a) रेग्युलेटिंग एक्ट 1773

(b) भारत सरकार अधिनियम 1858

(c) 1726 का राजलेख (चार्टर) अधिनियम

(d) पिट्स इण्डिया एक्ट 1784

 
  1. बोर्ड ऑफ कन्ट्रोल का गठन किस एक्ट के द्वारा किया गया था?

(a) 1833 का चार्टर एक्ट

(b) 1726 का चार्टर एक्ट

(c) पिट्स इण्डिया एक्ट 1784

(d) एक्ट ऑफ सेटेलमेंट 1781

 
  1. निम्न में से किसने इसाई मिश्नरियों के द्वारा किये जाने वाले धर्म परिवर्तन का विरोध किया था?

(a) लार्ड विलियम बैंटिंग

(b) पामस्टर्न

(c) महात्मा गाँधी

(d) दयानन्द सरस्वती

 
  1. निम्न में से किस एक्ट द्वारा ‘कोर्ट ऑफ डायरेक्टर’ को समाप्त कर दिया गया?

(a) भारत सरकार अधिनियम 1858

(b) 1853 का चार्टर एक्ट

(c) 1813 का चार्टर एक्ट

(d) 1784 का पिट्स इण्डिया एक्ट

 
  1. निम्न में से किस एक्ट द्वारा कम्पनी के एकाधिकार को समाप्त कर दिया गया?

(a) 1813 का चार्टर एक्ट

(b) 1784 का पिट्स इण्डिया एक्ट

(c) भारत सरकार अधिनियम 1858

(d) 1853 का चार्टर एक्ट

 
  1. निम्न में से किस एक्ट द्वारा भारत में विधि आयोग का गठन किया गया?

(a) 1833 का चार्टर एक्ट

(b) 1813 का चार्टर एक्ट

(c) भारत सरकार अधिनियम 1858

(d) भारतीय परिषद् अधिनियम 1909

 
  1. निम्न में से किस अधिनियम द्वारा भारत में प्रतियोगी परीक्षाओं का आयोजन किया गया?

(a) 1853 का चार्टर एक्ट

(b) भारत सरकार अधिनियम 1858

(c) भारतीय परिषद् अधिनियम 1892

(d) भारतीय परिषद् अधिनियम 1861

 
  1. भारतीय परिषद् अधिनियम 1909 को निम्न में से किस अन्य नाम से जाना जाता है?

(a) मोंटेग्यू चेम्सफोर्ड सुधार

(b) मार्ले- मिन्टों सुधार

(c) समाज सुधार

(d) इसमें से कोई नहीं

 
  1. निम्न में से किस अधिनियम द्वारा “बांटो और राज करो” की नीति को आगे बढ़ाया गया था?

(a) भारत सरकार अधिनियम 1858

(b) भारतीय परिषद् अधिनियम 1892

(c) भारतीय परिषद् अधिनियम 1909

(d) उपरोक्त में से कोई नहीं

 
  1. निम्न में से किस अधिनियम द्वारा भारतीयों को वार्षिक बजट पर बहस करने का अधिकार प्राप्त हुआ?

(a) भारतीय परिषद् अधिनियम 1892

(b) भारतीय परिषद् अधिनियम 1861

(c) भारतीय परिषद् अधिनियम 1909

(d) भारतीय सरकार अधिनियम 1858

 

LECTURE – 2

मुख्य परीक्षा प्रश्न

 
  1. भारतीय संविधान की प्रकृति की व्याखा कीजिये।
 
  1. संघात्मक संविधान क्या है ? वर्णन करे I
 
  1. एकात्मक संविधान का अर्थ करे I
 
  1. भारतीय संविधान कि प्रक्रति न तो संघात्मक है और न तो एकात्मक है व्याख्या करें I
 

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LECTURE – 2

प्रस्तावना (PREAMBLE)

 

प्रश्न – 1. क्या संविधान की प्रस्तावना में केवल आदर्श ही अन्तर्निहित है? समझाइए कि किस सीमा तक ये न्यायपालिका द्वारा प्रयोग में लाये जाते हैं। कुछ निर्णीत वादों का हवाला दीजिए।

अथवा

भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्रात्मक भारतीय संविधान की प्रस्तावना और उसके उद्देश्यों तथा महत्व की विवेचना कीजिए। क्या आप कह सकते हैं कह सकते हैं कि प्रस्तावना के अनुसार भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक, पंथनिरपेक्ष एवं समाजवादी गणराज्य है?

उत्तर:             भारतीय संविधान की प्रस्तावना

हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्रात्मक पंथनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को –

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त करने के लिए तथा उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करने वाली बन्धुता बढ़ाने के लिए, के लिए दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, सम्वत् दो हजार छः विक्रमी) को एतद्द्वारा इस के संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

प्रस्तावना के उद्देश्य- उपर्युक्त उद्देशिका (प्रस्तावना) अपने निम्नलिखित उद्देश्यों को प्रकट करती है –

1. भारत को सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न लोकतंत्रात्मक समाजवादी गणराज्य बनाना है।

2. भारत के समस्त नागरिकों को निम्नलिखित प्राप्त करना है –

(क) सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय।

(ख) विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना

(ग) प्रतिष्ठा और अवसर की समता

भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न लोकतंत्रात्मक पंथनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य है –

निम्नलिखित बातो के आधार पर हम कह सकते है की भारत एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतंत्रात्मक पंथनिरपेक्ष समाजवादी गणराज्य है –

1. सम्पूर्ण प्रभुत्वसंपन्न – भारत 15 अगस्त सं 1947 से बाहरी नियंत्रण (अर्थात विदेशी सत्ता) से बिलकुल मुक्त है और अपनी आंतरिक विदेशी नीतियों को स्वयं निर्धारित करने के लिए पूर्ण रूप से स्वतंत्र है और इस प्रकार से वह आंतरिक तथा बाहरी सभी मामलो में अपनी इच्छानुसार आचरण और व्यव्हार करने के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैI

2. लोक तंत्रात्मक – देश की प्रभुसत्ता अब भारत की जनता में निहित है और देश में जनता के लिए जनता की सर्कार कायम है इस बात के साबुत में हम देखते है की हर पांचवे साल भारत में आम चुनाव होते है, जिनमे जनता वयस्क मताधिकार के आधार पर अपने जान प्रतिनिधियों का चुनाव करती है जो राज्यों में और केंद्र में जाकर सरकार का संचालन करते है

3. पंथनिरपेक्ष – पंथनिरपेक्ष राज्य का अर्थ यह होता है की राज्य का अपना कोई विशेष धर्म नहीं है भारत में मौजूद सभी धर्मो को पूर्ण स्वतंत्रता और समान आदर प्राप्त है और भारतीय संविधान ने इस बात को सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त व्यवस्था भी की है

4. समाजवादी – समाजवाद की कोई सुनिश्चित परिभाषा नहीं है किन्तु सर्वमान्य रूप से आर्थिक न्याय में समाजवाद की कल्पना की जाती है और समाजवादी सर्कार देश के लोगो को सामजिक आर्थिक करती के द्वारा खुशहाल बनाने का प्रयत्न करती है जिसे पूरा करने के लिए वह उत्पादन के मुख्य साधनो पर नियंत्रण स्थापित करती है

5. गणराज्य – गणराज्य से अभिप्रेत है राज्य के सर्वोच्च अधिकारी का पद वंशानुगत नहीं है बल्कि एक निश्चित अवधि के लिए निर्वाचन पर आधारित है इस दृष्टि से भारत और अमेरिका गणराज्य है क्योकि इन देशो में राज्य के सर्वोच्च अधिकारी का पद वंशानुगत नहीं है इन देशो में राष्ट्रपति जो की सर्वोच्च अधिकारी होता है उसका निश्चित अवधि के लिए निर्वाचन किया जाता है इसके विपरीत इंग्लॅण्ड गणराज्य नहीं है क्योकि वहां राजा या रानी का पद वंशानुगत होता है I

प्रस्तावना का महत्व – संविधान की प्रस्तावना का महत्व उस समय उजागर होता है जब संविधान के किसी प्रावधान की भाषा और उसका अर्थ स्पष्ट या संदिग्ध हो ऐसी स्तिथि में उसे समझने के लिए प्रस्तावना की सहायता ली जाती है।

‘इन रि के मामले’ इन रि इंडो एग्रीमेंट (AIR 1960 SC 845) में उच्चतम न्यायालय ने यह मत प्रकट किया था की उद्देशिका संविधान का अंग नहीं है भले ही उसे संविधान का प्रेरणा तत्व खा जय इसके न रहने से संविधान के मूल उद्देश्यों में कोई अंतर् नहीं पड़ता है यह न तो सर्कार को शक्ति प्रदान करता है और न ही सरकार की शक्ति को किसी प्रकार से प्रतिबंधित नियंत्रित या संकुचित ही करता है किन्तु केशवानंद भारती बनाम राज्य (AIR 1973 SC 1461) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया है की उद्देशिका संविधान का भाग है इस मामले में यह कहा गया है की उद्देशिका संविधान की आधारिक संरचना है।

क्या उद्देशिका (प्रस्तावना) में संशोधन किया जा सकता है?

यह प्रश्न पहले केशवानन्द भारती के मामले में उच्चतम न्यायालय के सामने विचार के लिए आया था। सरकार का तर्क यह था कि उद्देशिका भी संविधान का एक भाग है इसलिए संविधान के अनु० 368 भी के अन्तर्गत उसमें भी संशोधन किया जा सकता है। अपीलार्थी का यह कहना था की प्रस्तावना स्वयं संविधान की शक्ति पर विवक्षित प्रतिबन्ध है उसमे संविधान का मूलभूत ढांचा निहित है जिसको संशोधित करके नष्ट नहीं किया जा सकता है क्योकि उसमे से कुछ भी निकल दिए जाने पर संवैधानिक ढांचे का गिर जाना निश्चित है

न्यायालय ने बहुमत से निर्णय दिया की उद्देशिका संविधान का एक भाग है और उसके उस भाग में जो मूल ढांचे से सम्बंधित है को छोड़कर शेष में अनुच्छेद 368 के अंतर्गत संशोधन किया जा सकता है I

42वें संशोधन द्वारा प्रस्तावना में ‘समाजवादी पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक’ शब्दावली जोड़ी गयी है इस प्रकार संसद ने उद्देशिका में संशोधन करने की शक्ति का प्रयोग किया है। इस संशोधन द्वारा केशवानन्द भारती के मामले में दिए गए उच्चतम न्यायालय के निर्णय के प्रभाव को दूर करने के प्रयास किया गया है जिसमे यह निर्णय दिया गया था की उद्देशिका के उस भाग में जो मूल ढांचे से सम्बंधित है संशोधन नहीं किया जा सकता है किन्तु जब तक केशवनसंद भारती का निर्णय उलट नहीं दिया जाता है उद्देशिका में किये गए संशोधन को इस आधार पर चुनौती दी जा सकती है की वह उद्देशिका में निहित किसी आधारभूत ढांचे को नष्ट करता है I

मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ(AIR 1980 SC 1789) के मामले में उद्देशिका में 42 वे संशोधन को वैध करार दिया गया क्योकि इस्सर संविधान की आधारिक संरचना में परिवर्तन होता है न की न्यून I

पंथनिरपेक्ष शब्द 42वें संविधान संशोधन,1976 द्वारा जोड़ा गया इसका तात्पर्य यह है की राज्य सभी धर्मों की समान रूप से रक्षा करेगा तथा किसी भी धर्म को राज्य के धर्म के रूप में नही मानेगा।

प्रश्न – 2. क्या ‘पंथ निरपेक्षता’ संविधान का आधारभूत ढांचा (basic structure) है?

उत्तर — आर. एस. बोम्मई बनाम भारत संघ, 1994 (3) एस. सी. सी. के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया की पंथ निरपेक्षता संविधान का आधार-भूत ढाँचा है।

‘समाजवाद’ शब्द 42वें संविधान संशोधन द्वारा उद्देशिका में जोड़ा गया।

भारत में समाजवाद मिश्रित अर्थव्यवस्था पर आधारित है।

इक्सल-वियर बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1979 एस. सी. 25 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने समाजवाद के प्रभाव को स्पष्ट करते हुए यह कहा कि राष्ट्रीयकरण और राज्य स्वामित्व को महत्व देना चाहिए लेकिन समाजवाद और सामाजिक न्याय को इस सीमा तक नहीं लागू किया जा सकता है जिससे निजी स्वामित्व वाले हितों की उपेक्षा हो।

उच्चतम न्यायालय ने डी. एस. नकारा बनाम भारत संघ के वाद में धारित किया कि समाजवाद का उदेश्य दुर्बल वर्ग और श्रमिको के जीवन-स्तर को ऊँचा उठाना है और उनके लिए जन्म से मृत्यु तक सुरक्षा की गारण्टी देना है यह गाँधीवाद और मार्क्सवाद का ऐसा मिश्रण है जो गाँधीवाद की ओर झुका हुआ है।

केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य के वाद में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि विधिक सम्प्रभुता भारतीय संविधान में निवास करती है न हम के लोगों में।

संविधान की प्रकृति

(Nature of Constitution)

संविधान की प्रकृति के अनुसार लिखित संविधानो को दो वर्गो में विभाजित किया जा सकता है –

(1) परिसंघात्मक (federal) (2) एकात्मक (unitary)

एकात्मक संविधान – एकात्मक संविधान वह होता है जिसमें समस्त शक्तियाँ एक ही सरकार में निहित होती हैं जो केंद्रीय सरकार होती है तथा राज्य सरकारों को केन्द्र के अधीन रहना पड़ता है।

संघात्मक संविधान – इसके अंतर्गत केंद्र एवं राज्य में शक्तियों का विभाजन होता है।

भारतीय संविधान की प्रकृति के सम्बन्ध में विभिन्न विद्वानों के मत निम्नलिखित हैं-

प्रोफेसर के. सी. ह्वियर के अनुसार- भारतीय संविधान एक अर्द्ध–संघीय (Quasi-federal) संविधान है।

आइवर जेनिंग्स के अनुसार – भारतीय संविधान एक ऐसा संविधान है जिसमें केन्द्रीकरण की सशक्त प्रवृत्ति है।

डॉo भीमराव अम्बेडकर ने कहा है की भारतीय संविधान समय और परिस्थितियों के अनुसार एकात्मक और संघात्मक हो सकता है।

एसo आरo बोम्मई बनाम भारत संघ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि भारतीय संविधान परिसंघीय संविधान है।

संघात्मक संविधान के प्रमुख लक्षण निम्नलिखित है-

1. शक्तियों का विभाजन- संघात्मक संविधान में केंद्रीय और प्रांतीय सरकारों के मध्य शक्तियों का विभाजन होता है।

2. संविधान की सर्वोपरिता- लिखित संविधानों में सरकार के सभी अंगो का उल्लेख रहता है इसलिए परिसंघीय संविधान सर्वोच्च होता है।

3. लिखित संविधान – संघात्मक संविधान लिखित संविधान होता है। संघ और राज्य की स्थापना एक जटिल संविदा द्वारा होती है इसलिए संविधान का लिखित होना आवश्यक है।

4. संविधान की नम्यता एवं अनम्यता – संविधान की नम्यता और अनम्यता उसके संशोधन की प्रक्रिया पर आधारित होती है। जिस संविधान में सरलता से संशोधन किया जा सकता है उसे नम्य संविधान कहा जाता है तथा जिन संविधानों में सरलता से संशोधन नहीं हो सकता है उसे अनम्य संविधान कहते है।

5. स्वतंत्र न्यायपालिका- परिसंघात्मक संविधान में केंद्र और राज्य सरकारें एक दूसरे के अधिकारिता में अतिक्रमण न करे इसलिए न्यायपालिका का स्वतंत्र होना अत्यन्त आवश्यक है।

1. राज्यपालों की नियुक्ति- राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त राज्यपाल पद धारण करता है।

राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक को कुछ मामलों में राष्ट्रपति के विचार के लिए राज्यपाल सुपुर्द कर सकता है।

2. राष्ट्रहित में कानून बनाने की संसद की शक्ति- यदि राष्ट्रहित में राज्य सभा अपने सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत द्वारा यह घोषित कर दे कि राष्ट्रहित में आवश्यक है कि राज्य सूची के विषय पर संसद कानून बनाये तो संसद राज्य सूची के विषय पर कानून बना सकती है।

3. नये राज्यों के निर्माण, वर्तमान राज्य के क्षेत्रों, सीमाओं या नामों को बदलने की संसद की शक्ति- राज्यों का अस्तित्व संसद की इच्छा पर निर्भर है। वह नये राज्यों का निर्माण कर सकती है तथा वर्तमान राज्यों के क्षेत्रों तथा सीमाओं में परिवर्तन कर सकती है या उनके नामों को बदल सकती है।

4. एकल नागरिकता- अनुच्छेद 5 से 11 के अधीन रहते हुए नागरिकों को एकल नागरिकता प्राप्त है।

5. अखिल भारतीय सेवायें– राष्ट्रहित में ऐसा करना आवश्यक या समीचीन है तो राज्य सभा अपने उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई सदस्यों द्वारा संघ या राज्यों के लिए अखिल भारतीय सेवाओ के सृजन हेतु संसद को अधिकृत कर सकती है।

6. आपात-उपबंध- आपात की घोषणा का परिणाम यह होता है की सम्पूर्ण भारत के प्रशासन की शक्ति केंद्र में निहित हो जाती है। आपातकाल तीन प्रकार का होता है-

(i) राष्ट्रीय आपात

(ii) राज्यों में सवैधानिक तंत्र की विफलता

(iii) वित्तीय आपात

संविधान निर्माता विगत कई वर्षो के अनुभवो के मद्देनजर एक दृढ एवं सशक्त केंद्रीय सरकार की स्थापना करना चाहते थे। ऐसा इसलिए था कि कही किसी व्यक्ति का उत्कर्ष राष्ट्र के उत्कर्ष में बाधक न बन जाए तथा राष्ट्र की एकता एवं अखंडता बनी रहे।

 

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बहुविकल्पीय प्रश्न पत्र

 
  1. भारत के संविधान को कितने भाग में विभाजित किया गया है?

(a) 26 भाग

(b) 22 भाग

(c) 23 भाग

(d) 24 भाग

 
  1. भारत के संविधान में राजभाषा को किस भाग में रखा गया है?

(a) भाग-15

(b) भाग-16

(c) भाग-17

(d) भाग-18

 
  1. भारतीय संविधान की छठी अनुसूची सम्बंधित है

(a) अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन से

(b) असम, मेघालय त्रिपुरा और मिजोरम के जनजाति क्षेत्रों के प्रशासन से

(c) कुछ अधिनियमों और विनियमों का विधिमान्य करण से

(d) दल परिवर्तन से

 
  1. निम्न में से किस संविधान संशोधन के द्वारा संविधान में “पंथनिरपेक्षता” शब्द को जोडा गया?

(a) 40वाँ संविधान संशोधन

(b) 42वाँ संविधान संशोधन

(c) 44 वाँ संविधान संशोधन

(d) 41 वाँ संविधान संशोधन

 
  1. नऐ राज्यों का प्रवेश या स्थापना का प्रावधान संविधान के किस अनुच्छेद में दिया गया है।

(a) अनुच्छेद 1

(b) अनुच्छेद 2

(c) अनुच्छेद 3

(d) अनुच्छेद 4

 

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LECTURE – 3

भाग 1

संघ तथा उसका राज्यक्षेत्र (Tha Union and its Territory)

(अनुच्छेद 1 से 4)

 

अनुच्छेद 1- संघ का नाम और राज्यक्षेत्र

अनुच्छेद 2- नये राज्यों का प्रवेश या स्थापना

अनुच्छेद 3- नये राज्यों का निर्माण और वर्तमान राज्यों के क्षेत्रो, सीमाओं या नामों में परिवर्तन

अनुच्छेद 4- पहली अनुसूची और चौथी अनुसूची के संशोधन तथा अनुपूरक, आनुषंगिक और परिणामिक विषयों का उपबंध करने के लिए अनुच्छेद 2 और अनुच्छेद 3 के अधीन बनायी गयी विधियाँ।

अनुच्छेद 1 के अनुसार भारत अर्थात इण्डिया राज्यों का संघ होगा। भारत का राज्यक्षेत्र निम्नलिखित तीन प्रकार के राज्यक्षेत्रो से गठित होता है-

(i) राज्यों के राज्यक्षेत्र

(ii) संघ राज्यक्षेत्र

(iii) ऐसे अन्य राज्यक्षेत्र जो अर्जित किये जाए।

वर्तमान में भारत के राज्यक्षेत्र में निम्नलिखित दो श्रेणियों के राज्य सम्मिलित है –

(1) राज्य

(2) संघ राज्यक्षेत्र

 भारत में वर्तमान में कुल 29 राज्य तथा 7 संघ राज्यक्षेत्र है।

 अभी हाल ही में भारत सरकार ने आन्ध्र प्रदेश का विभाजन करके “तेलंगाना” राज्य के गठन किया है जो भारत का 29वां राज्य है।

भारतीय संविधान के अंतर्गत संघीय व्यवस्था को अपनाया गया है। संघ (Union) से राज्य स्थायी रूप से जुड़े होते है। इस व्यस्था में केंद्र राज्यों की उपेक्षा सशक्त होता है। जबकि परिसंघीय (federal) व्यवस्था मंं राज्य एक समझौते के अंतर्गत संघ से जुड़े होते हैं तथा राज्य संघ की अपेक्षा अधिक सशक्त होते हैं।

संविधान की प्रथम अनुसूची में राज्यक्षेत्रो का नाम तथा उनके अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों का विवरण दिया गया है।

 भाषाई आधार पर गठित प्रथम राज्य आंध्रप्रदेश है जिसका गठन 1953 में आंध्रप्रदेश अधिनियम के द्वारा किया गया ।

 1956 में 7वां संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया गया तथा राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर किया गया।

 राज्य पुनर्गठन आयोग के अध्यक्ष न्यायमूर्ति सैयद फजल अली थे एवं हृदयनाथ कुंजरू और के. एम. पणिक्कर सदस्य थे ।

 राज्यों एवं संघ राज्य क्षेत्रो की सूची

 69वें संविधान संशोधन अधिनियम,1991 द्वारा दिल्ली को “राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली” के नाम से संघ शासित राज्य बनाया है।

 केंद्र सरकार ने आंध्रप्रदेश का विभाजन करके “तेलंगाना” नामक राज्य के गठन की घोषण की है। इसे मिलाकर अब कुल 29 राज्य हो जायेंगे।

 अनुच्छेद 2 नये राज्यों के प्रवेश तथा स्थापना से संबंधित है। अनुच्छेद 2 के अनुसार संसद विधि द्वारा, ऐसे निबंधनो और शर्तो पर जो वह ठीक समझे, भारत संघ में नये राज्यों का प्रवेश या उनकी या उनकी स्थापना कर सकेगी।

 1974-75 में सिक्किम को भारत-संघ में नये राज्य क रूप में जोड़ा गया।

(क) किसी राज्य में से उसका राज्यक्षेत्र अलग करके अथवा दो या अधिक राज्यों को या राज्यों के भागों को मिलाकर अथवा किसी राज्यक्षेत्र को किसी राज्य के भाग के साथ मिलाकर नये राज्य का निर्माण कर सकेगी।

(ख) किसी राज्य का क्षेत्र बढ़ा सकेगी।

(ग) किसी राज्य का क्षेत्र घटा सकेगी।

(घ) किसी राज्य की सीमाओं में परिवर्तन कर सकेगी।

(ङ) किसी राज्य के नाम में परिवर्तन कर सकेगी।

संविधान के अंतर्गत संसद राज्यों की सीमाओं तथा क्षेत्रों में उनकी सम्मति के बिना परिवर्तन कर सकती है। संसद द्वारा नये राज्यों का गठन साधारण बहुमत से विधि बना कर किया जा सकता है और वर्तमान राज्यों के सीमाओं तथा क्षेत्रों अथवा नामों में परिवर्तन किया जा सकता है। किन्तु ऐसी विधि के निर्माण के लिए निम्नलिखित पूर्व शर्तें हैं-

(1) किसी नये राज्य के गठन या वर्तमान राज्यों की सीमाओं या नामों में परिवर्तन के लिए कोई भी विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश के बिना नहीं प्रस्तुत किया जाएगा।

(2) यदि विधेयक के द्वारा किसी राज्य के क्षेत्र सीमा या नाम में परिवर्तन का प्रस्ताव अंतर्विष्ट है तो उसे राष्ट्रपति सम्बन्धित राज्य विधान मण्डल के पास उसके राय के लिए भेजेगा।

(3) राष्ट्रपति द्वारा विधेयक जिस राज्य के पास राय के लिए भेजा जाता है वह विधेयक को राष्ट्रपति द्वारा नियत अवधि के भीतर अपनी राय सहित वापस कर देगा। यदि राज्य के द्वारा ऐसा नहीं किया जाता है तो राष्ट्रपति को दो विकल्प प्राप्त है-

(i) राष्ट्रपति उक्त अवधि को बढ़ा सकता है, अथवा

(ii) विधेयक को संसद के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है।

 राज्य विधान मण्डल की राय से राष्ट्रपति बाध्य नहीं है।

अनुच्छेद 4 के अनुसार अनुच्छेद 2 एवं 3 के अंतर्गत नये राज्यों का गठन या विद्यमान राज्यों के नामों, क्षेत्रों अथवा सीमाओं में परिवर्तन के लिए यदि कोई विधि बनाई जाती है तो वह अनुच्छेद 368 के प्रयोजनों के लिए संविधान का संशोधन नहीं मानी जायेगी।

 इन री बेरुवारी यूनियन, ए.आई.आर. 1960 एस. सी. 845 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि भारत का कोई राज्यक्षेत्र किसी अन्य राष्ट्र को अंतरित करने के लिए संविधान का संशोधन करना आवश्यक है।

 

भाग 2

नागरिकता (Citizenship)

(अनुच्छेद 5 से 11)

अनुच्छेद 5- संविधान के प्रारंभ पर नागरिकता

अनुच्छेद 6- पाकिस्तान से भारत को प्रव्रजन करने वाले कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार।

अनुच्छेद 7- पाकिस्तान को प्रव्रजन करने वाले कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार।

अनुच्छेद 8- भारत के बाहर रहने वाले भारतीय उद्भव के कुछ व्यक्तियों के नागरिकता के अधिकार।

अनुच्छेद 9- विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से अर्जित करने वाले व्यक्तियों का नागरिक न होना।

अनुच्छेद 10- नागरिकता के अधिकारों का बना रहना

अनुच्छेद 11- संसद द्वारा नागरिकता के अधिकार का विधि द्वारा विनियमन किया जाना है। भारतीय संविधान में ‘नागरिकता’ शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है। एक नागरिक को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में समझा जा सकता है जो सरकार के प्रति निष्ठा रखता है तथा जो सरकार द्वारा सुरक्षा का हकदार है।

राज्य के नागरिक को सभी सिविल एवं राजनैतिक अधिकार प्राप्त होते हैं। संविधान द्वारा नागरिकों को कुछ अधिकार प्रदान किये गये हैं जो विदेशियों को नहीं प्राप्त हैं।

उदाहरणार्थ अनुच्छेदों 15, 16, 19, 29, 30 इत्यादि के अंतर्गत मूल अधिकार केवल नागरिकों को प्राप्त है। राष्ट्रपति उपराष्ट्रपति, राज्यपाल, सर्वोच्च तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों, महान्यायवादी तथा महाधिवक्ता आदि संवैधानिक पद पर केवल नागरिकों की नियुक्ति हो सकती है। संसद तथा राज्य विधान मंडलों का चुनाव केवल नागरिक लड़ सकते हैं तथा अनुच्छेद 326 के अंतर्गत मताधिकार केवल नागरिकों को प्राप्त है।

भारत का संविधान ‘एकल नागरिकता’ अर्थात भारत की नागरिकता प्रदान करता है। भारत का संविधान अमेरिका के संविधान के समान दोहरी नागरिकता को मान्यता नहीं देता है।

भारत का संविधान के प्रारंभ पर नागरिकता के सम्बन्ध में प्रावधान करता है। संविधान का अनुच्छेद 11 संसद ने इस शक्ति का प्रयोग करते हुए संविधान के प्रारम्भ के पश्चात नागरिकता की प्राप्ति तथा समाप्ति के बारे में प्रावधान करता है।

अनुच्छेद 5- संविधान के प्रारम्भ पर नागरिकता के बारे में उपबन्ध करता है। अनुच्छेद 5 के अंतर्गत नागरिकता का दावा करने वाला व्यक्ति भारत के राज्य क्षेत्र का अधिवासी होना चाहिए।

 

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LECTURE – 4

मूल अधिकार (अनुच्छेद 12 से 35)

Fundamental Rights

मुख्य प्रश्न

 
  1. मूल अधिकारों से आप क्या समझते है I
 
  1. क्या मूल अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है I
 
  1. भारतीय संविधानो के अनुच्छेद -19 मे प्रदत्त अधिकारों पर क्या राज्य निर्बन्धन लगा सकता है ? यदि हाँ तो किन आधारों पर राज्य ऐसे निर्बन्धन लगा सकता है? इसकी विवेचना किजिए।
 
  1. धर्म की स्वतन्त्रता से आप क्या समझते है ?
 
  1. उन मूल अधिकारों का उल्लेख कीजिए जो भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त या प्रत्याभूत (गारंटी) किये गये है I

 

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LECTURE – 4

मूल अधिकार (अनुच्छेद 12 से 35)

Fundamental Rights

मुख्य प्रश्न

 
  1. मूल अधिकारों से आप क्या समझते है I
 
  1. क्या मूल अधिकारों में संशोधन किया जा सकता है I
 
  1. भारतीय संविधानो के अनुच्छेद -19 मे प्रदत्त अधिकारों पर क्या राज्य निर्बन्धन लगा सकता है ? यदि हाँ तो किन आधारों पर राज्य ऐसे निर्बन्धन लगा सकता है? इसकी विवेचना किजिए।
 
  1. धर्म की स्वतन्त्रता से आप क्या समझते है ?
 
  1. उन मूल अधिकारों का उल्लेख कीजिए जो भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त या प्रत्याभूत (गारंटी) किये गये है I
   

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LECTURE – 4

मूल अधिकार (अनुच्छेद 12 से 35)

Fundamental Rights

 

मौलिक अधिकारों से सम्बन्धित प्रावधान भारतीय संविधान के भाग तीन में किया गया है। संविधान के भाग-3 में अनुच्छेद 12 से अनुच्छेद 35 तक विभिन्न मूल अधिकारों को प्रत्याभूत (Guaranteed) किया गया है।

मूल अधिकार को भारतीय संविधान में परिभाषित नहीं किया गया है। गोलकथान बनाम पंजाब राज्य, 1967 के मामले में न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने मूल अधिकारों को नैसर्गिक तथा अप्रतिदेय अधिकार माना है। न्यायमूर्ति बेग के अनुसार मूल अधिकार स्वयं संविधान में समाविष्ट अधिकार है।

 मूल अधिकार एवं साधारण अधिकारों में अंतर

मूल अधिकार साधारण अधिकारों से भिन्न होते हैं। साधारण अधिकार विधियों द्वारा प्रदत्त किये गये हैं जबकि मूल अधिकार संविधान द्वारा प्रत्याभूत किये गये हैं।

साधारण अधिकार साधारण विधियों द्वारा संक्षिप्त (abridged) कम (curtail) या रद्द (Abrogate) किये जा सकते हैं किन्तु मूल अधिकार तब तक संक्षिप्त कम या रद्द नहीं किये जा सकते हैं जब तक कि स्वयं संविधान द्वारा या संविधान संशोधन द्वारा अनुज्ञात न हो।

साधारण अधिकारों का अधित्याग (Waiver) किया जा सकता है जबकि मूल अधिकारों का अधित्याग नहीं किया जा सकता है।

साधारण अधिकारों के अतिलंघन (Infringement) होने पर साधारण विधियों के अंतर्गत उपचार की मांग की जाती है जबकि मूल अधिकारों का अतिलंघन होने पर अनुच्छेद 32 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय तथा अनुच्छेद 226 के अंतर्गत उच्च न्यायालय में उपचार के लिए समुचित रिट जारी करने की मांग की जाती है।

संविधान के भाग तीन में 6 मूल अधिकार प्रदान किये गये हैं.

44वें संविधान संशोधन के पूर्व 7 मूल अधिकार थे किन्तु इस संशोधन द्वारा सम्पत्ति का अधिकार निरसित (समाप्त) कर दिया गया।

सम्पत्ति का अधिकार अब अनुच्छेद 300-A के अंतर्गत संवैधानिक अधिकार (Const.tut.onal R.ght) है न कि मूल अधिकार।

मूल अधिकार की प्राप्ति – संविधान के भाग-3 में प्रत्याभूत मूल अधिकार सभी व्यक्तियों को प्राप्त नहीं है। इनमें से कुछ केवल नागरिकों को प्राप्त हैं तथा कुछ नागरिकों तथा गैर नागरिकों दोनों को प्राप्त है।

केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त मूल अधिकार – अनुच्छेद 15, 16, 19, 29, 30 के अंतर्गत प्रत्याभूत अधिकार है।

भारत के नागरिकों तथा गैर नागरिकों (विदेशियों) दोनों को प्राप्त मूल अधिकार- अनुच्छेद 14, 20, 21, 23, 25, 27, 28 के अंतर्गत प्रत्याभूत अधिकार,

नकारात्मक अभिव्यक्ति वाले मूल अधिकार- अनुच्छेद 14, 15(1), 16(2), 18(1), 20, 22(1) तथा 28(1) के अंतर्गत आने वाले मूल अधिकार इस श्रेणी में आते हैं।

सकारात्मक अभिव्यक्ति वाले मूल अधिकार- अनुच्छेद 29(1), 30(1), के अंतर्गत आने वाले मूल अधिकार इस श्रेणी में आते हैं.

केवल राज्य के विरुद्ध प्राप्त मूल अधिकार- अनुच्छेद 14, 15(1), 16, 18(1), 19, 20, 21, 22, 25, 26, 27, 28, 29, 30 के अंतर्गत प्रत्याभूत मूल अधिकार।

राज्य के साथ ही साथ निजी व्यक्तियों के विरुद्ध प्राप्त मूल अधिकार- अनुच्छेद 15(2), 17, 23(1), तथा 24 के अंतर्गत प्रत्याभूत आने वाले मूल अधिकार इस श्रेणी में आते हैं।

अनुच्छेद 12 मूल अधिकारों के प्रयोजन के लिए राज्य को परिभाषित करती है।

अनुच्छेद 12 में राज्य के अंतर्गत निम्नलिखित आते हैं-

(i) भारत सरकार और संसद

(ii) राज्य सरकार और विधान मंडल

(iii) सभी स्थानीय प्राधिकारी, तथा

(iv) अन्य प्राधिकारी

अभिव्यक्ति (Expression) अन्य प्राधिकारी विस्तृत अर्थ रखती है इसलिए इसका विनिश्चय करने में कुछ कठिनाइयाँ आईं।

अन्य प्राधिकारी पद के अंतर्गत वे सभी प्राधिकारी आते हैं जो संविधान या किसी परिनियम द्वारा स्थापित किये जाते हैं जिन्हें विधियाँ तथा उपविधियां बनाने का अधिकार प्राप्त है.

उच्चतम न्यायालय ने समय-समय पर अपने विभिन्न विनिश्चयों में निम्नलिखित को राज्य माना है-

1. विश्वविद्यालय – उमेश बनाम बी. एन. सिंह, ए. आई. आर. 1968 पटना 3

2. इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड – इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड, राजस्थान बनाम मदन लाल, ए. आई. आर. 1967 एस. सी. 2857

3. देवासन बोर्ड – नम्बूदरीपाद बनाम ट्रावनकोर कोचीन ए. आई. आर. 1956 सुप्रीम कोर्ट

4. को-आपरेटिव सोसाइटियां – दुखराम बनाम को-आपरेटिव एग्रीकल्चर एसोसियेशन, ए. आई. आर. 1961 मध्य भारत 289

5. उच्च न्यायलय का मुख्य न्यायाधीश (जब न्यायालय के अधिकारियों की नियुक्ति करता है) – परमात्माशरन बनाम चीफ जस्टिस, ए. आई. आर. 1961 एस. सी. 13

6. राष्ट्रपति, जब वह अनुच्छेद 359 के अंतर्गत आदेश जारी करता है – हारू भाई बनाम स्टेट ऑफ़ गुजरात, ए. आई. आर. 1967 गुजरात 229

7. सेन्ट्रल इनलैंड वाटर ट्रांसपोर्ट कोर्पोरेशन लिमिटेड – सेन्ट्रल इनलैंड वाटर ट्रांसपोर्ट कार्पोरेशन लि. बनाम ब्रेजोनाथ गांगुली, ए. आई. आर. 1986 एस. सी.

8. एन.सी.ई.आर.टी. – चन्द्र मोहन खन्ना बनाम एन.सी.ई.आर.टी., ए. आई. आर. 1992 एस. सी. 76

9. ओ.एन.जी.सी. – सुखदेव सिंह बनाम भगत राम, ए. आई. आर. 1975 एस. सी. 1331

10. भारतीय जीवन बीमा निगम – सुखदेव सिंह बनाम भगत राम (न्यायमूर्ति-मैथ्यू) 4:1

11. इंडस्ट्रियल फाइनेंस कोर्पोरेशन – सुखदेव सिंह बनाम भगत राम (कारखाना वित निगम)

12. रोड ट्रांसपोर्ट कोर्पोरेशन – मफतलाल बनाम रोड ट्रांसपोर्ट कोर्पोरेशन, ए. आई. आर. 1966 एस. सी. 1364

13. स्टेट वेयर हाउसिंग कोर्पोरेशन – एस. बी. रामन बनाम स्टेट वेयर हाउसिंग कोर्पोरेशन, ए. आई. आर. 1971 मद्रास 431

14. स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया – स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया बनाम कलपका ट्रांसपोर्ट, ए. आई. आर. 1979 बाम्बे 250

15. दामोदर वैली कोर्पोरेशन – ए. एन. मोंडल बनाम डी. वी. सी., 1974 लैब आई. सी. 821

16. इंटरनेशनल एयरपोर्ट अथारिटी – रमन दयाराम सेठी बनाम इंटरनेशनल एयरपोर्ट अथारिटी ऑफ़ इण्डिया ए. आई. आर. 1979 एस. सी. 1628

17. भारतीय कृषिशोध परिषद् – एम. ए. इलियास बनाम आई. सी. ए. आर. 1993

18. भारत संचार निगम – तरसीम सिंह बनाम भारत संचार निगम लि. ए. आई. आर. 2004 पंजाब एंड हरियाणा

19. कर्मचारी कल्याण निगम – बी. के. श्रीवास्तव बनाम उ. प्र. कर्मचारी कल्याण निगम,, ए. आई. आर. 2005 एस. सी. 411

20. पब्लिक चैरिटेबुल ट्रस्ट राज्य नहीं है – मनदीप मिश्र बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 2009 कलकत्ता 31

21. दिल्ली स्टाक एक्सचेंज राज्य नहीं हैं-

भारतीय संविधान में 6 प्रकार के मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है जो निम्नलिखित है:-

(1) समता का अधिकार (Right to Equality) (अनुच्छेद 14 से 18)

(2) स्वतन्त्रता का अधिकार (Right to Freedom) (अनुच्छेद 19 से 22)

(3) शोषण के विरुद्ध अधिकार (Right against Expliotation) (अनुच्छेद 23 और 24)

(4) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion) (अनुच्छेद 25 से 28)

(5) संस्कृत एवं शिक्षा का अधिकार (Cultural and Educat.onal Rights) (अनुच्छेद 29 से 30)

(6) संवैधानिक उपचारों का अधिकार (Right to Constitutional Remedies)

• मूल अधिकारों को सर्वप्रथम संवैधानिक दर्जा अमेरिका ने दिया।

• भारतीय संविधान में मूल अधिकार अमेरिका के संविधान से लिये गये हैं।

मूल अधिकारों के प्रवर्तन की शक्ति – जहाँ एक तरफ संविधान के भाग तीन में मूल अधिकारों की गारंटी दी गई है वहीं दूसरी तरफ उनके अतिलंघन (Infringement) होने पर अनुच्छेद 32 के अंतर्गत समुचित कार्यवाहियों द्वारा मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए उच्चतम में अभ्यावेदन करने का अधिकार प्राप्त है। उच्च न्यायालयों को भी अनुच्छेद 226 के अंतर्गत मूल अधिकारों के प्रवर्तन की शक्ति प्रदान की गई है।

अनुच्छेद 13 मूल अधिकार राज्य के विरुद्ध नागरिकों को मूल अधिकारों के संरक्षण की गारंटी देते है। यदि राज्य कोई ऐसा विधि बनाता है जो मूल अधिकारों का उल्लंघन करती है तो न्यायालय उसको शून्य घोषित कर सकती है। यह कार्य न्यायालय न्यायिक पुनर्विलोकन के द्वारा करता है जो अनुच्छेद 13 से न्यायालयों को प्राप्त होती है। इसीलिए अनुच्छेद 13 को मूल अधिकारों का प्रहरी कहा जाता है।

अनुच्छेद 13 विधायिका द्वारा बनाई गयी विधि के न्यायिक पुनर्विलोकन का प्रावधान करता है। इसके द्वारा न्यायालय संविधियों की संवैधानिकता की जांच करता है। संविधान के प्रावधानों से असंगत है। अनुच्छेद 13 के तीन उपखंड दिये गये हैं जो है अनुच्छेद 13(1), 13(2), 13(3) है।

अनुच्छेद 13(1) के अनुसार, इस संविधान के लागू होने के तत्काल पहले भारत राज्यक्षेत्र में प्रचलित सभी विधियाँ उस मात्रा तक शून्य होगी जिस तक वे इस भाग के उपबन्धों से असंगत है।

अर्थात सभी संविधानपूर्व विधियाँ जो मूल अधिकारों से असंगत है, असंगतता की सीमा तक शून्य होगी।

आच्छादन या ग्रहण का सिद्धांत (Doctrine of Eclipse)- अनुच्छेद 13 (1) – यह सिद्धांत अनुच्छेद 13 (1) पर आधारित है। संविधान के प्रवर्तन के साथ ही संविधान पूर्व प्रवृत्त ऐसी विधियाँ जो मूल अधिकारों से असंगत है, मूल अधिकारों से असंगति की सीमा तक शून्य होगी ये विधियाँ प्रारम्भ से शून्य नहीं होती बल्कि मूल अधिकारों द्वारा आच्छादित होने के कारण प्रस्तुत हो जाती है वे मृत नहीं होती है। यदि संशोधन के द्वारा ऐसी विधि को असंवैधानिक बनाने वाली असंगतता दूर कर दी जाय तो वह विधि पुनर्जीवित हो जायेगी क्योंकि मूल अधिकारों की छाया (आच्छादन) समाप्त हो जाएगी। इसे ही आच्छादन का सिद्धांत कहते हैं।

भीकाजी बनाम मध्य प्रदेश राज्य, ए. आई. आर. 1955 एस. सी. 781 के वाद में आच्छादन का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया।

पृथक्करणीयता का सिद्धांत (Doctrine of Severability) — अनुच्छेद 13(2) — पृथक्करणीयता का सिद्धांत अनुच्छेद 13(2) पर आधारित है। अनुच्छेद 13(2) के अनुसार राज्य कोई ऐसी विधि नही बनायेगा जो इस भाग दवारा प्रदत्त अधिकारों को छीनती या न्यून करती है और इस खण्ड के उल्लंघन में बनायी गयी प्रत्येक विधि उल्लंघन की मात्रा तक शून्य होगी। अर्थात् मूल अधिकारों का उल्लंघन करने वाली विधियाँ की मात्रा तक शून्य होगी सम्पूर्णतः शून्य नही होगी वरन् उसका केवल वह अंश शून्य होगा जो मूल अधिकार से असंगत है। यदि विधि का शून्य भाग शेष भाग से अधिनियम के मूल उद्देश्य को प्रभावित किये बिना पृथक किया जा सकता हो तो विधि का शेष अंश प्रवर्तन में बना रहेगा अर्थात केवल असंगत भाग शून्य होगा शेष वैध बना रहेगा।

बम्बई राज्य बनाम बलसारा, ए.आई.आर 1951 एस.सी. 318, के मामले में बम्बई प्रांत मघ निषेध अधिनियम, 1949 के कुछ उपबन्धों को अंसवैधानिक घोषित कर दिया गया किन्तु शेष अधिनियम वैध बना रहा।

अनुच्छेद 13(3) के अनुसार- विधि शब्द के अंतर्गत कोई अध्यादेश, आदेश, उपविधि, नियम, अधिसूचना, रुढ़ियाँ तथा प्रथाएं सम्मिलित है।

गोलकनाथ में मामले में दिए गए निर्णय का परिणाम यह हुआ कि राज्य संविधान संशोधन द्वारा मूल अधिकारों को कम नही कर सकती थी।

उक्त निर्णय के प्रभाव को दूर करने के लिए 24वां संविधान संशोधन अधिनियम पारित किया गया तथा अनुच्छेद 13 में कण्ड (4) जोड़कर यह उपबंधित किया गया कि इस अनुच्छेद की कोई बात अनुच्छेद 368 के अंतर्गत किये गये संविधान संशोधन को लागू नही होगी। अर्थात् संशोधन भी अनुच्छेद 13 में प्रयुक्त विधि शब्द के अर्थान्तर्गत विधि है अतः यदि वह मूल अधिकारों को छीनता या न्यून करता है तो शून्य होगा।

केशबानन्द भारती बनाम केरल राज्य, ए.आई.आर. 1973 एस.सी 1461 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने गोलकनाथ मामले में दिए गये अपने विनिश्चय को उलट दिया तथा 24वें संविधान संशोधन अधिनियम को वैध घोषित किया।

उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संसद को मूल अधिकारों सहित संविधान में संशोधन करने की शक्ति है किन्तु वह शक्ति असीमित नही है उससे संविधान का मूलभूत ढांचा नष्ट नही होना चाहिए।

केशवान्नद भारती के निर्णय के पश्चात् संसद ने 42वां सविधान संशोधन पारित किया तथा उपबंधित किया कि संसद की संशोधन शक्ति असीमित एवं अनिर्बन्धित है और संविधान के किसी संशोधन की विधिमान्य को किसी भी न्यायालय में चुनौती नही दी जा सकती है।

मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ, ए.आई.आर. 1980 एस.सी. 1789 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने 42वें संविधान द्वारा अनुच्छेद 368 में जोडे गये खण्ड (4) एवं (5) को असंवैधानिक घोषित कर दिया।

अधित्याग का सिद्धांत (सर्वप्रथम बेहराम खुर्शीद बनाम बाम्बे राज्य, ए.आई,आर. 1955 एस.सी. 146 के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से अपने मूल अधिकार का अधित्याग नही कर सकता है। संविधान में मूल अधिकारों को केवल व्यक्ति विशेष के लाभ के लिए नही बल्कि सार्वजनिक लाभ के लिए लोकनीति के आधार पर समाविष्ट किया गया है। अतः इसका अधित्याग नही किया जा सकता है।

विशेषरनाथ बनाम इन्कम टैक्स कमिश्नर के मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने अपने उपर्युक्त मामले में दिये गये निर्णय की पुष्टी किया।

संविधान के अंतर्गत निम्नलिखित 6 मूल अधिकार प्रदान किये गये है।

(I) समता का अधिकार (Right to Euqality) (अनुच्छेद 14 से 18)

(II) स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) (अनुच्छेद 19 से 22)

(III) शेषण के विरुद्ध अधिकार (Right against Exploitation) (अनुच्छेद 23 से 24)

(IV) धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Freedom of Religion) (अनुच्छेद 29 से 30)

(V) संस्कृति एवं शिक्षा का अधिकार (Cultural and Educational Rights) (अनुच्छेद 29 से 30)

(VI) (Right to constitution Remedius) (अनुच्छेद 32 से 35)

समता का अधिकार (Right to Euqality) (अनुच्छेद 14-18)

समता का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 में उपबंधित किया गया है प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त है।

अनुच्छेद 14 के अनुसार “राज्य” भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नही करेगा।

अनुच्छेद 14 में प्रयुक्त पदावलियां “विधि के समक्ष समता” एवं “विधियों का समान संरक्षण” क्रमशः ब्रिटिश तथा अमेरिका के संविधानों ले ली गयी है।

इन दोनो पदावलियों में विधि के शासन तथा समान न्याय की अवधारणाएं अंतर्निहित है।

विधि के समक्ष समता (Equality before law) की अवधारणा निषेधात्मक है तथा यह सुनिश्चित करती है कि विधि के समक्ष सभी है तथा कोई भी व्यक्ति विधि से ऊपर नही है। यह किसी व्यक्ति के पक्ष में किसी विशेषधिकार का अभाव अंतर्निहित करती है। सभी व्यक्ति समान रुप से देश की साधारण विधि के अधीन है। और कोई भी व्यक्ति, चाहे उसका जो भी पद या सामाजिक स्थिति हो, विधि के ऊपर नही है, किन्तु यह आत्यन्तिक नियम नही है, इसके अनेक अपवाद है।

यह डायसी के “विधि का शासन” सिद्धांत के दूसरे अर्थ के समान है।

विधियों का समान संरक्षण (Equal Protection of Law) का तात्पर्य है कि “समान लोगों में विधि समान रुप से प्रंशासित की जायेगी अर्थात् समान लोगों के साथ समान व्यवहार किया जायेगा।

अर्थात् विधि द्वारा प्रदत्त विशेषाधिकारों तथा अधिरोपित कर्तव्यों (दायित्वों) के सम्बन्ध में समान परिस्थितियों में समान व्यवहार किया जाना चाहिए।

यह एक सकारात्मक अवधारणा है

 अनुच्छेद 14 में समता के सामान्य नियम प्रावधानित है तथा अनुच्छेद 15, 16, 17, 18 उक्त सामान्य नियम के विशिष्ट उदाहरण है। अर्थात् यदि अनुच्छेद 15, 16, 17 एवं 18 का उल्लंघन किया जाता है तो उससे अनुच्छेद 14 का भी उल्लंघन स्वयमेव होगा।

 अनुच्छेद 14 सभी व्यक्तियों पर समान रुप से लागू होता है। चाहे वह नागरिक हो या अनागरिक प्राकृतिक व्यक्ति या कृत्रिम व्यक्ति जैसे निगम।

 अनुच्छेद 14 के प्रावधान संविधान का आधारभूत ढांचा है इन्हें संशोधन द्वारा नष्ट नही किया जा सकता है

 अनुच्छेद 14 में नैसर्गिक न्याय (Natural Justice) का सिद्धान्त अंतनिहित है।

 मूल अधिकार आत्यन्तिक अधिकार (Absolute Right) नही है इनके ऊपर लोकहित में युक्तियुक्त निर्बन्धन (Reasonable Restriction) लगाये जा सकते है।

समता के नियम निरपेक्ष तथा अपवाद रहित नही है जैसे विदेश कूटनीतिज्ञ न्यायालयों की अधिकारिता से मुक्त है। अनुच्छेद 361 के अंतर्गत भारत के राष्ट्रपति तथा राज्यों के राज्यपालों को उन्मुक्ति प्राप्त है तथा लोक प्राधिकारी तथा न्यायालयों के न्यायाधीश को भी विशेष उन्मुक्तियाँ प्राप्त है।

 अनुच्छेद 14 वर्गीकरण की अनुमति देता है, किन्तु वर्गविधान का निषेध करता है, उच्चतम न्यायालय ने अपने अनेक निर्णयों में यह माना है कि राज्य को सामाजिक व्यवस्था को समुचित ढंग से चलाने के लिए अनुच्छेद 14 के अंतर्गत वर्गीकरण की शक्ति है।

 अनुच्छेद 14 तब लागू होता है जब समान परिस्थिति वाले व्यक्तियों के साथ आसमान व्यवहार किया जाता है यद्यपि इसके लिए युक्तियुक्त आधार नही है।

 अनुच्छेद 14 वर्गीकरण की अनुमति देता है वर्गीकरण युक्तियुक्त (Reasonable) होना चाहिए मनमाना नही अन्यथा वर्गीकरण असंवैधानिक होगा।

काठी रेनिंग बनाम स्टेट ऑफ सौराष्ट्र, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 123 (136) के मामले में वर्गीकरण को युक्तियुक्त के लिए उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित दो शर्तों का पूरा होना आवश्यक मानाः-

(1) वर्गीकरण एक बोधगम्य अन्तरक (Intelligible differentia) पर आधारित होना चाहिए जो एक वर्ग में शामिल किये गये व्यक्तियों तथा वस्तुओं तथा उसके बाहर रखे गये व्यक्तियों तथा वस्तुओं में विभेद करता हो,

(2) अन्तरक और उस उद्देश्य में तर्कसगत सम्बन्ध हो।

 ई.पी.रोयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य, ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 597 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने युक्तियुक्त वर्गीकरण पर आधारित समता की पारम्परिक अवधारणा को अस्वीकृत करते हुए एक नवीन दृष्टिकोण अपनाया न्यायमूर्ति श्री भगवती ने सम्प्रेषित किया कि—

समता एक गतिशीलता अवधारणा है जिसके अनेक रुप एवं आयाम है और इसको परम्परागत एव सिद्धांतवाद की सीमाओं में नही बाँधा जा सकता है। वस्तुतः समानता और मनमानापन एक दूसरे के कट्टर शत्रु है। जहाँ कोई कार्य मनमाना होता है, वहाँ असमानता आवश्यक रुप से होगी। और वहाँ अनुच्छेद 14 का उल्लंघन होगा।

 मिट्ठू सिंह बनाम पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 473 इस मामले में भारतीय दंड संहिता की धारा 302 को न्यायालय ने इस आधार पर असंवैधानिक घोषित कर दिया गया कि मृत्यु दंड देने के मामले में दो प्रकार के अपराधियों के मध्य किया गया वर्गीकरण मनमाना है क्योकि यह किसी तर्कसंगत सिद्धांत पर आधारित नही है।

 रणधीर सिंह बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1982 एस. सी. 879 इस मामले में न्यायालय ने धारित किया कि “समान कार्य के लिए समान वेतन” यद्यपि एक मूल अधिकार नहीं है किन्तु अनुच्छेद 14, 16 तथा 39 ग के अधीन निश्चित रूप से एक संवैधानिक लक्ष्य है तथा बिना किसी ठोस आधार के दो व्यक्तियों के मध्य विभेद अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण है।

 जान वालामटोम बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 2003 एस. सी. 2902 इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह धारित किया कि उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 की धारा 118 विभेदकारी है एवं अनुच्छेद 14 का अतिक्रमण करती है।

 जावेद बनाम हरियाणा राज्य, ए. आई. आर. 2003 एस. सी. 3057 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि हरियाणा राज्य के द्वारा पंचायत राज अधिनियम में यह उपबन्ध किया जाना कि दो से अधिक बच्चों वाले व्यक्ति सरपंच या उपसरपंच का चुनाव नहीं लड़ सकते हैं, वैध है क्योंकि इससे परिवार नियोजन को बढ़ावा मिलता है।

 एयर इंडिया बनाम नरगिस मिर्जा, ए. आई. आर. 1981 एस. सी. 1829 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एयर इण्डिया तथा इण्डियन एयर लाइंस द्वारा विमान परिचारिकाओं की सेवा शर्तें विनियमित करने वाले नियमों को अयुक्तियुक्त, विभेदकारी एवं अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करने वाला मानते हुए असंवैधानिक घोषित कर दिया।

 डी. एस. नकारा बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1983 एस. सी. 130 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने सेन्ट्रल सर्विसेज (पेंशन) रूल्स, 1972 को उच्चतम न्यायालय ने इस आधार पर अविधिमान्य ठहराया कि उसके द्वारा एक निश्चित तिथि के पूर्व सेवा निवृत्त होने वाले तथा उसके पश्चात सेवा निवृत्त होने वाले पेंशन भोगियों के मध्य किया गया वर्गीकरण मनमाना एवं अयुक्तियुक्त है।

 इन री स्पेशल कोर्ट विल, ए. आई. आर. 1979 एस. सी. 478 के मामले में न्यायालय ने धारित किया कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 के अंतर्गत संसद को विशेष न्यायालयों की स्थापना की शक्ति प्राप्त है। यह प्रावधान अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं करता है।

 चिरंजीत लाल बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1951 एस. सी. 41 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि एक व्यक्ति भी वर्ग माना जा सकता है, तथा युक्तियुक्त वर्गीकरण करने वाला अधिनियम केवल इस आधार पर अवैध नहीं होगा कि जिस वर्ग को वह लागू होता है, उसके अंतर्गत केवल एक व्यक्ति ही आता है। यदि वह किन्हीं विशेष परिस्थितियों के कारण एक व्यक्ति को लागू होता है दूसरे व्यक्तियों को नहीं लागू होता है तो उस एक व्यक्ति को ही वर्ग माना जा सकता है।

 ए. के. क्रेपक बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि नैसर्गिक न्याय के उद्देश्यों के लिए अर्द्धन्यायिक एवं प्रशासनिक कार्यों में कोई भेद नहीं है। दोनों का उद्देश्य न्याय करना है तथा उन दोंनों कार्यों में नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत लागू होगा।

प्रत्येक व्यक्ति अपनी क्षमता कार्यकुशलता, उपलब्धियों चरित्र तथा व्यक्तिव में भिन्न होते हैं। पद तथा स्थान की अपेक्षाओं में भी भिन्नता होती है। अत: पूर्ण समानता न तो सम्भव है और न ही वांछनीय है।

युक्तियुक्त वर्गीकरण उपरोक्त कारणों से ही आवश्यक है। युक्तियुक्त वर्गीकरण समानता का उल्लंघन नहीं करता है। समानता का तात्पर्य व्यवहार में समरूपता नहीं है।

वर्गीकरण की युक्तियुक्तता के लिए यह आवश्यक है कि वह निरंकुश, अतार्किक एवं काल्पनिक न हो। वर्गीकरण के निम्नलिखित आधार हो सकते हैं-

(i) भाषा तथा संस्कृति

(ii) वृत्तिक आधार

(iii) भौगोलिक आधार

(iv) आयु तथा लिंग

(v) अन्य सुसंगत बातें

वर्ग विधान एक अतार्किक एवं निरंकुश भेदभाव (discrimination) है अत: अनुच्छेद 14 वर्ग विधान का निषेध करता है। वर्ग विधान समता के सिद्धांत का उल्लंघन करता है अत: निरंकुश है तथा अनुच्छेद 14 के विरुद्ध है।

 डेनियल लतीफी बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 2002 एस. सी. 3958 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 3 एवं 4, जिसमें इद्दत के पश्चात भी भरण-पोषण प्राप्त करने का हक़ प्रदान किया गया है, को विधिमान्य घोषित किया गया तथा धार्मिक किया गया कि यह धारा अनुच्छेद 14 के अंतर्गत विभेदकारी नहीं है।

 रेवाथी बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1988 एस. सी. 835 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 198(2) तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 497 को संवैधानिक घोषित किया तथा कहा कि ये धारायें लैंगिक आधार पर भेद-भाव नहीं करती हैं।

अनुच्छेद 14 में दिये गये समता के नियम के निम्नलिखित अपवाद है –

(1) अनुच्छेद 31(सी) (2) अनुच्छेद 359

(2) नवीं अनुसूची

(3) अनुच्छेद 361 के अंतर्गत राष्ट्रपति तथा राज्यपालों को प्राप्त विशेषाधिकार

(4) अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियमों के अंतर्गत अपवादित व्यक्ति

 

धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध

(Prohibition of discrimination on grounds of religion,

race, caste, sex or place of birth)

(अनुच्छेद 15)

 

अनुच्छेद 15(1) के अनुसार राज्य, किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा।

के अनुसार कोई नागरिक केवल, धर्म मूलवंश जाति, लिंग, जन्म स्थान या इनमें से किसी के आधार पर-

(क) दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश, या

(ख) पूर्ण या आंशिक रूप से राज्य निधि से पोषित या साधारण जनता के प्रयोग के लिए समर्पित कुओं, तालाबो, स्नानघाटों, सड़कों और सार्वजनिक समागम के स्थानों के उपयोग के सम्बन्ध में किसी भी निर्योग्यता, दायित्व, निर्बन्धन या शर्त के अधीन नहीं होगा।

• अनुच्छेद 15 एवं 15(2) के निम्नलिखित अपवाद, अनुच्छेद 15(3), 15(4), 15(5) में दिए गये हैं जो निम्नलिखित हैं – (1) अनुच्छेद 15(1) तथा 15(2) में दिये गये सामान्य नियम का प्रथम अपवाद अनुच्छेद 15(3) में दिया गया है जो इस प्रकार है- “इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को स्त्रियों तथा बालकों के लिए कोई विशेष उपबन्ध करने से निवारित नहीं करेगी। अर्थात राज्य स्त्रियों तथा बालकों के सम्बन्ध में विशेष उपबन्ध कर सकता है।

(2) अनुच्छेद 15(1) एवं 15(2) के सामान्य नियम का दूसरा अपवाद अनुच्छेद 15(4) प्रस्तुत करता है।

अनुच्छेद 15(4) संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा संविधान में जोड़ा गया।

 मद्रास राज्य बनाम चम्पाकम दोराई राजन, ए. आई. आर. 1952 एस. सी. 226 के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय के परिणामस्वरूप अनुच्छेद 15(4) संविधान में जोड़ा गया।

ऐसा इसलिए किया गया कि समाज के पिछड़े वर्गों के लिए विशेष उपबन्ध बनाने में अनुच्छेद 15(1) बाधक था।

अनुच्छेद 15(4) यह उपबन्ध करता है कि सामाजिक और शैक्षिणिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के वर्गों के लिए अथवा अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों की उन्नति के लिए कोई विशेष उपबन्ध करने से राज्य को यह अनुच्छेद तथा अनुच्छेद 29(2) नहीं रोकेगा।

अपवाद- अनुच्छेद 15(5) – संविधान के 93वें संशोधन अधिनियम, 2005 द्वारा अनुच्छेद 15(5) जोड़ा गया। इसके द्वारा यह उपबंधित किया गया है कि इस अनुच्छेद की कोई बात या अनुच्छेद 19 के खण्ड (1) के उपखण्ड (छ) राज्य को नागरिकों के किसी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए जहाँ तक ऐसे विशेष उपबन्ध उनके शिक्षा संस्थाओं में प्रवेश से सम्बन्धित है जिसके अंतर्गत प्राइवेट संस्थाएं हैं, चाहे राज्य द्वारा सहायता प्राप्त हो या बिना सहायता प्राप्त हो, अनुच्छेद 30 के खण्ड (1) में निर्दिष्ट अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षा संस्थाओं से भिन्न हैं, विधि द्वारा विशेष उपबन्ध करने से निवारित नहीं करेगी।

अर्थात सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों तथा अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों की उन्नति के लिए उन्हें ऐसे शैक्षणिक संस्थानों में जिनमें प्राइवेट संस्थाएं भी सम्मिलित हैं। प्रवेश देने के लिए विशेष उपबन्ध करने से राज्य को अनुच्छेद 15 तथा 19(1)(छ) निवारित नहीं करेगा। ऐसी संस्थाएं चाहे राज्य निधि से सहायता प्राप्त करती हो या नहीं करती हो।

इस नियम का एक अपवाद अनुच्छेद 30 के खण्ड (1) में निर्दिष्ट अल्पसंख्यक वर्ग की शिक्षा संस्थाएं हैं।

 अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ, एस. सी. 2008 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने उच्च शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण का प्रावधान करने वाले संविधान के 93वें संशोधन अधिनियम, 2005 को विधिमान्य घोषित किया।

 अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ, एस. सी. 2008 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने उच्च शिक्षण संस्थानों में अन्य पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण का प्रावधान करने वाले संविधान के 93वें संशोधन अधिनियम, 2005 को विधिमान्य घोषित किया।

भारतीय संविधान सामाजिक एवं शैक्षणिक पिछड़ेपन के आधार पर पिछड़ेपन की अवधारणा का उपबन्ध करता है। इसे अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) में प्रावधानित किया गया है।

अनुच्छेद 15 (4) शिक्षण संस्थाओं में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों एवं अन्य पिछड़े, वर्गों के लिए स्थानों को आरक्षण का उपबन्ध होता है।

 इन्द्रा साहनी बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1993 एस. सी. के वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा धारित किया गया कि आरक्षण 50% से अधिक नहीं हो सकता है।

उक्त मत उच्चतम न्यायालय ने पूर्व में बालाजी बनाम मैसूर राज्य, ए. आई. आर. 1963 एस. सी. 649 के मामले में व्यक्त किया था।

इन्द्रा साहनी मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह भी धारित किया कि कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में आरक्षण 50% से अधिक हो सकता है किन्तु ऐसा करते समय विशेष सावधानी बरतना अपेक्षित होगा।

 डाक्टर नीलिमा बनाम डीन पोस्ट ग्रेजुएट स्टडीज एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी, आंध्र प्रदेश, ए. आई. आर. 1993 ए. पी. 229 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णित किया कि यदि एक उच्च जाति की लड़की अनुसूचित जनजाति के लड़के से विवाह कर लेती है तो उसे अनुच्छेद 15(4) के अंतर्गत अनुसूचित जनजाति के व्यक्तियों को मिलने वाला आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।

 बालसम्मा पाल बनाम कोचीन विश्वविद्यालय, 1996 3 एस. सी. सी. 545 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि यदि उच्च जाति की लड़की पिछड़ी जाति के लड़के से विवाह कर लेती है तो उसे अनुच्छेद 15(4) एवं अनुच्छेद 16(4) के अंतर्गत पिछड़े वर्ग के व्यक्तियों को मिलने वाला आरक्षण का लाभ नहीं मिलेगा।

 मीरा कनवरिया बनाम सुनीता, ए. आई. आर. 2006 एस. सी. 597 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि एक उच्च जाति का पुरुष एक अनुसूचित जाति की महिला से विवाह कर लेने से अनुच्छेद 15(4) एवं 16(4) के अंतर्गत आरक्षण का हकदार नहीं हो जाता है।

• लोक सेवाओं में अवसर की समता (Equality of opportunity in matters of public employment) (अनुच्छेद 16)

अनुच्छेद 16(1) के अनुसार राज्य के अधीन किसी पद पर नियुक्ति या नियोजन से सम्बन्धित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समता होगी।

अनुच्छेद 16(2) के अनुसार राज्य के अधीन किसी नियोजन या पद के सम्बन्ध में केवल धर्म, मूलवंश , जाति, लिंग, उद्भव, जन्मस्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर न तो कोई नागरिक अपात्र होगा और न उससे विभेद किया जाएगा। अत: राज्याधीन सेवाओं में नियोजन या नियुक्ति से सम्बन्धित समता के अनुच्छेद 16(1) तथा 16(2) में सामान्य नियम दिये गये हैं।

अपवाद- समता के उक्त नियम के तीन अपवाद दिये गये हैं जो क्रमश: अनुच्छेद 16(3), (4), (4क) तथा (5) में दिये गये है-

अनुच्छेद 16(3) के अंतर्गत संसद को यह शक्ति प्राप्त है कि वह विधि बना कर सरकारी सेवाओं में नियुक्ति के लिए उस राज्य में निवास की अर्हता निर्धारित कर सकती है।

अनुच्छेद 16(4) राज्य को यह शक्ति प्रदान करता है कि वह पिछड़े हुए नागरिकों के किसी वर्ग के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, पदों का आरक्षण कर सकता है।

अनुच्छेद 16(4) में 77वां एवं 81वां संशोधन

77वें संविधान संशोधन 1995 द्वारा अनुच्छेद 16(4क) जोड़ा गया जो अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के वर्गों के लिए सरकारी सेवाओं में प्रोन्नति में आरक्षण का प्रावधान करता है।

अनुच्छेद 16 (4क) में 85वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2001 के द्वारा पुन: संशोधन किया गया। इस संशोधन के पश्चात अनुच्छेद 16 (4क) का प्रावधान निम्नलिखित है-

इस अनुच्छेद की कोई बात राज्य को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में, जिनका प्रतिनिधित्व राज्य की राय में राज्य के अधीन सेवाओं में पर्याप्त नहीं है, राज्य के अधीन किसी सेवाओं में किसी वर्ग या वर्गों के पदों पर अनुवर्ती (Consiquencial) वरिष्ठता सहित प्रोन्नति के मामलों में आरक्षण के लिए उपबन्ध करने से निवारित नहीं करेगी।

81वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2000 द्वारा अनुच्छेद 16 में एक नया खण्ड (4ख) जोड़ा गया।

अनुच्छेद 16 (4ख) 81वां संशोधन यह उपबंधित करता है कि इस अनुच्छेद की कोई भी बात राज्य को किसी एक वर्ष में न भरी गई रिक्तियां जिसे उस वर्ष में आरक्षित किया गया था, खण्ड (4क) के अंतर्गत पृथक रिक्तियां मानी जायेंगी और उन्हें अगले वर्ष या वर्षों में भरा जायेगा। किसी ऐसे वर्ग की रिक्तियों पर उस वर्ष की रिक्तियों के साथ जिनमें उन्हें भरा जाना है 50% की सीमा के निर्धारण के लिए उस वर्ष की कुल रिक्तियों के आरक्षण पर विचार नहीं किया जायेगा।

एम. नागराज बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 2007 एस. सी. 71 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने संविधान के 77वें, 81वें, और 85वें संशोधन अधिनियम को विधिमान्य घोषित किया।

कर्नाटक राज्य बनाम के. गोविन्दप्पा, ए. आई. आर. 2009 एस. सी. 618 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने पूर्व मत को दोहराते हुए निर्णय दिया कि एकल पद पर आरक्षण नहीं हो सकता क्योंकि इसके परिणामस्वरूप आरक्षण 100% हो जाएगा जो कि असंवैधानिक है।

अनुच्छेद 16(5) के अनुसार राज्य किसी धार्मिक या साम्प्रदायिक संस्थाओं के प्रबंध के लिए विशेष धर्म या सम्प्रदाय को मानने वाले लोगों को ही नियुक्त करने सम्बन्धी प्रावधान कर सकता है।

• आरक्षण: एक सिंहावलोकन

भारत में विभिन्न वर्गों एवं समुदायों में व्याप्त गरीबी, बेरोजगारी तथा दयनीय उनकी दशा को देखते हुए तथा सबल वर्गों के सापेक्ष उन्हें प्रगति की दौड़ में शामिल कर उनके सशक्तिकरण के लिए सरकारी नौकरियों तथा शैक्षणिक एवं तकनीकी संस्थाओं में प्रवेश के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई।

 आरक्षण को संवैधानिक आधार संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा अनुच्छेद 15 (4) अंत:स्थापित कर प्रदान किया गया।

सर्वप्रथम 1922 में तमिलनाडु ने सरकारी सेवाओं में गैर ब्राह्मण जातियों के लिए आरक्षण किया।

 1932 में पूना पैक्ट द्वारा हरिजनों के लिए विधान मंडलो में आरक्षण करने पर सहमति बनी।

 अनुच्छेद 46 के अंतर्गत अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य दुर्बल वर्गों के शिक्षा एवं अर्थ सम्बन्धी हितों का संरक्षण राज्य का दायित्व है।

 अनुच्छेद 335 के अंतर्गत सेवाओं और पदों के लिए नियुक्तियां करने में, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों के दावों को, प्रशासनिक दक्षता बनाये रखते हुए ध्यान में रखा जायेगा।

 अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को केंद्रीय एवं विभिन्न प्रादेशिक सेवाओं में 1951 में 15% तथा 7.5% आरक्षण प्रदान किया गया जो कि वर्तमान में भी है। अनुच्छेद 340 के अंतर्गत राष्ट्रपति को सामाजिक रूप से पिछड़े हुए वर्गों की एवं कठिनाइयों का अन्वेक्षण करने के लिए तथा उनका पता लगाने के लिए एक आयोग गठित करने की शक्ति प्रदान की गई है।

 पिछड़ेपन के युक्तियुक्त आधार का पता लगाने के लिए 1953 में काका काले कर आयोग गठित किया गया किन्तु आयोग ऐसा करने में विफल रहा।

 1979 में जनता पार्टी की सरकार ने मण्डल आयोग का गठन किया जिसने 1980 में अपनी सिफारिशें सरकार को दी इसी के आधार पर तत्कालीन प्रधान मंत्री वी. पी. सिंह ने 1990 में केंद्रीय सेवाओं में पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण लागू करने की घोषणा की।

 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण को इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ, 1992 परि. (3) एस. सी. सी. 217 के मामले में वैध ठहराया किन्तु पिछड़े वर्गों के संपन्न तबके (Creamy Layer) को आरक्षण का लाभ न दिये जाने पर जोर दिया।

 उच्चतम न्यायालय ने कहा कि आरक्षण 50% से अधिक नहीं होना चाहिए और यह भी धारित किया कि अग्रनयन (Carry forward) वैध है।

पिछड़े वर्गों में सम्पन्न तबके (Creamy Layer) के निर्धारण के लिए रघुनंदन प्रसाद समिति गठित की गई।

 5 लाख तक वार्षिक आय होने पर व्यक्ति को क्रीमी लेयर में सम्मिलित मान कर आरक्षण के लाभ से वंचित कर दिया जायेगा।

 इन्द्रा साहनी के मामले न्यायालय ने यह भी धारित किया था कि आरक्षण केवल प्रारम्भिक नियुक्तियों में ही दिया जा सकता है प्रोन्नति (Promotion) में नहीं। संशोधन द्वारा अनुच्छेद 16 (4क) जोड़कर इस बाधा को समाप्त कर दिया गया तथा अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए प्रोन्नति में आरक्षण का मार्ग प्रशस्त किया गया।

 81वां संशोधन अधिनियम, 2000 के द्वारा अनुच्छेद 16 (4ख) जोड़कर यह उपबंधित किया गया कि आरक्षित श्रेणी की पिछली रिक्तियों को पृथक वर्ग माना जायेगा तथा इसमें आरक्षण की 50% की अधिकतम सीमा का नियम लागू नहीं होगा।

 82वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2000 द्वारा अनुच्छेद 335 में एक परन्तुक जोड़कर यह व्यवस्था की गई कि संघ या राज्य से सम्बन्धित सेवाओं या पदों के लिए होने वाली परीक्षा में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के पक्ष में अर्हता अंकों या मूल्यांकन के मापदंडों को शिथिल (कम) किया जा सकता है।

• अस्पृश्यता का अंत (Abolition of untouchability) अनुच्छेद 17

अनुच्छेद 17- अस्पृश्यता का अंत (Abolition of untouchability) – अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता का अंत करता है तथा उसका किसी भी रूप में आचरण निषिद्ध करता है। अस्पृश्यता पर आधारित किसी अयोग्यता को लागू दंडनीय अपराध बनाता है।

संसद द्वारा अनुच्छेद 17 के अधीन अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 जिसे बाद में सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम, 1955 नाम दिया गया, पारित किया। इसके पश्चात 1989 में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 पारित किया गया।

पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1982 एस. सी. 1473 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि अनुच्छेद 17 के अंतर्गत प्रत्याभूत (Guaranteed) अधिकार न केवल राज्य के विरुद्ध प्राप्त है बल्कि प्राइवेट व्यक्तियों के विरुद्ध भी प्राप्त है। इन अधिकारों का उल्लंघन रोकना राज्य का कर्तव्यों है।

अनुच्छे 18 – उपाधियों का अंत (Abolition of titles) – अनुच्छेद 18 (1) सेना एवं शिक्षा सम्बन्धी उपाधियों को छोड़कर उपाधियों को समाप्त करता है तथा राज्य द्वारा ऐसी उपाधियों का दिया जाना वर्जित करता है।

– अनुच्छेद 18 (2) यह उपबंधित करता है कि भारत का कोई भी नागरिक किसी विदेश राज्य से कोई उपाधि नहीं लेगा।

स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom) (अनुच्छेद 19-22)

अनुच्छेद 19 भारत के समस्त नागरिकों को निम्नलिखित 6 प्रकार की स्वतंत्रताएं प्रदान करता है-

(क) वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

(ख) शांतिपूर्वक एवं निरायुद्ध सम्मलेन की स्वतंत्रता

(ग) संगम या संघ (या सहकारी समिति) बनाने की स्वतंत्रता

(घ) भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतंत्रता

(ङ) भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने या बस जाने की स्वतंत्रता

(च) कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारबार करने की स्वतंत्रता।

ये स्वतंत्रताएं केवल भारतीय नागरिकों को प्राप्त हैं विदेशी व्यक्तियों को एवं कम्पनी को नहीं प्राप्त है।

अनुच्छेद 19 के अंतर्गत प्रदत्त स्वतंत्रता का अधिकार आत्यन्तिक नहीं है बल्कि यह युक्तियुक्त निर्बन्धनों के अधीन है। अनुच्छेद 19 के खण्ड (2) से (6) तक दिये गये आधारों पर राज्य इन स्वतंत्रताओं पर प्रतिबन्ध लगा सकता है।

 वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर युक्तियुक्त निर्बन्धन ही लगाये जा सकते हैं तथा निर्बन्धन युक्तियुक्त है या नहीं इस बात का अवधारण न्यायालय द्वारा किया जायेगा।

 वाक् एवं अभिव्यक्ति पर निम्नलिखित वाद

 रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य, ए. आई. आर. 1950 एस. सी. 124 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि विचारों के प्रसार की स्वतंत्रता वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अंतर्गत आता है।

 विजोय इमैनुअल बनाम केरल राज्य, (1986) 3 एस. मी. सी. 615 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में चुप रहने की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है। इस मामले में तीन बच्चों को राष्ट्रगान न गाने के कारण स्कूल से निकाल दिया गया था न्यायालय ने उनका निष्कासन अवैध माना क्योंकि उनके धार्मिक विश्वास के अनुसार सिवाय अपने ईश्वर की प्रार्थना के सिवाय किसी अन्य की प्रार्थना करने की मनाही थी।

 सांकल पेपर्स लिमिटेड बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1962 एस. सी. 305 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि भाषण की स्वतंत्रता में प्रेस की स्वतंत्रता भी शामिल है क्योंकि समाचार विचारों को अभिव्यक्त करने के एक माध्यम हैं।

 एस. पी. गुप्ता और अन्य बनाम भारत का राष्ट्रपति और अन्य, ए. आई. आर. 1982 एस. सी. 14 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में जानने का अधिकार भी सम्मिलित है।

 प्रभुदत्त बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1982 एस. सी. 6 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि प्रेस की स्वतंत्रता में सूचनाओं तथा समाचारों को जानने का अधिकार भी सम्मिलित है।

 भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी बनाम भारत कुमार एवं अन्य, ए. आई. आर. 1978 एस. सी. 184 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि राजनीतिक दलों द्वारा बंद का आह्वाहन एवं आयोजन असंवैधानिक है एवं अनुच्छेद 19 के अंतर्गत मूल अधिकारों की श्रेणी में नहीं आता है।

 भारत संघ बनाम नवीन जिंदल, ए. आई. आर. 2004 एस. सी. 1559 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि अपने मकान पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार अनुच्छेद 19(1) (क) में प्रत्याभूत एक मूल अधिकार है।

 ओ. के. घोष बनाम ई. एक्स. जोसेफ, ए. आई. आर. 1973 एस. सी. 812 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि हड़ताल करने का अधिकार अनुच्छेद 19(1) (क) के अंतर्गत मूल अधिकार नहीं है।

 अजय गोस्वामी बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 2007 एस. सी. 493 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णीत किया कि किशोरों की निर्दोषिता को बचाने हेतु अश्लील सामग्री के प्रकाशन पर पूर्ण प्रतिबन्ध नहीं लगाया जा सकता है।

 पीपुल्स यूनियन फार सिविल लिबर्टीज बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 2004 एस. सी. 2112 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि मतदाता का सूचना का अधिकार अनुच्छेद 19 के अंतर्गत एक मूल अधिकार है। मतदाता किसी भी प्रत्याशी का पूर्ववृत्त (Antecedent), आय का ब्यौरा, ऋण एवं शैक्षिक योग्यता आदि के बारे में जानकारी रखने का अधिकार रखता है अत: नामांकन पत्र भरते समय उक्त बातों की सूचनाएं देना प्रत्याशियों के लिए अनिवार्य बना दिया गया है।

वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर निर्बधन- नागरिकों की वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर अनुच्छेद 19(2) के अंतर्गत दिये गये आधारों पर निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं जो निम्नलिखित हैं-

(क) राज्य की सुरक्षा

(ख) विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध

(ग) लोक-व्यवस्था

(घ) सदाचार एवं शिष्टाचार के हित में

(ङ) न्यायालय अवमान

(च) मानहानि

(छ) अपराध उद्दीपन

(ज) भारत की एकता और अखंडता

(ख) शांतिपूर्ण एवं निरायुद्ध सम्मेलन की स्वतंत्रता- अनुच्छेद 19 (1) (ख) भारत के समस्त नागरिकों को शांतिपूर्वक एवं बिना हथियार के सम्मेलन करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। इस अधिकार के परिणामस्वरूप शांतिपूर्वक जुलूस निकालने, सार्वजनिक सभाएं करने तथा प्रदर्शन करने के लिए व्यक्तियों को स्वतंत्रता प्राप्त है।

इस अधिकार पर निम्नलिखित निर्बन्धन लगाये गये हैं-

(i) सम्मेलन शांतिपूर्ण होना चाहिए, एवं

(ii) बिना हथियार के होना चाहिए।

इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 19 के खण्ड (3) के अंतर्गत भी निर्बन्धन प्रावधानित है अर्थात सम्मेलन पर राज्य द्वारा

(a) भारत की सम्प्रभुता और अखंडता के हित में, तथा

(b) लोक व्यवस्था के हित में, निर्बन्धन लगाया जा सकता है।

(ग) संगम या संघ या सहकारी समिति बनाने की स्वतंत्रता- अनुच्छेद 19 (1) (ग) – सभी नागरिकों को संगम तथा संघ और सहकारी समिति बनाने का अधिकार प्रदान करता है। सहकारी समिति बनाने का अधिकार विधान के 97वें संशोधन अधिनियम, 2011 द्वारा अनुच्छेद 19(1) (ग) में संशोधन करके प्रदान किया गया है।

संगम या संघ बनाने के अधिकार पर 19 के खण्ड (4) के अंतर्गत उपबंधित युक्तियुक्त प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं जो-

(i) भारत की सम्प्रभुता तथा अखंडता, तथा

(ii) लोक व्यवस्था, एवं

(iii) सदाचार के हित में लगाये जा सकते हैं।

(घ) भारत के राज्यक्षेत्र में सर्वत्र अबाध संचरण की स्वतंत्रता – अनुच्छेद 19(1) (घ) भारत के प्रत्येक नागरिक को भारत के राज्यक्षेत्र में निर्बाध रूप से आने-जाने का अधिकार प्रदान करता है।

इस अधिकार पर अनुच्छेद 19 (5) के अंतर्गत –

(i) जनसाधारण के हितों में, या

(ii) किसी अनुसूचित जनजाति के हितों की रक्षा के लिए, प्रतिबन्ध लगाये जा सकते हैं।

(ड.) भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने का बस जाने की स्वतंत्रता- अनुच्छेद 19 (ड.) के अंतर्गत भारत के समस्त नागरिकों को भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भाग में निवास करने की स्वतंत्रता प्राप्त है।

किन्तु राज्य के द्वारा इस स्वतंत्रता पर निम्नलिखित आधारों पर निर्बन्धन लगाया जा सकता है –

(i) साधारण जनता के हित में, तथा

(ii) अनुसूचित जनजाति के हित के संरक्षण के लिए।

(छ) कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार तथा कारोबार करने की स्वतंत्रता- अनुच्छेद 19 (1) (छ) भारत के समस्त नागरिकों को कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार तथा कारोबार करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है।

अनुच्छेद 19 (6) के अधीन राज्य को जनसाधारण के हित में इस अधिकार पर प्रतिबन्ध लगाने का अधिकार है।

किसी वृत्ति या व्यापार हेतु राज्य आवश्यक वृत्तिक या तकनीकी अर्हता की शर्त भी राज्य लगा सकता है।

किसी व्यापार या कारबार से नागरिकों को पूर्ण या आंशिक रूप से अपवर्जित करने का अधिकार भी राज्य को प्राप्त है।

अनुच्छेद 19 (क) से सम्बन्धित वाद

 सोदन सिंह बनाम न्यू दिल्ली म्युनिसिपल कमेटी, ए. आई. आर. 1989 एस. सी. 1988: (1989) 4 एस. सी. सी. 155 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि सड़क के फुटपाथों पर व्यापार करना संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (छ) के अधीन एक मूल अधिकार है अतः राज्य उस पर केवल 19(6) के अन्तर्गत विहित निर्बन्धन ही लगा सकता है।

 मेमर्स बी. आर. इंटरप्राइजेज बनाम उ. प्र. राज्य, ए. आई. आर. 1999 एस. सी. 186 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि लाटरी वाणिज्य या व्यापार नहीं हो सकता क्योंकि इसमें संयोग के तत्व की प्रमुखता होती है जबकि व्यापार में कौशल प्रमुख तत्व है, इसलिए लाटरी जुआ है।

 ओम प्रकाश बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, ए. आई. आर. 2004 एस. सी. 1896 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि हरिद्वार एवं ऋषिकेश नगरपालिका के भीतर अण्डों की बिक्री पर परिबंध अनुच्छेद 19 (1) (छ) के अधीन युक्तियुक्त प्रतिबन्ध है।

अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण (Protection in respect of conviction for offences) अनुच्छेद 20- अनुच्छेद 20 अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण प्रदान करता है। यह संरक्षण नागरिकों तथा गैर नागरिकों सभी को प्राप्त है।

व्यक्ति की स्वतंत्रता को संरक्षित करने वाले इस अनुच्छेद के महत्व को देखते हुए संविधान के 44वें संशोधन द्वारा यह उपबंधित किया गया कि अनुच्छेद 20 को आपात की उद्घोषणा के प्रवर्तन में रहने के दौरान अनुच्छेद 359 के अधीन किसी आदेश द्वारा निलंबित नहीं किया जा सकता है।

अनुच्छेद 20 में तीन प्रकार का संरक्षण प्रदान किया गया है –

(1) कार्यात्तर विधि से संरक्षण (Protection from Expost Facto Law)

(2) दोहरे दंड से संरक्षण (Protection from Double Jeopardy)

(3) आत्म-अभिशंसन से संरक्षण (Protection from self-incriminatio)

अनुच्छेद 20 (1)- कार्योत्तर विधि से संरक्षण (Protection from Ex-post Facto Law) – अनुच्छेद 20 के खण्ड तक सिद्धदोष नहीं ठहराया जाएगा जब तक कि उसने ऐसा कार्य करने के समय प्रवृत्त विधि का अतिक्रमण न किया हो तथा उस अपराध के किये जाने के समय जो शास्ति अधिरोपित (Impose) की जा सकती थी वह उससे अधिक शास्ति का भागी नहीं होगा।

अनुच्छेद 20 (1) विधान-मण्डल की विधायिनी शक्ति पर नियंत्रण लगाता है तथा उसे भूतलक्षी प्रभाव से अपराध सृजित करने वाली अथवा दंड में वृद्धि करने वाली विधि बनाने से रोकता है।

ऐसी कार्योत्तर विधि जो अपराध का सृजन करती हैं या दंड में वृद्धि करती हैं, उसे भूतलक्षी प्रभाव से लागू नहीं किया जा सकता है किन्तु कार्योत्तर विधि के लाभकारी उपबन्ध को भूतलक्षी प्रभाव दिया जा सकता है और कोई व्यक्ति उसका लाभ उठा सकता है।

रतन लाल बनाम पंजाब राज्य, ए. आई. आर. 1965 एस. सी. 444 के मामले में एक 16 वर्षीय लड़के को प्रोबेशन ऑफ़ अफेंडर्स एक्ट के उस प्रावधान का लाभ प्रदान किया गया जिसके द्वारा 21 वर्ष से कम आयु के व्यक्तियों को कारावास का दंड देने का प्रतिषेध किया गया था यद्यपि कि ऐसा संशोधन अपराध किये जाने के पश्चात किया गया था।

(2) दोहरे दंड से संरक्षण (Protection from double Jeopardy)- अनुच्छेद 20 (2) के अनुसार किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए एक बार से अधिक अभियोजित और दण्डित नहीं किया जायेगा।

यह अंग्रेजी विधि के (nemo debate vis vexari) के नियम पर आधारित है जिसका अर्थ यह है कि किसी व्यक्ति को एक ही अपराध के लिए दो बार अभियोजित और दण्डित नहीं किया जायेगा।

इंग्लैण्ड तथा अमेरिका में यदि किसी व्यक्ति का किसी अपराध के लिए विचारण किया गया हो तो भले ही वह दोषसिद्ध न किया गया हो तो उसका उसी अपराध के लिए पुन: विचारण नहीं किया जा सकता है। किन्तु भारत में अभियोजित और दण्डित होने पर ही पुन: विचारण से उन्मुक्ति प्राप्त है। यदि विचारण के पश्चात दोषमुक्ति कर दी गई है तो अभियुक्त का पुन: विचारण किया जा सकता है।

शर्तें- अनुच्छेद 20 (2) का संरक्षण तभी प्राप्त हो सकता है जब निम्नलिखित शर्तें पूरी हो जाती हैं –

(i) व्यक्ति किसी अपराध का अभियुक्त हो

(ii) उसे अभियुक्त और दण्डित किया गया हो,

(iii) उसे किसी सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय या न्यायिक अधिकरण के सक्षम अभियोजन एवं दण्डित किया गया हो, तथा

(iv) दूसरी बार उसी अपराध के लिए अभियोजन और दण्डित किया गया हो।

(3) आत्म अभिशंसन से संरक्षण (अपने विरुद्ध गवाही देने से संरक्षण) (Protection self incrimination) – अनुच्छेद 20 (3) के अनुसार किसी भी व्यक्ति को जो किसी अपराध का अभियुक्त हो, स्वयं अपने विरुद्ध एक साक्षी बनने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

इस अनुच्छेद का संरक्षण साक्षी को नहीं प्राप्त है बल्कि केवल अभियुक्त व्यक्ति को प्राप्त है।

शर्तें- अनुच्छेद 20 (3) का संरक्षण प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित शर्तें पूरी होनी आवश्यक हैं:

(i) व्यक्ति किसी अपराध का अभियुक्त हो,

(ii) उसे अपने विरुद्ध साक्ष्य देने के लिए बाध्य किया जाये।

अपने विरुद्ध साक्ष्य देने से उन्मुक्ति न्यायालय ही नहीं पुलिस द्वारा पूछ-ताछ में भी प्राप्त है। (नन्दिनी सत्पथी बनाम पी. एल. दानी, ए. आई. आर. 1978 एस. सी. 1025)

स्टेट ऑफ़ बाम्बे बनाम काथीकालू, ए. आई. आर. 1961 एस. सी. 1808 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि साक्षी बनने का अर्थ साक्ष्य प्रस्तुत करना या न्यायालय में किसी विलेख को प्रस्तुत करना है जो विवादग्रस्त विषय पर कुछ प्रकाश डालता हो। इसमें अभियुक्त के व्यक्तिगत ज्ञान पर आधारित ब्यान सम्मिलित नहीं है।

सेल्वी बनाम कर्नाटक राज्य, ए. आई. आर. 2010 एस. सी. 1974 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने नार्कों टेस्ट, ब्रेन मैपिंग और पालीग्राफी टेस्ट को अनुच्छेद 20 (3) का उल्लंघन बताया तथा इन्हें अवैध घोषित कर दिया।

 

अनुच्छेद- 21

प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता का संरक्षण

(protection of life & Persons liberty)

 

 किसी व्यक्ति को उसकी प्राण एवं दैहिक स्वतन्त्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा अन्यथा नही।

 अनुच्छेद 21 का संरक्षण नागरिकों एवं विदेशियों सभी व्यक्ति को प्राप्त है।

 प्राण का अधिकार – प्राण के अधिकार का अर्थ मानव गरिमा तथा सभ्यता के साथ जीवन जीने का अधिकार, इसके अन्तर्गत वे सब अधिकार आते है जो किसी मनुष्य के जीवन को सार्थक बनाते है।

 दैहिक स्वतन्त्रता –दैहिक स्वतन्त्रता विस्तृत अर्थ वाली पदावली है। इसमें वे सभी आवश्यक तत्व शामिल है जो मनुष्य को पूर्ण बनाने में सहायक होते है।

विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया (Procedure established by law)

विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया का अर्थ उस प्रक्रिया से है जो संसद य़ा विधानमण्डल द्वारा बनायी जाती है या निर्धारित की जाती है।

 44वां संविधान संशोधन, 1978 — इस संविधान संशोधन के बाद अनुच्छेद 20 तथा 21 में प्रद्त्त मौलिक अधिकारों को राष्ट्रपति के द्वारा आपातकाल में भी निलम्बन/वर्खास्त नही किया जा सकता है।

मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया. 1978

प्रस्तुत वाद में निर्णीत किया गया कि अनुच्छेद 21 में प्राप्त अधिकार कार्यपालिका तथा विधायिका दोनों के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करती है।

बच्चन सिंह बनाम पंजाब राज्य

प्रस्तुत वाद में यह निर्णीत किया गया कि मृत्यु दण्ड दिया जाना संवैधानिक है। इससे अनुच्छेद 14, 19 तता 21 का उल्लंघन नही होता है।

मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया, 1978

प्रस्तुत वाद में न्यायमूर्ति P.N. भगवती द्वारा निर्णीत किया गया कि यदि किसी व्यक्ति का कोई अधिकार संविधान के किसी अनुच्छे में नही है तो वे सभी अधिकार अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत आ जायेगे।

इसी वाद में न्यायमूर्ति भगवती द्वारा कहा गया कि अनुच्छेद 21 में प्रदत्त अधिकार संविधान का आधारभूत ढाँचा है।

अनुच्छेद 21 में S.C. द्वारा अपने निर्णयो के माध्यम से व्यक्तियों को निम्न अधिकार प्रदान किया गया हैः-

1. एकान्तता का अधिकार। (मिस्टर एक्स बनाम हॉस्पिटल जेड़ा)

2. पथाशीघ्र चिकित्सा का अधिकार (परमानन्द बनाम भारत संघ काटरा)

3. शीघ्र परीक्षण का अधिकार (हुश्न आरा खातून बनाम बिहार राज्य) तथा निःशुल्क विधिक सहायता का अधिकार।

4. (M.c. Mehta vs. Union of India) लोक स्वास्थय एवं पर्यावरण का अधिकार।

5. (विशाखा बनाम राजस्थान राज्य, 1996) श्रमजीवी महिलाओं को यौन उत्पीड़न से संरक्षण (कर्यास्थल)

6. (मुरली देवड़ा बनाम भारत संघ, 2000) सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान निषेध है।

7. (सुनील बत्रा बनाम दिल्ली प्रशासन) एकान्त कारावास के विरुद्ध संरक्षण

8. (D.K. Bashu vs. state of west Bangal) अवैध गिरफ्तारी से संरक्षण प्रदान किया गया।

9. (नीलवती बेहरा बनाम उड़ीसा राज्य) अवैध गिरफ्तारी तथा पुलिस अभिरक्षा में अमानवीय व्यवहार के विरुद्ध संरक्षण।

10. (J.K.S. Puttaswami vs Unoin of India, 2017) प्रस्तुत वाद में s.c. की 9 जजों की पीठ ने निजता के अधिकार को मूल अधिकार माना तथा इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 प्राण तथा दैहिक स्वतन्त्रता के अन्तर्गत रखा।

प्रश्नः- क्या जीने के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल है?

उत्तरः- जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल किया जाये या न किया जाये इस विषय पर न्यायालय का विभिन्न मत हैः-

पी. रतीनाम बनाम भारत संघ, 1994 एस.सी. प्रस्तुत वाद में एस.सी. द्वारा निर्णीत किया गया कि अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत जीवन के अधिकार में मरने का अधिकार भी शामिल है। अतः आई.पी.सी. की धारा 309 (आत्म हत्या का प्रयास) अनुच्छेद 21 का उल्लंघन होने के कारण असंवैधानिक है।

एस.सी. द्वारा कहा गया कि आई.पी.सी. की धारा 309 क्रूर तथा न्याय के विरुद्ध है। क्योकि यह ऐसे व्यक्ति को दण्ड देने का प्रावधान करती है जो पहले से पीड़ित है।

ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य, 1996 एस.सी. प्रस्तुत वाद में एस.सी. द्वारा अपने पूर्व में दिये गये निर्णय को उलट दिया गया तथा यह निर्णीत किया कि अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत जीने के अधिकार में मरने का अधिकार शामिल नही है। क्योकि मरना तथा जीना एक दूसरे के विपरीत है।

जीने के अधिकार का अर्थ गरिमा तथा सम्मान के साथ जीना होता है। इसीलिए आई.पी.सी. की धारा 309 संवैधानिक है।

Common cause (Registered society) vs. Union of India, 2018 प्रस्तुत वाद में एस.सी. द्वारा मरने के अधिकार को अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत जीने के अधिकार में शामिल माना। और एस.सी. द्वारा यह कहा गया कि निष्क्रिय इच्छा और living will कानूनी तौर पर वैध है।

living will एक ऐसा लिखत है जो मरीज को उसके इलाज से पहले उसकी स्थिति के लिए एक स्पष्ट दिशा निर्देश देने की अनुमति है। जब वह गम्भीर बीमारी से पीड़ित हो या सहमति देने में सक्षम न हो।

क्या अनुच्छेद 21 के उल्लंघन पर कोई व्यक्ति नुकसानी (प्रतिकर) प्राप्त कर सकता है?

रुदल शाह बनाम बिहार राज्य, 1983 प्रस्तुत वाद में अपने ऐतिहासिक फैसले के महत्व में एस.सी. द्वारा यह निर्णीत किया गया कि नागरिकों के संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन होने पर न्यायालय को प्रतिकर दिलाने की शक्ति प्राप्त है।

नीलवती बोहरा बनाम उड़ीसा राज्य, 1993 प्रस्तुत वाद में निर्णीत हुआ कि पुलिस अभिरक्षा में गिरफ्तार व्यक्ति का तथा जेल में कैदियों की रक्षा करना राज्य का कर्तव्य है यदि वह ऐसा करने में असमर्थ होता है तो उसे पीड़ित व्यक्ति या उसके परिवार को प्रतिकर दिया था।

शिक्षा का अधिकार : अनुच्छेद 21(क) 86वां संविधान संशोधन

संविधान के 86वें संशोधन अधिनियम, 2002 पारित करके संविधान में अनुच्छेद 21-क जोड़ा गया है। जिसमें यह उपबन्ध है कि “राज्य ऐसी रीति से जैसा कि विधि बनाकर निर्धारित करे 6 वर्ष की आयु से 14 वर्ष की आयु के सभी बालकों के लिए निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लिए उपबन्ध करेगा”।

इस संशोधन के पूर्व उच्चतम न्यायालय ने मोहिनी जैन बनाम कर्नाटक राज्य, 1992 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि शिक्षा पाने का अधिकार अनुच्छेद 21 के अंतर्गत प्रत्येक नागरिक का मूल अधिकार है।

उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र-प्रदेश राज्य, (1993) 4 SCC 645 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि शिक्षा का अधिकार अनुच्छेद 21 के अधीन एक मूल अधिकार है तथा सभी को शिक्षा प्रदान करना राज्य का उत्तरदायित्व है किन्तु राज्य का यह दायित्व 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को शिक्षा देने तक ही सीमित है।

अत: 86वें संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 21-क जोड़कर 6 से 14 वर्ष तक के बालकों के लिए शिक्षा का अधिकार अब मूल अधिकार बना दिया गया है।

86वें संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान के भाग 4-क अनुच्छेद 51-क में उपखण्ड (ट) जोड़ा गया जो 6 से 14 वर्ष के बच्चों के माता-पिता और प्रतिपाल्य के संरक्षकों पर बच्चों और प्रतिपाल्यों को शिक्षा का अवसर प्रदान करने का मूल कर्तव्य बना दिया गया है।

86वें संविधान संशोधन द्वारा ही संविधान के भाग-4, में अनुच्छेद 45 प्रतिस्थापित करके 6 वर्ष की आयु के सभी बच्चों के पूर्व बाल्यकाल की देख-रेख और शिक्षा देने का प्रयास राज्य द्वारा किये जाने का निर्देश उपबंधित किया गया है।

उक्त संशोधन के अनुसरण में संसद ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 पारित किया जो 1 अप्रैल 2010 से सम्पूर्ण देश में लागू हुआ। इसमें 6 से 14 वर्ष के सभी बच्चों को राज्य के व्यय पर निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का उपबन्ध किया गया है।

इस अधिनियम में निजी विद्यालयों सहित सभी विद्यालयों में आर्थिक रूप से दुर्बल वर्गों के बच्चों के लिए 25% सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

 एन. कोमोन बनाम मणिपुर राज्य, AIR 2010 मणिपुर 102 के मामले में गोहाटी उच्च न्यायालय ने 6 से 14 वर्ष के बालकों के लिए मुक्त एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करने हेतु शिक्षा अधिकारी को 4 सप्ताह में याची के प्रतिवेदन पर निर्णय लेने का आदेश दिया।

गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण (अनुच्छेद 22) (Protection Against Arrest and Detention)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 22 में सभी व्यक्तियों (नागरिकों तथा गैर नागरिकों) को गिरफ्तारी एवं निरोध से संरक्षण प्रदान किया गया है।

अनुच्छेद 22 के अधीन दो प्रकार की गिरफ्तारियों का उल्लेख हैं-

(i) सामान्य विधि के अधीन गिरफ़्तारी, तथा

(ii) निवारक निरोध विधि के अधीन गिरफ्तारी

अनुच्छेद 22 के खण्ड (1) एवं (2) में सामान्य विधि के अन्तर्गत गिरफ्तार किये जाने पर गिरफ्तार व्यक्ति के अधिकारों के प्रावधान किये गये हैं। ये निम्नलिखित हैं-

(i) गिरफ़्तार व्यक्ति को यथाशीघ्र गिरफ्तारी का कारण बताये बिना अभिरक्षा में निरुद्ध नहीं रखा जाएगा (अर्थात उसे गिरफ्तारी का कारण जानने का अधिकार है)

(ii) उसे अपनी पसंद के विधि व्यवसायी (वकील) से परामर्श करने और प्रतिरक्षा कराने के अधिकार से वंचित नहीं रखा जाएगा।

(iii) गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर निकटतम सक्षम मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाएगा। इसमें गिरफ़्तारी के स्थान से न्यायालय तक ले जाने में लगा समय शामिल नहीं किया जाएगा।

(iv) मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना 24 घंटे से अधिक निरुद्ध नहीं रखा जाएगा।

अनुच्छेद 22(3) में यह उपबंधित किया गया है कि उक्त अधिकार निम्नलिखित दो कोटियों में आने वाले व्यक्तियों को नहीं प्राप्त है-

(i) विदेशी शत्रु, एवं

(ii) निवारक निरोध-विधि के अंतर्गत गिरफ्तार व्यक्ति।

निवारक निरोध (Preventive Detention)

सामान्य गिरफ्तारी किसी व्यक्ति द्वारा अपराध कारित किये जाने के पश्चात की जाती है। किन्तु निवारक गिरफ्तारी (निरोध) अपराध किये जाने के पूर्व की जाती है। निवारक निरोध अपराध घटित होने से रोकने के प्रयोजन से किया जाता है। अर्थात यह कार्यवाही दंडात्मक न होकर निवारणात्मक होती है।

निवारक निरोध विधि समाज विरोधी एवं राष्ट्र विरोधी तत्वों से उत्पन्न होने वाले खतरों से नागरिकों एवं देश की सुरक्षा के लिए आवश्यक है।

निवारक निरोध से सम्बन्धित अधिनियम

सर्वप्रथम संसद ने 1950 में निवारक निरोध अधिनियम पारित किया जो 1969 तक लागू रहा।

1971 में आतंरिक सुरक्षा अधिनियम (Maintenance of Internal Security Act, 1971) (मीसा) अधिनियमित किया गया।

राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (रासुका) को 1980 में अधिनियमित किया गया।

इसके अतिरिक्त आर्थिक अपराधों को रोकने के लिए 1978 में प्रिवेंशन ऑफ़ ब्लैक मार्केटिंग एंड मेंटेनेन्स ऑफ़ सप्लाइज ऑफ़ एसेंशियल कमोडिटी एक्ट, 1978 पारित किया गया।

अनुच्छेद 22 के खण्ड (4) से (7) के अन्तर्गत निवारक निरोध, विधियों के विरुद्ध संरक्षण के प्रावधान किये गये हैं। यदि किसी व्यक्ति को निवारक निरोध विधि के अन्तर्गत गिरफ्तार किया जाता है तो इन प्रक्रियाओं का अनुपालन करना एक अनिवार्य संवैधानिक अपेक्षा है।

अनुच्छेद 22 (4) के अनुसार निवारक निरोध का उपबन्ध करने वाली कोई विधि किसी व्यक्ति का तीन माह से अधिक अवधि के लिए निरुद्ध किया जाना तब तक प्राधिकृत नहीं करेगी, जब तक कि सलाहकार बोर्ड ने तीन मास की उक्त अवधि की समाप्ति के पहले यह प्रतिवेदन नहीं दिया है कि उसकी राय में ऐसे निरोध के लिए पर्याप्त कारण है।

अनुच्छेद 22 के खण्ड (5) के अंतर्गत निरुद्ध व्यक्ति को प्राप्त संवैधानिक संरक्षण निम्नलिखित है-

(i) गिरफ्तारी का आधार जानने का अधिकार

(ii) परामर्श बोर्ड के विचार के लिए अभ्यावेदन प्रस्तुत करने का अधिकार

(iii) परामर्श बोर्ड का यह कर्तव्य है कि वह निरोध आदेश जारी किये जाने की तिथि से तीन माह के भीतर अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत कर दे।

शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24) (Right Against Exploitation)

अनुच्छेद 23 के अंतर्गत मानव के दुर्व्यापार और बलात श्रम का प्रतिषेध किया गया है। इसमें ‘बेगार’ भी शामिल है।

इस उपबन्ध का उल्लंघन अपराध घोषित किया गया है तथा विधि के अनुसार दंडनीय बनाया गया है।

अनुच्छेद 23 का संरक्षण सभी व्यक्तियों (नागरिकों एवं गैर नागरिकों) तथा प्राइवेट व्यक्तियों के विरुद्ध भी प्राप्त है।

मानव दुर्व्यापार (Human Trafficking) का अर्थ है दास (गुलाम) के रूप में मानव का क्रय-विक्रय करना तथा अनैतिक प्रयोजन के लिए बच्चों एवं महिलाओं का क्रय विक्रय भी इसमें सम्मिलित हैं।

दंड विधि (संशोधन) अधिनियम, 2013 (2013 का अधिनियम संख्या 13) के द्वारा भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 370 के स्थान पर नई धारा 370 तथा 370-क का प्रतिस्थापन कर के क्रमश: व्यक्ति का दुर्व्यापार (Trafficking of person) धारा 370 तथा ऐसे व्यक्ति का, जिसका दुर्व्यापार किया गया है, शोषण धारा 370 क, को दंडनीय अपराध बना दिया गया है जो अनुच्छेद 23 के उद्देश्यों की पूर्ति करता है।

अनुच्छेद 23 के खण्ड (2) के अनुसार राज्य सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए किसी व्यक्ति से अनिवार्य सेवा ले सकता है अनिवार्य सेवा लागू करने में राज्य केवल धर्म, मूलवंश, जाति या वर्ग या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। राज्य ऐसी अनिवार्य सेवा के लिए पारिश्रमिक का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं है।

पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम भारत संघ, AIR 1982 SC 1473 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि यदि किसी व्यक्ति से पारिश्रामिक दिये बिना बलपूर्वक बतात श्रम लिया जाता है तो यह ‘बेगार’ है। अनुच्छेद 23 के अंतर्गत बलपूर्वक लिए जाने वाले सभी कार्य जिनसे मानव की गरिमा तथा सम्मान को क्षति पहुंचती है वर्जित किये गये हैं। यदि किसी व्यक्ति को पारिश्रमिक देकर भी उसकी इच्छा के विरुद्ध कार्य कराया जाता है तो यह बलातश्रम (Bonded labour) के अंतर्गत आता है।

दीना बनाम भारत संघ, AIR 1983 SC 1155 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि बिना पारिश्रामिक दिये कैदियों से काम कराना बलात श्रम है तथा अनुच्छेद 23 का उल्लंघन है।

नीरजा चौधरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य, (1984) 3 SCC 243 के मामले में धारित किया गया कि बंधुआ श्रमिकों को मुक्त कराना ही नहीं उनके पुनर्वास की व्यवस्था करना भी सरकार का कर्तव्य है जिसके अभाव में वे पुन: शोषण के शिकार हो सकते हैं।

कारखानों आदि में बालकों के नियोजन का प्रतिषेध (अनुच्छेद 24)- अनुच्छेद 24 के अनुसार चौदह वर्ष से कम आयु के बालकों को किसी कारखाने या खान में काम करने के लिए नियोजित नहीं किया जाएगा या किसी अन्य परिसंकटमय (Hazardous) नियोजन में नहीं लगाया जाएगा।

पीपुल्स यूनियन फार डेमोक्रेटिक राइट बनाम भारत संघ, AIR 1983 SC 1473 के मामले में धारित किया गया कि भवन निर्माण कार्य में 14 वर्ष के बच्चों को नहीं नियोजित किया जा सकता है। क्योंकि वह भी जोखिम वाला कार्य है।

एम. सी. मेहता बनाम भारत संघ, (1996) 6 SCC 756 के मामले में धारित किया गया कि 14 वर्ष से कम आयु के बालकों को किसी कारखाने या खान या परिसंकटमय कार्यों में नियोजित नहीं किया जा सकता है। न्यायालय ने बालकों के कल्याण के लिए बनाये गये विभिन्न विधियों के क्रियान्वयन के लिए सरकार को विस्तृत दिशा निर्देश भी जारी किया।

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Freedom of Religion) (अनुच्छेद 25-28)

भारतीय संविधान की उद्देशिका में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा ‘पंथ निरपेक्ष’ पद जोड़ा गया अर्थात भारत एक ‘पंथनिरपेक्ष’ राज्य है इस बात की घोषणा उद्देशिका में की गई है। पंथ निरपेक्ष राज्य से तात्पर्य धर्म विहीन या धर्म विरोधी राज्य से नहीं है। इसका तात्पर्य यह है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा सभी धर्मों का समान रूप से आदर किया जाएगा।

धर्म के आधार पर किसी के साथ विभेद नहीं किया जाएगा एवं प्रत्येक व्यक्ति को धर्म की पूर्ण स्वतंत्रता होगी।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 से 30 में सभी व्यक्तियों के लिए धार्मिक स्वतंत्रता प्रत्याभूत की गई हैं।

एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ, में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि पंथनिरपेक्षता संविधान का आधारभूत ढ़ांचा है।

अनुच्छेद 25 (1) के अनुसार- लोक व्यवस्था (Public order) सदाचार (Morality) एवं स्वास्थ्य (health) तथा इस भाग के अन्य उपबन्धों के अधीन रहते हुए सभी व्यक्तियों को अंत:करण की स्वतंत्रता तथा बिना किसी बाधा के धर्म को मानने, आचरण करने तथा प्रचार करने की स्वतंत्रता होगी।

कृपाण धारण करना तथा लेकर चलना सिखों की धार्मिक स्वतंत्रता का ही अंग माना जाएगा।

अनुच्छेद 25 (2) (क) यह उपबंधित करता है कि- राज्य धार्मिक आचरण से सम्बन्धित किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रिया-कलाप का विनिमयन करने के लिए विधि बना सकती है।

अनुच्छेद 25 (2) (ख) यह उपबंधित करता है कि राज्य सामाजिक कल्याण और सुधार करने के लिए या किसी सार्वजनिक प्रकार की हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिन्दुओं के सभी वर्गों तथा विभागों के लिए खोलने के लिए विधि बना सकता है।

स्पष्टीकरण 2 यह स्पष्ट करता है कि हिन्दू शब्द में सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म मानने वाले भी सम्मिलित है और हिन्दू संस्थानों का अर्थ भी उसी के अनुरूप लगाया जाएगा।

अनुच्छेद 25 दो प्रकार के अधिकार प्रदान करता है-

(i) अंत:करण की स्वतंत्रता का, तथा

(ii) बिना किसी बाधा के धर्म को मानने, आचरण करने तथा प्रचार करने की स्वतंत्रता का।

 इस अधिकार पर अनुच्छेद 25 में ही निम्नलिखित निर्बन्धन लगाये जा सकते हैं-

(i) सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार एवं जनता के स्वास्थ्य के हित में,

(ii) धर्म से सम्बन्धित आर्थिक वित्तीय तथा राजनीतिक कार्यकलापों के विनियमन के लिए,

(iii) समाज कल्याण तथा समाज सुधार,

(iv) इस भाग के अन्य उपबन्धों के अन्तर्गत लगाए जा सकने वाले निर्बन्धन।

विजोय इमैनुअल बनाम केरल राज्य, 1986 (3) SCC 615 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि किसी व्यक्ति को राष्ट्रगान गाने के लिए विवश नहीं किया जा सकता है यदि उसका धार्मिक विश्वास उसे ऐसा करने से रोकता हो।

जावेद बनाम हरियाणा राज्य, AIR 2003 SC 3057 के मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यह नियम कि जिन व्यक्तियों के दो से अधिक बच्चे होंगे वे स्थानीय निकायों का चुनाव लड़ने के अयोग्य होंगे, धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है।

रेव स्टेनिस्लाम बनाम म. प्र. राज्य, AIR 1977 SC 908 में धारित किया गया कि अनु. 25 (1) बलात धर्मांतरण कराने का अधिकार नहीं प्रदान करता है।

अनुच्छेद 26 प्रत्येक धार्मिक अनुभाग या उसके किसी वर्ग को निम्नलिखित अधिकार प्रदान करता है-

(i) धार्मिक तथा पूर्त उद्देश्यों के लिए संस्थाओं की स्थापना और उसका पोषण करने का

(ii) अपने धार्मिक मामले के प्रबंधन का

(iii) चल या अचल सम्पत्ति का अर्जन और उसका स्वामित्व प्राप्त करने का

(iv) ऐसी सम्पत्ति का विधि के अनुसार प्रशासन करने का।

उक्त स्वतंत्रताओं पर लोक व्यवस्था, सदाचार तथा स्वास्थ्य के हित में निर्बन्धन लगाया जा सकता है।

धार्मिक अनुभाग अर्थात धार्मिक सम्प्रदाय का अर्थ ऐसे व्यक्तियों के समूह से है जो एक विशिष्ट नाम के तहत संगठित होते हैं तथा जो सामान्यतया एक धार्मिक सम्प्रदाय या संस्था होती है जिसका किसी धर्म विशेष में विश्वास होता है।

अनुच्छेद 26 (घ) के अंतर्गत धार्मिक संस्थाओं से सम्बन्धित सम्पत्ति का प्रबन्धन कार्य राज्य विनियमित कर सकता है किन्तु सम्पत्ति के प्रबन्धन का अधिकार उस सम्प्रदाय विशेष के पास ही रहेगा राज्य यह अधिकार उससे लेकर किसी अन्य व्यक्ति में निहित नहीं कर सकता है।

संतोष कुमार बनाम मानव संसाधन विकास मंत्रालय (सचिव), 1994 प्रस्तुत वाद में संस्कृति तथा संस्कार के रुप में किसी विषय को पढाये जाने से धर्मनिरपेक्षता प्रभावित नही होती है।

अनुच्छेद 27- किसी व्यक्ति को किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि या पोषण में व्यय के लिए कोई कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 28- पूर्णतया राज्य निधि से पोषित शैक्षिक संस्थाओं में किसी प्रकार की कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है।

अनुच्छेद 28 (2)- यदि कोई ऐसी शिक्षण संस्था जो किसी ऐसे न्यास या विन्यास (Trust or endowment) के अधीन स्थापित की गई है जिसके अनुसार धार्मिक शिक्षा देना आवश्यक है तो खण्ड (1) का प्रतिबन्ध ऐसी शिक्षा संस्था के सम्बन्ध में लागू नहीं होगा अर्थात उस संस्था में धार्मिक शिक्षा देने पर प्रतिबन्ध नहीं होगा।

अनुच्छेद 28 (3)- राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त अथवा अनुदान प्राप्त किसी शिक्षा संस्था में प्रवेश लेने वाले किसी भी व्यक्ति को इस बात के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा कि वह उस संस्था द्वारा प्रदान की जाने वाली धार्मिक शिक्षा में भाग ले या उसमें की जाने वाली धार्मिक उपासना में भाग लें जब तक कि यह स्वयं इसके लिए सहमत नहीं होता या यदि वह व्यस्क है तो उसका संरक्षक इसके लिए अपनी सहमति नहीं देता है।

एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ, (1994) 3 SCC के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि पंथनिरपेक्षता संविधान का आधारभूत ढांचा है।

धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार सभी व्यक्तियों को प्राप्त है चाहे वे भारतीय नागरिक हो या विदेशी।

अरुणा राय बनाम भारत संघ, AIR 2003 SC 3176 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माध्यमिक शिक्षा बोर्ड के नये पाठ्यक्रम को संवैधानिक माना तथा कहा कि यह न तो अनुच्छेद 28 का उल्लंघन करता है और न ही पंथनिरपेक्षता का उल्लंघन करता है।

संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी अधिकार Cultural and Educational Rights (अनुच्छेद 29, 30)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 तथा 30 में संस्कृति और शिक्षा सम्बन्धी मूल अधिकारों का प्रावधान किया गया है।

अनुच्छेद 29 के अंतर्गत अधिकार केवल भारत के नागरिकों को प्राप्त है। इस अनुच्छेद का उद्देश्य अल्प-संख्यक वर्ग के हितों को संरक्षित करना है।

अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण (अनुच्छेद 29)- अनुच्छेद 29 (1) भारत क्षेत्र में रहने वाले “नागरिकों के प्रत्येक वर्ग को, जिनकी अपनी भाषा लिपि या संस्कृति है” उसे बनाये रखने के अधिकार की गारंटी देता है।

अनुच्छेद 29(2) के अनुसार किसी भी नागरिक को राज्य द्वारा घोषित और राज्य निधि से सहायता पाने वाले किसी शिक्षा संस्था में केवल धर्म मूलवंश, जाति या भाषा या इनमें से किसी के आधार पर प्रवेश से वंचित नहीं किया जाएगा।

अहमदाबाद सेंट जेवियर कालेज सोसाइटी बनाम गुजरात राज्य, ए. आई. आर. 1974 एस. सी. 1389 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि अनुच्छेद 29 (2) का लाभ केवल अल्पसंख्यक वर्ग को ही नहीं प्राप्त है बल्कि बहुसंख्यक वर्ग को भी इसका लाभ प्राप्त है।

शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और उनका प्रबन्धन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार (Right of minorities to establish and administration of educational institution) (अनुच्छेद 30)

अनुच्छेद 30 (1) के अनुसार- धर्म या भाषा पर आधारित सभी अल्पसंख्यक वर्गों को अपनी रूचि की शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन (administration) का अधिकार होगा।

संविधान के (44 वें संशोधन) अधिनियम-1978 के अनुच्छेद 30 में खंड (1क) जोड़कर यह उपबंध किया गया कि अल्पसंख्यक वर्ग दवारा स्थापित और प्रशासित किसी शिक्षा संस्था की सम्पति का यदि अनिवार्य अर्जन किया जाता हे तो समुचित एव पर्याप्त क्षतिपूर्ति दी जानी चाहिए ताकि इस भाग के अधीन प्रत्याभूत अधिकार सीमित या समाप्त न हो जाए।

अनुच्छेद 30(2) – के अनुसार – राज्य शिक्षा संस्थानों को सहायता देने में इस आधार पर विभेद नही करेगा कि वह अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबंध में है

अनुच्छेद 30 से अधिक व्यापक अधिकार प्रदान करती है जेसे अपनी रूचि की शिक्षा संसथाओं की स्थपना तथा प्रशासन का अधिकार, जिसमे उन्हें शिक्षा का माध्यम पाठ्यक्रम पढाए जाने वाले विषय आदि को निर्धारित करने का अधिकार सम्मिलित है।

सेंट स्टीफेन कालेज बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय SCC 558 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों में 50% अन्य समुदाय के छात्रों को प्रवेश देना होंगा।

अहमदाबाद सेंट जेवियर कालेज बनाम गुजरात राज्य, AIR 1974 SC 1389 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया की अनुच्छेद 30 राज्य को अल्पसंख्यको की शिक्षा संस्थाओं की श्रेष्ठता को और अच्छे प्रशासन को बनाये रखने के उद्देश्य से विनियम बनाने से नही रोकता है।

अनुच्छेद 29 और 30 पर (अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों) पर सबसे महत्वपूर्ण निर्णय टी. एम. पाई फाउन्डेशन क. लि. बनाम स्टेट ऑफ कर्णाटक, AIR 2003 SC 355 के मामले में उच्चतम न्यायालय के ग्यारह न्यायधीशो की पीठ ने विनिश्चय किया कि राज्य और विश्वविद्यालय को धार्मिक और शैक्षणिक रूप से अल्पसंख्यको द्वारा चलायी जा रही शिक्षण संस्थाऐं और गैर सरकारी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश नीति के मामले का विनिमयन करने का अधिकार नही है।

 

संवैधानिक उपचारों का अधिकार

(Right to Consitution Remedies)

(अनुच्छेद 32)

यह संविधान में दिया हुआ छठा एवं अन्तिम मूल अधिकार है।

डॉ भीमराव अम्बेडकर ने अनुच्छेद 32 (संवैधानिक उपचारो) को भारतीय संविधान की आत्मा कहा है।

अनुच्छेद के माध्यम से एस.सी. भारतीय संविधान का सजग प्रहरी या सरंक्षक है।

अनुच्छेद 32(1)- भाग 3 में प्रदत्त मूल अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए एस.सी. को समुचित कार्यवाही करने का अधिकार प्राप्त है।

अनुच्छेद 32(2)- एस.सी. इस अधिकारों को प्रवर्तित करने के लिए समुचित आदेश निर्देश या रिट आदि जारी कर सकता है।

भारतीय संविधान में 5 प्रकार की रिट का उल्लेख है।

(1) बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Carpus)

(2) परमादेश (mandamus)

(3) प्रतिषेध (Prohobition)

(4) उत्प्रेक्षण (Certiorari)

(5) अधिकार – पृच्छा (Quo-warranto)

बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट पर Res-Subjudication का नियम लागू नही होता है।

अनुच्छेद 32 के अन्तर्गत एस.सी. में रिट की अधिकारिता केवल मूल-अधिकारों तक सीमित है। जबकि 226 के अन्तर्गत H.C. को रिट की अधिकारिता मौलिक अधिकारों के साथ-साथ अन्य अधिकारों (विधिक अधिकार) तक होती है।

 

जन-हित याचिका या लोक हित याचिका

Public interest litigation

जनहित याचिका की शुब्दात संयुक्त राज्य अमेरिका ने की थी।

भारत में लोक हित याचिका का उपबन्ध अमेरिका से लिया गया है।

लोक-हित याचिका भारतीय संविधान के किसी अनुच्छेद में परिभाषित नही है बल्कि यह s.c. की संवैधानिक व्याख्या से उत्पन्न हुआ है।

भारत में लोत हित याचिका प्रारम्भ करने का श्रेय J.P.N. Bhagwati तथा न्यायमूर्ति कृष्णों अय्यर को जाता है।

यह याचिका अनुच्छेद 32 के द्वारा एस.सी. में तथा अनुच्छेद 226 के द्वारा H.C. में दायर किया जाता है।

परिभाषा- लोक हित वाद से अभिप्राय ऐसे वाद से है जिसमें जन-सधारण या सार्वजनिक क्षेत्र का हित निहित हो।

लोक हित वाद कौन ला सकता है— सामान्य नियम यह है कि पीड़ित व्यक्ति ही न्यायालय में वाद ला सकता है किन्तु लोक हित वाद में कोई ऐसा व्यक्ति जो निर्धन हो, गरीब हो, अल्पसंख्यक हो, कमजोर वर्ग से तथा अज्ञानता के कारण न्यायालय जाने में असमर्थ हो तो उसकी तरफ से समाज का कोई व्यक्ति या व्यक्तियों को समूह उसके अधिकारों को प्रवर्तित कराने के लिए H.C. या S.C. जा सकते है।

लोक हित वाद का विषय- निम्न विषयों पर PIL प्रस्तुत किया जा सकता है-

(i) अमानवीय व्यवहार के संरक्षण के लिए।

(i) बाल-कल्याण

(ii) श्रामिको के सरंक्षण

(iii) पर्यावरण संरक्षण

(iv) नारी के शोषण के विरुद्ध सरंक्षण

(v) सार्वजनिक जीवन के भ्रष्टाचार

S.P. Gupta vs Union of India प्रस्तुत वाद मे लोक हित वाद के दुरुपयोग को रोकने के लिये यह कहा गया कि किसी वाद लोक-हित वाद तभी माना जायेगा जब वहः-

(i) सदभावपूर्वक हो,

(ii) इसका उद्देश्य अनुचित लाभ अर्जित करना न हो,

(iii) वह राजनीति से प्रेरित न हो,

(iv) वह व्यक्तिगत लाभ के लिए न हो,

सुभाष कुमार बनाम बिहार राज्य, प्रस्तुत वाद में एस.सी द्वारा निर्णीत किया गया कि PIL का उद्देशय व्यक्तिगत लाभ के लिए न होकर सार्वजनिक विकास के लिए होना चाहिए।

 

PAHUJA LAW ACADEMY

Lecture – 4

Pre Questions

 
  1. “शिक्षा का अधिकार” को मूल अधिकार के रूप में संविधान में जोड़ा गया-

(a) 42वें संविधान संशोधन द्वारा।

(b) 44वें संविधान संशोधन द्वारा।

(c) 84वें संविधान संशोधन द्वारा।

(d) 86वें संविधान संशोधन द्वारा।

 
  1. संविधान के अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत निम्नलिखित में से कौन ‘राज्य’ नहीं है?

(a) जीवन बीमा निगम

(b) भारत का स्टेट बैंक

(c) दिल्ली विश्वविद्यालय

(d) एन.सी.ई.आर.टी.

 
  1. ‘आच्छादन’ का सिद्धांत संबंधित है-

(a) अनुच्छेद 12 से

(b) अनुच्छेद 13 से

(c) अनुच्छेद 14 से

(d) अनुच्छेद 15 से

 
  1. संविधान के निर्वचन में प्रथम बार भविष्यलक्षी विनिर्णय का सिद्धांत निम्न वाद में लागू किया गया-

(a) केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य

(b) गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य

(c) ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य

(d) चरणजीत लाल बनाम भारत संघ

 
  1. न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान के किस अनुच्छेद में निहित है?

(a) अनुच्छेद 11

(b) अनुच्छेद 12

(c) अनुच्छेद 13

(d) अनुच्छेद 15

 
  1. भारत में न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धांत निम्न संविधान से लिया गया है?

(a) ब्रिटेन के

(b) फ्रांस के

(c) यू.एस.ए. के

(d) स्विट्ज़रलैंड के

 
  1. निम्नलिखित सिद्धांतों में से कौन सा संविधान के अनुच्छेद 13 से सम्बन्धित नहीं है?

(a) पृथक्करणीयता का सिद्धांत

(b) तत्व और सार का सिद्धांत

(c) अधित्याग का सिद्धांत

(d) आच्छादन का सिद्धांत

 
  1. भारत के संविधान में ‘विधि का शासन’ निहित है अनुच्छेद-

(a) अनुच्छेद 13 में

(b) अनुच्छेद 14 में

(c) अनुच्छेद 19 में

(d) अनुच्छेद 25 में

 
  1. निम्नलिखित में से कौन मौलिक अधिकार नहीं है?

(a) शोषण के विरुद्ध अधिकार

(b) समता का अधिकार

(c) हड़ताल का अधिकार

(d) संगम या संघ बनाने का अधिकार

 
  1. संविधान के निम्नलिखित अनुच्छेदों में से किसमें ‘किसी भी रूप में अस्पृश्यता के अंत’ के लिये प्रावधान है?

(a) अनुच्छेद 14

(b) अनुच्छेद 17

(c) अनुच्छेद 19

(d) अनुच्छेद 16

 
  1. प्रेस की स्वतन्त्रता निम्नलिखित के हित में निर्बन्धित नहीं की जा सकती है-

(a) लोक व्यस्था

(b) राज्य की सुरक्षा

(c) जनहित

(d) भारत की प्रभुता एवं अखंडता

 
  1. ‘जनहित वाद’ की अवधारणा निम्नलिखित किस देश से उत्पन्न हुई?

(a) ऑस्ट्रेलिया

(b) यू.एस.ए.

(c) यू.के.

(d) भारत

 
  1. PIL से संबंधित व्यक्ति हैं-

(a) न्यायाधीश भगवती

(b) न्यायाधीश आर.एन. मिश्रा

(c) न्यायाधीश वेंकटचेलैया

(d) उपर्युक्त में से कोई नहीं

 
  1. निम्नलिखित में से कौन-सा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में सम्मिलित नहीं है?

(a) मृत्यु का अधिकार

(b) जीवन का अधिकार

(c) जीविका का अधिकार

(d) सम्मान का अधिकार

 
  1. “किसी व्यक्ति को, उसके प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा” से तात्पर्य है-

(a) विधायिका द्वारा पारित कोई भी विधि

(b) ऐसी विधि जो नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों के अनुसार हो

(c) ऐसी विध जिससे रोजगार का अधिकार प्राप्त हो

(d) ऐसी विधि जो केवल ‘प्रक्रिया’ से संबंधित हो

 
  1. निम्नलिखित में से किस संविधान संशोधन के अन्तर्गत सम्पति का अधिकार मौलिक अधिकार से हट गया?

(a) 24वाँ संशोधन

(b) 25वाँ संशोधन

(c) 42वाँ संशोधन

(d) 44वाँ संशोधन

 
  1. सूची-I एवं सूची-II को सुमेलित कीजिये और सूचियों के नीचे दिए गये कूट की सहायता से सही उत्तर चुनिये-

सूची – I nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;सूची – II

(A) बालाजी बनाम मैसूर राज्य nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;1. मूल अधिकारों के अभित्यजन का सिद्धांत

(B) मेनका गाँधी बनाम भारत संघ nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;2. धार्मिक स्वतंत्रता

(C) रेव. स्टेनिस्लाव बनाम मध्य प्रदेश राज्य nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;3. प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार

(D) बशेशर नाथ बनाम आयकर आयुक्त nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;4. पिछड़े वर्ग का आरक्षण

कूट:

A nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;B nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;C nbsp;nbsp;nbsp;nbsp;D

(a) 4 2 3 1

(b) 1 4 3 2

(c) 4 3 2 1

(d) 4 1 2 3

 
  1. संविधान के अनुच्छेद 21 के अधीन जीवन तथा दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार में सम्मिलित है-

(a) मृत्यु का अधिकार

(b) आत्महत्या करने के प्रयत्न का अधिकार

(c) शिक्षा का अधिकार

(d) नियोजन का अधिकार

 
  1. विज्ञापन एक ‘वाणिज्यिक वाक्’ है, यह निर्णीत हुआ था-

(a) हमदर्द दवाखाना ब. भारत संघ में

(b) एक्सप्रेस न्यूज़ पेपर्स (प्रा.) लि. ब. भारत संघ में

(c) बेनेट कोलमैन एंड क. ब. भारत संघ में

(d) टाटा प्रेस लि. ब. महानगर टेलीफोन निगम लि. में

 
  1. अवैध कैद के लिए कौन सी रिट जारी होती है?

(a) निषेध रिट

(b) परमादेश रिट

(c) बन्दी प्रत्यक्षीकरण रिट

(d) अधिकार-प्रच्छा रिट

 

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LECTURE – 5

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996

[ARBITRATION AND CONCILIATION ACT, 1996]

माध्यस्थम् कार्यवाही का संचालन

MAINS QUESTIONS

 
  1. भारतीय मध्यस्थम अधिनियम के अंतर्गत किन किन आदेशों की अपील हो सकती है | समझाइये?
 
  1. माध्यस्थम अधिनियम के अंतर्गत किसी मध्यस्थता करार पर मर्यादा अधिनियम के उपबंध कहाँ तक लागू होते है ?
 
  1. माध्यस्थम कब पंचायत को अपास्त कर सकते है वर्णन कीजिये |
 

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LECTURE – 5

 

माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त करने के आवेदन-पत्र (धारा 34)

1. माध्यस्थम् पंचाट के विरुद्ध अपील नहीं हो सकती है लेकिन धारा 34 की उपधारा (2) एवं उपधारा (3) के अनुसार पंचाट को अपास्त कराने के लिए न्यायालय में आवेदन दिया जा सकता है। (उपधारा 1)

किसी पंचाट को अपास्त कराने के लिये धारा 34 के अन्तर्गत उस न्यायालय में आवेदन किया जा सकता है जिसके द्वारा अन्तरिम उपचार प्रदान किया गया है। [स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल बनाम एसोसिएटेड कॉण्ट्रैक्टर्स, ए० आई० आर० 2015 एस० सी० 260]

2. आवेदन-पत्र प्रस्तुत करने वाला पक्षकार निम्नलिखित में से कोई सबूत पेश कर देता है तो न्यायालय पंचाट अपास्त कर देगा –

(iii) पक्षकार किसी असमर्थता के अधीन है,

(iv) माध्यस्थम् करार विधिमान्य नहीं है,

(v) आवेदन पत्र प्रस्तुत करने वाले पक्षकार को नोटिस दिया गया था या वह अन्यथा मामले को प्रस्तुत करने में असमर्थ था,

(vi) माध्यस्थम् अधिकरण ने शर्तों से परे जाकर मामले को विचारित किया है,

(vii) माध्यस्थम् अधिकरण की संरचना या प्रक्रिया पक्षकारों के करार के अनुसार नहीं थी

उपर्युक्त सबूत के आधार पर न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है –

(i) कि विवाद की विषय-वस्तु तत्समय प्रवृत्त विधि के अधीन माध्यस्थम् द्वारा निपटाये जाने योग्य नहीं है, अथवा

(ii) माध्यस्थम् पंचाट भारत की लोकनीति के विपरीत है, पंचाट को अपास्त कर देगा। (उपधारा 2)

(iii) पंचाट को अपास्त करने का आवेदन,पंचाट प्राप्त करने की तिथि से तीन महीने के भीतर प्रस्तुत कर दिया जाना चाहिए। लेकिन पर्याप्त हेतुक दर्शित करने में न्यायालय अगले 30 दिनों के भीतर आवेदन-पत्र को विचार हेतु ग्रहण कर सकता है, परन्तु इसके बाद नहीं। (उपधारा 3)

(iv) पक्षकार के निवेदन पर न्यायालय द्वारा माध्यस्थम् अधिकरण को यह अवसर प्रदान किया जाना चाहिए कि वह माध्यस्थम् कार्यवाही को पुनः आरम्भ कर सके या उन कारणों का निवारण कर सके जिनकी वजह से पंचाट को अपास्त किया जा सकता है। इस दौरान न्यायिक कार्यवाही को स्थगित रख सकता है। (उपधारा 4)

धारा 34 के उक्त उपबन्धों से स्पष्ट है कि पंचाट के विरुद्ध न्यायालय के अवलम्ब (Recourse) को कतिपय निश्चित आधारों तक ही सीमित रखा गया है।

साधारणत: माध्यस्थम् की विषय-वस्तु में स्थित न्यायालय को ही पंचाट की वैधता पर विचार करने की अधिकारिता है।

रामनिवास बनाम बनारसी दास (1968) कल० 314 के वाद में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित कि पक्षकार की मृत्यु के साथ पंचाट निर्णय उन्मोचित नहीं हो जाता अपितु वह पक्षकार के विधिक प्रतिनिधियों पर बन्धनकारी होता है। अतः विधिक प्रतिनिधि पंचाट को अपास्त किये जाने हेतु न्यायालय में आवेदन दे सकते हैं।

इन्टरनेशल एयरपोर्ट अथॉरिटी बनाम के० डी० बाली, ए० आई० आर० 1988 सु० को० 1099 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यदि माध्यस्थम् कार्यवाही के किसी पक्षकार ने मध्यस्थ के लिए हवाई जहाज के टिकट तथा होटल में ठहरने की व्यवस्था की तो उसे पंचाट अपास्त किये जाने के लिए मध्यस्थ का कदाचार नहीं माना जायेगा।

पंचाट को अपास्त करने का आवेदन देने का अधिकार व्यथित पक्षकार या उसके विधिक प्रतिनिधि को है। विधिक प्रतिनिधि भी धारा 35 के अन्तर्गत पंचाट से आबद्ध होता है।

विभिन्न न्यायिक निर्णयों में न्यायालय ने यह धारित किया है कि पंचाट को मध्यस्थ के कदाचार या उसके द्वारा कार्यवाही के दोषपूर्ण संचालन के आधार पर अपास्त किया जा सकता है। कदाचार के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं

1. पक्षकार को सुने बिना एकतरफा पंचाट निर्णय देना,

2. पक्षकारों को बिना पूर्व सूचना दिये माध्यस्थम् कार्यवाही प्रारम्भ करना या जारी रखना,

3. अपने कर्तव्यों का अनुचित प्रत्यायोजन,

4. साक्ष्य देने वाले व्यक्ति को साक्ष्य देने से वंचित करना,

5. प्रत्यर्थी के दावे पर विचार न करना,

6. माध्यस्थम् करार के अधीन अधिकृत किये गये मुद्दों से हटकर अवांछित मुद्दों की सुनवाई में शामिल करना,

7. द्वेषभावना से प्रेरित होकर पंचाट जारी करना।

मेसर्स स्पेट एण्ड कम्पनी बनाम नेशनल बिल्डिंग कन्सट्रक्शन कारपोरेशन, ए० आई० आर० 1988 एन० ओ० सी० 146 (दिल्ली) के वाद में न्यायालय ने ‘कदाचार’ की व्याख्या करते हुए कहा कि कदाचार में अनैतिक या बेईमानी का तत्व होना आवश्यक नहीं है क्योंकि विधिक कदाचार में अपने कर्तव्य में असावधानी या उत्तरदायित्व के प्रति लापरवाही का भी समावेश है भले ही यह जानबूझकर न की गई हो।

पंचाट अपास्त किये जाने के बाद प्रवर्तनीय नहीं रह जाता।

पंचाट की अन्तिमता – धारा 35 यह उपबन्धित करती है कि माध्यस्थम् अधिकरण का अंतिम पंचाट पक्षकारों और उनके विधिक प्रतिनिधियों के विरुद्ध अंतिम एवं बन्धकारी होता है। विधिक प्रतिनिधियों में प्रापक, समनुदेशिती, सम्पत्ति के प्रापक आदि आते हैं।

पंचाट का प्रवर्तन – धारा 36 यह उपबन्धित करती है कि पंचाट का निष्पादन डिक्री के निष्पादन की भांति कर दिया जायेगा जब –

(i) धारा 34 के अधीन पंचाट को अपास्त करने के लिए आवेदन करने की समयावधि समाप्त हो चुकी है,

(ii) पंचाट अपास्त करने के आवेदन को न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दिया गया है।

यद्यपि पंचाट प्राइवेट अधिकरण द्वारा दिया गया फैसला है लेकिन इसकी प्रास्थिति वही है जैसी कि न्यायालय की डिक्री की होती है। सरकार के विरुद्ध माध्यस्थम् पंचाट के प्रवर्तन के लिए सरकार को पूर्व सूचना दिया जाना आवश्यक नहीं है क्योंकि वह एक पक्षकार होती है।

अपीलीय आदेश- धारा 37 यह उपबन्धित करती है कि माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा पारित आदेशों के विरुद्ध अपील किया जा सकता है। पंचाट के विरुद्ध अपील नहीं होता है।

उच्चतम न्यायालय ने पश्चिम बंगाल राज्य बनाम गौरंगालाल, (1993) 3 एस० सी० सी० के वाद में अभिनिर्धारित किया कि इस धारा के अन्तर्गत मध्यस्थ के कदाचार या भ्रष्टाचार के आधार पर अपील नहीं हो सकेगी क्योंकि इस धारा में केवल मध्यस्थ अधिकरण के आदेशों के विरुद्ध अपील का ही प्रावधान है।

न्यायालय के निम्नलिखित आदेश के विरुद्ध अपील हो सकती है

(1) धारा 9 के अधीन किसी उपाय को मंजूरी देना,

(2) धारा 34 के अधीन माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त किया जाना या अपास्त करने से इन्कार करना।

माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा पारित निम्नलिखित दो आधारों के विरुद्ध ही अपील हो सकेगी –

(क) माध्यस्थम् अधिकरण का यह आदेश कि अधिकरण को अधिकारिता नहीं है (धारा 16 (2) एवं (3) के अधीन पारित आदेश),

(ख) धारा 17 (1) एवं (2) के अन्तर्गत अन्तरिम उपाय को स्वीकार करने या अस्वीकार करने से इन्कार करने सम्बन्धी आदेश।

माध्यस्थम् अधिकरण के आदेशों के विरुद्ध केवल एक अपील का ही प्रावधान है तथा दूसरी अपील वर्जित है तथापि अपील में दिये गये आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की जा सकेगी।

अधिनियम की धारा 9 एवं 34 के अधीन न्यायालय द्वारा पारित किये गये आदेशों के विरुद्ध पुनर्विलोकन का प्रावधान नहीं है। लेकिन पटना एवं पंजाब उच्च न्यायालय के अनुसार ऐसे आदेशों के विरुद्ध पुनर्विलोकन किया जा सकता है।

अनुच्छेद 136 उच्चतम न्यायालय को किसी भी निर्णय, डिक्री या आदेश के विरुद्ध विशेष अनुमति द्वारा अपील पर सुनवाई करने के लिए अधिकृत करता है।

धारा 38 के अन्तर्गत माध्यस्थम् अधिकरण खर्चे हेतु निक्षेप या अग्रिम धन जमा करने की अपेक्षा करता है।

धारा 39 माध्यस्थम् अधिकरण को यह अधिकार-शक्ति प्रदान करती है कि जब वह पक्षकार द्वारा माध्यस्थम् कार्यवाही के लिए खर्चे हेतु, निक्षेप या मांगे गये अग्रिम धन का संदाय नहीं कर दिया है पंचाट परिदान करने से इन्कार कर सकता है।

अधिकरण को पंचाट पर धारणाधिकार प्राप्त है।

मोहम्मद अकबर बनाम अत्तार सिंह, ए० आई० आर० (1945) प्रि० कौं० 170 के वाद में प्रिवी कौंसिल ने निर्णय दिया कि माध्यस्थम् की फीस तथा खर्चे आदि निर्धारित करना माध्यस्थम् अधिकरण के विवेकाधिकार का प्रश्न है, तथापि अधिकरण द्वारा इसका प्रयोग युक्तियुक्त ढंग से किया जाना चाहिए।

धारा 40 के अनुसार, पक्षकार की मृत्यु के कारण माध्यस्थम् करार समाप्त (उन्मोचन) नहीं होगा। मृतक पक्षकार के विधिक प्रतिनिधियों को माध्यस्थम् करार प्रवर्तित कराने का भी अधिकार होता है बशर्ते की कि करार के अन्तर्गत निहित अधिकार मृतक की मृत्यु के पश्चात् उसके विधिक प्रतिनिधियों को प्राप्त हो।

धारा 42 के अनुसार, जहाँ इस अधिनियम के भाग (1) के अधीन माध्यस्थम् करार के सम्बन्ध में कोई आवेदन किसी न्यायालय में दिया गया है,तो केवल उसी न्यायालय को माध्यस्थम् कार्यवाही पर अधिकारिता होगी तथा माध्यस्थम् करार से उत्पन्न सभी आवेदनों पर वही न्यायालय विचार करेगा अन्य न्यायालय को अधिकारिता नहीं होगी।

धारा 43 के अनुसार, माध्यस्थम् कार्यवाही के प्रति परिसीमा अधिनियम, 1963 के प्रावधान ठीक उसी प्रकार लागू होंगे जिस प्रकार वे न्यायालयाधीन कार्यवाही के लिए लागू होते हैं।

माध्यस्थम् करार में पक्षकार यह शर्त रख सकते हैं कि उनके बीच विवाद उत्पन्न होने की दशा में माध्यस्थम् कार्यवाही एक निश्चित अवधि में प्रारम्भ कर दी जायेगी। वे माध्यस्थम् करार में यह भी शर्त रख सकते हैं कि यदि माध्यस्थम् नियत अवधि के भीतर प्रारम्भ नहीं किया जाता, तो दावा परिसीमा के अधीन वर्जित हो जायेगा। ऐसी शर्त होने पर माध्यस्थम् अधिकरण में दावा वर्जित होता है लेकिन न्यायालय में नियमित वाद दायर किया जा सकता है।

धारा 43 के अधीन माध्यस्थम् प्रारम्भ करने की परिसीमा अवधि उस तिथि से शुरु होती है जब माध्यस्थम् का कारण उद्भूत हुआ हो और दावेदार को दावे का अधिकार हो।

किसी विवाद के सम्बन्ध में माध्यस्थम् का प्रारम्भ उसी तिथि से माना जायेगा जब प्रत्यर्थी को माध्यस्थम् की मांग का नोटिस प्राप्त हुआ है। पक्षकार माध्यस्थम् प्रारम्भ करने की कोई तिथि निश्चित कर सकते हैं।

माध्यस्थम् के प्रकारों में परिसीमा अधिनियम का अनुच्छेद 137 लागू होता है। इस अधिनियम के सन्दर्भ में वर्तमान माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की स्थिति यह है कि माध्यस्थम् करार में रखा गया प्रावधान माध्यस्थम् को कालबाधित कर सकेगा परन्तु इसके दावे पर रोक नहीं लगाई जा सकती। पक्षकार सिविल न्यायालय में वाद दायर करके उपचार प्राप्त कर सकता है।

यदि आपत्तियाँ कालबाधित हैं तो उन पर विचार नहीं किया जा सकेगा। [शिवलाल बनाम फूड कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1997 राजस्थान 93] ।

परिसीमा अधिनियम, 1963 के अन्तर्गत किसी संविदा से उत्पन्न होने वाले दावे के लिए वाद लेने हेतु परिसीमा 3 वर्ष है और माध्यस्थम् के लिए भी यही परिसीमा लागू होगी, अतः कोई भी माध्यस्थम् करार जो उक्त अवधि को कम करता है वह शून्य और अवैध होगा।

 

LECTURE -5

PRE QUESTIONS

 
  1. माध्यस्थम अधिकरण पक्षकार के निवेदन के कितने दिन के भीतर पंचाट में संशोधन कर देगा ?

a) 30 दिनों में

b) 45 दिनों मे

c) 60 दिनों में

d) 90 दिनों में

 
  1. पंचाट अंतिम एंव पक्षकारों पर बाध्यकारी होता है ,किस धारा में प्रावधानित है

a) धारा 34

b) धारा 35

c) धारा 36

d) धारा 37

 
  1. धारा 34 के अधीन माध्यस्थम पंचाट को अपास्त किया जाने का आदेश है –

a) अपीलीय

b) पुनरीक्षणीय

c) न तो अपीलीय न पुनरीक्षणीय

d) उपयुक्त में कोई नहीं

 
  1. माध्यस्थम एंव सलाह अधिनियम के अधीन एक पंचाट धारा ३६ के अंदर ऐसे परवर्तनीय होगा जैसे

a) सिविल प्रक्रिया के अधीन एक निर्णय

b) आदेश

c) डिक्री

d) उपयुक्त में कोई नहीं

 
  1. सुलाहकर्ताओं की संख्या हो सकती है –

a) एक

b) दो

c) तीन

d) उपयुक्त सभी

 

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LECTURE – 6

राष्ट्रपति की शक्तियों

मुख्य प्रश्न

 
  1. भारतीय संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति पद की स्थिति का वर्णन किजिए।
 
  1. भारतीय संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति की विधायी शक्तियों का वर्णन किजिए।
 
  1. भारतीय संविधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति कार्यपालिका शक्तियों का वर्णन कीजिए I
 

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LECTURE – 6

राष्ट्रपति की शक्तियों पर एक नजर

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राष्ट्रपति के विशेषाधिकारः-

अनुच्छेद 361 के अन्तर्गत राष्ट्रपति और राज्यों के राज्यपालों को निम्नलिखित विशेषाधिकार प्रदत्त किये गये हैः-

1. न्यायालय के प्रति उत्तरदायी न होने का विशेषाधिकार— राष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल अपने पद की शक्तियाँ के प्रयोग और कर्तव्यों के पालन के लिये या उन शक्तियों के प्रयोग और कर्त्तव्यों के पालन में अपने द्वारा किये गये या किये जाने के लिये अभिप्रेत, किसी कार्य के लिये, किसी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नही होगा। (अनुच्छेद 361(1)) यह विशेषाधिकार निम्नलिखित दो परन्तुकों के अधीन भी है—

(I) अनुच्छेद 61 के अधीन— यदि दोषारोपण (महाभियोग का आरोप) की जांच-पड़ताल (अनुसंधान) के लिये संसद् के किसी सदन द्वारा कोई न्यायालय, न्यायाधिकरण या निकाय नियुक्ति या नामोदिष्ट किया जाता है, तो वह राष्ट्रपति के आचरण का पुर्नविलोकन कर सकेगा।

(II) अनुच्छेद 361(1) के अधीन प्रदत्त विशेषाधिकार— किसी व्यक्ति के, भारत सरकार या किसी राज्य के राज्य-सरकार के विरुद्ध, उसके पद की अवधि के दौरान, किसी भी प्रकार की दाण्डिक कार्यवाही किसी भी न्यायालय में नही चलाई जायेगी और न चालू रखी जायेगी।

(III) गिरफ्तारी या कारावास के विरुद्ध विशेषाधिकार— अनुच्छेद 361(3) के अनुसार, राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल को गिरफ्तार करने या कारावास के लिये, किसी भी न्यायालय से कोई आदेशिका, उसके पद की अवधि के दौरान, जारी नही की जायेगी।

(IV) दीवानी कार्यवाही के विरुद्ध विशेषाधिकार— अनुच्छेद 361(4) के अनुसार, ऐसी कोई भी दीवानी कार्यवाही, जिसमें राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल के विरुद्ध किसी अनुतोष के लिये द्वारा किया जाता है, तब तक किसी न्यायालय में उसके पद की अवधि के दौरान, उसके द्वारा अपनी व्यक्तिगत हैसियत में, चाहे अपना ऐसा पद ग्रहण करने के पूर्व या पश्चात् किये गये या किये जाने के लिए अभिप्रेत, किसी कार्य के लिये, दायर नही किया जायेगा, जब तक कि उसे, दावेदार के द्वारा, दो माह की मियादी नोटिस नही दी जाती है।

 

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LECTURE- 6

राष्ट्रपति की शक्तियों

 
  1. राष्ट्रपति द्वारा लोक सभा का विघटन किया जा सकता हैः-
    1. (a) मंत्री परिषद् की सलाह पर

      (b) लोक सभा अध्यक्ष की सलाह पर

      (c) उपराष्ट्रपति की सलाह पर

      (d) उपरोक्त में से कोई नही

       
      1. भारतीय संसद में सम्मिलित है
        1. (a) लोक सभा और राज्य सभा

          (b) लोकसभा और लोक सभा अध्यक्ष

          (c) राष्ट्रपति और संसद के दोनों सदन

          (d) उपरोक्त में से कोई नही

           
          1. भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति का वर्णन किया गया है?
            1. (a) अनुच्छेद – 62

              (b) अनुच्छेद – 63

              (c) अनुच्छेद – 72

              (d) अनुच्छेद – 71

               
              1. भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति निम्न में से कौन करता है।
                1. (a) प्रधान मंत्री

                  (b) सर्वोच्च न्यायालय

                  (c) राष्ट्रपति

                  (d) लोकसभा अध्यक्ष

                   
                  1. राष्ट्रपति संविधान के किस अनुच्छेद के अन्तर्गत अध्यादेश जारी करता है?
                    1. (a) अनुच्छेद – 122

                      (b) अनुच्छेद – 123

                      (c) अनुच्छेद – 124

                      (d) अनुच्छेद – 121

 

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LECTURE – 7

मूल कर्त्तव्य

(FUNDAMENTAL DUTIES)

 

भारतीय नागरिकों के मूल कर्त्तव्य

(Fundamental duties of Citizens of India)

 

मूल संविधान में भारतीय नागरिकों के मूल कर्त्तव्यों का कोई उल्लेख नहीं था। संविधान (42वा संशोधन) अधिनियम 1976 द्वारा संविधान में एक नया अध्याय भाग 4-क और उसके अन्तर्गत एक नया अनुच्छेद 51-क जोड़कर 10 मूल कर्तव्यों के लिए उपबंध किये गये हैं। इस संशोधन के लिये नियुक्त संविधान संशोधन समिति का यह मत था कि जहां संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों का उल्लेख किया गया है वहां मूल कर्त्तव्यों का भी समावेश होना चाहिये क्योंकि अधिकार और कर्तव्य एक-दूसरे पर अनन्य रूप से आश्रित होते हैं। इस कमी को दूर करने के पीछे समिति के सदस्यों की धारणा यह थी कि भारत में लोग केवल अपने अधिकारों पर ही जोर देते हैं कर्तव्यों पर नहीं।

अभी तक इन मूल कर्त्तव्यों के संबंध में संसद ने कोई कानून नहीं बनाया है, इसलिए कोई न्यायिक निर्णय उपलब्ध नहीं है। प्रसंगवश, अभी केवल इतना ही कहा जा सकता है कि केवल जापान को छोड़कर विश्व के किसी भी लोकतांत्रिक संविधान में मूल कर्त्तव्यों का स्पष्ट उल्लेख इस प्रकार से नहीं किया गया है। ब्रिटेन, कनाडा और आस्टेलिया में नागरिकों के अधिकार और कर्तव्य कामन लॉ और न्यायिक निर्णयों द्वारा विनियमित होते हैं। अमेरिका में भी यही स्थिति है। मूल कर्तव्यों के प्रति केवल कम्युनिष्ट देश ही अति उत्साही दिखाई देते हैं। सोवियत संघ का संविधान उदाहरण के लिए नागरिकों के मल कर्त्तव्यों के लिए उपबंध करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय सविधान में उसी का अनुकरण किया गया है।

सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि इन मूल कर्त्तव्यों के उल्लंघन करने पर नागरिकों को किस प्रकार से दंडित किया जाये? 42वां संशोधन अधिनियम संसद को यह शक्ति प्रदान करता है कि यह विधि बनाकर मूल कर्त्तव्यों की दशा में दोषी व्यक्तियों के लिये दण्ड की व्यवस्था करे। दूसरा प्रश्न यह है कि इस बात का निर्धारण कैसे किया जायेगा कि किसी नागरिक ने अपने मूल अधिकारों का उल्लंघन किया है या नही? नागरिक द्वारा मूल कर्त्तव्यों का समुचित पालन किया जाए, इसके लिए यह अत्यन्त आवश्यक होगा कि उसके विषय में उन्हें पूरी जानकारी हो। भारत की अधिकांश जनता निरक्षर है और उन्हें संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों और कर्त्तव्यों का कोई ज्ञान नही है। इसके लिए यह आवश्यक होगा कि उन्हें इसके विषय में जानकारी दिलायी जाए।

ये मूल कर्त्तव्य निम्नलिखित हैं—

भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य होगा कि वह—

1. संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्रध्वज (National Flag) और राष्ट्रगीत (National anthem) का आदर करे,

2. स्वतंत्रता के लिये हमारे राष्ट्रीय आंदोलनों को प्रेरित करने वाले महान आदर्शों (noble ideas) को हृदय में संजोये रखे और उनका अनुसरण करे,

3. भारत की एकता, प्रभुता, अखण्डता की रक्षा करे और उसे बनाये रखें,

4. देश की रक्षा करे और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे,

5. भारत के सभी लोगों में समरसता (harmony) और सामान्य भाई-चारे की भावना को बढ़ावा दे जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेद-भाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का परित्याग करें जो स्त्रियों की गरिमा के लिये अपमानजनक (derogatory to the dignity of women) हो,

6. हमारी मिली जुली संस्कृति (composite culture) की समृद्ध परंपरा (rich neritage) का महत्व समझे और उसको बनाये रखे,

7. जंगलों, झीलो, नदियों और जंगली जीवों सहित प्रारकृतिक पर्यावरण (environment) की रक्षा और उन्नति करे और जीवित प्राणियों के प्रति दयाभाव रखे,

8. वैज्ञानिक रुझान (Scientific temper), मानववाद (humanism) और ज्ञान तथा सधार की भावना का विकास करे,

9. सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करे और हिंसा से दूर रहे।

मे. स्वराज्य फाउण्डेशन, सतारा बनाम कलेक्टर, सतारा, ए० आई० आर० 2017 एन. ओ० सी० 521 बम्बई के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि सार्वजनिक सम्पत्ति की अवैध होर्डिंग्स, विज्ञापन आदि से रक्षा करना राज्य का मूल कर्तव्य है।

10. व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर प्रयास करे जिससे राष्ट्र लगातार प्रयत्न और उपलब्धि के उच्चतर स्तरों तक ऊंचा उठे,

11. छ: वर्ष की आयु से चौदह वर्ष की आयु के बालकों के माता-पिता और प्रतिपाल्य के संरक्षकों का यह कर्तव्य होगा कि वे उन्हें शिक्षा का अवसर प्रदान करें। यह कर्तव्य 86वें संविधान संशोधन द्वारा जोड़ा गया है।

एम० सी० मेहता (2) बनाम भारत संघ, (1998) 1 एस० सी० सी० 47 के मामले में न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि अनु० 51-क (छ) के अधीन केन्द्रीय सरक कर्त्तव्य है कि वह देश की शिक्षण संस्थाओं में सप्ताह में एक घण्टे पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा देने का निदेश दे। दूसरी बात जो महत्व की है वह यह है कि अनच्छेद 51(क) की भाषा बड़ी विस्तृत है और इसके अर्थ तथा विस्तार के बारे में अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है। किन्तु इतना तो स्पष्ट ही है कि इस अनुच्छेद की भाषा की परिधि के अन्तर्गत राज्य किसी भी नागरिक को दंडित कर सकता है। इस स्थिति का यथाशीघ्र निराकरण आवश्यक है। इसके अभाव में मूल कर्त्तव्य पवित्र घोषणा मात्र रह जायेंगे।

सुरेश कमार गुप्ता बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश, ए० आई० आर० 2017 इलाहाबाद 103 के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि राष्ट्रगान की तुलना दैनिक ईश्वरीय प्रार्थना से नहीं की जा सकती। न्यायालयों में एवं अन्य कार्यालयों में हमेशा राष्ट्रगान किया जाना आवश्यक नहीं है।

 

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LECTURE – 8

भारत का संविधान

गणतीय आंकणों पर आधारित केंद्र राज्य सम्बन्ध

मुख्य प्रश्न

 
  1. राष्ट्रपति की क्षमादान शक्ति की विवेचना कीजिए।
 
  1. राज्यसभा की संरचना का वर्णन किजिए।
 
  1. राज्यों के विधानमण्डल के गठन पर एक संक्षिप्त निबंध लिखिये I
 
  1. संसद कि सदस्यता कब समाप्त हो जाती है I
 
  1. संसद के स्थगन पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए I
   

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LECTURE- 8

भारत का संविधान

गणतीय आंकणों पर आधारित केंद्र राज्य सम्बन्ध

केंद्रीय अनुच्छेद + 89 राज्य अनुच्छेद

<नीचे उल्लिखित अनुच्छेदों के प्रावधान समान हैं एवं पूर्वलिखित अनुच्छेद में 89 जोड़ने पर पश्चातवर्ती अनुच्छेद का उपबन्ध प्राप्त होता है जो राष्ट्रपति, राज्यपाल, मंत्रिपरिषद, संसद तथा राज्य विधानमण्डल से सम्बन्ध हैं।

उदाहरणार्थ 72 (राष्ट्रपति के क्षमादान की शक्ति) + 89 = 161 (राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति)

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राष्ट्रपति के क्षमादान को शक्ति

क्षमादान केवल दंड को समाप्त नहीं करता अपितु दण्डित व्यक्ति को उस स्थिति में ला देता है जैसे कि उसने अपराध किया हो न हो अर्थात वह निर्दोष हो जाता है।

अनुच्छेद 72:- राष्ट्रपति को किसी अपराध के लिए सिद्धदोष ठहरा दिए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, प्रविलम्बन, विराम या परिहार करने को अथवा दंडादेश के निलम्बन, परिहार या लघुकरण करने को शक्ति प्रदान करता है। क्षमादान का प्रयोग, परिक्षण के पूर्व उसके दौरान और उसके पश्चात सभी स्थितियों में किया जा सकता है।

राष्ट्रपति के क्षमादान की शक्ति का निर्धारण निम्न प्रकार से किया जा सकता है:- निर्धारण मानक

(1) राष्ट्रपति को क्षमादान की ब्रिटिश सम्राट के निर्वाध दयाशीलता (Clemency) को सम्प्रभु शक्ति से भिन्न एक संवैधानिक शक्ति है। और इसका प्रयोग राष्ट्रपति के संवैधानिक मापदंडों अर्थात अनुच्छेद 14 के अनुरूप करना होता है।

(2) अनुच्छेद 72 की शक्ति एक कार्यपालिकीय शक्ति है और इस शक्ति का प्रयोग करते समय राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय के निर्णय में गुणागुण के आधार पर उसका पुनर्विलोकन नहीं करता। क्षमादान की शक्ति न्यायालय के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं अपितु एक स्वतंत्र शक्ति है।

(3) राष्ट्रपति से क्षमादान पाने का अधिकार कोई मौलिक अधिकार नहीं है और यह पूर्णतया राष्ट्रपति की विवेकीय शक्ति है।

अनुच्छेद 72 के अधीन क्षमादान के “तीन आधार” हैं –

(i) राष्ट्रपति भारतीय सम्प्रभुता का संवैधानिक घोतक है और यह एक अवशेष शक्ति के रूप में राष्ट्रपति को इसलिए प्रदान की गयी है कि न्यायालय के निर्णय के पश्चात भी उसके साथ तनिक भी अन्याय होने की सम्भावना न शेष रहे।

(ii) हो सकता है, न्यायालय द्वारा किसी सामग्री पर त्रुटिवश विचार न किया गया हो अथवा किसी तथ्य का पता निर्णय के पश्चात चला हो।

(iii) कोई तथ्य न्यायालय के समक्ष ही न रखा गया हो,

उचित ढंग से प्रस्तुत ही नहीं किया गया हो,

दंडादेश के पश्चात किसी तथ्य की खोज हुई हो, अथवा

दंडादेश के पश्चात असाधारण परिस्थितियां उत्पन्न हो गई हो।

अन्य कोई विशेष कारण।

1. पंजाब राज्य बनाम जोगिन्दर सिंह तथा अशोक कुमार बनाम भारत संघ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि अनुच्छेद 72 निरपेक्ष है और किसी भी संवैधानिक प्रावधान द्वारा इसमें न्यूनतम नहीं किया जा सकता और न ही इसमें छेड़छाड़ की जा सकती है।

2. मारू राम बनाम भारत संघ AIR 1980 S.C के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 14 के कठोर संवैधानिक मापदंडो के अनुरूप किया जाएगा। अनुच्छेद 72 के प्रयोग के तीन मानक नियत किए थे –

(1) इसका प्रयोग अनुच्छेद 14 के कठोर संवैधानिक मापदंडो के अनुरूप किया जाएगा।

(2) राष्ट्रपति इसका प्रयोग केवल मंत्रिपरिषद के सलाह से ही कर सकते हैं।

(3) राष्ट्रपति को क्षमादान आदेश के विरुद्ध न्यायालय की पुनर्विलोकन की शक्ति अत्यधिक सीमित है क्योंकि न्यायालय राष्ट्रपति के विवेद को परख नहीं कर सकता। न्यायालय के पुनर्विलोक का आधार, दुर्भावना, पक्षपात, अथवा असावधानी हो सकती है। यदि वह अनुच्छेद के मापदण्डों का पालन नहीं करती।

3. केहरसिंह बनाम भारतसंघ AIR 1989 S.C के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्न सिद्धांत दिए गये हैं –

(1) क्षमादान संवैधानिक योजना का एक भाग है। अनुच्छेद 72 द्वारा राष्ट्रपति आपराधिक मामलों में साक्ष्य की जांच कर सकते हैं तथा न्यायालय से भिन्न निर्णय दे सकते हैं।

(2) न्यासिक पुनर्विलोकन की शक्ति राष्ट्रपति के शक्ति तक सीमित है, इसका विस्तार यहाँ तक नहीं हो सकता कि क्षमादान की शक्ति का प्रयोग गुण दोषों के आधार पर किया गया था नहीं राष्ट्रपति के शक्ति का प्रयोग न्यासिक क्षेत्राधिकार के अधीन है तथा न्यासिक पुनर्विलोकन के माध्यम से इसकी जांच की जा सकती है।

(3) याची को मौलिक रूप से सुना जाना पूर्णतया राष्ट्रपति के विवेकाधिकार के अधीन है। इसके लिए अभियुक्त दबाव नहीं डाल सकता।

(4) अनुच्छेद 72 के अंतर्गत राष्ट्रपति को अपने अधिकार के प्रयोग के लिए किसी सुपरिभाषित निर्देश को मानने की बाध्यता नहीं होती।

4. इपरु शंकर बनाम आंध्र प्रदेश राज्य 2006 S.C के मामले में उच्चतम न्यायालय ने दो प्रमुख नियम प्रतिपादित किये है –

(1) अनुच्छेद 72 तथा 161 के अधीन राष्ट्रपति व राज्यपाल के क्षमादान की शक्ति संवैधानिक शक्ति है और यह न्यासिक पुनर्विलोकन के अधीन है और क्षमादान देने अथवा न देने के आधारों का न्यायिक पुर्विलोकन किया जा सकता है।

(2) किन्तु न्यायालय, राष्ट्रपति व राज्यपाल के आदेश में हस्तक्षेप तभी करेगा। जब सुसंगत तथ्यों की अपेक्षा की गयी हो अथवा बाध्य व निरर्थक सामग्री का विचार करके क्षमादान दिया गया हो अथवा ठुकराया गया हो और मस्तिष्क का प्रयोग किए बगैर ही मशीनी ढंग से उसकी निस्तारण कर दिया गया हो। अत: राष्ट्रपति या राज्यपाल का विवेक अनुच्छेद 14 के अनुरूप होना चाहिए अन्यथा न्यायालय उसके आदेश को अवैध घोषित करके उसे निरस्त कर सकता है।

5. शत्रुध्न चौहान बनाम भारत संघ 2014 S.C के मामले में अनुच्छेद 72/161 के अधीन शक्तियों का निर्धारण विस्तृत ढंग से किया गया।

(1) अनुच्छेद 32 के अधीन अनुच्छेद 72/161 के राष्ट्रपति के आदेश को परिणाम में चूंकि अनुच्छेद 21 का प्रश्न विहित है। इसलिए दोषसिद्ध व्यक्ति के अलावा उसका परिवार या लोकहित याचिका के रूप में दायर की जा सकती है।

(2) अनुच्छेद 72/161 के अधीन राष्ट्रपति अथवा राज्यपाल की क्षमादान की शक्ति उच्चतम न्यायालय के न्यायिक शक्ति से सर्वधा भिन्न है। इसके अधीन राष्ट्रपति या राज्यपाल उच्च अथवा उच्चतम न्यायालय के दण्डो की वैधता नहीं परखता बल्कि संवैधानिक शक्ति के अधीन लोकहित समाज पर दंडादेश का प्रभाव को ध्यान में रखकर निर्णय लेता है।

अनुच्छेद 72 के प्रयोग में राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय के विरुद्ध अपीलीय न्यायालय के रूप में नहीं बैठता अपितु यह शक्ति उसको संवैधानिक गरिमा, मानवीयता अथवा अन्य यथोचित परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उसे प्रदत्त की गयी है और उसको प्रकृति भिन्न निरपेक्ष तथा गैर असीमित [distinct, absolute and undetermined] है

(3) अनुच्छेद 72 ब्रिटिश सम्राट की सम्प्रभुता पर आधारित दयाशीलता की शक्ति नहीं अपितु अमेरिकी राष्ट्रपति की तरह एक संवैधानिक शक्ति है।

(4) क्षमादान की शक्ति के सन्दर्भ में उच्चतम न्यायालय की पुनर्विलोकन की शक्ति अत्यंत सीमित है और वह केवल malafide तथा विवेकहीन प्रयोग तक सीमित है।

(5) राष्ट्रपति के वैवेकीय शक्ति को किसी संविधानिक प्राधिकार छीना नहीं जा सकता अथवा न ही किसी नियम द्वारा इसमें संशोधन अथवा हस्तक्षेप किया जा सकता है।

(6) अनुच्छेद 32 के अधीन याचिका में राष्ट्रपति द्वारा क्षमादान करने में विलम्ब एकमात्र आधार नहीं हो सकता।

राष्ट्रपति या राज्यपाल की क्षमा याचिका के आदेश की पुनर्विलोकन द्वारा न्यायालय वास्तव में 72/161 में हस्तक्षेप नहीं करता सिद्ध व्यक्ति के जीवन सुरक्षा की जो अनुच्छेद 21 के अनुरूप उपलब्ध है। सुरक्षा प्रदान करता है।

क्या राष्ट्रपति अपनी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करने में स्वतंत्र है?

(Is the President free in exercise of his constitutional Powers?)

राष्ट्रपति अपनी उपर्युक्त किन्हीं भी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करने में स्वतंत्र नहीं है। सावधान के दो अनुच्छेद (1) अन० 53 और (2) अन० 74 निम्नलिखित प्रकार से उस पर प्रतिबंध आरोपित करते हैं

1. राष्ट्रपति अपने में निहित संघ की कार्यपालिका शक्ति का प्रयोग इस संविधान के अनुसार करेगा। इस संविधान के अनुसार यह पदावली इस बात का संकेत करती है कि राष्ट्रपति अपनी संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग, मनमाने तौर पर चाहे जैसा नहीं कर सकता है, वह इन शक्तियों के प्रयोग में संविधान के उपबंधों से बंधा हुआ है। यदि वह संविधान का उल्लंघन करता है तो इस आरोप पर उसके ऊपर अनुच्छेद 61 के अन्तर्गत महाभियोग चलाया जा सकता है और इस प्रकार उसके पद से हटाया जा सकता है।

2. इस संविधान के अनुसार पदावली के संदर्भ में आगे अनुच्छेद 74(1) के उपबंधों के अनुसार राष्ट्रपति की सहायता और सलाह देने के लिये एक मंत्रि परिषद होगी और मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुसार ही वह अपने कृत्यों को निष्पादित करेगा। राष्टपति मंत्रिपरिषद से यह कह सकता है कि वह अपनी ऐसी किसी सलाह पर पुनर्विचार करे किन्तु पुनर्विचार के बाद जो सलाह मंत्रिपरिषद उसे फिर देती है उसके अनसार कार्य करने के लिये वह बाध्य है। इस प्रकार अनुच्छेद 74 (1) राष्ट्रपति को, इंग्लैण्ड के सम्राट की तरह एक कठपुतली संवैधानिक प्रमुख बनाये हुये हैं।

संसद मे कानून निर्माण के लिए विहित विधायी प्रक्रिया (Legislative procedure prescribed for enacting laws) — संसद में कानून निर्माण के लिये विधायी प्रक्रिया विधेयक पेश करने से शुरु होती है। ये विधेयक (Bills) प्रस्तावित कानून के प्रारुप (Draft) होते है जिन पर संसद में चर्चा की जाती है संशोधन प्रस्तावित किये जाते है और तब उन्हें अंतिम रुप देकर कानून बनाया जाता है। संक्षेप में यह प्रक्रिया इस प्रकार हैः-

विधेयक तीन प्रकार के होते हैः-

i. साधारण विधेयक,

ii. धन विधेयक और

iii. वित्त विधेयक

इन तीनों प्रकार के विधेयकों के लिये विधायी प्रक्रिया भिन्न-भिन्न है।

1. साधारण विधेयक — अनुच्छेद 107 के अनुसार, साधारण विधेयक संसद के किसी भी सदन में पेश किये जा सकते है। सरकारी विधेयक किसी केन्द्रीय मंत्री द्वारा और प्राइवेट विधेयक किसी संसद सदस्य द्वारा पेश किये जाते है। किसी भी विधेयक को संसद द्वारा पारित किया गया तभी कहा जायेगा जब संसद के दोनों सदन उसे पारित कर दें। यदि इस संबंध में दोनों सदनों में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है तो अनुच्छेद 108 के अन्तर्गत राष्ट्रपति दोनो सदनों की संयुक्त बैठक बुलाता है और तब उसे बैठक में बहुमत से उस विधेयक को पारित या अस्वीकृत किया जाता है। दोनों सदनो द्वारा पारित हो जाने पर विधेयक को अनुच्छेद 111 के अन्तर्गत राष्ट्रपति के पास उसकी स्वीकृति के लिये भेजा जाता है और उस पर उसके हस्ताक्षर हो जाने पर वह विधेयक अधिनियम बन जाता है, जिसे हम देश का कानून कहते है।

विधेयक का वाचन (Reading of the Bill) प्रत्येक साधारण विधेयक का संसद के प्रत्येक सदन में तीन बार वाचन होता है—

प्रथम वाचन— सदन की अनुमति से विधेयक पेश किया जाता है और यदि वह विवादग्रस्त नही है, तो उस पर कोई विचार विमर्श नही किया जायेगा।

द्वितीय वाचन— प्रस्तुत विधेयक पर विचार-विमर्श दो खण्डों में किया जाता है प्रथम खण्ड में विधेयक के उपबंधों पर सामान्य बहस तब की जाती है जब उसका प्रस्तावक उस पर विचार करने के लिये या उसे प्रवर समिति को भेजे जाने के लिये कहता है। यदि विधेयक को प्रवर समिति को नही भेजा जाता है तो दूसरे खण्ड में उसके प्रवर समिति को भेजा गया है तो प्रवर समिति की रिपोर्ट आने पर उस पर दूसरे खण्ड में इस प्रकार से विचार विमर्श किया जाय़ेगा। दूसरे खण्ड के विचार-विमर्श में संशोधन भी प्रस्तावित किये जा सकते है और तब मतदान होता है।

तृतीय वाचन— यह वाचन औपचारिक होता है और सामान्य विचार-विमर्श के बाद विधेयक को पारित कर दिया जाता है

एक सदन द्वारा पारित किये जाने पर उस विधेयक को दूसरे सदन में भेज दिया जाता है जहाँ उपर्युक्त प्रक्रिया से उस पर विचार विमर्श होता है और वह पारित किया जाता है।

राष्ट्रपति की अनुमति-यदि विधेयक दोनों सदनों द्वारा एकमत से पारित कर दिया जाता है तो उसे राष्ट्रपति की अनुमति के लिए प्रस्तुत किया जाता है। तब राष्ट्रपति यह घोषित करता है कि

(क) वह विधेयक पर अपनी अनुमति देता है, या

(ख) वह अनुमति रोक लेता है, या

(ग) वह उसे पनर्विचार के लिये लौटा सकता है और साथ में अपना कोई सुझाव मा वह यदि चाहे तो दे सकता है।

यदि पुनर्विचार के बाद पुनः विधेयक दोनों सदनों द्वारा, संशोधन सहित या बिना संशोधन पारित कर दिया जाता है तो राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति देने के लिये बाध्य होगा। यदि वह किसी विधेयक पर अपनी अनुमति रोक लेता है तो वह विधेयक समाप्त हो जायेगा। यह राष्ट्रपति का निषेधाधिकार (Veto) है। जिसके प्रयोग करने की सलाह मन्त्रिपरिषद तभी देता है जब उसके विधेयक को पारित करने की आवश्यकता ही समाप्त हो गई है या जैसा कि पेप्सू एप्रोप्रियेशन बिल को राष्ट्रपति ने वीटो किया था।

2. धन विधेयक (Money Bill)— अनुच्छेद 110 (1) में उपबंधित परिभाषा के अनुसार धन विधेयक केवल निम्नलिखित बातों में से सभी या किन्हीं एक के संबंध में उपबंध करता है

(2) किसी कर को लगाना, समाप्त करना, उसमें छूट देना या परिवर्तन करना या विनियमित करना, (2) भारत सरकार के धन उधार लेने या कोई गारण्टी देने का विनियमन या भारत सरकार द्वारा स्वीकार किये गये या किये जाने वाले किसी वित्तीय आभार के संबंध में कानून का संशोधन.

(3) भारत की आकस्मिक निधि (Contingency fund) की या संचित निधि (Consolidated fund) की अभिरक्षा या ऐसी किसी निधि में रुपयों का भुगतान करना या उसमें से रुपये निकालना,

(4) भारत की संचित निधि में से धन का विनियोग (appropriation),

(5) किसी व्यय को भारत की संचित निधि का व्यय होना घोषित करना या ऐसे किसी व्यय की रकम को बढ़ाना,

(6) भारत की संचित निधि या भारत के लोक लेखा (Public account) मद्धे धन प्राप्त करना या ऐसे धन की अभिरक्षा या जारी करना या संघ के या किसी राज्य के लेखाओं का आडिट (लेख परीक्षण), या

(7) उपर्युक्त बातों में से किसी भी बात की कोई आनुषंगिक बात।

किसी विधेयक को केवल इस कारण से धन विधेयक नहीं माना जायेगा कि वह जुर्माना या अन्य धन संबंधी शास्तियों के आरोपित करने की या लाइसेन्सों के लिये फीस या की गई सेवाओं के लिये फीस के भुगतान की मांग करने की व्यवस्था करता है या इस कारण से कि वह किसी स्थानीय प्राधिकार या निकाय के द्वारा टैक्स के लगाये जाने, समाप्त किये जाने, छूट परिवर्तन या विनियमन किये जाने के लिये व्यवस्था करता है।

कोई विधेयक धन विधेयक है या नहीं ऐसा कोई प्रश्न उत्पन्न होने पर उस पर लोक सभा के अध्यक्ष का निर्णय अन्तिम होगा।

प्रत्येक धन विधेयक पर जब उसे अनुच्छेद 109 के अन्तर्गत राज्य सभा को भेजा जाय या अनुच्छेद 111 के अन्तर्गत राष्ट्रपति को उसकी अनुमति के लिये भेजा जाय, लोक सभा के अध्यक्ष द्वारा हस्ताक्षरित यह प्रमाणपत्र पृष्ठांकित (endorsed) किया जायगा कि वह धन विधेयक है।

3. वित्त विधेयक (Finance Bill)—वित्त विधेयक अनुच्छेद 110 (1) में उल्लिखित किन्हीं बातों के साथ-साथ अन्य के संबंध में भी व्यवस्था करता है।

धन विधेयक और वित्त विधेयक को केवल संसद में पेश किये जाने के संबंध समानता है जो इस प्रकार है कि ये दोनों प्रकार के विधेयक केवल राष्ट्रपति की पर्व अन से केवल लोकसभा में ही पेश किये जाते हैं, धन विधेयक अनुच्छेद 109 के अन्तर्गत और वित्त विधेयक अनुच्छेद 117 के अन्तर्गत लोकसभा में सरकार द्वारा पेश किये जाते हैं। ये सरकारी विधेयक होते हैं इन्हें राज्य सभा में पेश नहीं किया जाता है।

जहां तक इन विधेयकों के पारित किये जाने का प्रश्न है वित्त विधेयक किसी भी साधारण विधेयक की तरह ही पारित किये जाते हैं और प्रक्रिया के संबंध में उनमें कोई अन्तर नहीं है। किन्तु धन विधेयक के पारित किये जाने के संबंध में अनुच्छेद 109 में एक भिन्न प्रक्रिया उपबंधित की गई है, इसलिये पारित किये जाने की प्रक्रिया के संबंध में धन विधेयक

और वित्त विधेयक में तथा अन्य साधारण विधेयकों में अन्तर हो जाता है और जहां तक पेश किये जाने के संबंध में प्रक्रिया का प्रश्न है वहां धन विधेयक और वित्त विधेयक एक समान हैं, किन्तु ये दोनों प्रकार के विधेयक साधारण विधेयकों से भिन्न हो जाते हैं।

धन विधेयकों के संबंध में विशेष प्रक्रिया

(Special Procedure for Money Bill)

अनुच्छेद 109 के अनुसार—

1. धन विधेयक राज्यसभा में पेश नहीं किया जायेगा। लोकसभा में पारित हो बाद उसे राज्यसभा को उसकी सिफारिशों के लिये भेजा जायेगा जो विधेयक प्राप्त कर दिनों के अंदर उसे लोकसभा को वापस लौटा देगी। तब लोकसभा या तो राज्यसभा के सिफारिशों को स्वीकार करेगी या अस्वीकार कर देगी [(अनुच्छेद 109 (1) (2)]।

2. यदि लोकसभा राज्यसभा की सिफारिशों को स्वीकार कर लेती है तो उन सिफारिशों के अनुसार संशोधन के साथ धन विधेयक को दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया समझा जायेगा। किन्तु यदि लोकसभा ऐसी किन्हीं सिफारिशों को स्वीकार नहीं करती है तो उन सिफारिशों के अनुसार बिना किन्हीं संशोधन के धन विधेयक को उसी रूप में जिसमें वह लोकसभा द्वारा पारित किया गया था, दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया समझा जायेगा [अनुच्छेद 109 (3) (4)]।

3. यदि लोकसभा द्वारा भेजे गये धन विधेयक को राज्यसभा 14 दिन के अन्दर उपर्युक्त रीति से नहीं लौटाती है, तो इस अवधि के समाप्त हो जाने के बाद, उसे उस रूप में जिस रूप में लोकसभा द्वारा पारित किया गया था दोनों सदनों द्वारा पारित किया गया समझा जायेगा [अनुच्छेद 109 (5)]।

4. उपर्युक्त रीति से दोनों सदनों द्वारा पारित धन विधेयक को अनुच्छेद 111 के अंतर्गत राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिये भेजा जायेगा जो उस पर अपनी स्वीकृति घोषित करते हुए हस्ताक्षर कर देगा। यह स्वीकृति औपचारिक मात्र होती है। धन विधेयक पर राष्ट्रपति अपनी स्वीकति नहीं रोक सकता है, क्योंकि उसकी पूर्व अनुमति से उसे लोकसभा में पेश किया जाल है।

1. धन विधेयक तथा वित्त विधेयक

 

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LECTURE- 8

बहुविकल्पीय प्रश्न पत्र

 
  1. राज्यपाल की क्षमादान शक्ति भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में बतायी गयी है?

(a) अऩुच्छेद 116

(b) अनुच्छेद 161

(c) अनुच्छेद 163

(d) अनुच्छेद 164

 
  1. संसद के दो आनुक्रामिक सत्रों के मध्य अन्तर नही हो सकता-

(a) चार मास से अधिक

(b) छः मास से अधिक

(c) आठ मास से अधिक

(d) दो मास से अधिक

 
  1. लोक सभा के दो सत्रों के अन्तराल को क्या कहा जाता है

(a) निलम्बन काल

(b) स्थगन काल

(c) सत्रावसान काल

(d) विघटन काल

 
  1. भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद के अंतर्गत संसद में वर्षिक बजट पेश किया जाता है

(a) अनुच्छेद – 115

(b) अनुच्छेद – 117

(c) अनुच्छेद – 112

(d) अनुच्छेद – 110

 
  1. राज्य विधान मण्डल के सदस्यों के निर्योग्यता के प्रश्न पर अन्तिम निर्णय किसके द्वारा होता है?

(a) चुनाव आयुक्त दवारा

(b) राज्यपाल द्वारा

(c) विधान सभा के अध्यक्ष द्वारा

(d) राष्ट्रपति द्वारा

 

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LECTURE – 9

संघ की न्यायपालिका (The Union Judiciary)

(अनुच्छेद 124–147)

मुख्य प्रश्न

 
  1. उच्चतम न्यायालय का गठन एवं न्यायाधीशों की नियुक्ति की प्रक्रिया का उल्लेख कीजिये 99वां संविधान संशोधन की संवैधानिकता का परीक्षण कीजिये।
 
  1. उच्चतम न्यायालय की शक्तियों का परीक्षण संक्षेप में करे।
 
  1. उच्चतम न्यायालय की परामर्शकारी अधिकारिता का उल्लेख करे।
 
  1. उच्चतम न्यायालय की पारित विधि सम्पूर्ण भारत में लागू होगी क्या इसका कोई अपवाद है।
 
  1. रिट कितने प्रकार की होती है। इसका संक्षेप में उल्लेख कीजिये।
   

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LECTURE- 9

संघ की न्यायपालिका (The Union Judiciary)

(अनुच्छेद 124–147)

उच्चतम न्यायालय की स्थापना और गठन (अनुच्छेद 124)- भारत के संविधान के भाग 5 के अध्याय 4 (अनुच्छेद- 124-147) में संघ की न्यायपालिका के सम्बन्ध में प्रावधान किया गया है।

अनुच्छेद 124(1) के अनुसार भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा।

उच्चतम न्यायालय का गठन मुख्य न्यायमूर्ति तथा 30 अन्य न्यायाधीशों से मिलकर होगा (2009 में संसद ने न्यायधीशों की संख्या 30 कर दी)

 मूल संविधान में न्यायाधीशों की संख्या मुख्य न्यायमूर्ति सहित कुल आठ थी।

 अनुच्छेद 124 (2) के अनुसार न्यायाधीशों की नियुक्ति, राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से परामर्श करने के पश्चात करता है जैसा कि यह आवश्यक समझे।

 उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश 65 वर्ष की आयु तक पद धारण करता है।

 मुख्य न्यायाधीश को छोड़कर अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति की स्थिति में राष्ट्रपति को मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करना आवश्यक है।

 एस. सी. एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसियेशन बनाम भारत संघ, (1993) 4 एस. सी. सी. 44, के मामले में यह धारित किया गया कि उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्ति में मुख्य न्यायाधीश द्वारा इन न्यायाधीशों से परामर्श करके की गयी सिफारिश को राष्ट्रपति प्राथमिकता देगा।

 इन. री प्रेसिडेंसियल रिफरेन्स, ए. आई. आर. 1999 एस. सी. 1 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि कार्यपालिका मुख्य न्यायाधीश की ऐसी सिफारिश को मानने के लिए बाध्य नहीं है जो उसने न्यायमूर्तिगण की कॉलेजियम से परामर्श किये बिना की है। कलेजियम भारत के मुख्य न्यायाधीश तथा उच्चतम न्यायालय के चार वरिष्ठतम न्यायाधीशों से मिलकर गठित होनी चाहिए:

 भारत के मुख्य न्यायाधीश की व्यक्तिगत परामर्श अनुच्छेद 124 (2) के अंतर्गत ‘परामर्श’ नहीं है।

 सामान्यत: उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश को ही न्यायाधीश नियुक्त किया जाता है। किन्तु 1973 में इस परम्परा से विचलन दृष्टिगत हुआ जब तीन वरिष्ठ न्यायाधीशगण को उपेक्षित करते हुए न्यायमूर्ति ‘ए. एन. रे’ को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। यह निर्णय बहुत विवादास्पद रहा किन्तु इसके पश्चात इस पुरानी परम्परा को बनाये रखा गया।

 अनुच्छेद 124(3) के अनुसार उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए निम्नलिखित अर्हतायें होनी चाहिए-

(i) वह भारत का नागरिक हो;

(ii) वह किसी उच्च न्यायालय का या ऐसे दो न्यायालयों का लगातार कम से कम पांच वर्ष तक न्यायाधीश रहा हो;

(iii) किसी उच्च न्यायालय या उच्चतम न्यायालय में 10 वर्षों तक अधिवक्ता रहा हो;

(iv) राष्ट्रपति की राय में पारंगत विधिवेत्ता हो

इन री प्रेसीडेसियल रिफरेन्स के मामले के बाद उच्चतर न्यायालयों के न्यायधीशों की नियुक्ति तथा स्थानांतरण सम्बधी विवाद कुछ समय के लिए टल गया था। सन् 1990 में विधि मंत्री द्वारा संसद में न्यायिक समिति की स्थापना के लिए एक विधेयक प्रस्तुत किया गया था किन्तु लोक सभा के भंग होने के कारण वह विल व्ययपत(LAPSED) हो गया।

सन् 1987 में विधि आयोग ने भी राष्ट्रीय न्यायिक समिति की स्थापना का सुझाव दिया था I

सन् 2014 में संसद द्वारा 99वां संविधान(संशोधन) अधिनियम, 2014 पारित हुआ। इसके साथ संविधान के अनुच्छेद 124 के साथ 3(तीन) नऐ अनुच्छेद अतः स्थापित किए गए।

राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग- अनुच्छेद 124 क प्रावधान करता है कि-

1. राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग के नाम से ज्ञात एक आयोग होगा जो निम्नलिखित से मिलकर बनेगा-

क) भारत का मुख्य न्यायमूर्ति, अध्यक्ष पदेन

ख) भारत के मुख्य न्यायमर्ति से ज्येष्ठता से ठीक नीचे उच्चतम न्यायालय के दो अन्य ज्येष्ठ न्यायधीश सदस्य (पदेन)

ग) विधि और न्याय का प्रमारी संघ का मंत्री सदस्य (पदेन)

घ) प्रधानमंत्री, भारत केमुख्य न्यायमूर्ति और लोक सभा में विरोधी दल के नेता या संघ ऐसा कोई विरोधी दल बडे विरोधी दल के नेता से मिलकर बनने वाली समिति द्वारा नामनिर्दिष्ट किये जाने वाले से विख्यात व्यक्ति सदस्य

परन्तु यह और कोई विख्यात व्यक्ति तीन वर्षो के लिए नामर्दिष्ट किया जायेगा और पुनर्नाम निर्देशक के लिए पात्र नही होगा

अनुच्छेद 124(ग) में संसद द्वारा नियुक्त की प्रक्रिया का विनियमन सम्बन्धी प्रावधान रखा गया उच्चातम न्यायालय अभिलेख अधिवक्ता संघ बनाम भारत सघ 2015 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू 54 57 के मामले मे उच्चतम न्यायालय ने संविधान में 99वें संशोधन अधिनियम 2014 को तथा न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम 2014 असंवैधानिक और शून्य घोषित किया। उच्चतम न्यायालय ने निर्णीत किया कि-उच्चतम न्यायालय न्यायाधीशों तथा उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायधीशों और न्यायधीशों के में 99 वें सविधान संविधान संशोधन अधिनियम के पूर्व विद्यमान पद्धति(कालेजियम प्रद्धति) प्रवर्तन में रहेगी। पाँच न्यायधीशें ने संशोधन को असंवैधानिक अभिनिर्धारित किया न्यायमूर्ति चेलमेस्वर ने संशोधन को संवैधानिक करार किया था इस वाद में चार बिन्दूओं पर सुझाव आमंत्रित किये गए थे जो वाद में चार बिन्दुओं पर सुझाव आमंत्रित किये गए थे दो निम्न थे

1. पारदशिता

2. कालेजियम सचिवालय

3. योग्यता मानक

4. परिवाद

1. कालेजियम सिस्टमः- कालेजियम सिस्टम का प्रारुप तय करने के लिए सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ(1993) 4 SCC के मामले में 9 सदस्यीय संविधान पीठ द्वारा पैरा 478 में निम्न सम्प्रेक्षण व्यक्त का गया था-

“भारत के मुख्य न्यायधीश या उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायधीश के द्वारा, जैसा मामला हो में प्रतियों की सभी संलग्न संवैधानिक संस्थाओं को साथ-साथ भेजा जायेगा।

2. प्रतियों की प्राप्ति के 6 सप्ताह के भीतर अन्य संस्थाओं को अपने सुझाव मुख्य न्यायधीश को प्रोषित कर देना चाहिए।

3. अगले 6 सप्ताह मे असहमति या कोई परिवर्तन मुख्य न्यायाधीश को सम्बेधित किया जायेगा।

4. तत्पश्चात् भारत के मुख्य न्यायधीश अपनी राय कायम करेगा और अन्तिम कार्यवाही करने के लिए 4 सप्ताह के भीतर राष्ट्रपति को संदर्भित किया जायेगा।

5. भारत सरकार भारत के मुख्य न्यायधीश से परामर्श करके प्रक्रिया के प्रपत्र को अंतिम रुप देगी। भारत में मुख्य न्यायधीश उच्चतम न्यायालय के कार्यरत 4 वरिष्ठतम न्यायधीशों से गठित कालेजियम के एकमत राय पर आधारित मत से अन्तिम निर्णय लेगे वे निम्नलिखित कारकों को विचार करेगेः-

I. योग्यता मानक

II. नियुक्ति प्रक्रिया में पारदर्शित

III. सचिवालय

IV. शिकायते

V. विविध

 अनुच्छेद 124(4) के अनुसार उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को साबित कदाचार तथा असमर्थता के आधार पर पद से हटाया जा सकता है।

उक्त आधार पर संसद के दोनों सदनों द्वारा एक ही सत्र में प्रस्तुत किये गये समावेदन पर राष्ट्रपति, न्यायाधीशों को हटा सकता है। समावेदन संसद के प्रत्येक सदन के कुल सदस्य संख्या के बहुत तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत से समर्थित होना चाहिए।

उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश राष्ट्रपति को सम्बोधित कर सकता है। हस्ताक्षर सहित लेख द्वारा अपना पदत्याग कर सकता है।

उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश रहा है सेवा निवृत्ति के पश्चात न्यायालय में या प्राधिकारी के समक्ष अभिवचन या कार्य नहीं करेगा।

उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को दिया जाने वाला वेतन संविधान के अंतर्गत निर्धारित है। संविधान के अनुच्छेद 125 (1) में या उपबंधित किया गया है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को वह वेतन दिया जाएगा जो-

(i) संसद विधि द्वारा अवधारित करे, या

(ii) ऐसे अवधारण के अभाव में दूसरी अनुसूची में विनिर्दिष्ट वेतन दिया जाएगा।

न्यायाधीशों का वेतन- दूसरी अनुसूची में उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश का वेतन 1,00,000 रूपये तथा अन्य न्यायाधीशों का वेतन 90,000 रूपये निर्धारित किया गया है।

न्यायाधीशों की नियुक्ति- अनुच्छेद 126 के अनुसार राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय के किसी न्यायाधीश को कार्यवाही मुख्य न्यायाधीश (Acting C.J.) नियुक्त कर सकता है जब-

– मुख्य न्यायाधीश का पद रिक्त हो, या

– वह अपने पद के कर्तव्यों के पालन में अन्युपस्थिति के कारण या अन्यथा असमर्थ हो।

अनुच्छेद 127 तदर्थ न्यायाधीश की नियुक्ति के सम्बन्ध में प्रावधान किया गया है जो निम्नवत है-

यदि उच्चतम न्यायालय के सत्र को चालू रखने हेतु न्यायाधीशों की गणपूर्ति पर्याप्त नहीं है तब उच्च न्यायालय के किसी न्यायाधीश को जो उच्चतम न्यायालय का न्यायाधीश बनने की सम्यक योग्यता रखता हो तदर्थ न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकता है।

 तदर्थ न्यायाधीश की नियुक्ति भारत का मुख्य न्यायाधीश करता है:

– राष्ट्रपति की पूर्व सहमति, एवं

– सम्बन्धित राज्य के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श से करता है।

 तदर्थ न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के कर्तव्यों का निर्वहन करता है तथा उसे उसी की भाँति क्षेत्राधिकार, शक्ति एवं उन्मुक्तियाँ प्राप्त होंगी।

अनुच्छेद 128 में उपबंधित है कि भारत का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति से पूर्व अनुमति लेकर उच्चतम न्यायालय के किसी सेवानिवृत्त न्यायाधीश से अनुरोध कर सकेगा कि वह उच्चतम न्यायालय के रूप में कार्य करे।

सेवानिवृत्त न्यायाधीश यदि सहमत है तभी उससे कार्य करने की अपेक्षा की जाएगी अन्यथा नहीं।

उच्चतम न्यायालय का क्षेत्राधिकार एवं शक्ति (Jurisdiction of Supreme Court)- उच्चतम न्यायालय को निम्नलिखित क्षेत्राधिकार है-

(1) अभिलेख न्यायालय (A Court of Record) (अनुच्छेद 129)

(2) प्रारम्भिक या मूल क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction) (अनुच्छेद 71, 32 एवं 131)

(3) अपीलीय क्षेत्राधिकार (Appellate Jurisdiction) [(अनुच्छेद 132, 133, 134, 136)]

(4) सलाहकारी क्षेत्राधिकार (Advisory Jurisdiction) [(अनुच्छेद 143)]

(5) पुनर्विलोकन की शक्ति (अनुच्छेद 137)

(6) मामले के अंतरण की शक्ति (अनु. 139क)

(7) आनुषंगिक शक्तियाँ (अनुच्छेद 140)

(8) नियम बनाने की शक्ति (अनुच्छेद 145)

(9) उच्चतम न्यायालय की डिक्रियों और आदेशों के प्रवर्तन आदि के बारे में आदेश (अनुच्छेद 142)

picture01 (1) अभिलेख न्यायालय (Court of Record)

अनुच्छेद 129 के अनुसार उच्चतम न्यायालय –

(i) अभिलेख न्यायालय होगा, तथा

(ii) उसे अपने अवमान के लिए दंड देने की शक्ति होगी। अभिलेख न्यायालय से तात्पर्य ऐसे न्यायालय से है जिसके निर्णयों के साक्ष्य के रूप में स्वीकार कर लिये जाते हैं और वे आबद्धकर प्रभाव रखते हैं। भारतीय संविधान उच्चतम न्यायालय को अपने अवमानना के लिए (For contempt) दंड देने की शक्ति प्रत्यक्ष रूप से प्रदान करता है।

 दिल्ली न्यायिक सेवा संघ बनाम गुजरात राज्य, ए. आई. आर. 1991 एस. सी. 2177 : (1991) 4 एस. सी. सी. 406 में उच्चतम न्यायालय ने धारित किया कि एक उच्चतर न्यायालय (Superior Court) न्यायालय को अपने स्वयं के अवमान के साथ ही अधीनस्थ (निम्न या Inferior) न्यायालयों का अवमान करने वाले व्यक्तियों को दण्डित करने की अंतर्निहित शक्ति है।

 इन री विनय चन्द्र मिश्र, (1995) 2 एस. सी. सी. 584 में धारित किया गया कि उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 129 तथा 142 के अधीन अवमानना करने वाले व्यक्ति पर स्वप्रेरणा पर (suo motu) कार्यवाही करके दण्डित करने का अधिकार है। अनुच्छेद 129 तथा 142 के अंतर्गत न्यायालय की यह शक्ति किसी अधिनियम द्वारा परिसीमित नहीं की जा सकती है।

 सुप्रीम कोर्ट बार एसोसियेशन बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1998 एस. सी. 1895 के मामले में इन री विनय चन्द्र मिश्र मामले में दिये गये अपने पूर्व के निर्णय को उलट दिया तथा निर्णय दिया कि अवमानना के लिए दण्डित करने की न्यायालय की अनुच्छेद 129 के अंतर्गत शक्ति अत्यंत व्यापक है फिर भी इतनी व्यापक नहीं है कि अधिवक्ता अधिनियम में निर्धारित प्रक्रिया को नजरअंदाज करके यह अभिनिर्धारित कर सके कि कोई अधिवक्ता वृत्तिक कदाचार का दोषी है। अनुच्छेद 142 के अंतर्गत पूर्ण न्याय करने की शक्ति एक सुधारक (Corrective) शक्ति है जो साम्य को विधि पर वरीयता देती है किन्तु न्यायालय अवमान के मामले का निपटारा करते समय उसका प्रयोग अधिवक्ता अधिनियम में विहित प्रक्रिया के सम्यक रूप से पालन किये बिना किसी अधिवक्ता के विधि व्यवसाय करने के लाइसेंस को संक्षिप्त प्रक्रिया से निलम्बित करने के लिए नहीं किया जा सकता है।

(2) उच्चतम न्यायालय का प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार (Original Jurisdiction of Supreme Court) –

(i) राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति के निर्वाचन से सम्बन्धित विवाद उच्चतम न्यायालय द्वारा ही निर्णित किये जाते हैं।

(ii) मूल अधिकारों का प्रवर्तन (Information of Fundamental Rights)

अनुच्छेद 32 के अंतर्गत कोई भी व्यक्ति अपने मूल अधिकारों का अतिलंघन होने पर उपचार के लिए रिट के माध्यम से उच्चतम न्यायालय में समावेदन कर सकता है। उच्चतम न्यायालय मूल अधिकारों के प्रवर्तन के लिए पांच प्रकार की रिटें, अर्थात –

(i) बंदी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus)

(ii) परमादेश (Mandamus)

(iii) प्रतिषेध (Prohibition)

(iv) अधिकारपृच्छा (Quo Warranto)

(v) उत्प्रेषण (Certiorary)

जारी कर सकता है।

(3) अनन्य क्षेत्राधिकार (Exclusive Jurisdiction) (अनुच्छेद 131)-

 उच्चतम न्यायालय को निम्नलिखित विवादों के सम्बन्ध में अनन्य क्षेत्राधिकार प्राप्त है अर्थात ऐसे विवाद जो –

(i) भारत सरकार तथा एक या अधिक राज्यों के बीच है;

(ii) भारत सरकार तथा एक या अधिक राज्य एक ओर तथा दूसरी ओर एक या अधिक राज्यों के बीच विवाद;

(iii) दो या दो से अधिक राज्यों के बीच विवाद

अनुच्छेद 131 के परन्तुक में उन स्थितियों को भी बताया गया है जिनमें प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का उपबन्ध लागू नहीं होता है, अर्थात-

 संविधान से पहले किये गये किसी संधि, करार, प्रसंविदा, वचनबंध, संसद या वैसे ही लिखत से उत्पन्न विवाद।

 उपर्युक्त विषयों के संबंध में क्षेत्राधिकार लागू नहीं होगा यदि ऐसी संधि, करार, प्रसंविदा के प्रारम्भ के पश्चात भी जारी है या

 जिसमें यह उपबंधित है कि उक्त अधिकारिता का विस्तार ऐसे विवाद पर नहीं होगा।

अपीलीय क्षेत्राधिकार

(Appellate Jurisdiction)

उच्च न्यायालय द्वारा सिविल, दांडिक या अन्य कार्यवाही में दिये गये निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील हो सकती है यदि-

 उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 134-क के अंतर्गत प्रमाण पत्र दे दिया हो,

 प्रमाण-पत्र संविधान के निर्वचन से संबंधित विधि का सारवान प्रश्न अन्तर्वलित होने से सम्बन्धित हो,

 प्रमाण-पत्र में प्रश्न का विनिश्चय अनुचित है।

 सिविल मामलों में अपीलीय क्षेत्राधिकार अनुच्छेद 133 (Appellate Jurisdiction in Civil Cases)

डिक्री कार्यवाही में उच्च न्यायालय द्वारा दिए गये निर्णय डिक्री या अंतिम आदेश की अपील उच्च न्यायालय में होगी यदि-

(a) इस मामले में व्यापक महत्व का कोई सारवान विधिक प्रश्न अन्तर्वलित है, और

(b) उच्च न्यायालय की राय में उस प्रश्न का उच्चतम न्यायालय के द्वारा विनिश्चय किया जाना आवश्यक है,

(c) उपर्युक्त आशय का प्रमाण-पत्र उच्च न्यायालय के द्वारा प्रदान कर दिया गया है।

ऐसी अपील में यह प्रश्न भी आधार के रूप में उठाया जा सकता है कि मामले में संविधान के निर्वाचन से सम्बन्धित विधि का सारवान प्रश्न अंतर्विष्ट है।

उच्च न्यायालय के एकल न्यायाधीश के निर्णय, डिक्री या अंतिम आदेश की अपील उच्चतम न्यायालय में तब तक नहीं होगी जब तक संसद विधि द्वारा अन्यथा उपबंधित न करे।

दांडिक मामलों में अपीलीय क्षेत्राधिकार (अनुच्छेद 134)

(Appellate Jurisdiction in Criminal matters)

किसी उच्च न्यायालय द्वारा दांडिक कार्यवाही में दिये गये किसी निर्णय अंतिम आदेश या दंडादेश की अपील उच्चतम न्यायालय में होगी यदि –

(क) उच्च न्यायालय ने अपील में दोषमुक्ति के आदेश को उलट दिया हो तथा अभियुक्त को मृत्युदंड दिया हो

(ख) उच्च न्यायालय ने अपने अधीनस्थ न्यायालय से किसी मामले को विचरण के लिए अपने पास मंगा लिया हो और अभियुक्त को सिद्धदोष द्ख्हराते हुए मृत्युदंड दिया हो

(ग) उच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 134-क के अधीन प्रमाणित कर दिया हो कि मामला उच्चतम न्यायालय में अपील किये जाने योग्य है।

अपील के लिए उच्चतम न्यायालय की विशेष अनुमति (अनुच्छेद 136)

(Special leave to appeal by the Supreme Court)

उच्चतम न्यायालय भारत के राज्यक्षेत्र में स्थित किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा पारित निर्णय, आदेश या दंडादेश के विरुद्ध अपील के लिए विशेष इजाजत दे सकता है।

सशस्त्र बलों से सम्बन्धित किसी विधि द्वारा गठित किसी न्यायालय या न्यायाधिकरण द्वारा पारित किये गये किसी निर्णय, अवधारणा, दंडादेश या आदेश को अनुच्छेद 136 लागू नहीं होगा।

अनुच्छेद 136 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय की शक्ति वैवेकीय शक्ति है।

अनुच्छेद 136 के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय उच्च-न्यायालयों के निर्णयों के साथ ही साथ किसी भी अधीनस्थ नयायालय के निर्णय से अपील ग्रहण कर सकता है।

उच्चतम न्यायालय किसी भी न्यायालय के चाहे वह सिविल, दांडिक, राजस्व या श्रमिक विवादों से सम्बन्धित हो के अंतिम या अंतरिम आदेशों से अपील ग्रहण कर सकता है चाहे विधि में अपील का कोई उपबन्ध न हो।

पुनर्विलोकन की शक्ति (अनुच्छेद 137)

(Power of Review)

उच्चतम न्यायालय को अपने द्वारा दिये गये निर्णयों या आदेशों के पुनर्विलोकन की शक्ति है।

अनुच्छेद 139 के अंतर्गत संसद उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 32 के खण्ड (1) में वर्णित प्रयोजनों से भिन्न प्रयोजनों के लिए भी निदेश आदेश या रिट निकालने की शक्ति प्रदान कर सकती है।

कुछ मामलों का अंतरण करने की उच्चतम न्यायालय की शक्ति

(अनुच्छेद 139 क)

42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा अनुच्छेद 139-क संविधान में जोड़ा गया।

अनुच्छेद 139-क के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय किसी मामले को किसी भी उच्च न्यायालय से मंगा कर उसका निपटारा कर सकता है।

अनुच्छेद 139-क के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय को यह भी शक्ति है कि वह किसी मामले के निपटारे के लिए एक उच्च न्यायालय से दूसरे उच्च न्यायालय को अंतरित कर सकता है।

उच्चतम न्यायालय ऐसा –

(क) स्वप्रेरणा पर, या

(ख) भारत के महान्यायवादी द्वारा किये गये आवेदन पर

       अथवा

(ग) किसी पक्षकार द्वारा किये गये आवेदन पर ही कर सकता है यदि उस मामले में-

व्यापक महत्व का विधि का सारवान प्रश्न अंतर्ग्रस्त है।

सलाहकारी क्षेत्राधिकार (Advisory Jurisdiction) अनुच्छेद 143- यदि राष्ट्रपति की राय में सार्वजनिक महत्व का ऐसा प्रश्न उत्पन्न हो गया है या उत्पन्न होने की संभावना है जिस पर उच्चतम न्यायालय की राय प्राप्त करना समीचीन है तो वह उस प्रश्न पर विचार करने के लिए उसे उच्चतम न्यायालय को निर्देशित कर सकता है।

उच्चतम न्यायालय उस प्रश्न पर सुनवाई करने के पश्चात अपनी राय राष्ट्रपति को दे सकता है।

ऐसे प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय में कम से कम पांच न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सुनवाई की जाती है।

उच्चतम न्यायालय ऐसे प्रश्न पर राय देने के लिए बाध्य नहीं है अत: वह समुचित मामलों में परामर्श देने से मना कर सकता है। (इस्माइल फारूख बनाम भारत संघ, ए. आई. आर. 1994 एस. सी. 605 : (1994) 6 एस. सी. सी. 360)

26 जनवरी 1950 से अब तक उच्चतम न्यायालय ने निम्नलिखित ग्यारह मामलों में परामर्श दिया है :

(1) इन री देलही लाज एक्ट, ए. आई. आर. 1951 एस. सी. 332

(2) इन री केरल एजूकेशन बिल, ए. आई. आर. 1958 एस. सी. 956

(3) इन री बेरुबारी, ए. आई. आर. 1960 एस. सी. 845

(4) इन री दी सी कस्टम्स एक्ट, ए. आई. आर. 1963 एस. सी. 1760

(5) केशव सिंह, ए. आई. आर. 1956 एस. सी. 745

(6) इन री प्रेसिडेंसियल पोल, ए. आई. आर. 1979 एस. सी. 1682

(7) दी स्पेशल कोर्ट रिफरेन्स केस, ए. आई. आर. 1979 एल. सी. 478

(8) कावेरी जल विवाद अधिकरण, ए. आई. आर. 1992 एस. सी. 522

(9) अयोध्या के राममन्दिर का मामला

(10) उच्चतम एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण का मामला, ए. आई. आर. 1999 एस. सी. 1

(11) स्पेशल रिफरेन्स 2002, ए. आई. आर. 2003 एस. सी. 87

 पदच्युत की प्रक्रिया

 उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को पदच्युत करने की प्रक्रिया। (अनुच्छेद 124 (4)

 उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है।

 सिद्ध कदाचार तथा अक्षमता के आधार पर संसद के दोनों सदनों के बहुमत तथा उपस्थिति एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित समावेदन के आधार पर उन्हें हटाया जा सकता है।

 इस प्रस्ताव को महाभियोग कहा जाता है।

 अनुच्छेद 141 के अनुसार उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि सभी अधीनस्थ न्यायालयों पर आबद्धकर होती है।

 बंगाल इम्युनिटी कम्पनी बनाम बिहार राज्य, ए. आई. आर. 1955 एस. सी. 661 के मामले में भी उच्चतम न्यायालय ने उक्त निर्णय दिया।

 उच्चतम न्यायालय अपने निर्णयों से बाध्य नहीं है तथा वह अपने निर्णयों को बदल सकता है।

न्यायिक पुनर्विलोकन (Judicial Review)

न्यायिक पुनर्विलोकन न्यायपालिका में निहित वह शक्ति है जिसके अंतर्गत वह विधायिका द्वारा निर्मित विधि या कार्यपालिकीय कृत्य को असंवैधानिक घोषित करती है। भारतीय संविधान के अंतर्गत उच्चतम न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों को न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति प्राप्त है।

न्यायिक पुनर्विलोकन संविधान को संरक्षित करने का एक साधन है क्योंकि संविधान सरकार एवं विभिन्न विधानमण्डलों की सीमा निर्धारित करता है उन सीमाओं के अतिक्रमण की स्थिति में न्यायालय को न्यायिक पुनर्विलोकन द्वारा सही स्थिति के अवधारणा की शक्ति प्राप्त हो जाती है।

भारत के संविधान में निम्नलिखित अनुच्छेदों में अभिव्यक्त या विवक्षित (Implied) रूप से न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति निहित है-

(i) अनुच्छेद 13 (2) अनुच्छेद 32 एवं अनुच्छेद 226 है

(ii) अनुच्छेद 245, 246, 254

(iii) अनुच्छेद 137

भारत के संविधान के अंतर्गत विधायिकाओं पर निम्नलिखित परिसीमायें हैं-

(a) मूल अधिकार

(b) संविधान द्वारा प्रगणित विधायी क्षमता

(c) विशिष्ट विषयों के बारे में सीमाओं का अधिरोपण करने वाले संविधान के अन्य उपबन्ध

 न्यायिक पुनर्विलोकन सर्वप्रथम अमेरिकी न्यायमूर्ति जान मार्शल द्वारा 1803 में मारबरी बनाम मेडिसन के मामले में प्रारम्भ किया गया।

 

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संघ की न्यायपालिका (The Union Judiciary)

Pre-Question

 
  1. उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है –

(a) भारत के मुख्य न्यायाधीश के द्वारा भारत के राष्ट्रपति की राय से

(b) राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्री की राय पर

(c) राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमन्त्री के अनुमोदन पर

(d) राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों के ऐसे न्यायाधीशों से जिन्हें वह आवश्यक समझता है तथा भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय पर

 
  1. भारत के उच्चतम न्यायालय की अधिकारिता में वृद्धि की जा सकती है –

(a) संसद द्वारा

(b) राष्ट्रपति द्वारा

(c) भारत के मुख्य न्यायमूर्ति के परामर्श से राष्ट्रपति द्वारा

(d) भारत के मुख्य न्यायमूर्ति के परामर्श से संघ की मंत्रि-परिषद् द्वारा

 
  1. भारतीय संविधान में तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति का प्रावधान है-

(a) सर्वोच्च न्यायालय में

(b) उच्च न्यायालय में

(c) जनपद तथा सत्र न्यायालयों में

 
  1. निम्नलिखित वादों में से किस वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह विनिश्चित किया है कि पंथनिरपेक्षता संविधान का आधारभूत ढाँचा है?

(a) एस. पी. मित्तल बनाम भारत संघ

(b) श्री जगन्नाथ मन्दिर पूरी प्रबंध समिति मामला

(c) अरुणा राय बनाम भारत संघ

(d) उपरोक्त में से कोई नहीं

 
  1. भविष्यलक्षी विनिर्णय का सिद्धांत सर्वप्रथम प्रतिपादित किया था-

(a) जस्टिस सुब्बा राव ने

(b) जस्टिस सीकरी ने

(c) जस्टिस मैथ्यू ने

(d) जस्टिस कृष्णा अय्यर

 
  1. संविधान के किस अनुच्छेद में यह प्रावधान है कि उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर सभी न्यायालयों पर आबद्धकर होगी?

(a) अनुच्छेद 140

(b) अनुच्छेद 141

(c) अनुच्छेद 143

(d) अनुच्छेद 136

 
  1. एक मामले में उच्चतम न्यायालय को अपील हो सकेगी यदि इसमें अंतर्ग्रस्त है-

(a) विधि का एक प्रश्न

(b) विधि का एक महत्वपूर्ण प्रश्न

(c) विधि का एक सारवान प्रश्न

(d) विधि एवं तथ्य का एक मिश्रित प्रश्न

 
  1. संविधान के किस अनुच्छेद के अधीन भारत का राष्ट्रपति उच्चतम न्यायालय का परामर्श ले सकता है?

अनुच्छेद 143

(b) अनुच्छेद 142

(c) अनुच्छेद 136

(d) अनुच्छेद 141

 
  1. निम्नलिखित में से कौन अपने पद से असमर्थता के आधार पर हटाया जा सकता है?

(a) लोक सेवा आयोग का सदस्य

(b) उच्च न्यायालय का न्यायाधीश

(c) भारत के राष्ट्रपति

(d) उपर्युक्त में से कोई भी नहीं

 
  1. राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण का मुख्य संरक्षक होता है-

(a) राज्यपाल

(b) मुख्यमंत्री

(c) उच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश

(d) न्याय मंत्री (विधि)

 
  1. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति में किसकी राय की प्रधानता है-

(a) भारत के राष्ट्रपति

(b) प्रधानमंत्री

(c) भारत के मुख्य न्यायमूर्ति

(d) विधिमंत्री

 
  1. भारत के संविधान के किस अनुच्छेद द्वारा राष्ट्रपति को उच्च न्यायालय का कार्यकारी मुख्य-न्यायाधीश नियुक्त करने की शक्ति दी गयी है?

(a) अनुच्छेद-223

(b) अनुच्छेद-224

(c) अनुच्छेद-224-A

(d) अनुच्छेद-225

 
  1. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति के लिए कौन सी अर्हता नहीं है-

(a) वह भारत का नागरिक होना चाहिए

(b) उच्च न्यायालय में कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता के रूप में अनुभव हो

(c) उसने 35 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली हो

(d) उसने भारत में कम से कम 10 वर्ष तक न्यायिक पद धारण किया हो

 
  1. उच्चतम न्यायालय ने किस वाद में निर्णित किया है कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव संविधान का मूलभूत ढाँचा है-

(a) केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य

(b) राजनारायण बनाम श्रीमती इंदिरा गांधी

(c) मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ

(d) गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य

 
  1. किस वाद में उच्चतम न्यायालय ने निर्णित किया कि संविधान ‘जनता की इच्छा’ के ऊपर अभिभावी होता है?

(a) आर. एस. चौधरी बनाम पंजाब राज्य

(b) बी. आर. कपूर बनाम तमिलनाडु राज्य

(c) महेन्द्रपाल दास बनाम बिहार राज्य

(d) उपर्युक्त में से कोई नहीं

 
  1. उच्चतम न्यायालय ने “आरोग्यकर याचिका’ (क्यूरेटिव पिटीशन) के उपचार का प्रयोग किस वाद में किया था?

(a) एम. इस्माइल बनाम भारत संघ

(b) बाबू सिंह बनाम भारत संघ

(c) रूपा अशोक हुर्रा बनाम अशोक हुर्रा

(d) लिली थॉमस बनाम भारत संघ

 
  1. निम्नलिखित में से किस वाद में उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रपति के संदर्भित मामले पर अपनी सलाहकारी राय देने से इन्कार किया है?

v(a) इन री केरल एजूकेशन बिल

(b) इन री बेरुबरी के वाद में

(c) इन री स्पेशल कोर्ट बिल

(d) इन री एम. इस्माइल फारुकी के वाद में

 
  1. रिट्स (Writs) कौन जारी कर सकता है-

(a) सिविल न्यायालय

(b) जिला न्यायालय

(c) जिला मजिस्ट्रेट

(d) उच्च न्यायालय

 
  1. सूची-I (वाद) को सूची-II (आपराधिक मूल) संरचना के सिद्धांत के तत्व) से सुमेलित कीजिए तथा सूचियों के नीचे दिए गये कूट की सहायता से सही उत्तर दीजिए-

सूची-I(वाद)                    सूची-II (आधारित संरचना के सिद्धांत के तत्व)

A. आई. आर. कोल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य          1. पंथ निरपेक्षता

B. एम. नागराज बनाम भारत संघ          2. न्यायिक पुनर्विलोकन

C. एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ          3. स्वतन्त्र तथा निष्पक्ष चुनाव

D. इंदिरा नेहरू गांधी बनाम राजनारायण          4. समानता

कूट :

     A     B     C     D

(a) 1     2     3     4

(b) 2     3     4     1

(c) 4     3     1     2

(d) 2     4     1     3

 
  1. उच्चतम न्यायालय द्वारा घोषित विधि भारत राज्य क्षेत्र में सभी न्यायालयों पर बाध्यकारी है। इसमें-

(a) उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय भी शामिल है

(b) उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय शामिल नहीं है

(c) उच्चतम न्यायालय शामिल नहीं है

(d) उपर्युक्त में कोई सही नहीं है

 

PAHUJA LAW ACADEMY

LECTURE – 10

मुख्य प्रश्न

 
  1. संसद के गठन को समझाइयेI
 
  1. संसदीय शासन प्रणाली कि विशेषताओं की व्याख्या कीजिएI
 
  1. संसदात्मक एवं अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में अन्तर बताइयेI
 

PAHUJA LAW ACADEMY

LECTURE – 10

 

संसदीय शासन प्रणाली या संसदीय सरकार या संसदीय लोकतंत्र

वह प्रणाली जिसमें कार्यपालिका व विधायिका निम्न सदन अर्थात लोकसभा के प्रति सतत रूप से उत्तरदायी होती है। संसदीय शासन प्रणाली कहलाती है। इस प्रणाली में कार्यपालिका व विधायिका के बीच विलियम का सिद्धांत पाया जाता है अर्थात कार्यपालिका के सदस्य विधायिका के सदस्य होते है और विधायिका के सदस्य कार्यपालिका के सदस्य होते हैं। इस प्रणाली में कार्यपालिका अर्थात मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी होती है। इसमें सामूहिक उत्तरदायी के साथ-साथ व्यक्तिगत उत्तरदायित्व का सिद्धांत भी कार्यकारी है। अर्थात यदि लोकसभा एक मंत्री के विरुद्ध भी अविश्वास प्रस्ताव पारित करती है तो सरकार को त्यागपत्र देना पड़ता इस शासन प्रणाली को उत्तरदायी शासन प्रणाली या उत्तरदायी सरकार भी कहते है। इस शासन प्रणाली में मंत्रीपरिषद् में निहित होती है। इसीलिए इसे मंत्रिमंडल शासन प्रणाली भी कहते हैं। चूंकि मंत्रिपरिषद् या मंत्रीमंडल का अध्यक्ष प्रधानमंत्री होता है, इसलिए इसे ‘west-minsters’ शासन प्रणाली भी कहते है। इस प्रणाली में देश में दो प्रधान होते हैं –

(1) एक राष्ट्र का संवैधानिक या औपचारिक या प्रतीकात्मक या नाममात्र का प्रधान होता है। सैधांतिक रूप से सारी शक्ति इसी में निहित होती है, लेकिन वह व्यवहारिक रूप से किसी भी शक्ति का प्रयोग नहीं करता क्योंकि उसे विवेक का अधिकार नहीं प्राप्त होता है।

(2) सरकार का वास्तविक प्रधान प्रधानमंत्री होता है जो कि मंत्रिपरिषद् की सहायता से देश का शासन करता है। व्यवहारिक रूप से सम्पूर्ण सत्ता का प्रयोग यही करता है लेकिन राष्ट्रपति के नाम से करता है, यही कार्य बिट्रेन में बिट्रेन के सम्राट द्वारा किया जाता है।

इस प्रणाली से राष्ट्र का संवैधानिक प्रधान सरकार के वास्तविक प्रधान की नियुक्ति करता है तथा वास्तविक प्रधान के परामर्श से वह अन्य मंत्रियों की नियुक्ति करता है।

संसदीय शासन प्रणाली में सरकार का कार्यकाल निश्चित नहीं होता है अर्थात सरकार तभी तक अपने पद पर रहती है जब तक उसे लोकसभा का विश्वास प्राप्त है, उल्लेखनीय है कि भारत और बिट्रेन की कार्यपालिका का कार्यकाल 5 वर्ष निश्चित कर दिया गया है लेकिन तभी जब उसे विश्वास प्राप्त है।

इस प्रणाली में सरकार निरंकुश नहीं हो सकती है क्योंकि संसद विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछ कर और विभिन्न प्रकार के प्रस्ताव लाकर सरकार पर नियंत्रण रखती है। यहाँ तक कि लोकसभा अविश्वास प्रस्ताव लाकर सरकार को कभी भी हटा सकती है। यद्यपि भारत में संसदीय शासन प्रणाली बिट्रेन से लिया लेकिन संसदीय संप्रभुता के स्थान पर संविधान के सम्प्रभुता को अपनाया है। भारत में संसदीय शासन प्रणाली अपनाने के मुख्य दो कारण है –

(1) स्वतन्त्रता के 50 वर्ष पूर्व से भारत में इस प्रणाली का प्रयोग हो रहा था, अत: इस प्रणाली का भारतीयों का व्यापक अनुभव था;

(2) यह उत्तरदायित्व के सिद्धांत पर कार्य करता है इसलिए सरकार के निरंकुश होने का खतरा नहीं होता है।

संसदीय व अध्यक्षीय प्रणाली में मुख्य अंतर :

कार्यपालिका व विधायिका का सम्बन्ध है यदि कार्यपालिका अपने सभी कार्यों के लिए विधायिका के निम्न सदन के लिए उत्तरदायी हो तो संसदीय शासन प्रणाली होगा यदि कार्यपालिका अपने किसी भी कार्य के लिए विधायिका के प्रति उत्तरदायी न हो अर्थात दोनों के बीच शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत पाया जाता है तो वह अध्यक्षीय शासन प्रणाली होती है।

अध्यक्षीय शासन प्रणाली या राष्ट्रपतीय शासन प्रणाली –

इस प्रणाली में कार्यपालिका अपने किसी भी कार्य के लिए विधायिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती है। अर्थात कार्यपालिका व विधायिका के बीच शक्ति–पृथक्करण का सिद्धांत पाया जाता है, लेकिन इसके बावजूद अवरोध एवं संतुलन का सिद्धांत (Check and Balance) पाया जाता है इस प्रणाली में राष्ट्र का संवैधानिक प्रधान और सरकार का वास्तविक प्रधान दोनों एक होता है अर्थात कार्यपालिका विभाजित नहीं होती है। इसे ही राष्ट्रपति कहा जाता है। इस में कार्यपालिका का कार्यकाल निश्चित होता है। जैसे USA के राष्ट्रपति का कार्यकाल 4 वर्ष है। समय के पूर्व उसे महा-भियोग जैसे ही कठिन प्रक्रिया से हटाया जाता है।

Note – अमेरिका के राष्ट्रपति का चुनाव चाहे जब हो वह सदैव 20 जनवरी को शपथ लेता है। USA में केवल 2 बार से अधिक समय तक का राष्ट्रपति नहीं बन सकता है।

 

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LECTURE – 10

बहुविकल्पीय प्रश्न

 
  1. भारत में निम्न में से किस शासन प्रणाली को अपनाया गया है?

(a) संसदीय

(b) अध्यक्षात्मक

(c) (a) तथा (b) दोनों

(d) इनमें से कोई नही

 
  1. संयुक्त राज्य अमेरिका में राष्ट्रपति का कार्यकाल कितना होता है?

(a) 5 वर्ष

(b) 4 वर्ष

(c) 7 वर्ष

(d) 3 वर्ष

 
  1. अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली में प्रमुख लक्षण नही है?

(a) कार्यपालिका अपने किसी भी कार्य के लिए विधायिका के प्रतिग्रहण उत्तरदायी नही होती

(b) कार्यपालिका अपने किसी भी कार्य के लिए विधायिका के प्रतिग्रहण उतरदायी होती है

(c) (a) तथा (b) दोनों

(d) इनमें से कोई नही

 
  1. भारतीय संविधान के किस अनुच्छेद में संसद का गठन का प्रावधान है

(a) अनुच्छेद – 80

(b) अनुच्छेद – 79

(c) अनुच्छेद – 81

(d) अनुच्छेद – 85

 
  1. निम्न मे से किस देश में अध्यक्षीय शासन प्रणाली लागू है ?

(a) संयुक्त राज्य अमेरिका

(b) फ़्रांस

(c) भारत

(d) पेरिस

 

 

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LECTURE – 11

संसद का गठन

मुख्य प्रश्न

 
  1. भारतीय संसद के गठन की व्याख्या किजिये।
 
  1. लाभ के पद से आप क्या समझते है?
 
  1. भारतीय संसद में राष्ट्रपति की भूमिका को बताइये।
 

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LECTURE – 11

संसद का गठन

 

भारतीय संसद के तीन अंग है-

1. राष्ट्रपति

2. राज्यसभा

3. लोकसभा

 

राष्ट्रपति की भूमिकाः- राष्ट्रपति संसद के किसी सदन का सदस्य नही होता है किन्तु वह संसद का एक अभिन्न अंग है। राष्ट्रपति संसद की कार्यवाहियों में भाग लेता है। राष्ट्रपति संसद के सत्र को आहूत करता है। राष्ट्रपति, संसद को स्थागित कर सकता है। राष्ट्रपति लोक सभा को विघटित कर सकता है। राष्ट्रपति संसद दवारा पारित सभी विघेयक पर अनुमति देता है

राज्य सभाः- राज्य सभा की अधिकतम सदस्य संख्या 250 होती है। राज्य सभा में 238 सदस्य राज्यों और संघ क्षेत्रों के निर्वाचित प्रतिनिधि होते है। राज्य सभा के 12 सदस्यों को राष्ट्रपति नामंकित करता है जो साहित्य, कला विज्ञान और सामाजिक सेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान या वास्तविक अनुभव रखते है।

राज्य सभा के नामंकित सदस्य राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग नही लेते है। राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन राज्य की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व पद्धति के अनुसार एकल संक्रमणीय मत द्वारा होता है।

राज्य सभा एक स्थायी सदन है इसका विघटन नही होता है किन्तु इसके एक-तिहाई सदस्य प्रत्येक दूसरे वर्ष की समाप्ति पर निवृ हो जाते है। इस रीति के अनुसार एक सदस्य 6 वर्षों तक राज्य सभा का सदस्य रहता है। भारत का उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होता ह। राज्य सभा के सदस्य अपने सदस्यों में से किसी सदस्य को उपसभापति चुनती है। राज्य सभा को संसद का उच्च सदन भी कहा जाता है।

लोक सभाः- लोक सभा जनता की सभा है। लोक सभा के सदस्य जनता द्वारा प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा चुने जाते है। लोक सभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 552 हो सकती है संसद संविधान संशोधन द्वारा लोक सभा के सदस्यों की संख्या को बढा सकते है।

वर्तमान में 530 सदस्य राज्यों के मतदाताओं द्वारा प्रत्यक्ष चुनाव से निर्वाचित होंगे तथा 20 सदस्य संघ राज्य क्षेत्रों प्रतिनिधि होंगे। यदि राष्ट्रपति की राय में लोक सभा में एग्लो-इण्डियन समाज को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नही मिला है तो राष्ट्रपति अनुच्छेद 331 के अधीन ऐग्लो इण्डियन समुदाय के 2 सदस्यों को नामजद कर सकता है।

लोकसभा के सदस्यों के चुनाव के प्रयोजन के लिए प्रत्येक राज्य को प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में विभक्त कर दिया जाता है। राज्यों के प्रतिनिधियों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष मतदान द्वारा होता है।

42वें संविधान के संशोधन अधिनियम, 1976 – इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद – 81(3) और 82 में संशोधन किया गया

संविधान के 84वें संशोधन अधिनियम, 2000 – इस संशोधन द्वारा संविधान के अनुच्छेद 81(3) के परुतुक में संशोधन करके 2000 के स्थान पर 2026 संख्या रखी गई है।

संविधान के 84वें संशोधन 2003 – इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 81(3) के पस्तुक को पुनः संशोधित किया गया और अंक 1991 के स्थान पर 2001 प्रतिस्थापित किया गया है।

दल परिवर्तन के आधार पर निरर्हताः- 52वें संविधान संशोधन अधिनियम-1985 द्वारा अनुच्छेद 102 में एक नया खण्ड जोडा गया है जो यह उपबंधित करता है कि किसी संसद सदस्य या विधान सभा सदस्य की सदन की सदस्यता 10वीं अनुसूची में उल्लिखित आधारों पर समाप्त हो जायेगी।

किहोतो होलोहान बनाम जाचील मामले मे उच्चतम न्यायालय ने 3:2 के बहुमत से यह अभिनिर्धारित किया है कि दल बदल सम्बधी विधि अर्थात् संविधान की दसवीं अनुसूची संवैधानिक है

काशीनाथ जालमी बनाम दी स्पीकरः- के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि लोकसभा अध्यक्ष को दल बदल विरोधी विधि के अधीन अपने पूर्व आदेशो के पुनविचार करने की शक्ति नही है।

लाभ का पदः- लाभ का पद पदावली की संविधान में या लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 में कोई परिभाषा नही दी गयी है। इसके अर्थ को न्यायिक निर्णयों द्वारा समझा जा सकता है

के.वी.रोहमरे बनाम शंकर राव AIR-1975 उच्चतम न्यायालय ने निर्णीत किया कि बम्बई इण्डस्टिएल ऐक्ट, 1946 के अधीन गठिक मजइर-बोर्ड के सदस्यों को दिए गए मानदेय भत्ते संविधान के अनुच्छेद 191 के अन्तर्गत लाभ का पद नही कहा जा सकता है।

जया बच्चन बनाम भारत संघ AIR 2006 उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश फिल्म निगम की अध्यक्ष पद को लाभ का पद माना क्योकि वह पद स्थायी था। इस पद को धारण करने वाला उससे युक्तियुक्त कुछ लाभ पा सकता था। वास्तविक धन सम्बन्धी लाभ पाना या न लेना आवश्यक नही है।

 

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LECTURE – 11

संसद का गठन

बहुविकल्पीय प्रश्न

 
  1. निम्न में से कौन राज्य सभा के नामांकित सदस्यों का मनोनाम कर सकता है-

(a) राज्यपाल

(b) राष्ट्रपति

(c) लोकसभा अध्यक्ष

(d) सभापति

 
  1. राज्यसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या हो सकती है?

(a) 220

(b) 250

(c) 230

(d) 245

 
  1. लोक सभा के सदस्यों का निर्वाचन होता है?

(a) प्रत्यक्ष मतदान द्वारा

(b) अप्रत्यक्ष मतदान द्वारा

(c) (a) तथा (b) दोनों के द्वारा

(d) उपरोक्त में से कोई नही

 
  1. राज्य सभा का सभापति कौन होता है?

(a) लोकसभा अध्यक्ष

(b) राष्ट्रपति

(c) उपराष्ट्रपति

(d) राज्यपाल

 
  1. निम्न में से कौन सा मामला लाभ के पद से सम्बंधित है।

(a) बेहराम खुर्शीद बनाम बाम्बे राज्य

(b) ओलिया टेलिस बनाम बाम्बे नगर निगम

(c) के.वी.रोहमरे बनाम शंकर राव

(d) उपरोक्त सभी

 

 

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LECTURE – 12

राज्य विधान मण्डल

मुख्य प्रश्न

 
  1. विधान सभा के अध्यक्ष के कर्त्तव्यों को बताइये।
 
  1. राज्यविधान मण्डल के गठन को समझाइये।
 
  1. राज्य विधान मण्डल के सदस्यों की निर्हताओं को बताइये।
 

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LECTURE – 12

राज्य विधान मण्डल

 

हमारे संविधान में केन्द्र और राज्य दोनों के शासन के लिए संसदीय प्रणाली अपनाई गई है। संविधान में प्रत्येक राज्य के लिए एक विधानमण्डल का उपबंध है। संविधान में मूलतः यह उपबंध था कि अधिक जनसंख्या वाले राज्यों में विधान मण्डल हिसदनीय होता है। या दो सदन वाला। निम्न राज्यों में विधानमण्डल दो सदनों वाला है

1. आंध्र प्रदेश

2. बिहार

3. तमिलनाडू

4. तेलंगाना

5. महाराष्ट्र

6. कर्नाटक

7. उत्तर प्रदेश

उपरोक्त राज्यों में विधानमण्डल के एक सदन का नाम विधान परिषद् और दूसरे का नाम विधान सभा है। संविधान के अनुच्छेद 169 के अन्तर्गत संसद विधि द्वारा किसी राज्य में विधान परिषद का सृजन कर सकती है यदि उस राज्य की विधानसभा इस आशय का संकल्प कुल सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित और मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत पारित कर देती है। ऐसी कोई विधि अनुच्छेद 368 के प्रयोजन के लिए संविधान का संशोधन नही समझी जाएगी।

विधानसभा का गठनः- विधान सभाओं के सदस्यों का निर्वाचन प्रत्यक्ष रुप से होता है अर्थात् यह सदन जनता के प्रतिनिर्धियो का सदन है। संविधान के अनुच्छेद-170 में यह विहित है कि विधान सभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 और न्यूनतम 60 हो सकेगी। प्रत्येक चुनाव क्षेत्र की जनसंख्या के आधार पर ही सदनों में सदस्यों का प्रतिनिधित्व होता है। उस जनसंख्या का निर्धारण साधारण तथा गत जनगणना के आधार पर ही किया जाता है। विधान सभा के सदस्यों की न्यूनतम संख्या कुछ छोटे राज्यों के निर्माण के बाद उन राज्यों के लिए न्यूनतम सदस्य संख्या घटा किया गया है उदाहरणार्थ सिक्किम, उरुणाचल प्रदेश और गोवा के लिए न्यूनतम सदस्य संख्या 30 है जिसका वर्णन अनु. 371(च), 371(ज) अनुच्छेद 371(झ) मिजोरम के लिए यहह सदस्य संख्या 40 है। अनुच्छेद 335 के अनुसार जनसंख्या के आधार पर राज्य में अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए राज्य की विधान सभा में उसकी सदस्य संख्या निर्धारित की जायेगी।

संविधान के 84वें संशोधन अधिनियम, 200

इस अधिनियम द्वारा अनुच्छेद. 170क खण्ड 2(क) के पस्तुक के स्पष्टीकरण में 2000 और 1971 की संख्या के स्थान पर संख्या 2026 और 1991 को रखा गया है और खण्ड 3(ख) के परन्तुक में संख्या 2000 के स्थान पर 2026 और प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों के समायोजन के प्रयोजन के लिए जनसंख्या 1971 की जनगणना और निर्वाचन क्षेत्रों के विभाजन के लिए जनसंख्या से तात्पर्य 1991 की जनगणना के आधार पर होगा।

संविधान का 817वें संशोधन 2003- इस संशोधन अधिनियम द्वारा संविधान के अनुच्छेद 170 के खण्ड(2) में स्पष्टीकरण के पस्तुक में पुनः संशोधन किया गया है और अंक 1991 के लिए अंक 2001 प्रतिस्थापित किया गया है। इसी प्रकार अनुच्छेद 170 के खण्ड (3) मे खण्ड(2) के तीसरे परन्तुक में अंक 1991 के लिए अंक 2001 प्रतिस्थापित किया गया है। इसका तात्पर्य यह है कि प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों के समायोजन के लिए जनसंख्या का आधार 1991 न होकर 2001 होगा विधान सभा की अवधि 5 वर्ष की होती है राज्यपाल अवधि समाप्त होने के पहले भी विधान सभा का विघटन कर सकता है। राज्यपाल की सभा क विघाटित करने की शक्ति का कभी-कभी दुरुपायोग भी हुआ है। कुछ अवसरों पर केन्द्र सरकार ने अनुच्छेद 356 के अधीन कार्यवाही करके उद्घोषणा करने के पश्चात् राज्यों की विधानसभाएँ भंग कर दी गयी ऐसा तीन बार हुआ। 1997 में केन्द्र में सत्ताधारी जनता पार्टी की सरकार ने 9 राज्यों की कांग्रेस सरकारों से यह कहा कि वे त्यागपत्र दे विधान सभा विघटित करे और नए चुनाव करवाये। कांग्रेस सरकार इस पर सहमत नही हुई। केन्द्र सरकार ने राष्ट्रपति शासन लागू करके विधानसभा का विघटन कर दिया। सन् 1980 में जब कांग्रेस ने केन्द्र मे सत्ता सभाली तो उसने भी वही किया जैसा सन् 1977 में किया गया था अर्थात् उसने उन 9 राज्यों की विधान सभाएँ भंग कर दी जहाँ कांग्रेस का शासन नही था। सन् 1992 में 4 विधान सभाऐ विघटित कर दी गई जिसमें भारतीय जनता पार्टी का बहुमत था।

राजस्थान बनाम भारत संघ ए.आई.आर. 1977 एम.सी.- इस मामले में सन् 1977 में केन्द्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 356 के प्रयोग को 7 न्यायधीशों की न्यायपीठ ने केन्द्र सरकार के निर्णय को उचित ठहराया। किन्तु एस.आर.बोम्मई बनाम भारत संघ (1944) के मामले में 9 न्यायधीशो की पीठ ने केन्द्र सरकार को यह सलाह दी कि वह ऐसे मामलो में सरकारिया आयोग की सिफारिशों पर सम्यक ध्यान दे। और विघटन न करें क्योकि कुछ मामलें में न्यायालय यह अभिनिर्धारित का सकता है कि अनुच्छेद 356 के अधीन शक्ति का प्रयोग अनुचित और संविधान के प्रतिकूल था। ऐसा होने पर न्यायालय यह आदेश दे सकता है कि यथापूर्व स्थिति कायम की जाए। बोम्मई मामले में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि नागालैण्ड(1988), कर्नाटक(1989) और मेघालय (1991) की विधान सभाओं का विघटन और राज्य सरकारों की पदच्युति असंवैधानिक थी।

अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपातकाल की उद्घोषणा प्रवर्तन में है तो 5 वर्ष की अवधि का विस्तार किया जा सकता है विधानसभा का जीवनकाल बढाने के लिए संसद को विधि बनानी होगी। विस्तार एक बार में 1 वर्ष का ही हो सकती है। किन्तु जिस तारीख को उद्घोषणा प्रवृत नही रहती है उस तारीख से यह विस्तार 6 मास से अधिक नही हो सकता।

विधान परिषदः- भारतीय संविधान के अऩुच्छेद 171 के अनुसार विधान परिषद् के सदस्यों की समस्त संख्या उस राज्य के विधान सभा के कुल सदस्यों की संख्या के 1/3 से अधिक नही होगी। किन्तु किसी भी दशा में विधान परिषद के सदस्यों की संख्या 40 से कम न होगी।

राज्य की विधान परिषद् एक स्थायी सभा है। राज्य विधान परिषद् को भंग नही किया जा सकता है। किन्तु इसके एक तिहाई सदस्य प्रति दो वर्ष बाद सेवा निवृत होते रहेगे।

विधान परिषद् के सदस्यों का निर्वाचनः किसी राज्य की विधान परिषद् की कुल संख्या के

1. 1/3 सदस्य नगरपालिकाओं, जिला बोर्ड और अन्य स्थानीय प्राधिकारियों के सदस्यों से मिलकर बनने वाले निर्वाचक मंडलों द्वारा निर्वाधित होगा या जैसा संसद द्वारा निश्चित हो

2. 1/12 सदस्य कम से कम 3 साल पूर्व के स्नातकों के निर्वाचन मण्डल द्वारा चुना जायेगा

3. 1/12 सदस्य आध्ययिक शिक्षा संस्थाओं में कम से कम 3 वर्ष से सेवारत शिक्षकों के निवाचक मण्डल द्वारा चुना जायेगा।

4. 1/3 सदस्य राज्य विधानसभा के सदस्यों द्वारा उन लोगों में से चुने जायेंगे जो विधानसभा के सदस्यों नही है

5. शेष 1/6 राज्यपाल द्वारा मनोनीत किये जायेंगे जिन्हें साहित्य, विज्ञान कला, सहकारिता आन्दोलन तथा सामाजिक सेवा के बारे में विशेष ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव है।

5.सदस्यों के लिए निरर्हताए

अनुच्छेद 191 के अनुसार निम्नलिखित व्यक्ति विधान मण्डल के सदस्य चुने जाने के लिए अनर्ह है-

1. यदि वह व्यक्ति केन्द्र या राज्य सरकार के अधीन कोई लाभ का पद ग्रहण करता है।

2. यदि वह विकृतचित है

3. यदि वह अनुन्मोचित दिवालिया है

4. यदि वह भारत का नागरिक नही है या उसने किसी विदेशी राज्य की नागरिकता स्वेच्छा से आर्जित कर ली है या वह किसी विदेशी राज्य के प्रतिग्रहण निष्ठा या अनुषक्ति को अभिस्वीकार किए हुए है।

5. यदि वह संसद द्वारा बनाई गई किसी विधि द्वारा या उसके अधीन इस प्रकार निरर्हित कर दिया गया है

उपरोक्त आधारों के अतिरिक्त संसद को इस सम्बन्ध मे ऐसी विधि बनाने की शक्ति है। इस शक्ति का प्रयोग करके संसद ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम -1951 पारित किया।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 में संसद ने विधान मण्डल की सदस्यता के लिए निरर्हित किए जाने के कुछ आधार बताऐ है उदाहरणार्थः-

1. न्यायालय द्वारा दोषसिद्ध ठहराया जाना

2. निर्वाचन में ग्रष्ट आचरण का दोषी होना

3. ऐसे निगम में निदेशक पद धारण करना

विधानसभा के अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष

अनुच्छेद 178 के अन्तर्गत अध्यक्ष और उपाध्यक्ष का चुनाव विधानसभा का गठन हो जाने के बाद यथाशीघ्र उसके सदस्यों द्वारा अपने बीच में से किया जाता है और जब भी पड रिकत होते है तब पुनः उनका चुनाव इसी प्रकार से किया जाता है।

विधानसभा अध्यक्ष की शक्तियाँ या कर्त्तव्य (Power & duties of the speaker)

1. विधानसभा की सभी बैठकों की अध्यक्षता करना

2. विधानसभा की कार्यवाहियों को विनियमित करना

3. सदन में अनुशासन बनाये रखवाना

4. एक निष्पक्ष और स्वतंत्र पीठासीन अधिकारी बने रहना

5. सदन के सभी विवादों को निपटाना

6. विधानसभा के नियमों और प्रक्रियाओं की व्याख्या करना

7. विधानसभा के हर मामले में अध्यक्ष का निर्णय अंतिम होता है उसके निर्णयों और व्यवस्थाओं में न्यायालय हस्ताक्षेफ नही कर सकता है।

8. न्यायालय विधान सभा अध्यक्ष के विरुद्ध रिट जारी कर सकता है।

विधान परिषद के सभा पति तथा उप सभापति

विधानसभा की तरह विधान परिषद में भी उसके सभापति और उप सभापति का चुनाव उसके ही सदस्यों दवारा अपने बीच में से किया जाता है। जब कभी ये पड रिक्त हो तब पुनः इसी प्रकार से उनका चुनाव किया जाता है

सभापति के कर्तव्यः- विधानपरिषद के सभापति की वे ही शक्तियाँ और कर्त्तव्य है जो विधानसभा के अध्यक्ष की होती है जिस प्रकार विधान सभा अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष विधान सभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है इसी प्रकार विधान परिषद् सभापति की अनुपस्थिति उपसमापति बैठकों की अध्यक्षता करता है (अनु. 114 एवं 185)

 

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LECTURE – 12

राज्य विधान मण्डल

 
  1. निम्न में किस राज्य में विधानमण्डल द्विसदनीय नही है?

(a) तेलंगना

(b) महाराष्ट्र

(c) कर्नाटक

(d) केरल

 
  1. निम्न मे से किस संशोधन द्वारा भारतीय संविधान के अनुच्छेद 170 क खण्ड 2(क) के पस्तुक के स्पष्टीकरण में 2000 और 1971 के स्थान पर सख्यां 2026 और 1991 को रखा गया है।

(a) 84 वे संविधान संशोधन

(b) 85वें संविधान संशोधन

(c) 86वें संविधान संशोधन

(d) 87वें संविधान संशोधन

 
  1. संविधान के किस अनुच्छेद द्वारा संसद विधि द्वारा विधान परिषद् का गठन का सकती है

(a) अनुच्छेद – 169

(b) अनुच्छेद – 170

(c) अनुच्छेद – 168

(d) अनुच्छेद – 166

 
  1. मिजोरम राज्य के लिए विधानसभा के न्यूनतम सदस्यों की संख्या कितनी है?

(a) 60

(b) 40

(c) 50

(d) 45

 
  1. गोवा राज्य के लिए विधानसभा के न्यूनतम सदस्यों की संख्या कितनी होनी चाहिए?

(a) 20

(b) 40

(c) 30

(d) 60

 

 

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LECTURE – 13

(Relation between the Union and the States)

संघ और राज्यों के बीच विधायी संबंध

(Legislative relation between the Union and the States)

 

संघ और राज्यों के बीच विधायी शक्तियों का विभाजन दो दृष्टियों से किया गया है

(1) विधान के विस्तार क्षेत्र की दृष्टि से,

(2) विधान के विषय की दृष्टि से।

1. विधान के विस्तार क्षेत्र की दृष्टि से (With respect to territory)

अनु० 245 यह उपबंधित करता है कि इस संविधान के उपबंधों के अधीन रहते हुए संसद भारत के संपूर्ण राज्य क्षेत्र या उसके किसी भाग के लिये विधि बना सकेगी तथा किसी राज्य का विधान मण्डल उस संपूर्ण राज्य के अलावा उसके किसी भाग के लिये विधि बना सकेगा। खण्ड (2) यह उपबंधित करता है कि संसद द्वारा निर्मित कोई विधि इस कारण से अमान्य नहीं समझी जायेगी कि वह भारत के राज्यक्षेत्र से बाहर भी लागू होती है।

राज्य क्षेत्रीय संबंध का सिद्धान्त (Theory of Territorial Nexus)-उपयुक्त सिद्धान्त के अन्तर्गत अनु० 245 (1) के अनुसार संसद संपूर्ण भारतीय राज्य क्षेत्र का उसक किसी भाग के लिये और राज्य के विधान मण्डल अपने-अपने राज्यों के राज्य क्षेत्रों या उनके . किन्हीं भागों के लिये कानून बना सकते हैं और संसद द्वारा बनाये गये कानूनों के संबंध में – विशेष रूप से और स्पष्ट रूप से अनु० 245 (2) यह उपबंधित करता है कि उन्हें इस आधार पर अमान्य नहीं समझा जायेगा कि वे भारतीय राज्य क्षेत्र से बाहर लागू होते हैं।

स्टेट ऑफ बाम्बे बनाम आर० एम० डी० सी०, ए० आई० आर० 1957 एस० सी० 799 के मामले में बंबई राज्य को उसके एक अधिनियम के अन्तर्गत लाटरी और इनामी विज्ञापनों पर करारोपण का अधिकार प्राप्त था। अतः यह कर बंगलौर से प्रकाशित उत्तरवादी के उस समाचार पत्र पर भी लगाया गया जिसका बंबई राज्य में पर्याप्त प्रसारण था और जिसके द्वारा वह इनामी प्रतियोगिताएं चलाता था। न्यायालय ने निर्णय दिया कि समाचार पत्र पर कर लगाने के लिये उचित क्षेत्रिक संबंध मौजूद था। क्षेत्रिक संबंध के मामले में दो बातें आवश्यक हैः-

(1) विषय-वस्तु में और उस राज्य में जो उस पर कर लगाना चाहता है वास्तविक संबंध हो, भ्रामक संबंध नहीं, और,

(2) दायित्व जो लगाया जाता है उस सम्बन्ध के प्रसंगानुकूल होना चाहिये।

2. विधान की विषयों की दृष्टि से विधायी सम्बन्ध (With respect to subject matter)

अनु० 246 संसद और राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा बनाये जाने वाले कानूनों को तीन विषय-सूचियों में विभाजित करता है

(1) संघ-सूची (Union list),

(2) समवर्ती-सूची (Concurrent list), और

(3) राज्य-सूची (State list)

ये विषय-सूचियां संविधान की सप्तम अनुसूची में उपबन्धित की गयी हैं। अनु० 246 (1) के अन्तर्गत संसद को ‘संघ-सूची’ में उल्लिखित विषयों पर और राज्यों के विधान मण्डलों को राज्य-सूची में उल्लिखित विषयों पर, अनु० 246 (3) के अन्तर्गत कानून बनाने की अनन्य शक्ति (exclusive power) प्रदान की गयी है, जबकि अनु० 246 (2) के अन्तर्गत समवर्ती सूची में उल्लिखित विषयों पर संसद और राज्य विधानमण्डलों, दोनों को, सामान्य रूप से कानून बनाने की शक्ति प्रदान की गयी है।।

केन्द्रीय विधायी शक्ति की सर्वोच्चता (Supremacy of the Central Legislative power)—अनु० 246 (3) के अन्तर्गत राज्य-सूची के विषयों पर कानून बनाने की जो शक्ति राज्य विधान मण्डलों को प्रदान की गयी है, वह अनु० 246 के खण्ड (1) और खण्ड (2) के केन्द्र को संघ सूची और समवर्ती सूची के विषयों पर कानून बनाने की प्रदान की गयी शक्ति के अधीन है।

अवशिष्ट शक्तियां (Residuary Powers)-उपर्युक्त उपबन्धों के अतिरिक्त, अनु० 248 अवशिष्ट विधायी शक्तियों को केन्द्र सरकार में निहित करता है। अस्तु जो विषय उपर्युक्त किन्हीं भी विषय-सूचियों में शामिल नहीं हैं, उन पर केन्द्र सरकार को कानून बनाने की अनन्य शक्ति प्राप्त हो गयी है।

भारत संघ बनाम एच० एस० ढिल्लन, ए० आई० आर० 1972 एस० सी० 1061, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने केन्द्र सरकार की अवशिष्ट शक्ति के बारे में कहा है कि यह देखना आवश्यक नहीं है कि वह विषय, जिस पर केन्द्र सरकार ने कानून बनाया है, संघ—सूची में शामिल है या नहीं, बल्कि इतना देखना ही पर्याप्त होगा कि वह राज्य-सूची या समवर्ती-सूची में शामिल नहीं है।

उच्चतम न्यायालय ने इन्टरनेशनल टूरिज्म कारपोरेशन बनाम हरियाणा राज्य, ए० आई० आर० 1981 एस० सी० 774, के मामले में उक्त दृष्टिकोण को बदल दिया है और यह अभिनिर्धारित किया है कि केन्द्र को अवशिष्ट शक्ति का इतना व्यापक प्रयोग नहीं करना चाहिये, जो राज्य विधान मण्डल की विधायी शक्ति को बिल्कुल क्षीण कर देती हो और संघात्मक सिद्धान्त को प्रभावित करती हो।

सूचियों के निर्रचन के सामान्य नियम (Principle of interpretation of Lists)—भारतीय न्यायालयों द्वारा तीनों सचियों में वर्णित,विभिन्न सरकारों की भी निर्धारण और निर्वचन के लिये निम्नलिखित नियम स्थापित किये गये हैं-

(1) संघशक्ति की प्रमखता (Predominance of the Union List)-जही भा राज्य तथा संघ सूची के विषयों पर बनी विधि में विभिन्नता होगी वहां पर संग बनी विधि को राज्य विधि के ऊपर प्रमुखता दी जायेगी।

(2) तत्व एवं सार का सिद्धान्त (Doctrine of Pith and Substance)-अनु. 246 के उपबन्धों को ध्यान में रखते हुये न्यायालय ‘तत्व और सार का सिद्धान्त’ उस सो लागू करते हैं जब तक विधानमण्डल द्वारा बनाया गया कोई कानून दूसरे विधानमण्डल में विधायी विस्तार-क्षेत्र का भी अतिक्रमण करता है या करने लगता है।

बम्बई राज्य बनाम बालसरा, ए० आई० आर० 1951 एस० सी० 318, के मामले में बम्बई राज्य के मद्य-निषेध अधिनियम की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि उससे संघ-सूची में उल्लिखित विषय ‘मादक द्रव्यों के आयात-निर्यात’ पर प्रतिकल प्रभाव पड़ेगा। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘अधिनियम का मुख्य उद्देश्य राज्यसूची के विषय से सम्बन्धित है, संघ-सूची से नहीं’ इसलिये वह संवैधानिक है।

बम्बई राज्य बनाम बालसरा, ए० आई० आर० 1951 एस० सी० 318, के मामले में बम्बई राज्य के मद्य-निषेध अधिनियम की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी गयी थी कि उससे संघ-सूची में उल्लिखित विषय ‘मादक द्रव्यों के आयात-निर्यात’ पर प्रतिकल प्रभाव पड़ेगा। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि ‘अधिनियम का मुख्य उद्देश्य राज्यसूची के विषय से सम्बन्धित है, संघ-सूची से नहीं’ इसलिये वह संवैधानिक है।

(3) छद्म विधायन का सिद्धान्त (Dotrine of colourable legislation)-अनु० 246 के अन्तर्गत विधायी शक्तियों का विभाजन केन्द्र और राज्यों के बीच किया गया है, उसके अन्तर्गत ही किसी विधायिका ने कार्य किया है या उसके बाहर? ऐसा प्रश्न तब उठता है जब कोई विधायिका किसी कानून को बनाने के ऊपरी तौर से अपनी शक्तियों के अन्दर कार्य करती हुई दिखाई देती है, किन्तु यथार्थतः या सारतः वह संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण कर जाती है।

इस प्रकार का अतिक्रमण प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष हो सकता है। ऐसे परोक्ष विधायन को छद्म विधायन कहते हैं, और ऐसे मामलों में अधिनियम का सार (Substance) महत्वपूर्ण होता है।

आर.एस. जोशी बनाम अजित मिल्स लि., ए.आई.आर. 1977 एस. सी. 1729 के मामले में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश कृष्ण अय्यर ने छद्म विधायन की परिभाषा करते हुये कहा है कि छद्मता से तातपर्य अक्षमता से है। कोई वस्तु तब छद्म होती है जब वह वास्तव में उस रुप में नही होती है, जिस रुप में वह प्रस्तुत की जाती है। छद्मता में दुर्भावना का तत्व नही होता है।

3. प्रत्यायोजित विधायन (Delegated legislation)

विधि-निर्माण मुख्यतया विधान मण्डल का कार्य होता है। किन्तु प्रायः विधान मण्डल विधि बनाने की शक्ति अन्य व्यक्तियों अथवा निकायों को प्रत्यायोजित कर देता है। इन व्यक्तियों या निकायों द्वारा बनाये गये नियमों, परिनियमों, आदेशों और उपविधियों को प्रत्यायोजित विधान कहते हैं।

प्रत्यायोजित विधान के विकास के कारण-प्रत्यायोजित विधान के उद्भव एवं विकास के लिये संसद के कार्य में वृद्धि, विषय-वस्तु का तकनीकी स्वरूप, प्रयोग का अवसर, अदृष्ट आकस्मिकता तथा आपात् शक्ति जैसी परिस्थितियाँ सहायक हुई हैं।

प्रत्यायोजित विधायन की परिसीमा (Limitation of delegated legislation) — दिल्ली विधि अधिनियम, 1912 निर्देश ए० आई० आर० 1951 एस० सी० 232, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि भारत में विधान-मण्डल अपनी आवश्यक विधायी शक्ति का प्रत्यायोजन नहीं कर सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि आवश्यक विधायी कृत्य का प्रत्यायोजन नहीं किया जा सकता है। आवश्यक विधायी कृत्य से अभिप्रेत है नीति अधिकथित करना और उसको आचरण के रूप में परिवर्तित करना। विधान मण्डल नीति अधिकथित करके ही अपनी विधायी शक्ति का प्रत्यायोजन कर सकता है, अन्यथा नही।

 

 

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LECTURE – 14

आपात घोषणा

 

आपात उद्धोषणा सम्बन्धी प्रावधान

संविधान के प्रावधानों के अन्तर्गत राष्ट्रपति तीन दशाओं मे आपातकाल की उद्घोषणा कर सकता हैः

1. युद्ध या बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह होने की दशा में,

2. किसी राज्य में संवैधानिक तन्त्र के विफल होने की दशा में,

3. वित्तीय संकट उत्पन्न होने की दशा में,

अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत आपात काल (Emergency under Art. 352)

अनुच्छेद 352 के अन्तर्गत जब राष्ट्रपति को समाधान हो जाये कि गम्भीर आपात स्थिति पैदा हो गयी है जिससे भारत या उसके किसी भाग की सुरक्षा को युद्ध, बाहरी आक्रमण या भीतरी सशस्त्र विद्रोह के कारण खतरा उत्पन्न हो गया है तो वह संपूर्ण भारत में या उसके ऐसे भाग के लिये आपात की घोषणा कर सकता है, जो उद्घोषणा में उल्लेखित हो।

इस प्रकार अनुच्छेद 352 के अधीन आपात की घोषणा के तीन आधार हो सकते हैं—

1. युद्ध (war)

2. बाहरी आक्रमण (External aggression)

3. सशस्त्र आन्तरिक विद्रोह (Armed rebellion)

42वे संविधान के पूर्व भारत के किसी एक भाग के लिये उद्घोषणा की व्यवस्था नही थी।

उद्घोषणा के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वास्तव में यद्ध, बाहरी आक्रमण, या आन्तरिक सशस्त्र विद्राह ही हो। राष्ट्रपति के लिये यह पर्याप्त है कि उक्त तीनों प्रकारों में से किसी का भी खतरा उत्पन्न हो गया हो। खतरे का आभास ही आपात उदघोषणा के लिये पर्याप्त है।

राष्ट्रपति का समाधान (Satisfaction of President)— राष्टपति का, आपात् उद्घोषणा के लिये होने वाला समाधान (satisfaction), निश्चायक होता है। माखन सिंह बनाम पंजाब राज्य, ए० आई० आर० 1964 एस० सी० 381 में मुख्य न्यायाधिपति श्री गजेन्द्र गडकर ने अभिनिर्धारित किया कि-“कितने समय तक आपात की उद्घोषणा जारी रहे और आपात के दौरान नागरिकों के मूल अधिकारों पर कौन से निर्बन्धन लगाये जायें यह ऐसे मामले हैं जिनकों कार्यपालिका पर छोड़ देना चाहिये क्योंकि कार्यपालिका परिस्थिति की आवश्यकताओं तथा बाध्यकर कारणों के बारे में जानती है, जो ऐसे गम्भीर संकट में होते हैं जैसा हमारे देश के सामने हैं।”

गुलाब सरबर बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 1335 में यह प्रश्न उठाया गया था कि क्या आपात की उद्घोषणा को असद्भाव के आधार पर चुनौती दी जा सकती है परन्तु इस प्रश्न का उत्तर उच्चतम न्यायालय ने नहीं दिया था। वास्तवमें इस प्रकार की शक्ति के दुरुपयोग के लिये उपचार न्यायालयों से प्राप्त नहीं हो सकता।

संविधान (44वां संशोधन) अधिनियम 1978 द्वारा अनुच्छेद 352 के खण्ड (3) को प्रतिस्थापित करके यह स्पष्ट उपबन्ध कर दिया गया कि राष्ट्रपति कोई आपात् उद्घोषणा जारी नहीं करेगा जब तक कि उसको मंत्रि-परिषद का लिखित निर्णय न प्राप्त हो जाये।

भिन्न-भिन्न आधारों पर भिन्न-भिन्न उद्घोषणायें-अनुच्छेद 352 का खण्ड (1) राष्ट्रपति को यह प्राधिकार देता है कि वह भिन्न-भिन्न उद्घोषणायें जारी कर सकता है। उदाहरणार्थ यदि एक उद्घोषणा बाहरी आक्रमण के आधार पर जारी की जा चुकी है तो उस उद्घोषणा के जारी रहते हुये भी वह दूसरी उद्घोषणा आन्तरिक सशस्त्र के आधार पर जारी कर सकता है।

प्रक्रिया सम्बन्धी निर्बन्धन(Procedural Restrictions)— राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 के तहत आपात की उद्घोषणा जारी करता है तथापि ऐसी प्रत्येक उद्घोषणा संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखी जायेगी

1. यदि राष्ट्रपति यह समझे कि उद्घोषणा की आवश्यकता समाप्त हो गयी है तो वह किसी भी समय उसे प्रतिसंहरण (Revoke) कर सकती है।

2. यदि एक माह की अवधि के अन्दर संसद के दोनों सदन उद्घोषणा का अनुमोदन नहीं कर देते तो उस अवधि के बाद उद्घोषणा प्रवर्तित नहीं रहेगी।

3. यदि संसद अनुमोदन या अस्वीकार करती है तो राष्ट्रपति प्रतिसंहरण कर देगा।

4. यदि लोक सभा किसी उद्घोषणा को, या उसके जारी करने को, अस्वीकृत कर देती है, तो राष्ट्रपति उस उद्घोषणा को रद्द कर देगा।

5. यदि लोकसभा के कुल सदस्यों के दशांक (1/10) के सदस्यों ने, लिखत में ऐसी उद्घोषणा की, या उसको जारी रहने को अस्वीकृत करने का संकल्प पेश करने के अपने आशय की सूचना या तो लोक सभाध्यक्ष को, यदि सदन सत्र में है, या राष्ट्रपति को, दब सदन सत्र में न हो, दे दी है, तो लोक सभाध्यक्ष या राष्ट्रपति, यथास्थिति के द्वारा सूचना पाने के 14 दिन के अन्दर सदन की विशेष बैठक, ऐसे संकल्प पर विचार करने के लिये, बुलायी जायेगी।

6. संसद द्वारा अनुमोदित होने पर, उपर्युक्त उद्घोषणा, जब तक उसे रद्द नहीं किया जाता है, अनुमोदन की तिथि के 6 माह तक लागू रहेगी, और पुनः संसद द्वारा अनुमोदित होने पर, प्रत्येक बार, 6 माह तक लागू रहेगी।

यदि लोकसभा के विघटित हो जाने पर उपर्युक्त कोई उद्घोषणा जारी की गयी है, या उसके जारी किये जाने के एक माह के अन्दर, लोकसभा विघटित हो जाती है, और राज्य सभा उसका अनुमोदन कर देती है; किन्तु लोकसभा ने इस अवधि के अंदर उसका अनुमोदन नहीं किया है, तो दूसरी पुनर्गठित लोकसभा की पहली बैठक से एक माह बीतने पर यह उद्घोषणा प्रभावहीन हो जायेगी, यदि इस अवधि के अन्दर लोक सभा उसका अनुमोदन नहीं कर देती है [खण्ड (4) का परन्तुक]।

59वां संविधान संशोधन द्वारा अनुच्छेद 352 में पुनः आन्तरिक अशान्ति के आधार पर आपात् स्थिति लागू करने का उपबन्ध किया गया है। आन्तरिक अशान्ति के कारण भारत की अखण्डता को खतरा उत्पन्न होने की दशा में आपात स्थिति की घोषणा की जा सकती है।

उदघोषणा का परिणाम(Effect of Proclamation) — आपात की घोषणा के निम्नलिखित प्रभाव होते हैं—

1. संघ द्वारा राज्यों को निर्देश दिया जाना-आपात स्थिति में संघ कार्यपालिका राज्य कार्यपालिका को निर्देश देती है। समस्त राज्य केन्द्र के निर्देशों के अनुसार कार्य करते हैं।

2. संघ द्वारा राज्य सूची के विषयों पर कानून बनाने की शक्ति-साधारण समय में केन्द्र तथा राज्यों की शक्ति का भी विभाजन किया गया है, वे उसी मर्यादा में काम करते हैं। किन्तु आपात्काल में केन्द्र से अधिकार विस्तृत हो जाते हैं और राज्य सूची के विषयों पर भी केन्द्र अर्थात् संसद कानून बना सकती है। 3. लोकसभा की अवधि में वृद्धि-आपात्काल के दौरान संसद द्वारा विधि बनाकर लोक सभा की अवधि एक बार में एक वर्ष के लिये बढ़ायी जा सकती है। आपात्काल के समाप्त होने पर स्वतः वृद्धि 6 महीने में समाप्त हो जाती है।

3. वित्तीय सम्बन्धों में परिवर्तन-यदि राष्ट्रपति उचित समझे तो केन्द्र व राज्यों के बीच स्थापित सम्बन्धों में परिवर्तन कर सकता है।

4. अनुच्छेद 19 में वर्णित मूल अधिकारों का निलम्बन-आपात्काल के दौरान अनुच्छेद 19 में दिये गये मूल अधिकारों का लिम्बन हो जाता है। आपात्काल घोषित होने से मूल अधिकार समाप्त नहीं होते हैं; ज्यों ही आपात्काल समाप्त होता है, मूल अधिकार फिर प्रभाव में आ जाते हैं।

5. मूल अधिकारों के प्रवर्तन का निलम्बन-राष्ट्रपति चाहे तो अनुच्छेद 59 के तहत जादश जारी करके किसी भी मल अधिकार के प्रवर्तन पर रोक लगा सकता है।

संविधान (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978 द्वारा एक महत्वपूर्ण परिवर्तन किया गया अब अनुच्छेद 358 के उपबन्ध तभी लागू किये जा सकते हैं जबकि आपात् उद्घोषणा में वाषत किया गया हो कि भारत या उसके राज्य-क्षेत्र के किसी भाग की सुरक्षा को यद्ध बाहरा आक्रमण के कारण खतरा उत्पन्न हो गया है। आन्तरिक सशस्त्र विद्रोह की स्थिति ल अनुच्छेद 19 अपने आप निलम्बित नहीं होगा।

 

 

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LECTURE – 15

संविधान में संशोधन (Amendment in the Constitution)

 

संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया (The procedure to amend the Constitution)—संशोधन की प्रकति के बारे में भूतपूर्व प्रधानमंत्री पंडित नेहरू ने कहा है कि “हालांकि हम इस संविधान को इतना ठोस और स्थायी बनाना चाहते हैं जितना कि हम बना सकते हैं, फिर भी संविधान में कोई स्थायित्व नहीं है। इसमें कुछ सीमा तक परिवर्तनशीलता होनी जानिये। यदि आप किसी वस्तु को अपरिवर्तनशील और स्थायी बना देंगे तो राष्ट की प्रगति को रोक देंगे और इस प्रकार आप एक जीवित और संगठित राष्ट्र की प्रगति को रोक देंगे।”

लेकिन संविधान निर्मातागण यह भी जानते थे कि यदि संविधान को आवश्यकता से अधिक नम्य बना दिया जायेगा। तो वह शासक दल के हाथों की कठपुतली बन जायेगा और वे अनावश्यक संशोधन भी कर देंगे। इसलिये हमारे संविधान निर्माताओं ने एक मध्यम मार्ग का अनुसरण किया है। यह न तो इतना अनम्य अथवा कठोर (Rigid) है कि आवश्यक संशोधन न किये जा सकते हों और न इतना नम्य अथवा लचीला (flexible) ही है कि अवांछित संशोधन किये जा सकते हों। अतएव यह कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान नम्यता—अनम्यता का एक अनोखा मिश्रण है।

लगभग 65 वर्षों के भीतर संविधान में 100 संशोधन किये जा चुके हैं। इससे भारतीय संविधान की नम्यता (flexibility) स्पष्ट परिलक्षित होती है। इसके विपरीत अमेरिका के संविधान में करीब 200 वर्षों के अन्दर केवल 26 संशोधन का किया जाना वहां के संविधान की जटिल संशोधन प्रक्रिया का परिणाम है। भारतीय संविधान इस अतिवादी दृष्टिकोण से सर्वथा मुक्त है।

भारतीय संविधान की संशोधन प्रक्रिया अनुच्छेद 368 में दी गयी है। संविधान निर्माताओं ने जान बूझकर ऐसी प्रक्रिया रखी है जो न ब्रिटिश संविधान का तरह आसान है और न अमेरिका या आस्ट्रेलिया की तरह कठिन ही। परन्तु कुछ अन्य अनुच्छेदों में साधारण विधायी प्रक्रिया द्वारा संशोधन की व्यवस्था है और उच्चतम न्यायालय के विनिश्चयों के अनुसार कुछ ऐसे उपबन्ध भी हैं जो संशोधित किये ही नहीं जा सकते। इसलिये संशोधन की दृष्टि से संविधान के उपबन्धों का निम्नलिखित प्रवर्गों (Categories) में अध्ययन किया जा सकता है—

(1) सामान्य विधीय प्रकिराय (Amendment by simple Majority) — 689 अनुच्छेदों के उपबन्धों में साधारण विधायी प्रक्रिया द्वारा ही संशोधन किया जा सकता है जैसे अनुच्छेद 4 169 और 239-क संसद को प्राधिकृत करते हैं कि वह साधारण प्रक्रिया द्वारा उनमें दिये गये अनुच्छेदों के उपबन्धों में संशोधन कर सकती है।

(2) विशेष बहुमत द्वारा (Amendment by special Majority)-अनुच्छेद 368 में संशोधन की सामान्य प्रक्रिया यह है कि संविधान संशोधन विधेयक संसद के किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है, पर ऐसा विधेयक प्रत्येक सदन की सम्पूर्ण सदस्यता के बहुमत से तथा उसमें उपस्थित और मत व्यक्त करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से पारित होना चाहिये। इसके बाद वह विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिये पेश किया जायेगा और राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त हो जाने पर संविधान संशोधित हो जायेगा।

केवल अनुच्छेद 368 के खण्ड (2) के परन्तुक में दिये गये उपबन्धों को छोड़कर संविधान के शेष सभी उपबन्ध इस प्रक्रिया द्वारा संशोधित किये जा सकते हैं।

(3) राज्य विधान मण्डलों की अनुमति द्वारा (By special Majority and Ratification of States)-अनुच्छेद 368 के खण्ड (2) के परन्तुक के कुछ उपबन्धों के बारे में, जो देश के परिसंघीय ढांचे से सम्बन्धित हैं, यह दिया गया है कि इन उपबन्धों में संशोधन के लिये सशोधन विधेयक संसद के प्रत्येक सदन की सम्पूर्ण सदस्यों के बहुमत तथा उपस्थित और मत व्यक्त करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत से पारित हो जाने पर राज्य विधानमण्डलों को भेजा जायेगा और कम से कम आधे राज्यों के विधानमण्डलों द्वारा प्रस्ताव पारित करके संशोधन का अनुमोदन करने के बाद संशोधन विधेयक राष्ट्रपति की अनुमति के लिये भेजा जायेगा। राष्ट्रपति की अनुमति प्राप्त हो जाने पर संविधान संशोधित हो जायेगा।

मूल अधिकारों में संशोधन (Amendment of Fundamental Rights) सर्वप्रथम शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1951 एस० सी० 458, में उच्चतम न्यायालय ने तय किया कि संविधान के संशोधन की शक्ति, जिनमें मूल अधिकार भी शामिल हैं, अनुच्छेद 368 में निहित है।

किन्तु गोलकनाथ बनाम पंजाब सरकार, ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 1643, के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि संसद को मूल अधिकारों को संशोधन करने की कोई शक्ति प्राप्त नहीं है। क्योंकि संविधान संशोधन को अनुच्छेद 13 के अन्तर्गत विधि माना गया है। संविधान में मूल अधिकारों को नैसर्गिक स्थान प्राप्त है।

उक्त वाद से उत्पन्न कठिनाई को दूर करने हेतु संविधान का 24वां संशोधन अधिनियम 1971 पारित किया गया जिसके द्वारा अनुच्छेद 368 के खण्ड (2) के पूर्व एक नया खण्ड जोडा गया जो यह उपबन्ध करता है कि “संविधान में किसी बात के होते हुये संसद अपनी संविधायी शक्ति का प्रयोग करते हुये संविधान में किसी उपबन्ध का परिवर्द्धन, परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन इस अनुच्छेद में दी गयी प्रक्रिया के अनुसार कर सकेगी।”

क्या संसद को संविधान में संशोधन करने की असीमित शक्ति प्राप्त है?

(Whether the Parliament has got Plenary Power to amed the Constitution?)

केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य, ए० आई० आर० 1973 एस० सी० 1461, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि यद्यपि अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत संसद को संविधान में संशोधन की विस्तृत शक्ति प्राप्त है, किन्तु वह असीमित नहीं है, और वह ऐसा संशोधन नहीं कर सकती है जिसमें संविधान के मूल तत्व या उसका आधारभूत ढाँचा (Basic Structure) नष्ट हो। संसद की इस शक्ति पर विवक्षित परिसीमायें हैं जो स्वयं संविधान में निहित हैं। सही स्थिति यह है कि संविधान का प्रत्येक उपबन्ध संशोधित किया जा सकता है बशर्ते कि इसके परिणामस्वरूप संविधान का आधारभूत ढांचा (Basic Structure) और आधारभूत तत्व वैसा ही बना रहे।

आधारभूत ढाँचे का सिद्धान्त (Basic Structure Theory) – आधारभूत ढांचा (Basic Structure) क्या है, परिभाषा नहीं दी गयी है। उदाहरणों द्वारा इसको समझाया गया है। केशवानन्द भारती के मामले में सर्वप्रथम इस शब्द का प्रयोग करते हुये न्यायमूर्ति सीकरी ने निम्नलिखित संवैधानिक लक्षणों को संविधान के आधारभूत ढाँचे में माना—

1. संविधान की सर्वोच्चता (Supremacy of the Constitution),

2. लोकतन्त्रात्मक गणराज्य (Democratic Republic)

3. धर्म निरपेक्षता (Secularism)

4. शक्तियों का पृथक्करण (Separation of Power)

5. परिसंघीय संविधान (Federal Constitution)

न्यायमूर्ति श्री शेल्ट और ग्रोवर के अनुसार निम्नलिखित आधारभूत ढाँचे के उदाहरण—(1) संविधान की सर्वोपरिता, (2) सरकार का गणतन्त्रात्मक और लोकतन्त्रात्मक स्वरूप और देश की सम्प्रभुता, (3) संविधान का धर्मनिरपेक्ष और संघात्मक स्वरूप, (4) विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका में शक्तियों का विभाजन, (5) व्यक्ति की गरिमा जो भाग 3 में दी गयी है, विभिन्न स्वाधीनता और मूल अधिकारों द्वारा सुनिश्चित है और भाग 4 में निहित कल्याणकारी राज्य की स्थापना का निदेश, (6) देश की एकता और अखण्डता।

न्यायमूर्ति हेगडे और मुकर्जी ने (1) भारत की सम्प्रभुता, (2) देश की लोकतन्त्रात्मक प्रणाली, (3) देश की एकता, (4) वैयक्तिक स्वाधीनतायें, (5) कल्याणकारी राज्य की स्थापना को आधारभूत ढांचा बताया है।

श्रीमती इन्दिरा नेहरू गांधी बनाम राजनारायण, ए० आई० आर० 1975 एस० सी० 2299, के मामले में न्यायमूर्ति चन्द्रचूड ने निम्नलिखित बातों को आधारभूत ढाँचे का आवश्यक तत्व माना—

1. विधि का शासन (Rule of law),

2. न्यायिक पुनर्विलोकन की शक्ति (Power of judicial Review),

3. लोकतन्त्र (Democracy).

केशवानन्द भारती के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया कि संसद संविधान के आधारभूत ढांचे (Basic structure) में किसी भी प्रकार का संशोधन नहीं कर सकता है।

संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम केशवानन्द भारती के. केस में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप संसदू ते 42वां संविधान संशोधन पारित किया जिसने अनुच्छेद 368 में खण्ड (4) व (5) में जीड़ दिये। खण्ड (4) में यह उपबन्ध कर दिया गया कि अनुच्छेद ४ के अधीन किये गये संशोधनों पर किसी भी न्यायालय में किसी भी आधार पर आपत्ति नहीं की जायेगी। खण्ड (5) में यह उपबन्ध था कि संविधान संशोधित करने की संसद की शक्ति पर किसी प्रकार का निर्बन्धन नहीं होगा।

मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ, ए० आई० आर० 1980 एस० सी० 1789, में उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 368 के खण्ड (4) व. (5) जो 42वें संशोधन द्वारा जोडे गये थे, असंवैधानिक घोषित कर दिया। इस मामले में निम्नलिखित तत्वों को आधारभूत ढांचे का भाग माना है—

(1) संसद की संविधान संशोधन की सीमित शक्ति

(2) मूल अधिकारों तथा राज्य के नीति निदेशक तत्वों से सीमन्जस्य

(3) न्यायिक पुनर्विलोकनकी शक्ति

वामन राव बनाम भारत संघ, आई० आर० 1981 एस० सी. 271, इस वाद में अनुच्छेद 31-ख और नवीं अनुसूची की संवैधानिकता को इस आधार पर चुनौती दी गयी कि 07 सावधान का आधारिक होचा नष्ट हो गया है। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया आधारित ढांचे का सिद्धान्त केशवानन्द भारती बनाम केरल राज्य में 24 अप्रैल, 1973 को प्रतिपादित किया गया था इसलिये जो कानून उस तिथि से पहले नवीं सूची में रख दिये है उनको चुनौती नहीं दी जा सकती है।

परन्तु जो कानून उस तारीख के बाद नवीं अनुसूची में रखे गये हैं उनका परीक्षण किया जायेगा। यदि वह आधारिक ढांचे को नष्ट करते हैं तो असंवैधानिक हाग।

मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ तथा वामन राव बनाम भारत संघ में भी उच्चतम न्यायालय ने केशवानन्द भारती व केरल राज्य में प्रतिपादित आधारिक ढांचे के सिद्धान्त को 24 अप्रैल, 1973 (जिसे केशवानन्द भारती के केस में निर्णय किया गया था) से पहले के संविधान संशोधनों पर लागू करने से इन्कार कर दिया।

इन्द्रा साहनी बनाम भारत संघ, (2000) 1 एस० सी० सी० 168, के मामले में अभिनिर्धारित किया गया कि विधि के समक्ष समता (Equality before law) भारतीय संविधान का मूल तत्व है। इसे समाप्त या हटाया नहीं जा सकता है।

भानूमती बनाम स्टेट ऑफ उत्तर प्रदेश, ए० आई० आर० 2010 एस० सी० 3796 में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि- “Doctrine of Basic structure is originatea from doctrine of silence.”