Arbitration

 

PAHUJA LAW ACADEMY

LECTURE – 1

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996

[ARBITRATION AND CONCILIATION ACT, 1996]

MAINS QUESTIONS

 
  1. माध्यस्थम करार की परिभाषा कीजिये एक वैध माध्यस्थम करार के आवश्यक तत्व कौन से है?
 
  1. माध्यस्थम करार की लक्षित शर्तों को समझाइये ?
 
  1. मध्यस्थम के बारे में न्यायालय को अंतरिम सहायता देने के लिए न्यायालय की क्या शक्तियां है?
 

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LECTURE – 1

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996

[ARBITRATION AND CONCILIATION ACT, 1996]

 

माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम, 1996, 22 अगस्त, 1996 से प्रवर्तन में है। इस तारीख को अधिसूचना जारी की गयी थी।

इस अधिनियम का विस्तार सम्पूर्ण भारत पर है।

‘माध्यस्थम् पंचाट’ (Arbitration Agreement) के अन्तर्गत कोई अंतरिम पंचाट भी है।

‘माध्यस्थम्’ से कोई माध्यस्थम् अभिप्रेत है चाहे जो स्थायी माध्यस्थम् संस्था द्वारा किया गया हो या न किया गया हो।

‘माध्यस्थम्’ एक ऐसा व्यक्ति होता है जिसके पास पक्षकारों द्वारा विवादित मामले निपटाने हेतु भेजे जाते हैं। माध्यस्थम् में पक्षकारों की संख्या एक या एक से अधिक हो सकती है।

माध्यस्थम् का सारतत्व यह है कि इसके अन्तर्गत विवादी पक्षकार या पक्षकारों द्वारा अपने विवादित मामले निपटाने हेतु मध्यस्थ या मध्यस्थों (जिन्हें माध्यस्थम् अधिकरण कहा जाता है) को निर्देशित किये जाते हैं और इस माध्यस्थम् अधिकरण का चुनाव पक्षकारों द्वारा किया जाता है।

माध्यस्थम् के चार प्रकार हैं –

1. तदर्थ माध्यस्थम् ,

2. संविदात्मक माध्यस्थम्,

3. संस्थागत माध्यस्थम्,

4. सांविधिक माध्यस्थम्।

इस अधिनियम के अन्तर्गत मध्यस्थ को परिभाषित नहीं किया गया है।

‘विवाद’ से आशय है एक पक्षकार द्वारा दावे का प्रत्याख्यान तथा दूसरे द्वारा विखण्डन (उत्तम चंद सालिग्राम बनाम जीवा मामूजी, ए० आई० आर० 1920 कल० 143)

माध्यस्थम् करार में पक्षकारों के बीच इस आशय के स्पष्ट करार होना चाहिए कि विवाद या मतभेद उत्पन्न होने की दशा में वे उसे माध्यस्थम् के पास निपटारे के लिए निर्देशित करेंगे तथा पंचाट (अवार्ड) उन्हें स्वीकार होगा।

माध्यस्थम् करार में पक्षकारों द्वारा मध्यस्थ/मध्यस्थों के नामों का उल्लेख होना चाहिए। पक्षकार किसी नामोदिष्ट अधिकारी (designate officer) को मध्यस्थों की नियुक्ति हेतु प्राधिकृत कर सकते हैं।

माध्यस्थम् करार में कोई अनिश्चितता या संदिग्धता होने की दशा में ऐसा माध्यस्थम् करार शून्य एवं निष्प्रभावी होगा।

माध्यस्थत पंचाट – जब कोई विवाद माध्यस्थम् अधिकरण को निर्देशित किया जाता है और वह विवाद पर जो निर्णय देता है उसे माध्यस्थ पंचाट कहते हैं। पंचाट पक्षकारों पर निश्चायक होता है। जो बिन्दु माध्यस्थम् को निर्देशित किये जाते हैं उन पर निर्णय अंतिम होता है।

पंचाट का विधिक महत्व डिक्री की भांति होता है। पंचाट पक्षकारों पर बन्धनकारी प्रभाव रखता है। पंचाट के निष्पादन हेतु न्यायालय के आदेश की आवश्यकता नहीं होती।

यदि माध्यस्थम् कार्यवाही को किसी न्यायालय में चुनौती दी जाती है तो पंचाट अन्तिम नहीं माना जायेगा।

माध्यस्थम् में निर्दिष्ट प्रश्नों के प्रति प्राङ्गन्याय का सिद्धान्त लागू होगा।

माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की धारा 34 (3) के अनुसार, पंचाट का निष्पादन परिसीमा अवधि के अधीन होता है।

माध्यस्थम् पंचाट अंतिम तथा अन्तरिम हो सकता है। अन्तरिम पंचाट, अन्तरिम व्यादेश की भांति होता है। अन्तरिम आदेश, अन्तरिम उपाय के रूप में प्रयोग किया जाता है।

पंचाट को अपास्त करने का आवेदन न्यायालय में दिया जा सकता है। जब पंचाट अपास्त कर दिया जाता है तो उसका प्रभाव बन्धनकारी नहीं रह जाता है।

मध्यस्थ/मध्यस्थों की नियुक्ति हेतु प्रक्रिया निर्धारित करने हेतु पक्षकार स्वतंत्र हैं। जहाँ दो पक्षकारों में से प्रत्येक ने एक एक मध्यस्थ नियुक्त किया हो, तो ये दोनों मध्यस्थ मिलकर किसी तीसरे व्यक्ति को मध्यस्थ नियुक्त करेंगे, जो माध्यस्थम् अधिकरण का सभापतित्व करेगा। मध्यस्थ को यह अधिकार शक्ति दी गई है कि वैध माध्यस्थम् करार के अस्तित्व के बारे में अपनी अधिकारिता पर निर्णय ले सकता है।

यदि माध्यस्थम् अधिकरण की अधिकारिता पर आपत्ति उठाई गयी हो और माध्यस्थम् अधिकरण आपत्ति को खारिज कर देता है, तो इससे सम्बन्धित व्यक्ति इसके विरुद्ध 15 दिनों की अवधि में न्यायालय में आवेदन दे सकता है तथापि अधिकरण कार्यवाही जारी रखकर पंचाट जारी कर सकता है।

माध्यस्थम् अधिनियम, 1996 में न्यायालय की भूमिका अत्यन्त सीमित कर दी गयी है तथापि माध्यस्थम् अधिनियम के प्रयोजन हेतु केवल प्रधान सिविल न्यायालय को ही अधिकारिता प्राप्त है।

स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल बनाम एसोसिएटेड कॉण्ट्रैक्टर्स, ए० आई० आर० 2015 एस० सी० 260 के मामले में केवल जिले के मूल अधिकारिता वाले प्रिन्सिपल न्यायालय तथा मूल सिविल अधिकारिता वाले उच्च न्यायालय को ही ‘न्यायालय’ माना गया है, अन्य को नहीं।

घरेलू पंचाट उसे कहते हैं जो माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 2 (2)7 के अन्तर्गत इंगित होता है तथा अधिनियम के प्रथम भाग के प्रावधानों के अधीन दिया गया हो।

विदेशी पंचाट वह पंचाट कहलाता है जिसमें कम से कम एक पक्षकार विदेशी नागरिक रहे। यदि दोनों पक्षकार विदेशी विधि के अन्तर्गत विदेश में कोई पंचाट प्राप्त किये हों तो उसे विदेशी पंचाट कहा जाता है।

विदेशी पंचाट में निम्न तत्वों में से कोई एक तत्व होना आवश्यक है

1. पक्षकारों में से कम से कम एक विदेशी नागरिक हो, या

2. विषय-वस्तु अन्तर्राष्ट्रीय प्रकृति की हो, या

3. पंचाट विदेश में दिया गया हो।

अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम् (International Commercial Arbitration) से आशय है विवादों सम्बन्धी ऐसा माध्यस्थम् जो विधिक सम्बन्धों से उत्पन्न होता है, चाहे वे संविदात्मक हों या न हों, तथा जिनमें से एक पक्षकार भारतीय हो जिसका व्यापार या निवास भारत के बाहर हो, तथा सरकार की दशा में वह विदेशी सरकार हो [“व्यक्ति’ के अन्तर्गत निगमित निकाय या कम्पनी आती है]

अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यक माध्यस्थम् के दो प्रमुख तत्व हैं

1. विवादित मामला व्यापारिक प्रकृति का है, तथा

2. भारतीय पक्षकार के साथ दूसरा पक्षकार विदेशी नागरिक या विदेशी निगमित निकाय या विदेशी कम्पनी हो।

माध्यस्थम् का स्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक है अथवा नहीं यह पक्षकारों की राष्ट्रीयता पर निर्भर करता है।

गैस अथारिटी आफ इंडिया लि. (G A I L) बनाम स्याई केपेग, ए० आई० आर० 1994 दिल्ली 75 के वाद में वाणिज्यिक माध्यस्थम् को अन्तर्राष्ट्रीय स्वरूप का माने जाने हेतु उसमें निम्नलिखित में से कोई एक तत्व होना आवश्यक है –

(1) किसी एक पक्षकार का व्यापार/वाणिज्य भारत के बाहर होना चाहिए, या

(2) करार का पालन भारत के बाहर हुआ हो, या

(3) व्यापार/वाणिज्य की विषय-वस्तु से सम्बन्धित संव्यवहार भारत के बाहर हुआ हो, या

(4) संव्यवहार के पक्षकारों में से कम से कम एक पक्षकार विदेशी राष्ट्रीयता का हो।

पक्षकार या मध्यस्थ द्वारा माध्यस्थम् को नोटिस भेजे जाने के तरीके का प्रावधान धारा 3 में दिया गया है।

जहाँ किसी माध्यस्थम् कार्यवाही में पक्षकार द्वारा मध्यस्थ की किसी अनियमितता के बारे में समयावधि में आपत्ति न उठाई गयी हो जबकि उसे उस परिस्थिति की जानकारी थी तो माध्यस्थम् के पंचाट के बाद आपत्ति नहीं उठाई जा सकती। यह मान लिया जायेगा कि उसने अपने अधिकार या विशेषाधिकार को त्याग दिया है। (धारा 4)

धारा 4 के अन्तर्गत परित्यजन का सिद्धान्त निम्नलिखित दशाओं में लागू नहीं होगा__

1. यदि माध्यस्थम् करार या माध्यथम् खण्ड शून्य या शून्यकरणीय हो,

2. यदि माध्यस्थम् कार्यवाही में अथवा पंचाट निर्णय में किसी अनिवार्य विधि के प्रावधान का उल्लंघन किया गया हो,

3. यदि अधिकारिता का अन्तर्भूत अभाव है तो, उसे मौन स्वीकृति अथवा परित्यजन द्वारा ठीक नहीं किया जा सकेगा।

प्रिवी काउन्सिल ने चौधरी मुमताज बनाम मुसम्मात बीबी बियूनिसा, (1876) 3 आई ए० 209 प्रि० कौ० के वाद में विनिश्चित किया कि अपीलार्थी को उस परिस्थिति की जानकारी हो जिस पर आपत्ति उठाई जा सकती है, लेकिन फिर भी वह माध्यस्थम् कार्यवाही में इस आशा से भाग लेता रहा हो कि शायद निर्णय उसी के पक्ष में हो तो ऐसी दशा में यह समझा जायेगा कि उसने आपत्ति उठाने सम्बन्धी अपने अधिकार का परित्यजन कर दिया है अतः पंचाट निर्णय के पश्चात् इस सम्बन्ध में आपति उठाना व्यर्थ होगा।

धारा 5 के अनुसार माध्यस्थम् की कार्यवाही में न्यायालय हस्तक्षेप नहीं करेगा। न्यायालय स्थगन द्वारा माध्यस्थम् कार्यवाही को नहीं रुकवाया जा सकता।

माध्यस्थम करार –

जब संविदा के अधीन पक्षकार इस बात का करार करते है, कि वे अपने विवादों को मध्यस्थ द्वारा तय करायेंगें तो ऐसे करार को माध्यस्थम करार कहा जाता है।

अर्थात्

यदि पक्षकारों ने अपने विवादों को तय करने के लिए ऐसे व्यक्ति को नियुक्त किया है जो पक्षकारों को सुनकर एवं न्यायिक जाँच करके अपना फैसला करेगा तो ऐसा करार माध्यस्थम् करार कहा जाएगा।

माध्यस्थम औऱ सुलह अधिनियम 1996 की धारा 2(2)(बी) के अर्न्तगत “मध्यस्थम करार से धारा 7 में निर्दिष्ट कोई करार अभिप्रेत है।”

धारा 7 माध्यस्थम करार से सम्बन्धित है, जो निम्नलिखित उपबन्ध करती है-

(1) पक्षकारों के मध्य विवाद को निपटाने के लिए किया गया ऐसा करार है जो निश्चित विधिक सम्बन्ध चाहे संवादात्मक हो या न हो, उसके बीच उत्पन्न हुए हो या हो सकते हो।

(2) माध्यस्थम करार किसी संविदा में माध्यस्थम खण्ड के रुप में या किसी प्रथक करार के रुप में हो सकता है

(3) माध्यस्थम करार लिखित रुप में होना चाहिए

(4) पक्षकारों द्वारा हस्तारित होना चाहिए

(5) माध्यस्थम खण्ड वाले किसी दस्तावेज के प्रति किसी संविदा में निर्देश, माध्यस्थम करार का गठन करेगा,

यदि संविदा लिखित में है और निर्देश ऐसा है जो माध्यस्थम खण्ड के संविदा का भाग बनता है।

माध्यस्थम करार के आवश्यक तत्व-

(i) विवाद का अस्तित्वः- माध्यस्थम के लिए विवाद होना आवश्यक है क्योकि बिना विवाद माध्यस्थम अस्तित्व में नही आयेगा।

पक्षकारों के मध्य किसी विधिक दावे या दायित्व जिसका एक पक्षकार दावा करता है तथा दुसरा उससे इन्कार करता है तो ऐसे इन्कार या असहमति को विवाद कहा जाता है।

Case- के.के. मोदी बनाम के.एन. मोदी. A.I.R 1998

(ii) दोनों पक्षों में मतैक्यताः-

यदि माध्यस्थम करार किसी संविदा का कोई भाग है। तो यह आवश्यक है कि संविदा की तात्विक और सारवान शर्ते दोनों पक्षों मे पूर्ण या अन्तिंम रुप से मान ली हो।

Case-यू.पी. राजकीय निर्माण नियम लि. बनाम इन्दुरे प्राइवेट लिमिटेड, A.I.R. 1996 S.C.

(iii) विवाद को माध्यस्थम को निर्देशित करने हेतु स्पष्ट माध्यस्थम करार होना चाहिए-

जहाँ दोनों पक्ष किसी बात पर एकमत है। तथा दोनों में कोई विवाद या मतभेद अस्तित्व में है या होने की सम्भावना है तो इस सम्बन्ध मे दोनों पक्षकारों के मध्य स्पष्ट रुप से करार होना चाहिए कि विवाद का निपटारा किस प्रकार किया जाएगा

Case-रुणी कन्सट्रक्शन बनाम बिहार राज्य, A.I.R 1993

(iv) पक्षकारों में पारस्पारिकता होनी चाहिए-

माध्यस्थम करार के सम्बन्ध में पक्षकारों के बीच पारस्परिकता होनी चाहिए पारस्परिकता से तात्पर्य है कि माध्यस्थम करार के अर्न्तगत दोनों ही पक्षकारों को विवाद को माध्यस्थम हेतू निर्देशित करने का समान अधिकार होना चाहिए।

(v) माध्यस्थम करार लिखित होना चाहिएः-

धारा 7(3) मे स्पष्ट लिखा है, माध्यस्थम करार लिखित होना चाहिए। माध्यस्थम करार के अस्तित्व में आने के लिए आवश्यक नही है। कि वह औपचारिक प्रारुप ने हो। करार लिखित तथा पक्षकारों द्वारा स्वीकृत होना चाहिए, स्वीकृति लिखित या मौखिक रुप मे दी जा सकती है

(vi) करार पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिएः

धारा 7(4) उपबन्धित करती है, करार पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए। यह पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित दस्तावेज होता है। जिसमें माध्यस्थम् की शर्तो का उल्लेख हो और जिसको प्रतिग्रहण कर दूसरे पक्षकार ने हस्ताक्षर किया हो।

Case-पी. आनन्द गजपति राज बनाम पी.व्ही, राजु 2000 A.I.R. S.C.W

(vii) विवाद किसी विधिक सम्बन्ध के कारण हो-

धारा 7(1) स्पष्ट करता है कि जो विवाद माध्यस्थम करार के अर्न्तगत मध्यस्थ को सौया गया है वह पक्षकारों के मध्य किसी विधिक सम्बन्ध के कारण उत्पन्न हुए होने चाहिए। चाहे वे संविदात्मक हो या न हो।

(viii) माध्यस्थम करार वैध होना चाहिएः-

माध्यस्थम करार के विधि मान्य होने के लिए संविदा का वैध होना जरुरी है। यदि मूल संविदा शून्य पायी जाती है। तो पक्षकारों के बीच किया गया माध्यस्थम् करार निष्प्रभावी होगा।

(ix) माध्यस्थम करार में माध्यस्थम से पूर्व विभागीय अनुतोष प्राप्त करने सम्बन्धी उपबन्ध या खण्ड भी होना चाहिए-

शासन के साथ की गई संविदाओं में अक्सर निहित माध्यस्थम् करार का यह पूर्वाश रहता है। कि ठेकेदार संविदा से उत्पन्न विवदो को शासकीय यन्त्री के सम्मुख उसका निर्णय प्राप्त करने हेतु ले जाएगा तथा उक्त निर्णय यदि उसे माध्यस्थम् के द्वारा निर्धारित अवधि में चुनौती नही दी गई, अन्तिम एवं बाध्यकारी हो जाएगा,

माध्यस्थम करार का प्रभाव-

(1) कोई एक पक्षकार दिवालिया हो गया है धारा 41

(2) एक पक्षकार की मृत्यु हो गई है – धारा 40

(3) परिसीमाओं अधिनियम के सम्बन्ध में – धारा 43

किन विवादों को मध्यस्थों को सौंपा जा सकता है निम्न मामलों को मध्यस्थों को निपाटयें जाने के लिए सोंपे जा सकते है-

(1) ऐसे विवाद जो व्यक्तिगत अधिकारों से सम्बन्धित है माध्यस्थम् को सौपे जा सकते है। जैसे- वैवाहिक सम्बन्धों के पुर्नस्थापन के अधिकार का विवाद।

(2) CrPC की धारा 320 के अधीन अपराधों को माध्यस्थम को सौंपा जा सकता है।

(3) CrPC की धारा 145 में उत्पन्न विवाद

(4) दीवानी अदालत से सम्बन्धित विवाद

(5) परिसीमा द्वारा वर्धित ऋण सम्बन्धा विवाद

(6) दीवानी के अतिरिक्त ऐसे मामले जो दण्डनीय है

(7) मानहानि या सम्मान या प्रतिष्ठा से सम्बन्धित मामले

मामले जिनको माध्यस्थम को नही सौपा जा सकताः-

धारा 2(3) में प्रावधानित है कि भाग एक तत्तसमय प्रवृत्त ऐसी किसी अन्य विधि पर प्रभाव नही डालेगा जिसके आधार पर कतिपय विवाद माध्यस्थम के लिए निवेदित न किये जा सकेगें।

(1) फौजक्षरी मामले (जो अशमनीय है)

(2) दिवालियापन की कार्यवाही

(3) प्रोबेट की कार्यवाही

(4) व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा 92

(5) अभिभावक की नियुक्ति हेतु कार्यवाही

(6) वैवाहिक मामले (जो प्रथक्करण या विवाह विच्छेद की शर्तो के अतिरिक्त हो)

(7) विदेश में अचल सम्पत्ति के कार्यवाही के मामले

(8) भारत के लोकनीति के विरुद्ध के मामले

(9) जन सामान्य के हित के प्रतिकूल के मामले इत्यादि

मध्यस्थ के बारे में व्यक्तियों को अन्तरिम सहायता देने के लिये न्यायालय की शक्तियाँ

किसी विवाद के निस्तारण में पक्षकारों के अन्तिम अधिकारों के निर्णय के पूर्व कुछ आवश्यक अधिकृत निर्देश एवं आदेश आवश्यक हो जाते हैं। ऐसे आदेश अन्तिम आदेश का सहायक सोपान होता है और कभी-कभी अन्तरिम पंचाट की भाँति अन्तिम आदेश का एक भाग समझा जाता है। अन्तरिम आदेश देने की अधिकारिता न्यायालयों में तथा माध्यस्थम् अधिकरण में अंतर्निहित होती है

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम की धारा 9 और धारा 17 के प्रावधानों में अन्तरिम उपाय सम्बन्धी प्रावधान किया गया है।

धारा 9 उपधारा (1) के अनुसार

कोई पक्षकार माध्यस्थम् कार्यवाहियों के पूर्व या उनके वामान या माध्यस्थम् पंचाट किये जाने के पश्चात् किसी समय किन्तु इसके पूर्व कि वह धारा 36 के अनुसार प्रवृत्त किया जाता किसी न्यायालय को

(i) माध्यस्थम् कार्यवाहियों के प्रयोजनों के लिये किसी अप्राप्तवय या विकृतचित्त व्यक्ति के लिये संरक्षक की नियुक्ति के लिये या

(ii) निम्नलिखित मामलों में से किसी के सम्बन्ध में सुरक्षा के अन्तरिम उपाय के लिये नामतः

a. किसी माल का, जो माध्यस्थम् करार की विषयवस्तु है, परिरक्षण अन्तरिम अभिरक्षा या विक्रय,

b. माध्यस्थम् में विवादग्रस्त रकम सुरक्षित करने,

c. किसी सम्पत्ति या वस्तु का, जो माध्यस्थम् में विषयवस्तु या विवाद है या जिसके बारे में कोई प्रश्न उसमें उद्भूत हो सकता है, निरोध, परिरक्षण या निरीक्षण और पूर्वोक्त प्रयोजनों में से किसी के लिये किसी पक्षकार के कब्जे में किसी भूमि पर या भवन में किसी व्यक्ति को प्रवेश करने देने के लिये प्राधिकृत करने या कोई ऐसा नमूना लेने के लिये या कोई ऐसा संप्रेक्षण या प्रयोग कराये जाने के लिये जो पूर्ण जानकारी या साक्ष्य प्राप्त करने के प्रयोजन के लिये आवश्यक या समीचीन हो, प्राधिकृत करने

d. अन्तरिम व्यादेश या किसी प्रापक की नियुक्ति और न्यायालय को आदेश करने की वह शक्तियां होगी जो अपने समक्ष किसी कार्यवाही के प्रयोजन के लिये और और उसके सम्बन्ध में उसे है।

उपधारा (2) के प्रावधानानुसार- जहाँ माध्यस्थम् कार्यवाहियां प्रारम्भ होने के पूर्व न्यायालय उपधारा (1) के अधीन संरक्षा के किसी अन्तरिम उपाय का आदेश पारित करता है वहां माध्यस्थम् कार्यवाहियां ऐसे आदेश की तारीख से नब्बे दिन की अवधि के भीतर या ऐसे अतिक्ति समय के भीतर जो न्यायालय अवधारित करे, प्रारम्भ की जायेगी।

उपधारा (3) के अनुसार- माध्यस्थम् अधिकरण का एक बार गठन हो जाने पर न्यायालय उपधारा (1) के अधीन कोई आवेदन तब तक ग्रहण नहीं करेगा जब तक कि न्यायालय का यह निष्कर्षन हो कि ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं जिनके कारण धारा 17 के अधीन उपबन्धित उपचार सम्भवतः प्रभावकारी न हो पाये।

धारा 9 के उपरोक्त प्रावधानों से स्पष्ट होता है कि न्यायालय निम्नलिखित मामले में अन्तरिम उपाय प्रदान कर सकता है

(i) संरक्षक की नियुक्ति का आदेश

(ii) विषय वस्तु के परिरक्षण, अभिरक्षा और प्रापक की नियुक्ति सम्बन्धी उपाय

(i) संरक्षक की नियुक्ति का आदेश– विधि की दृष्टि में अवयस्क या चित्तविकृति व्यक्ति को अपरिपक्व क्षमता वाला एवं निर्णय लेने से असमर्थ माना जाता है। इसलिये उसे अपने वाद को प्रस्तुत करने तथा अपने विरुद्ध वाद से प्रतिरक्षा करने के लिए उसके हितों पर किसी वयस्क पुरुष द्वारा प्रतिधिनित्व किया जाय। विधिक व्यवस्था के अन्तर्गत संरक्षक की नियुक्ति न्यायालय द्वारा की जाती है।

(ii) विषय वस्तु के परिरक्षण, अभिरक्षा और प्रापक की नियुक्ति सम्बन्धी उपाय –

विषय वस्तु के संरक्षण के लिए निम्न प्रकार के उपाय सम्मिलित है –

a. किसी माल के परीक्षण, अभिरक्षा, विक्रय हेतु उपाय

b. माध्यस्थम में विवादग्रस्त धनराशि को प्राप्त करने हेतु उपाय

c. माध्यस्थम करार की किसी विषय वस्तु को रोकने या उसका निरिक्षण करने सम्बन्धी उपाय

d. अंतरिम आदेश प्राप्त करने हेतु एंव

e. अन्य ऐसे उपाय जो न्यायोचित एंव सुविधाजनक प्रतीत हो

 

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LECTURE – 1

PRE QUESTIONS

 
  1. माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996 कब से प्रभाव में आया?

(a) 22 अगस्त, 1996 से

(b) 10 अगस्त, 1996 से

(c) 10 अगस्त, 1940 से

(d) 12 नवम्बर, 2000 से

 
  1. आर्बिट्रेशन एवं कन्सीलियेशन अधिनियम को पारित किया गया :

(a) 1908

(b) 1940

(c) 1996

(d) 2002

 
  1. सही सुमेलित युग्म है-

(1) भाग 1 घरेलू या देशी माध्यस्थम् ।

(2) भाग 2 कतिपय विदेशी पंचाटों का प्रवर्तन

(3) भाग 3 सुलह

(4) भाग 4 पूरक उपबन्ध कूट :

 

(a) 1 2 3 4

(b) 2 3 4 1

(c) 3 4 2 1

(d) 1 3 4 2

 
  1. माध्यस्थम् को परिभाषित किया गया है

(a) धारा 2 में

(b) धारा 3 में

(c) धारा 4 में

(d) कहीं भी नहीं

 
  1. माध्यस्थम् के प्रकार हैं

(a) तदर्थ माध्यस्थम्

(b) संस्थागत माध्यस्थम् ।

(c) संविदात्मक माध्यस्थम्

(d) सांविधिक माध्यस्थम्

(e) उपर्युक्त सभी

 
  1. अन्तर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक माध्यस्थम परिभाषित है

(a) धारा 2 (घ) में

(b) धारा 2 (च) में

(c) धारा 2 (छ) में

(d) धारा 2 (ज) में

 
  1. माध्यस्थम् करार के विषय में सत्य है |

(a) विवाद सम्बन्धी निश्चितता

(b) पक्षकार के विषय में निश्चितता

(c) माध्यस्थम् अधिकरण तथा उसके गठन के बारे में निश्चितता

(d) उपर्युक्त सभी

 
  1. उच्चतम न्यायालय ने किस वाद में आर्बीट्रेटर्स और मध्यस्थ में विभेद स्पष्ट किया

(a) वाकी मोहम्मद बनाम हबीबुल्लकार

(b) श्रीमती रुक्मिणी गुप्ता बनाम जिलाधीश, जबलपुर

(c) रेणुसागर पावर कं० लि. बनाम जनरल इलेक्ट्रिकल कं०

(d) उ० प्र० राज्य बनाम टिपरचन्द

 
  1. माध्यस्थम् एवं सुलह विधेयक पर राष्ट्रपति ने कब अनुमति दी?

(a) 16 अगस्त, 1996 को

(b) 18 अगस्त, 1996 को

(c) 22 अगस्त, 1996 को

(d) 25 अगस्त, 1996 को

 
  1. नोटिस के तामीली के सम्बन्ध में प्रावधान हैं

(a) धारा 2 में

(b) धारा 3 में

(c) धारा 4 में

(d) धारा 5 में

 
  1. न्यायालय माध्यस्थम् कार्यवाही में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है। यह वर्जन है –

(a) धारा 5 के अन्तर्गत

(b) धारा 7 के अन्तर्गत

(c) धारा 6 के अन्तर्गत

(d) धारा 8 के अन्तर्गत

 
  1. पक्षकार को किसी माध्यस्थम् करार के अधीन किसी ऐसे अधिकार की जानकारी है जो माध्यस्थम् कार्यवाही के दौरान उठा सकता था लेकिन नहीं उठाया तो मान लिया जाता है कि उसने आपत्ति उठाने के अधिकार का परित्याग कर दिया है, यह प्रावधान है

(a) धारा 3 के अन्तर्गत

(b) धारा 4 के अन्तर्गत

(c) धारा 5 के अन्तर्गत

(d) धारा 6 के अन्तर्गत

 
  1. माध्यस्थम् करार के अधीन दोनों ही पक्षों में से प्रत्येक को विवाद माध्यस्थम् को निर्देशित करने का समान अधिकार होना चाहिए। यह कथन है :

(a) सत्य

(b) असत्य

(c) अंशत असत्य

(d) अंशतः सत्य, अंशतः असत्य

 
  1. माध्यस्थम् करार के सम्बन्ध में सत्य कथन है

(a) माध्यस्थम् करार संविदा में एक माध्यस्थम् खण्ड के रूप में या पृथक् करार के रूप में हो सकता है

(b) माध्यस्थम् करार लिखित में होगा

(c) माध्यस्थम् करार पक्षकारों द्वारा हस्ताक्षरित होना चाहिए

(d) उपर्युक्त सभी

 
  1. माध्यस्थम् करार से अभिप्रेत है

(a) ऐसा करार जो पक्षकारों द्वारा विवादों को, जो विधिक सम्बन्ध के कारण उत्पन्न हुए हैं, माध्यस्थम् को प्रेषित किये जाने हेतु किया गया हो, चाहे वे संविदात्मक ही क्यों न हों

(b) एक ऐसा करार जो पक्षकारों के विधिक सम्बन्ध के कारण उत्पन्न विवाद को माध्यस्थम् को प्रेषित किये जाने हेतु किया गया हो चाहे वे संविदात्मक न हों

(c) (a) एवं (b) दोनों

(d) उपर्युक्त में से कोई नहीं।

 

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LECTURE – 2

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996

[ARBITRATION AND CONCILIATION ACT, 1996]

माध्यस्थम् अधिकरण की संरचना (Composition of Arbitral Tribunal)

MAINS QUESTIONS

 
  1. मध्यस्थ की नियुक्ति करने की न्यायालय की क्या शक्तियों है? और इस से सम्बन्धित प्रक्रिया का उल्लेख करे|
 
  1. किन परिस्थितियों में न्यायालय द्वारा मध्यस्थ को हटाया जा सकता है ?
 
  1. वाद के लंबित रहने के दौरान मध्यस्थ की नियुक्ति कब होती है ?
 
  1. मध्यस्थ की नियुक्ति को किन प्रावधानों के अंतर्गत चुनौती दी जा सकती है ?
 
  1. मध्यस्थ कब नियुक्त किया जाता है ?क्या मध्यस्थ को अंतरिम आदेश देने की शक्ति है ?
 

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LECTURE – 2

माध्यस्थम् अधिकरण की संरचना (Composition of Arbitral Tribunal)

 

धारा 10 मध्यस्थों की संख्या – (1) पक्षकार मध्यस्थों की संख्या का अवधारण करने लिये स्वतंत्र होते हैं, परन्तु यह तब जबकि ऐसी संख्या एक सम-संख्या नहीं होगी।

(2) उपधारा (1) में निर्देशित किये गये किसी भी अवधारण में असफल होने पर माध्यस्थम् अधिकरण में एकल मध्यस्थ होगा।

मध्यस्थ की नियुक्ति (धारा 11) – माध्यस्थम् तथा सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 11 के अंतर्गत मध्यस्थों की नियुक्ति के सम्बंध में प्रावधान निम्नलिखित प्रकार से किया जा सकता है –

1. जब तक पक्षकारों द्वारा अन्यथा करार न किया गया हो किसी भी राष्ट्रीयता का कोई भी व्यक्ति मध्यस्थ नियुक्त किया जा सकता है।

2. उपधारा (6) के अधीन रहते हुए पक्षकार मध्यस्थ या मध्यस्थों को नियुक्त करने के लिए किसी प्रक्रिया पर सहमत होने के लिए स्वतंत्र है।

3. यदि पक्षकार मध्यस्थ की नियुक्ति का करार करने में असफल होते हैं तो प्रत्येक पक्षकार एक-एक मध्यस्थ की नियुक्ति करेगा तथा ये दोनों नियुक्त मध्यस्थ तक तीसरे मध्यस्थ की नियुक्ति करेंगे, जो पीठासीन मध्यस्थ के रूप में कार्य करेंगे।

4. जब पक्षकारों द्वारा अपने-अपने मध्यस्थों तथा पीठासीन मध्यस्थ की नियुक्ति प्रक्रिया लागू है, और

अ. जब एक पक्षकार के अनुरोध पर दूसरा पक्षकार अनुरोध की प्राप्ति के तीस दिन के भीतर मध्यस्थ की नियुक्ति करने में असफल रहता है, या ।

आ. दोनों नियुक्त किये गये मध्यस्थ अपनी नियुक्ति की तारीख से 30 दिन के भीतर पीठासीन अध्यक्ष की नियुक्ति करने में असफल रहता है

तो इसकी नियुक्ति किसी पक्षकार के अनुरोध पर उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालय या ऐसे न्यायालय द्वारा पदाविहित किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा की जाएगी।

5. उपधारा 2 में किसी करार के न होने पर एकमात्र वाले किसी माध्यस्थम् में यदि पक्षकार किसी माध्यस्थम् पर, एक पक्षकार द्वारा दूसरे पक्षकार से किये गये किसी अनुरोध की प्राप्ति से 30 दिन के भीतर सहमत नहीं होते हैं तो किसी एक पक्षकार के अनुरोध पर ऐसी नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट या ऐसे न्यायालय द्वारा नियुक्त किसी व्यक्ति या संस्था द्वारा की जाएगी।

मध्यस्थ की नियुक्ति चार प्रकार से की जा सकती है –

(1) पक्षकारों द्वारा स्थम् के मामले में

(2) निर्दिष्ट प्राधिकारी द्वारा के सम्बंध में, जहाँ

(3) माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा इतम न्यायालय या

(4) न्यायालय द्वारा व्यक्ति या संस्था,

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम 1996 में जहाँ मध्यस्थ की नियुक्ति किये जाने की प्रक्रिया दी गई है वहीं पर माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम 1996 की धारा 12 में उन आधारों का उल्लेख किया गया है जिनके आधार पर मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती दी जा सकती है।

इसी अधिनियम की अगली धारा अर्थात् धारा 13 में मध्यस्थों की नियुक्ति को चुनौती देने हेतु वांछित प्रक्रिया को विहित किया गया है।

धारा 12 की उपधारा (1) एवं (2) में उपबन्धित सावधानियों के बावजूद यदि मध्यस्थ की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता के बारे में शंका उत्पन्न होती है तो माध्यस्थ एवं सुलह अधिनियम 1996 की धारा 12 की उपधारा (3) के अन्तर्गत उसके प्रति आक्षेप किया जा सकता है।

धारा 12 की उपधारा (3) में उन आधारों को उपबन्धित किया गया है जिनके आधार पर मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती दी जा सकती है।

ये आधार निम्नलिखित हैं –

(1) यदि ऐसी परिस्थितियां विद्यमान हैं जो मध्यस्थ की स्वतंत्रता एवं निष्पक्षता के बारे में न्यायोचित संदेह को जन्म देती हो।

(2) मध्यस्थ पक्षकारों द्वारा तय की गई अर्हताओं को धारण नहीं करता।

मध्यस्थ की नियुक्ति को सिर्फ उपर्युक्त दोनों आधारों पर ही चुनौती दे सकता है अन्य आधारों पर नहीं पक्षकार उपर्यंत आधारों पर मध्यस्थ की नियुक्ति को तभी चुनौती दे सकता है यदि ये आधार उसे नियुक्ति के पश्चात् ज्ञात होते हैं। यदि वह इन परिस्थितियों को मध्यस्थ की नियुक्ति के समय ही जानता था तो वह मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती नहीं दे सकता। अधिनियम की धारा 12 की उपधारा (4) में ऐसा ही प्रावधान है कि कोई भी पक्षकार मध्यस्थ की नियुक्ति करने के बाद भी उसके विरुद्ध आक्षेप कर सकता है यदि वह निष्पक्षता और स्वतन्त्रता को प्रभावित करने वाली परिस्थितियों और कारणों से बाद में अवगत होता है।

भारत कूकिंग कोल लि. बनाम एल.के. आहूजा एण्ड कम्पनी, A.I.R. 2001 S.C. 1179 के प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कतिपय अन्य परिस्थितियां भी होती हैं जो माध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती दिये जाने का आधार है जो निम्नलिखित है

(1) मध्यस्थ का किसी पक्षकार का रिश्तेदार होना,

(2) पक्षकार का ऋणी होना

(3) विवाद की विषय वस्तु में मध्यस्थ का हित निहित होना आदि मध्यस्थ को अयोग्य ठहराने के लिये पर्याप्त कारण माने गये हैं, इस प्रकरण के तथ्य इस प्रकार ये निर्माण की संविदा के अन्तर्गत उत्पन्न होने वाले विवाद के निपटारे के लिये जिस प्राधिकरण ने ठेका दिया था उसी प्राधिकरण के एक भूतपूर्व अधिकारी को मध्यस्थ नियुक्त किया गया था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि उसका मध्यस्थ बना रहना पक्षकारों के हित में उचित नहीं था क्योंकि वह ठेके के सभी पहलुओं की देख-रेख कर रहा था और अपने पदीय हैसियत में ठेकेदार से पत्राचार भी करता था, इस कारण न्यायालय की दृष्टि में उसकी स्वतन्त्रता और निष्पक्षता संदेह से परे नहीं मानी गई।

उपर्युक्त परिस्थितियों में क्षुब्ध या असन्तुष्ट पक्षकार न्यायालय से मध्यस्थ को हटाने के लिये आवेदन कर सकता है इस प्रकार आवेदन पर यदि न्यायालय सन्तुष्ट हो जाता है तो उस मध्यस्थ को हटाकर नया मध्यस्थ नियुक्त कर सकता है।

मध्यस्थ की स्वतंत्रता या निष्पक्षता के सम्बन्ध में उचित शंका उत्पन्न करने वाली परिस्थितियाँ- धारा 12 की उपधारा (1) एवं (2) में मध्यस्थ से यह अपेक्षा की गयी है कि वह पक्षकारों को लिखित रूप में उन परिस्थितियों से जवगत करा दे जिनसे उसकी स्वतंत्रता या निष्पक्षता के बारे में उचित शंकाये उठने की सम्भावना हो –

निम्नलिखित कुछ ऐसी परिस्थितियाँ हैं जिनमें यह अवधारित किया गया है कि ये मध्यस्थ के स्वतंत्रता या निष्पक्षता के बारे में उचित शंकाएँ उत्पन्न करने वाली थी –

1. जब प्रकरण की विषय वस्तु में मध्यस्थ का हित उत्पन्न हो गया हो।

2. जब प्रकरण में मध्यस्थ ने पहले से ही काफी कड़ा रुख अपना लिया था और निष्पक्ष न्याय की बहुत ही कम आशा थी।

3. जब मध्यस्थ किसी एक पक्ष का रिश्तेदार था।

4. जब मध्यस्थ ने पक्षकारों की अनुपस्थिति में गोपनीय जाँच की हो।

5. जब मध्यस्थ एक पक्ष का अवैतनिक मुख्तारेआम था।

6. जब मध्यस्थ एक पक्ष के कागजात दूसरे पक्ष को बताये बिना प्राप्त कर लिये हों।

7. जब सम्भावित मध्यस्थ ने जवाब प्रस्तुत किया हो कि ठेकेदार के दावे काल्पनिक एवं झूठे हैं।

8. जहाँ विद्युत परिषद् को न्यायालय द्वारा मध्यस्थ नियुक्त किया गया परन्तु परिषद् ने न्यायालय को इस परिस्थिति के बारे में सूचित नहीं किया कि निर्देशित विषयों में से कुछ विषयों पर परिषद् पूर्व में ही ठेकेदार के विरुद्ध अपना निर्णय दे चुकी थी।

9. यदि किसी कम्पनी का एक पक्ष से आर्थिक सम्बन्ध हो और मध्यस्थ उस कम्पनी का डाइरेक्टर अथवा अंशधारी हो।

10. जब मध्यस्थ एक पक्ष का प्रतिधारित अभिभाषक था या आवेदन के विरुद्ध दूसरे पक्ष ने उस मध्यस्थ को अपना अभिभाषक नियुक्त किया हो।

11. जब मध्यस्थ ने पंचाट पारित करने के लिए इस आधार पर समय बढ़ा दिया हो कि दोनों पक्षों ने समय बढ़ाने के लिए सहमति दे दी थी, जबकि वास्तव में आवेदक पक्ष ने कोई सहमति नहीं दी थी।

12. जब निर्देश के समय मध्यस्थ किसी एक पक्ष का ऋणी हो अथवा किसी पक्ष से उसका आर्थिक संव्यवहार चल रहा हो।

धारा 12 का उद्देश्य- जैसा कि उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो गया है कि धारा 12 का मुख्य उद्देश्य यह है कि पक्षकारगण मध्यस्थ की नियुक्ति करने के पूर्व यह सुनिश्चित करलें कि वास्तविक व्यक्ति मध्यस्थ के रूप में कार्य करने के लिए सहमत है तथा वह इस नियुक्ति के लिए पक्षकारों द्वारा अपेक्षित अर्हतायें रखता है। इस धारा में मध्यस्थ से यह अपेक्षा कदापि नहीं की गयी है कि वह अपनी सहमति या अनुमोदन लिखत में दे। कोई व्यक्ति स्वयं को मध्यस्थ नियुक्त किये जाने के प्रस्ताव को अभिव्यक्त या विवक्षित रूप से अस्वीकार भी कर सकता है।

मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती देने की प्रक्रिया –

उसकी प्रक्रिया का उल्लेख अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत कायवाही इस प्रकार किया गया है –

1. स्वयं पक्षकार चुनौती देने की प्रक्रिया अपनी रजामन्द से निर्धारित कर सकते हैं कि मध्यस्थ को किन आधारों पर या किन परिस्थितियों में हटाया जा सकता है।

2. यदि मध्यस्थ करार में पक्षकार ने अपनी रजामन्दी में ऐसी कोई प्रक्रिया निर्धारित नहीं की है तो वैसी परिस्थिति में व्यथित पक्षकार मध्यस्थ की स्वतंत्रता या निष्पक्षता को प्रभावित करने वाली शंकाजनक परिस्थिति की जानकारी के 15 दिनों के अन्दर मध्यस्थ अधिकरण की नियुक्ति के विरुद्ध आवेदन करेगा।

3. जब तक कि मध्यस्थ जिसकी नियुक्ति की चुनौती का आवेदन दिया गया है, अपने पद से हट नहीं जाता है या अन्य पक्षकार चुनौती से सहमत नहीं हो जाता है, माध्यस्थम् अधिकरण उस चुनौती पर विचार करेगा। परन्तु विपक्षी द्वारा चुनौती का समर्थन करने पर मध्यस्थ की नियुक्ति अपास्त समझी जाएगी।

4. यदि मध्यस्थ अधिकरण ऐसी आपत्ति पर विचार करने के पश्चात् उसे ठुकरा देता है तो वैसी स्थिति में माध्यस्थम् की कार्यवाही आगे जारी रहेगी तथा माध्यस्थम् पक्षकारों का साक्ष्य लेखबद्ध करने के पश्चात् पंचाट देगा।

5. जहाँ मध्यस्थ द्वारा माध्यस्थम् पंचाट पक्षकार को प्रदान किया जाता है तो वहाँ मध्यस्थ की नियुक्ति पर चुनौती करने वाला पक्षकार अधिनियम की धारा 34 के बाल पंचाट अपास्त करने के लिए आवेदन कर सकता है|

जहाँ उपधारा 5 के अधीन दिए गए आवेदन पर माध्यस्थम पंचाट अपास्त कर दिया गया है तो न्यायालय यह विनिश्चित क़र सकता है कि जिस मध्यस्थ को चुनौती दी गयी है, क्या वह फीस अथवा शुल्क पाने का हकदार है |

धारा 14 कार्य करने में असफलता या असंभाव्यता – (1) मध्यस्थ का आदेश (mandate) समाप्त हो जायेगा [और उसे अन्य मध्यस्थ से स्थानापन्न कर दिया जाएगा] यदि –

(क) वह अपने कार्य करने में विधितः या वस्तुतः असमर्थ हो जाता है या किन्हीं अन्य कारणों से विलम्ब के बिना कार्य करने में असफल रहता है, और

(ख) वह अपने पद से हट जाता है या पक्षकारगण उसके आदेश के पर्यवसान (termination) के लिये सहमत हो जाते हैं।

मध्यस्थ की सेवानिवृत्ति या स्वेच्छया हट जाने की स्थिति में रिक्ति की पूर्ति

माध्यस्थम् हेतु नियुक्त किसी मध्यस्थ की सेवानिवृत्ति होने अथवा स्वेच्छया पद से हट जाने की स्थिति में उसकी रिक्ति को भरने हेतु अधिनियम की धारा 14 में प्रावधान हैं। इस धारा में उपबंधित है कि मध्यस्थ (चाहे मृत हो या जीवित) या अधिदेश (mandate) उसके द्वारा कार्य सम्पन्न करने में असमर्थ होते ही समाप्त हो जाएगा और उसके स्थान पर हुई रिक्ति की पूर्ति नये मध्यस्थ द्वारा की जा सकेगी। इस संदर्भ में वी० के० कन्सट्रक्शन्स बनाम आर्मी वेलफेयर आर्गेनाइजेशन का वाद उल्लेखनीय है।

इस वाद में माध्यस्थम् के निर्देश के साथ ही मध्यस्थ ने वी० के० कन्स्ट्रक्शन्स को नोटिस देकर पद त्याग कर दिया। आर्मी कल्याण संगठन ने अन्य व्यक्ति को मध्यस्थ के रूप में नियुक्त किया जिसकी नियुक्ति को अपीलार्थी (वी० के० कन्सट्रक्शन्स) ने चुनौती दी। दोनों पक्षकारों को सुनने के पश्चात् न्यायालय ने निर्णय दिया कि आर्मी कल्याण संगठन द्वारा पूर्व मध्यस्थ के स्थान पर की गई नये मध्यस्थ की नियुक्ति माध्यस्थम् अधिनियम, 1940 की धारा 8 (1) (नये अधिनियम, 1996 की धारा 14) के अनुसरण में थी, अत: वह पूर्णतः वैध एवं विधिमान्य थी। न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि न्यायालय द्वारा रिक्त स्थान पर नये मध्यस्थ की नियुक्ति की जाने का प्रश्न तब उठता जब प्रत्यर्थी (आर्मी कल्याण संगठन) इस रिक्ति की पूर्ति करने में विफल रहता या उसमें ढील बरतता।

धारा 15. आदेश का पर्यवसान और मध्यस्थ का प्रतिस्थापन- (1) धारा 13 और 14 में निर्देशित की गई परिस्थितियों के अतिरिक्त मध्यस्थ के आदेश का पर्यवसान हो जाएगा

a. जहाँ वह किसी कारणवश पद से हट जाता है;

b. पक्षकारों के करार द्वारा या उसके अनुसरण में।

(2) जहाँ मध्यस्थ के आदेश का पर्यवसान हो जाता है, वहाँ एक प्रतिस्थापित मध्यस्थ की नियुक्ति उन नियमों के अनुसार की जाएगी, जो उस मध्यस्थ की नियुक्ति पर लागू थे जिसे प्रतिस्थापित किया जा रहा है।

(3) जब तक पक्षकारगण अन्यथा सहमत न हुए हों, तब तक जहाँ एक मध्यस्थ को उपधारा (2) के अधीन प्रतिस्थापित कर दिया जाता है, वहाँ पहले से की गई किसी भी सुनवाई को माध्यस्थम् अधिकरण के स्वविवेकानुसार दोहराया जा सकेगा।

(4) जब तक पक्षकारगण अन्यथा सहमत न हुए हों, तब तक इस धारा के अधीन मध्यस्थ के प्रतिस्थापन के पूर्व बनाये गये माध्यस्थम् अधिकरण का आदेश अथवा नियम मात्र इस एकल कारणवश अवैधानिक नहीं होगा क्योंकि माध्यस्थम् अधिकरण के गठन में परिवर्तन किया जा चुका है।

 

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LECTURE -2

PRE QUESTIONS

 
  1. किसी माध्यस्थम के सेवा निवृत होने अथवा स्वेछया पद से हट जाने की स्थिति में उसकी रिक्ति को भरने का प्रावधान है –

a) धारा –12 में

b) धारा -13 में

c) धारा -14 में

d) धारा -15 में

 
  1. मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती दी जाती है –

a) धारा 12 के अंतर्गत

b) धारा 13 के अंतर्गत

c) धारा 14 के अंतर्गत

d) धारा 15 के अंतर्गत

 
  1. धारा के अंतर्गत मुख्य न्यायाधीश द्वारा पारित आदेश है –

a) न्यायिक

b) प्रशासनिक

c) न्यायिक एंव न्यायिककल्प

d) उपयुक्त में कोई नहीं

 
  1. माध्यस्थम को उसके पद से हटाए जाने पर अन्य व्यक्ति को उसके पद पर मध्यस्थ के रूप में प्रतिस्थापित किया जा सकता है –

a) धारा 12 के अंतर्गत

b) धारा 13 के अंतर्गत

c) धारा 14 के अंतर्गत

d) धारा 15 के अंतर्गत

 
  1. धारा 11 के अंतर्गत मध्यस्थ या अध्यक्ष मध्यस्थ की नियुक्ति को चुनौती दी जा सकती है –

a) अनुच्छेद 226 के अंतर्गत

b) अनुच्छेद 136 के अंतर्गत

c) अनुच्छेद 32 के अंतर्गत

d) उपयुक्त में कोई नहीं

 
  1. मध्यस्थों की नियुक्ति की जाती है –

a) पक्षकारों द्वारा

b) पक्षकारों के असफल होने पर मुख्य न्यायाधीश द्वारा

c) दोनों द्वारा

d) केवल a द्वारा

 

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LECTURE – 3

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996

[ARBITRATION AND CONCILIATION ACT, 1996]

माध्यस्थम् अधिकरण की अधिकारिता (Jurisdiction of Arbitral Tribunal)

MAINS QUESTIONS

 
  1. माध्यस्थम अधिकरण को स्वय क अधिकारिता की वैधता पर विनिश्चय करने की अधिकारिता का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिये |
 
  1. माध्यस्थम अधिकरण क्या है ? माध्यस्थम अधिकरण द्वारा आदेशित किये गए अंतरिम उपायों की विवेचना कीजिये |  
 

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LECTURE – 3

माध्यस्थम् अधिकरण की अधिकारिता (Jurisdiction of Arbitral Tribunal)

 

धारा 16 अपनी अधिकारिता पर शासन की माध्यस्थम् अधिकरण की सक्षमता – माध्यस्थम् अधिकरण अपनी अधिकारिता पर शासन कर सकेगा, इसमें सम्मिलित माध्यस्थम् करार होने या न होने अथवा उसकी वैधता के बारे में किन्हीं भी आक्षेप विनिर्णय करना और उस प्रयोजन के लिये, –

(क) एक माध्यस्थम् खंड जो संविदा का एक भाग हो, संविदा की अन्य शर्तों से स्वतंत्र एक करार के रूप में माना जाएगा, और

(ख) माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा यह विनिश्चय कि संविदा शून्य एवं अकृत है, माध्यस्थम् खंड को स्वयमेव विधितः अवैधानिक नहीं बना देगी।

(2) यह अभिवाक् कि माध्यस्थम् अधिकरण अधिकारिता नहीं रखता है, प्रतिरक्षा का विवरण प्रस्तुत किये जाने के पश्चात् नहीं उठाया जाएगा, तथापि एक पक्षकार इस प्रकार का अभिवाक् करने से केवल इसलिये अपवर्जित नहीं किया जाएगा कि उसने मध्यस्थ को नियुक्त किया है या उसकी नियुक्ति में भाग लिया है।

(3) यह अभिवाक कि माध्यस्थम् अधिकरण अपने प्राधिकार की परिधि के परे जा रहा है तब उठाया जाएगा जैसे कि इसके प्राधिकार के परे मामले को माध्यस्थम् कार्यवाही के दौरान उठाया जाता है।

(4) माध्यस्थम् अधिकरण उपधारा (2) या उपधारा (3) में निर्दिष्ट मामलों में पश्चात्वती अभिवाक् को स्वीकार कर सकेगा यदि वह मानता है कि विलंब औचित्यपूर्ण है।

(5) माध्यस्थम् अधिकरण उपधारा (2) या उपधारा (3) में निर्दिष्ट अभिवाक पर विनिश्चय करेगा, और जहाँ माध्यस्थम् अधिकरण अभिवाक् को खारिज करने का विनिश्चय करता है, वह माध्यस्थम् कार्यवाही को जारी रखेगा और माध्यस्थम्-पंचाट तैयार करेगा।

(6) इस प्रकार के माध्यस्थम् पंचाट से व्यथित व्यक्ति धारा 34 के अनुसार ऐसे माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त कराने के लिये आवेदन प्रस्तुत कर सकता है।

सिंडीकेट बैंक बनाम गंगाधर के वाद में न्यायालय ने विनिश्चित किया कि अधिकारिता’ से आशय विनिश्चय की शक्ति’ (power to decide) है, अतः प्रक्रिया अथवा अभिवचन में कोई अनियमितता या अवैध अवैधता, पद “अधिकारिता” के अन्तर्गत नहीं आता है।

धारा 17 माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा आदेशित किये गये अन्तरिम उपाय – (1) कोई पक्षकार, माध्यस्थम् कार्यवाही के दौरान या पंचाट पारित होने के पूर्व किसी समय, परन्तु पंचाट के प्रवर्तन के पहले, धारा 36 के अनुसार माध्यस्थम् अधिकरण को निम्नलिखित हेतु आवेदन कर सकता है :

(i) माध्यस्थम् कार्यवाही के लिये अवयस्क या मानसिक विकृत व्यक्ति के लिये संरक्षक की नियुक्ति हेतु; (ii) निम्नलिखित मामलों में संरक्षण के लिये अन्तरिम उपाय हेतु

a. ऐसे माल के परिरक्षण, अन्तरिम अभिरक्षा या विक्रय के लिये जो माध्यस्थम् करार की विषयवस्तु हो

b. माध्यस्थम में विवादित रकम (राशि)को सुरक्षित रखने हेतु

c. ऐसी वस्तु या संपत्ति के निरोध, परिरक्षण, अन्तरिम अभिरक्षा हेतु जो माध्यस्थम् में अन्तर्विष्ट विवाद की विषयवस्तु है या जिसके बारे में उपरोक्त प्रयोजनों से सम्बन्धित कोई प्रश्न उठ सकता है या किसी व्यक्ति का उस भूमि या भवन में प्रवेश जो किसी पक्षकार के कब्जे में है या नमूने लेने के लिये अधिकृत करने या कोई संप्रेषण करने या प्रायोगिक प्रयत्न करने के लिये, पूरी जानकारी प्राप्त करने या साक्ष्य के लिये इनमें से जो भी आवश्यक तथा समीचीन (expedient) हो;

d. अन्तरिम व्यादेश या प्रापक (Receiver) की नियुक्ति हेतु;

e. संरक्षण का ऐसा कोई अन्य अन्तरिम उपाय जैसा कि माध्यस्थम् अधिकरण उचित तथा सुविधाजनक समझे।

और माध्यस्थम् अधिकरण को आदेश पारित करने की वही शक्ति होगी जैसी कि न्यायालय को उसके समक्ष कार्यवाही के प्रति या उसके संबंध में प्राप्त है।

(2) धारा 37 के अन्तर्गत अपील में पारित आदेश के अध्यधीन माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा इस धारा (धारा 17) के अन्तर्गत जारी किये गये आदेश को सभी प्रयोजनों के लिये न्यायालय के आदेश के समरूप माना जायेगा तथा यह सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अन्तर्गत ठीक उसी प्रकार प्रवर्तनीय होगा मानो वह न्यायालय का आदेश है।

धारा 17 के उपबंध पूर्ववर्ती धारा 9 के सदृश हैं परन्तु इनके प्रभाव की दृष्टि से इन दोनों में निम्नलिखित अन्तर है:-

(1) धारा 9 के अधीन न्यायालय को अन्तरिम उपाय आदेशित करने की शक्ति प्रदान की गई है जबकि धारा 17 के अन्तर्गत कार्यवाही के दौरान माध्यस्थम् अधिकरण अन्तरिम उपाय आदेशित कर सकता है।

(2) अधिनियम की धारा 9 के अन्तर्गत अन्तरिम उपाय आदेशित करने की शक्ति अप्रतिबंधित है परन्तु धारा 17 के अधीन माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा अन्तरिम उपाय आदेशित करने की शक्ति इस शर्त से सीमित है कि जब तक पक्षकारों में अन्यथा करार न हो।

(3) धारा 9 के अधीन न्यायालय अन्तरिम उपाय हेतु आदेश माध्यस्थम् कार्यवाही के पूर्व, जारी रहते समय अथवा पश्चात् किसी भी चरण में दे सकेगा परन्तु धारा 17 के अन्तर्गत माध्यस्थम् अधिकरण ऐसा आदेश केवल माध्यस्थम् कार्यवाही के दौरान ही दे सकता है, इसके पूर्व या पश्चात् नहीं; इस दृष्टि से माध्यस्थम् अधिकरण की शक्ति अत्यधिक सीमित है।

(4) धारा 9 के अधीन न्यायालय केवल पक्षकार के निवेदन पर ही अन्तरिम उपाय के लिये आदेश पारित कर सकता है। धारा 17 में भी पक्षकार के निवेदन पर माध्यस्थम् अधिकरण अन्तरिम उपाय आदेशित कर सकता है लेकिन इसके साथ ही इस धारा की उपधारा (2) में यह अतिरिक्त प्रावधान है कि माध्यस्थम् अधिकरण यदि उचित समझे, तो पक्षकार को अन्तरिम उपाय के संबंध में समुचित प्रतिभूति की व्यवस्था करने के लिये आदेश दे सकता है। इस प्रकार धारा 9 की तुलना में धारा 17 की परिधि अधिक व्यापक है।

(5) धारा 9 के अधीन न्यायालय द्वारा पारित अन्तरिम उपाय संबंधी आदेश न्यायालयीन डिक्री का प्रभाव रखता है जबकि धारा 17 के अधीन माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा आदेशित अन्तरिम उपाय को न्यायालयीन आदेश या डिक्री की भाँति प्रवर्तित नहीं कराया जा सकता है

 

Lecture -3

PRE QUESTIONS

माध्यस्थम् अधिकरण की अधिकारिता (Jurisdiction of Arbitral Tribunal)

 
  1. माध्यस्थम अधिकरण आबद्ध नहीं होता है –

(a) सिविल प्रक्रिया सहिंता से

(b) भारतीय साक्ष्य अधिनियम से

(c) उपरोक्त दोनों से

(d) उपयुक्त में से कोई नहीं

 
  1. निम्न कथनो में असत्य कथन है –

(a) माध्यस्थम अधिकरण को स्वयं की अधिकारिता विनिश्चित करने की अधिकारिता प्राप्त है

(b) एक माध्यस्थम खंड जो संविदा का एक भाग हो,संविदा की अन्य शर्तों से स्वतंत्र एक करार के रूप में माना जाएगा

(c) माध्यस्थम अधिकरण द्वारा यह विनिश्चय कि संविदा शून्य एंव अकृत है,माध्यस्थम खण्ड को स्वयमेव अवैध बना देता है

(d) माध्यस्थम अधिकरण की अधिकारिता सदैव निर्देश तक सिमित रहती है

 
  1. माध्यस्थम पंचाट से व्यथित व्यक्ति किस धारा के अनुसार ऐसे माध्यस्थम पंचाट क अपास्त कराने के लिए आवेदन प्रस्तुत कर सकता है

(a) धारा – 32

(b) धारा -33

(c) धारा -34

(d) उपयुक्त में से कोई नहीं

 
  1. अधिकारिता से तातपर्य है –

(a) विनिश्चय की शाक्ति

(b) अनियमितता

(c) अवैधता

(d) उपरोक्त सभी

 
  1. माध्यस्थम अधिकरण द्वारा आदेशित किये गए अंतरिम उपाय का प्रावधान है –

(a) धारा -15

(b) धारा -16

(c) धारा -17

(d) धारा -18

 

 

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LECTURE – 4

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996

[ARBITRATION AND CONCILIATION ACT, 1996]

माध्यस्थम् कार्यवाही का संचालन

MAINS QUESTIONS

 
  1. पक्षकारों के बीच एक माध्यस्थम करार होने की दशा में न्यायालय द्वारा वैध कार्यवाहियों के स्थगन करने की शक्ति एंव शर्तों की विवेचना कीजिये |
 
  1. उन प्रक्रियाओं का उल्लेख कीजिये जो पक्षकारों द्वारा संदर्भित वादों के निस्तारण में मध्यस्थों द्वारा अनुसारित की जाएगी ?एक पंचाट कैसे निष्पादित की जाएगी ?
 
  1. किन तरीकों से माध्यस्थम अपने विवादों को मध्यस्थ को सौंप सकते है ?
 

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LECTURE – 4

माध्यस्थम् कार्यवाही का संचालन

 

माध्यस्थम् कार्यवाही के संचालन सम्बन्धी प्रावधानों का उल्लेख अधिनियम के अध्याय 5 के अंतर्गत धारा 18 से 27 तक किया गया है।

ये प्रावधान इस प्रकार हैं –

1. पक्षकारों से समानता का बर्ताव – अधिनियम की धारा 18 के अंतर्गत माध्यस्थम् अधिकरण को यह निर्देश दिया गया है कि अधिकरण माध्यस्थम् कार्यवाही के संचालन में “पक्षकारों से समानता का व्यवहार करेगा और प्रत्येक पक्षकार को अपना मामला प्रस्तुत करने का पूर्ण अवसर प्रदान करेगा।”

मध्यस्थ अपना कार्य ईमानदारी और निष्पक्षता से करें। वे बिना पक्षपात किये दोनों ही पक्षकारों को अपना पक्ष प्रस्तुत करने का पूरा अवसर दें।

माध्यस्थम् कार्यवाही के संचालन में मध्यस्थों को नैसर्गिक न्याय के सिद्धान्त का पालन करना चाहिए।

कमिश्नर वेल्थ टैक्स बनाम जगदीश प्रसाद, (1995) 211 I.T.R. 472 (पटना) इस वाद में, कहा गया कि नैसर्गिक न्याय का यह प्रमुख सिद्धान्त है कि किसी भी पक्ष को सुने बिना उसे दोषी नहीं माना जाना चाहिए।

म्यूनिसपल कारपोरेशन बनाम जगन्नाथ, (1987) A.L.R.S.C. 2316 के वाद में, सु.को. ने निर्धारित किया कि मध्यस्थों को अपनी निजी जानकारी के आधार पर कार्यवाही नहीं करनी चाहिए तथा अपने निष्कर्षों को दस्तावेजों तथा साक्ष्यों के आधार पर कारणों सहित लिखना चाहिए। इस प्रकार, मध्यस्थ द्वारा अपनायी जाने वाली प्रक्रिया निम्नलिखित है –

1. पक्षकारों के साथ समान व्यवहार करना;

2. पक्षकारों को अपने पक्ष प्रस्तुत करने का अवसर देना;

3. कार्य ईमानदारी और निष्पक्षता से करना;

4. एक पक्षकार का परीक्षण दूसरे पक्षकार की उपस्थिति में करना

5. पक्षकारों को सुनवाई के पूर्व उचित सूचना देना;

6. निजी जानकारी के आधार पर निर्णय न देना; तथा

7. निष्कर्षों को दस्तावेजों तथा साक्ष्य के आधार पर कारण सहित लिखना;

2. प्रक्रिया के नियमों की अवधारणा – धारा 19 के अंतर्गत माध्यस्थम् कार्यवाही को सुचारु रूप से चलाने के लिए तथा विवाद को सरलता से निपटाने के लिए माध्यस्थम् अधिकरण को खण्ड (1) के अधीन सी०पी०सी० या साक्ष्य अधिनियम के नियमों का पालन करने के लिए बाध्य नहीं किया गया है।

इस धारा के अंतर्गत यह भी व्यवस्था की गई है कि पक्षकार आपसी सहमति से किसी भी प्रक्रिया का निर्धारण करने में स्वतंत्र है। अगर पक्षकारों के बीच प्रक्रिया का निर्धारण आपसी सहमति से नहीं हो पाता है तो वैसी अवस्था में अधिकरण प्रावधानों के अधीन रहते हुए उचित संचालन करेगा।

इस प्रकार, माध्यस्थम् कार्यवाही को सुचारु रूप से चलाने के लिए तथा विवाद को सरलता से निपटाने के लिए अधिनियम की धारा-19 में प्रावधान लाया गया है कि, “माध्यस्थम् अधिकरण सी0पी0सी0, 1908 या भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 आबद्ध नहीं होगा, पक्षकार आपसी सहमति से प्रक्रिया का निर्धारण करने के लिए स्वतंत्र है।

आर0 मेक-डिल कम्पनी बनाम गौरीशंकर, A.L.R. कार्यवाही के दौरान आ 1996 S.C. 1072 के मामले में सु.को. ने अवधारित किया कि सी0पी0सी0 के उपबंध मध्यस्थ कार्यवाही को लागू नहीं किये जाने चाहिए, क्योंकि इनकी जटिलता के कारण त्वरित के समर्थन में प्रतिदावा प्रत न्याय में बाधा उत्पन्न हो सकती है, परन्तु यदि वे न्याय दिलाने में सहायक हों तो उसका प्रयोग करने में हिचकिचाहट नहीं करनी चाहिए।

माध्यस्थम् का स्थान – धारा 20 के अंतर्गत यह कार्यवाही मौखिक सुनवाई व्यवस्था की गई है कि पक्षकार माध्यस्थम् कार्यवाही के स्थान का निर्धारण आपसी सहमति से करने के लिए स्वतंत्र हैं। परन्तु पक्षकार आपसी सहमति से स्थान का निर्धारण करने में असफल रहते हैं तो वैसी अवस्था में माध्यस्थम् अधिकरण परिस्थितियों तथा पक्षकारों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए स्थान का चयन करेगा।

4. माध्यस्थम् कार्यवाही का प्रारम्भ किया जाना – धारा 21 के अनुसार जब तक पक्षकारों द्वारा अन्यथा करार न किया गया हो, किसी विशिष्ट विवाद के सम्बंध में माध्यस्थम् कार्यवाही उस तिथि को प्रारम्भ होगी जिस तिथि को माध्यस्थम् को निर्दिष्ट करने का अनुरोध प्रत्यर्थी को प्राप्त होता है।

5. भाषा – धारा 22 के अनुसार, माध्यस्थम् कार्यवाही के संचालन की भाषा का निर्धारण करने के लिए पक्षकार आपस में सहमत होने के लिए स्वतंत्र हैं। यदि पक्षकार ऐसा करने में असफल होते हैं तो वैसी अवस्था में उपयोग में लायी जाने वाली भाषा का निर्धारण माध्यस्थम् अधिकरण करेगा। परन्तु अधिकरण कार्यवाही का निर्धारण करते समय पक्षकारों की भाषा को ध्यान में रखेगा। यदि कार्यवाही के दौरान कोई दस्तावेज दूसरी भाषा का हो तो उस दस्तावेज की अनुवादित प्रति कार्यवाही की भाषा में प्रस्तुत की जाएगी। इसी तरह माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा जो पंचाट दिया जायेगा वह भी कार्यवाही की भाषा मे दिया जायेगा।

6. दावे तथा प्रतिरक्षा के कथन – धारा 23 अनुसार, पक्षकारा द्वारा तय की गयी या माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा अवधारित की गयी समयावधि के भीतर दावेदार अपने दावे के समर्थन में तथ्य, विवाद्यक विषयों तथा अनुतोष या उपचार का कथन करेगे, और इसके बचाव में, प्रत्यर्थी अपनी प्रतिरक्षा में बिन्दुवार कथन करेगे। पक्षकार ऐसे सभी कथनों के समर्थन में जो भी दस्तावेज होगा साथ में संलग्न करेगें। पक्षकार माध्यस्थम् कार्यवाही के दौरान अपने दावे के कथन तथा प्रतिरक्षा का भी संशोधन कर सकते हैं।

संशोधन अधिनियम, 2016 द्वारा प्रत्यर्थी अपने मामले के समर्थन में प्रतिदावा प्रस्तुत कर सकता है, मुजरा कर सकता है, यदि वह करार के अंतर्गत है तो अधिकरण द्वारा विचार करेगा।

7. सुनवाई – जब तक पक्षकारों द्वारा अन्यथा करार न किया हो, माध्यस्थम् अधिकरण यह तय करेगा कि साक्ष्य लेने की कार्यवाही मौखिक सुनवाई द्वारा होगी या मौखिक बहँस द्वारा होगी या कार्यवाही दस्तावेजों या अन्य सामग्रियों द्वारा संचालित की जाएगी।

परन्तु जब तक पक्षकारों द्वारा यह करार न हो कि कोई मौखिक सुनवाई नहीं की जायेगी, माध्यस्थम् अधिकरण किसी पक्षकार के अनुरोध पर कार्यवाही की किसी भी उचित अवस्था में मौखिक सुनवाई करेगा।

संशोधन 2016- यह कि माध्यस्थम् अधिकरण साक्ष्य करने के लिए या दिन-प्रतिदिन के आधार पर मौखिक बहस के लिए मौखिक सुनवाई करेगा जब पर्याप्त कारण न हो सुनवाई स्थगित नहीं करेगा। पर्याप्त कारण के बिन उस पर खर्चे आरोपित किये जायेगें।

8. पक्षकार द्वारा चूक – धारा 25 के अंतर्गत इस बात का उल्लेख किया गया है कि पक्षकार द्वारा की गई चूक का क्या परिणाम होगा। इस धारा के अनुसार, जब तक पक्षकारों ने अन्यथा करार न किया हो, तब तक बिना पर्याप्त कारण के।

क. दावेदार अगर अपने दावे के कथन को विपक्ष को संसूचित करने में अगर असफल रहता है, वहाँ माध्यस्थम् अधिकरण उसके दावे को खारिज कर देगा।

ख. प्रत्यर्थी (Respondent) यदि प्रतिरक्षा का अपना कथन दावेदार को संसूचित करने में असफल रहता है तो अधिकरण कार्यवाही को चालू रखते हुए यह समझेगा कि प्रत्यर्थी ने दावेदार के दावे के कथन को स्वीकार किया है।

ग. यदि कोई पक्षकार मौखिक सुनवाई पर उपस्थित होने या दस्तावेजी साक्ष्य प्रस्तुत करने में असफल रहता है तो वैसी अवस्था में माध्यस्थम् अधिकरण कार्यवाही को जारी रखते हुए उपलब्ध साक्ष्य के आधार पर पचांट देगा।

9. माध्यस्थम् अधकरण द्वारा विशेषज्ञों की नियुक्ति — माध्यस्थम् के कुछ मामले तकनीकी प्रकृति के होते हैं। ऐसे मामलों में अधिकरण को विशेषज्ञ की राय की आवश्यकता होती है। अतः धारा 26 के अन्तर्गत माध्यस्थम् अधिकरण को ऐसे मामले में विशेषज्ञ की नियुक्ति करने की शक्ति प्रदान की गई है। विशेषज्ञ पक्षकार से निरीक्षण के लिए सुसंगत जानकारी या दस्तावेज इत्यादि की मांग कर सकता है। धारा 26 के अन्तर्गत यह प्रावधान बनाया गया है कि माध्यस्थम् अधिकरण को विशेषज्ञ द्वारा रिपोर्ट देने के पश्चात यदि पक्षकार या माध्यस्थम अधिकरण यदि आवश्यक समझे तो विशेषज्ञ को माध्यस्थम कार्यवाही में भाग ले सकेगा | पक्षकार विषेशज्ञ से उसकी रिपोर्ट से सम्बन्धित प्रश्न पूछ सकता है |

10. साक्ष्य लेने न्यायालय की सहायता – धारा 27 के अनुसार माध्यस्थम के अनुमोदन पर कार्यवाही का कोई भी पक्षकार साक्ष्य लेने में सहायता के लिए आवेदन क़र सकता है|

आवदेन में निम्नलिखित बातें होंगी –

क. पक्षकारों और मध्यस्थों के नाम और पते

ख. दावे की प्रकृति तथा माँगा गया उपचार

ग. प्राप्त किये जाने वाला साक्ष्य, विशेषकर

(1) साक्षी या विशेषज्ञ साक्षी का नाम एवं पता।

(2) प्रस्तुत किये जाने वाले दस्तावेज या निरीक्षण की जाने वाली सम्पत्ति का विवरण।

न्यायालय ऐसा आवेदन प्राप्त करने पर अपनी सक्षमता के भीतर तथा साक्ष्य लेने के नियमों के अनुसार आवेदक के अनुरोध का निष्पादन इस आदेश के साथ करेगा कि साक्ष्य सीधे माध्यस्थम् अधिकरण को दिया जाए। ऐसा आदेश करते समय न्यायालय साक्षियों को साक्ष्य देने के लिए आदेशिकाएँ दीवानी वाद की तरह जारी कर सकता है। ऐसी आदेशिका का पालन न करने पर न्यायालय उस व्यक्ति को दण्ड दे सकता है।

 

LECTURE – 4

PRE QUESTIONS

माध्यस्थम् कार्यवाही का संचालन

 
  1. पक्षकारों के साथ समानता का व्यवहार किया जाएगा और प्रत्येक पक्षकार को अपने को प्रस्तुत करने का पूर्ण अवसर प्रदान किया जायेगा यह उपबंध है –

(a) धारा 16 में

(b) धारा 17 में

(c) धारा 18 में

(d) धारा 19 में

 
  1. माध्यस्थम अधिकरण सिविल प्रक्रिया सहिंता अथवा भारतीय साक्ष्य अधिनियम १८७२ से आबद्ध नहीं किया जायेगा यह प्रावधान है –

a) धारा 16 में

(b) धारा 17 में

(c) धारा 18 में

(d) धारा 19 में

 
  1. एक तरफा पंचाट जारी किया जाता है –

a) धारा 23 के अंतर्गत

b) धारा 24 के अंतर्गत

c) धारा 25 के अंतर्गत

d) धारा 26 के अंतर्गत

 
  1. माध्यस्थम पंचाट द्वारा निर्देशित संदाय की जाने वाली राशि पर पंचाट की तिथि से संदाय की तिथि तक किस दर से ब्याज लगेगा –

a) 7 % वार्षिक दर से

b) 18 % वार्षिक दर से

c) 10 % वार्षिक दर से

d) 12 % वार्षिक दर से

 
  1. यदि पक्षकारों ने जानबूझकर संविदा या करार का उलंघन किया है तो माध्यस्थम अधिकरण द्वारा दिलाई जा सकती है –

a) नाममात्र का प्रतिकर

b) प्रतिपूरक क्षतिपूर्ति

c) निदर्श नुकसानी

d) उपयुक्त सभी

 

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LECTURE – 5

माध्यस्थम् एवं सुलह अधिनियम, 1996

[ARBITRATION AND CONCILIATION ACT, 1996]

माध्यस्थम् कार्यवाही का संचालन

MAINS QUESTIONS

 
  1. भारतीय मध्यस्थम अधिनियम के अंतर्गत किन किन आदेशों की अपील हो सकती है | समझाइये?
 
  1. माध्यस्थम अधिनियम के अंतर्गत किसी मध्यस्थता करार पर मर्यादा अधिनियम के उपबंध कहाँ तक लागू होते है ?
 
  1. माध्यस्थम कब पंचायत को अपास्त कर सकते है वर्णन कीजिये |
 

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LECTURE – 5

 

माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त करने के आवेदन-पत्र (धारा 34)

1. माध्यस्थम् पंचाट के विरुद्ध अपील नहीं हो सकती है लेकिन धारा 34 की उपधारा (2) एवं उपधारा (3) के अनुसार पंचाट को अपास्त कराने के लिए न्यायालय में आवेदन दिया जा सकता है। (उपधारा 1)

किसी पंचाट को अपास्त कराने के लिये धारा 34 के अन्तर्गत उस न्यायालय में आवेदन किया जा सकता है जिसके द्वारा अन्तरिम उपचार प्रदान किया गया है। [स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल बनाम एसोसिएटेड कॉण्ट्रैक्टर्स, ए० आई० आर० 2015 एस० सी० 260]

2. आवेदन-पत्र प्रस्तुत करने वाला पक्षकार निम्नलिखित में से कोई सबूत पेश कर देता है तो न्यायालय पंचाट अपास्त कर देगा –

(iii) पक्षकार किसी असमर्थता के अधीन है,

(iv) माध्यस्थम् करार विधिमान्य नहीं है,

(v) आवेदन पत्र प्रस्तुत करने वाले पक्षकार को नोटिस दिया गया था या वह अन्यथा मामले को प्रस्तुत करने में असमर्थ था,

(vi) माध्यस्थम् अधिकरण ने शर्तों से परे जाकर मामले को विचारित किया है,

(vii) माध्यस्थम् अधिकरण की संरचना या प्रक्रिया पक्षकारों के करार के अनुसार नहीं थी

उपर्युक्त सबूत के आधार पर न्यायालय इस निष्कर्ष पर पहुँचता है –

(i) कि विवाद की विषय-वस्तु तत्समय प्रवृत्त विधि के अधीन माध्यस्थम् द्वारा निपटाये जाने योग्य नहीं है, अथवा

(ii) माध्यस्थम् पंचाट भारत की लोकनीति के विपरीत है, पंचाट को अपास्त कर देगा। (उपधारा 2)

(iii) पंचाट को अपास्त करने का आवेदन,पंचाट प्राप्त करने की तिथि से तीन महीने के भीतर प्रस्तुत कर दिया जाना चाहिए। लेकिन पर्याप्त हेतुक दर्शित करने में न्यायालय अगले 30 दिनों के भीतर आवेदन-पत्र को विचार हेतु ग्रहण कर सकता है, परन्तु इसके बाद नहीं। (उपधारा 3)

(iv) पक्षकार के निवेदन पर न्यायालय द्वारा माध्यस्थम् अधिकरण को यह अवसर प्रदान किया जाना चाहिए कि वह माध्यस्थम् कार्यवाही को पुनः आरम्भ कर सके या उन कारणों का निवारण कर सके जिनकी वजह से पंचाट को अपास्त किया जा सकता है। इस दौरान न्यायिक कार्यवाही को स्थगित रख सकता है। (उपधारा 4)

धारा 34 के उक्त उपबन्धों से स्पष्ट है कि पंचाट के विरुद्ध न्यायालय के अवलम्ब (Recourse) को कतिपय निश्चित आधारों तक ही सीमित रखा गया है।

साधारणत: माध्यस्थम् की विषय-वस्तु में स्थित न्यायालय को ही पंचाट की वैधता पर विचार करने की अधिकारिता है।

रामनिवास बनाम बनारसी दास (1968) कल० 314 के वाद में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित कि पक्षकार की मृत्यु के साथ पंचाट निर्णय उन्मोचित नहीं हो जाता अपितु वह पक्षकार के विधिक प्रतिनिधियों पर बन्धनकारी होता है। अतः विधिक प्रतिनिधि पंचाट को अपास्त किये जाने हेतु न्यायालय में आवेदन दे सकते हैं।

इन्टरनेशल एयरपोर्ट अथॉरिटी बनाम के० डी० बाली, ए० आई० आर० 1988 सु० को० 1099 के वाद में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि यदि माध्यस्थम् कार्यवाही के किसी पक्षकार ने मध्यस्थ के लिए हवाई जहाज के टिकट तथा होटल में ठहरने की व्यवस्था की तो उसे पंचाट अपास्त किये जाने के लिए मध्यस्थ का कदाचार नहीं माना जायेगा।

पंचाट को अपास्त करने का आवेदन देने का अधिकार व्यथित पक्षकार या उसके विधिक प्रतिनिधि को है। विधिक प्रतिनिधि भी धारा 35 के अन्तर्गत पंचाट से आबद्ध होता है।

विभिन्न न्यायिक निर्णयों में न्यायालय ने यह धारित किया है कि पंचाट को मध्यस्थ के कदाचार या उसके द्वारा कार्यवाही के दोषपूर्ण संचालन के आधार पर अपास्त किया जा सकता है। कदाचार के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं

1. पक्षकार को सुने बिना एकतरफा पंचाट निर्णय देना,

2. पक्षकारों को बिना पूर्व सूचना दिये माध्यस्थम् कार्यवाही प्रारम्भ करना या जारी रखना,

3. अपने कर्तव्यों का अनुचित प्रत्यायोजन,

4. साक्ष्य देने वाले व्यक्ति को साक्ष्य देने से वंचित करना,

5. प्रत्यर्थी के दावे पर विचार न करना,

6. माध्यस्थम् करार के अधीन अधिकृत किये गये मुद्दों से हटकर अवांछित मुद्दों की सुनवाई में शामिल करना,

7. द्वेषभावना से प्रेरित होकर पंचाट जारी करना।

मेसर्स स्पेट एण्ड कम्पनी बनाम नेशनल बिल्डिंग कन्सट्रक्शन कारपोरेशन, ए० आई० आर० 1988 एन० ओ० सी० 146 (दिल्ली) के वाद में न्यायालय ने ‘कदाचार’ की व्याख्या करते हुए कहा कि कदाचार में अनैतिक या बेईमानी का तत्व होना आवश्यक नहीं है क्योंकि विधिक कदाचार में अपने कर्तव्य में असावधानी या उत्तरदायित्व के प्रति लापरवाही का भी समावेश है भले ही यह जानबूझकर न की गई हो।

पंचाट अपास्त किये जाने के बाद प्रवर्तनीय नहीं रह जाता।

पंचाट की अन्तिमता – धारा 35 यह उपबन्धित करती है कि माध्यस्थम् अधिकरण का अंतिम पंचाट पक्षकारों और उनके विधिक प्रतिनिधियों के विरुद्ध अंतिम एवं बन्धकारी होता है। विधिक प्रतिनिधियों में प्रापक, समनुदेशिती, सम्पत्ति के प्रापक आदि आते हैं।

पंचाट का प्रवर्तन – धारा 36 यह उपबन्धित करती है कि पंचाट का निष्पादन डिक्री के निष्पादन की भांति कर दिया जायेगा जब –

(i) धारा 34 के अधीन पंचाट को अपास्त करने के लिए आवेदन करने की समयावधि समाप्त हो चुकी है,

(ii) पंचाट अपास्त करने के आवेदन को न्यायालय द्वारा अस्वीकार कर दिया गया है।

यद्यपि पंचाट प्राइवेट अधिकरण द्वारा दिया गया फैसला है लेकिन इसकी प्रास्थिति वही है जैसी कि न्यायालय की डिक्री की होती है। सरकार के विरुद्ध माध्यस्थम् पंचाट के प्रवर्तन के लिए सरकार को पूर्व सूचना दिया जाना आवश्यक नहीं है क्योंकि वह एक पक्षकार होती है।

अपीलीय आदेश- धारा 37 यह उपबन्धित करती है कि माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा पारित आदेशों के विरुद्ध अपील किया जा सकता है। पंचाट के विरुद्ध अपील नहीं होता है।

उच्चतम न्यायालय ने पश्चिम बंगाल राज्य बनाम गौरंगालाल, (1993) 3 एस० सी० सी० के वाद में अभिनिर्धारित किया कि इस धारा के अन्तर्गत मध्यस्थ के कदाचार या भ्रष्टाचार के आधार पर अपील नहीं हो सकेगी क्योंकि इस धारा में केवल मध्यस्थ अधिकरण के आदेशों के विरुद्ध अपील का ही प्रावधान है।

न्यायालय के निम्नलिखित आदेश के विरुद्ध अपील हो सकती है

(1) धारा 9 के अधीन किसी उपाय को मंजूरी देना,

(2) धारा 34 के अधीन माध्यस्थम् पंचाट को अपास्त किया जाना या अपास्त करने से इन्कार करना।

माध्यस्थम् अधिकरण द्वारा पारित निम्नलिखित दो आधारों के विरुद्ध ही अपील हो सकेगी –

(क) माध्यस्थम् अधिकरण का यह आदेश कि अधिकरण को अधिकारिता नहीं है (धारा 16 (2) एवं (3) के अधीन पारित आदेश),

(ख) धारा 17 (1) एवं (2) के अन्तर्गत अन्तरिम उपाय को स्वीकार करने या अस्वीकार करने से इन्कार करने सम्बन्धी आदेश।

माध्यस्थम् अधिकरण के आदेशों के विरुद्ध केवल एक अपील का ही प्रावधान है तथा दूसरी अपील वर्जित है तथापि अपील में दिये गये आदेश के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की जा सकेगी।

अधिनियम की धारा 9 एवं 34 के अधीन न्यायालय द्वारा पारित किये गये आदेशों के विरुद्ध पुनर्विलोकन का प्रावधान नहीं है। लेकिन पटना एवं पंजाब उच्च न्यायालय के अनुसार ऐसे आदेशों के विरुद्ध पुनर्विलोकन किया जा सकता है।

अनुच्छेद 136 उच्चतम न्यायालय को किसी भी निर्णय, डिक्री या आदेश के विरुद्ध विशेष अनुमति द्वारा अपील पर सुनवाई करने के लिए अधिकृत करता है।

धारा 38 के अन्तर्गत माध्यस्थम् अधिकरण खर्चे हेतु निक्षेप या अग्रिम धन जमा करने की अपेक्षा करता है।

धारा 39 माध्यस्थम् अधिकरण को यह अधिकार-शक्ति प्रदान करती है कि जब वह पक्षकार द्वारा माध्यस्थम् कार्यवाही के लिए खर्चे हेतु, निक्षेप या मांगे गये अग्रिम धन का संदाय नहीं कर दिया है पंचाट परिदान करने से इन्कार कर सकता है।

अधिकरण को पंचाट पर धारणाधिकार प्राप्त है।

मोहम्मद अकबर बनाम अत्तार सिंह, ए० आई० आर० (1945) प्रि० कौं० 170 के वाद में प्रिवी कौंसिल ने निर्णय दिया कि माध्यस्थम् की फीस तथा खर्चे आदि निर्धारित करना माध्यस्थम् अधिकरण के विवेकाधिकार का प्रश्न है, तथापि अधिकरण द्वारा इसका प्रयोग युक्तियुक्त ढंग से किया जाना चाहिए।

धारा 40 के अनुसार, पक्षकार की मृत्यु के कारण माध्यस्थम् करार समाप्त (उन्मोचन) नहीं होगा। मृतक पक्षकार के विधिक प्रतिनिधियों को माध्यस्थम् करार प्रवर्तित कराने का भी अधिकार होता है बशर्ते की कि करार के अन्तर्गत निहित अधिकार मृतक की मृत्यु के पश्चात् उसके विधिक प्रतिनिधियों को प्राप्त हो।

धारा 42 के अनुसार, जहाँ इस अधिनियम के भाग (1) के अधीन माध्यस्थम् करार के सम्बन्ध में कोई आवेदन किसी न्यायालय में दिया गया है,तो केवल उसी न्यायालय को माध्यस्थम् कार्यवाही पर अधिकारिता होगी तथा माध्यस्थम् करार से उत्पन्न सभी आवेदनों पर वही न्यायालय विचार करेगा अन्य न्यायालय को अधिकारिता नहीं होगी।

धारा 43 के अनुसार, माध्यस्थम् कार्यवाही के प्रति परिसीमा अधिनियम, 1963 के प्रावधान ठीक उसी प्रकार लागू होंगे जिस प्रकार वे न्यायालयाधीन कार्यवाही के लिए लागू होते हैं।

माध्यस्थम् करार में पक्षकार यह शर्त रख सकते हैं कि उनके बीच विवाद उत्पन्न होने की दशा में माध्यस्थम् कार्यवाही एक निश्चित अवधि में प्रारम्भ कर दी जायेगी। वे माध्यस्थम् करार में यह भी शर्त रख सकते हैं कि यदि माध्यस्थम् नियत अवधि के भीतर प्रारम्भ नहीं किया जाता, तो दावा परिसीमा के अधीन वर्जित हो जायेगा। ऐसी शर्त होने पर माध्यस्थम् अधिकरण में दावा वर्जित होता है लेकिन न्यायालय में नियमित वाद दायर किया जा सकता है।

धारा 43 के अधीन माध्यस्थम् प्रारम्भ करने की परिसीमा अवधि उस तिथि से शुरु होती है जब माध्यस्थम् का कारण उद्भूत हुआ हो और दावेदार को दावे का अधिकार हो।

किसी विवाद के सम्बन्ध में माध्यस्थम् का प्रारम्भ उसी तिथि से माना जायेगा जब प्रत्यर्थी को माध्यस्थम् की मांग का नोटिस प्राप्त हुआ है। पक्षकार माध्यस्थम् प्रारम्भ करने की कोई तिथि निश्चित कर सकते हैं।

माध्यस्थम् के प्रकारों में परिसीमा अधिनियम का अनुच्छेद 137 लागू होता है। इस अधिनियम के सन्दर्भ में वर्तमान माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम की स्थिति यह है कि माध्यस्थम् करार में रखा गया प्रावधान माध्यस्थम् को कालबाधित कर सकेगा परन्तु इसके दावे पर रोक नहीं लगाई जा सकती। पक्षकार सिविल न्यायालय में वाद दायर करके उपचार प्राप्त कर सकता है।

यदि आपत्तियाँ कालबाधित हैं तो उन पर विचार नहीं किया जा सकेगा। [शिवलाल बनाम फूड कॉरपोरेशन ऑफ इण्डिया, ए० आई० आर० 1997 राजस्थान 93] ।

परिसीमा अधिनियम, 1963 के अन्तर्गत किसी संविदा से उत्पन्न होने वाले दावे के लिए वाद लेने हेतु परिसीमा 3 वर्ष है और माध्यस्थम् के लिए भी यही परिसीमा लागू होगी, अतः कोई भी माध्यस्थम् करार जो उक्त अवधि को कम करता है वह शून्य और अवैध होगा।

 

LECTURE -5

PRE QUESTIONS

 
  1. माध्यस्थम अधिकरण पक्षकार के निवेदन के कितने दिन के भीतर पंचाट में संशोधन कर देगा ?

a) 30 दिनों में

b) 45 दिनों मे

c) 60 दिनों में

d) 90 दिनों में

 
  1. पंचाट अंतिम एंव पक्षकारों पर बाध्यकारी होता है ,किस धारा में प्रावधानित है

a) धारा 34

b) धारा 35

c) धारा 36

d) धारा 37

 
  1. धारा 34 के अधीन माध्यस्थम पंचाट को अपास्त किया जाने का आदेश है –

a) अपीलीय

b) पुनरीक्षणीय

c) न तो अपीलीय न पुनरीक्षणीय

d) उपयुक्त में कोई नहीं

 
  1. माध्यस्थम एंव सलाह अधिनियम के अधीन एक पंचाट धारा ३६ के अंदर ऐसे परवर्तनीय होगा जैसे

a) सिविल प्रक्रिया के अधीन एक निर्णय

b) आदेश

c) डिक्री

d) उपयुक्त में कोई नहीं

 
  1. सुलाहकर्ताओं की संख्या हो सकती है –

a) एक

b) दो

c) तीन

d) उपयुक्त सभी