HISTORY NOTES

लेक्चर -1
प्राचीन भारतीय इतिहास के स्रोत

भारतीय इतिहास जानने के स्रोत को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता हैं-
1. साहित्यिक साक्ष्य
2. विदेशी यात्रियों का विवरण
3. पुरातत्त्व सम्बन्धी साक्ष्य
4.Image 1

साहित्यिक साक्ष्य

साहित्यिक साक्ष्य के अन्तर्गत साहित्यिक ग्रन्थों से प्राप्त ऐतिहासिक वस्तुओं का अध्ययन किया जाता है। साहित्यिक साक्ष्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
धार्मिक साहित्य और लौकिक साहित्य।

धार्मिक साहित्य

धार्मिक साहित्य के अन्तर्गत ब्राह्मण तथा ब्राह्मणेत्तर साहित्य की चर्चा की जाती है।

  • ब्राह्मण ग्रन्थों में-

वेद, उपनिषद, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृति ग्रन्थ आते हैं।

  • ब्राह्मणेत्तर ग्रन्थों मेंजैन तथा बौद्ध ग्रन्थों को सम्मिलित किया जाता है।

लौकिक साहित्य

लौकिक साहित्य के अन्तर्गत ऐतिहासिक ग्रन्थ, जीवनी, कल्पना-प्रधान तथा गल्प साहित्य का वर्णन किया जाता है।

धर्म-ग्रन्थ

प्राचीन काल से ही भारत के धर्म प्रधान देश होने के कारण यहां प्रायः तीन धार्मिक धारायें- वैदिक, जैन एवं बौद्ध प्रवाहित हुईं। वैदिक धर्म ग्रन्थ को ब्राह्मण धर्म ग्रन्थ भी कहा जाता है।

ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ

ब्राह्मण धर्म – ग्रंथ के अन्तर्गत वेद, उपनिषद्, महाकाव्य तथा स्मृति ग्रंथों को शामिल किया जाता है।

वेद

वेद एक महत्त्वपूर्ण ब्राह्मण धर्म-ग्रंथ है। वेद शब्द का अर्थ ‘ज्ञान‘ महतज्ञान अर्थात ‘पवित्र एवं आध्यात्मिक ज्ञान‘ है। यह शब्द संस्कृत के ‘विद्‘ धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना। वेदों के संकलनकर्ता ‘कृष्ण द्वैपायन’ थे। कृष्ण द्वैपायन को वेदों के पृथक्करण-व्यास के कारण ‘वेदव्यास’ की संज्ञा प्राप्त हुई। वेदों से ही हमें आर्यो के विषय में प्रारम्भिक जानकारी मिलती है। कुछ लोग वेदों को अपौरुषेय अर्थात दैवकृत मानते हैं। वेदों की कुल संख्या चार है-

  • ऋग्वेद-यह ऋचाओं का संग्रह है।
  • सामवेद-यह गीत-संगीत प्रधान है ।
  • यजुर्वेद- इसमें यज्ञ की असल प्रक्रिया के लिये गद्य और पद्य मन्त्र हैं।
  • अथर्ववेद-यह तंत्र-मंत्रों का संग्रह है।

ब्राह्मण ग्रंथ

  • यज्ञोंएवं कर्मकाण्डों के विधान एवं इनकी क्रियाओं को भली-भांति समझने के लिए ही इस ब्राह्मण ग्रंथ की रचना हुई।
  • यहां पर ‘ब्रह्म’ का शाब्दिक अर्थ हैं- यज्ञ अर्थात यज्ञ के विषयों का अच्छी तरह से प्रतिपादन करने वाले ग्रंथ ही ‘ब्राह्मण ग्रंथ’ कहे गये।
  • ब्राह्मण ग्रन्थों में सर्वथा यज्ञों की वैज्ञानिक, अधिभौतिक तथा अध्यात्मिक मीमांसा प्रस्तुत की गयी है। यह ग्रंथ अधिकतर गद्य में लिखे हुए हैं। इनमें उत्तरकालीन समाज तथा संस्कृति के सम्बन्ध का ज्ञान प्राप्त होता है। प्रत्येक वेद (संहिता) के अपने-अपने ब्राह्मण होते हैं।

आरण्यक

  • आरयण्कों में दार्शनिक एवं रहस्यात्मक विषयों यथा, आत्मा, मृत्यु, जीवन आदि का वर्णन होता है। इन ग्रंथों को आरयण्क इसलिए कहा जाता है क्योंकि इन ग्रंथों का मनन अरण्य अर्थात वन में किया जाता था।
  • ये ग्रन्थ अरण्यों (जंगलों) में निवास करने वाले सन्न्यासियों के मार्गदर्शन के लिए लिखे गए थै। आरण्यकों में ऐतरेय आरण्यक, शांखायन्त आरण्यक, बृहदारण्यक, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक तथा तवलकार आरण्यक (इसे जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण भी कहते हैं) मुख्य हैं।
  • ऐतरेय तथा शांखायन ऋग्वेद से, बृहदारण्यक शुक्ल यजुर्वेद से, मैत्रायणी उपनिषद आरण्यक कृष्ण यजुर्वेद से तथा तवलकार आरण्यक सामवेद से सम्बद्ध हैं।
  • अथर्ववेद का कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है। आरण्यक ग्रन्थों में प्राण विद्या की महिमा का प्रतिपादन विशेष रूप से मिलता है। इनमें कुछ ऐतिहासिक तथ्य भी हैं, जैसे- तैत्तिरीय आरण्यक में कुरु, पंचाल, काशी, विदेह आदि महाजनपदों का उल्लेख है।

 

 

उपनिषद

  • उपनिषदों की कुल संख्या 108 है। प्रमुख उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, श्वेताश्वतर, बृहदारण्यक, कौषीतकि, मुण्डक, प्रश्न, मैत्राणीय आदि।
  • लेकिन शंकराचार्य ने जिन 10 उपनिषदों पर  भाष्य लिखा है, उनको प्रमाणिक माना गया है। ये हैं – ईश, केन, माण्डूक्य, मुण्डक, तैत्तिरीय, ऐतरेय, प्रश्न, छान्दोग्य और बृहदारण्यक उपनिषद।
  • इसके अतिरिक्त श्वेताश्वतर और कौषीतकि उपनिषद भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस प्रकार 103 उपनिषदों में से केवल 13 उपनिषदों को ही प्रामाणिक माना गया है।
  • भारत का प्रसिद्ध आदर्श वाक्य ‘सत्यमेव जयते‘ मुण्डोपनिषद से लिया गया है।
  • उपनिषद गद्य और पद्य दोनों में हैं, जिसमेंप्रश्न, माण्डूक्य, केन, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक और कौषीतकि उपनिषद गद्य में हैं तथा केन, ईश, कठ और श्वेताश्वतर उपनिषद पद्य में हैं।

वेदांग

वेदों के अर्थ को अच्छी तरह समझने में वेदांग काफ़ी सहायक होते हैं। वेदांग शब्द से अभिप्राय है- ‘जिसके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को समझने में सहायता मिले’। वेदांगो की कुल संख्या 6 है, जो इस प्रकार है-
1- शिक्षा, 2- कल्प, 3- व्याकरण, 4- निरूक्त, 5- छन्द एवं 6- ज्योतिष

ब्राह्मण ग्रन्थों में धर्मशास्त्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

  • धर्मशास्त्र में चार साहित्य आते हैं- 1- धर्म सूत्र, 2- स्मृति, 3- टीका एवं 4- निबन्ध।

स्मृतियाँ

  • स्मृतियों को ‘धर्म शास्त्र’ भी कहा जाता है- ‘श्रस्तु वेद विज्ञेयों धर्मशास्त्रं तु वैस्मृतिः।’ स्मृतियों का उदय सूत्रों को बाद हुआ।
  • सम्भवतःमनुस्मृति (लगभग 200 ई.पूर्व. से 100 ई. मध्य) एवं याज्ञवल्क्य स्मृति सबसे प्राचीन हैं। उस समय के अन्य महत्त्वपूर्ण स्मृतिकार थे- नारद, पराशर, बृहस्पति, कात्यायन, गौतम, संवर्त, हरीत, अंगिरा आदि, जिनका समय सम्भवतः 100 ई. से लेकर 600 ई. तक था। मनुस्मृति से उस समय के भारत के बारे में राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक जानकारी मिलती है।
  • नारद स्मृति से गुप्त वंश के संदर्भ में जानकारी मिलती है।
  • मेधातिथि, मारुचि, कुल्लूक भट्ट, गोविन्दराज आदि टीकाकारों ने ‘मनुस्मृति’ पर, जबकि विश्वरूप, अपरार्क, विज्ञानेश्वर आदि ने ‘याज्ञवल्क्य स्मृति’ पर भाष्य लिखे हैं।

 

 

महाकाव्य

रामायण‘ एवं ‘महाभारत‘, भारत के दो सर्वाधिक प्राचीन महाकाव्य हैं। यद्यपि इन दोनों महाकाव्यों के रचनाकाल के विषय में काफ़ी विवाद है, फिर भी कुछ उपलब्ध साक्ष्यों के आधर पर इन महाकाव्यों का रचनाकाल चौथी शती ई.पू. से चौथी शती ई. के मध्य माना गया है।

रामायण

  • रामायण की रचनामहर्षि बाल्मीकि द्वारा पहली एवं दूसरी शताब्दी के दौरान संस्कृत भाषा में की गयी । बाल्मीकि कृत रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे, जो कालान्तर में 12000 हुए और फिर 24000 हो गये ।
  • इसे ‘चतुर्विशिति साहस्त्री संहिता’ भ्री कहा गया है। बाल्मीकि द्वारा रचित रामायण- बालकाण्ड, अयोध्याकाण्ड, अरण्यकाण्ड, किष्किन्धाकाण्ड, सुन्दरकाण्ड, युद्धकाण्ड एवं उत्तराकाण्ड नामक सात काण्डों में बंटा हुआ है। भूशुण्डि रामायण को ‘आदिरामायण’ कहा जाता है।

महाभारत

  • महर्षि व्यासद्वारा रचित महाभारत महाकाव्य रामायण से बृहद है।
  • इसकी रचना का मूल समय ईसा पूर्व चौथी शताब्दी माना जाता है।
  • महाभारत में मूलतः 8800 श्लोक थे तथा इसका नाम ‘जयसंहिता’ (विजय संबंधी ग्रंथ) था। बाद में श्लोकों की संख्या 24000 होने के पश्चात् यह वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा होने के कारण ‘भारत‘ कहलाया।
  • कालान्तर में गुप्त कालमें श्लोकों की संख्या बढ़कर एक लाख होने पर यह ‘शतसाहस्त्री संहिता’ या ‘महाभारत’ कहलाया। महाभारत का प्रारम्भिक उल्लेख ‘आश्वलाय गृहसूत्र’ में मिलता है। वर्तमान में इस महाकाव्य में लगभग एक लाख श्लोकों का संकलन है।
  • महाभारत महाकाव्य 18 पर्वो-आदि, सभा, वन, विराट, उद्योग, भीष्म, द्रोण, कर्ण, शल्य, सौप्तिक, स्त्री, शान्ति, अनुशासन, अश्वमेध, आश्रमवासी, मौसल, महाप्रास्थानिक एवं स्वर्गारोहण में विभाजित है।
  • महाभारत में ‘हरिवंश‘ नाम परिशिष्ट है। इस महाकाव्य से तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक स्थिति का ज्ञान होता है।

पुराण

  • प्राचीन आख्यानों से युक्त ग्रंथ कोपुराण कहते हैं। सम्भवतः 5वीं से 4थी शताब्दी ई.पू. तक पुराण अस्तित्व में आ चुके थे।
  • बौद्ध साहित्य
  • बौद्ध साहित्यको ‘त्रिपिटक‘ कहा जाता है। महात्मा बुद्ध के परिनिर्वाण के उपरान्त आयोजित विभिन्न बौद्ध संगीतियों में संकलित किये गये त्रिपिटक (संस्कृत त्रिपिटक) सम्भवतः सर्वाधिक प्राचीन धर्मग्रंथ हैं।
  • वुलर एवं रीज डेविड्ज महोदय ने ‘पिटक‘ का शाब्दिक अर्थ टोकरी बताया है। त्रिपिटक हैं-
    सुत्तपिटक, विनयपिटक और अभिधम्मपिटक

जैन साहित्य

  • ऐतिहसिक जानकारी हेतुजैन साहित्य भी बौद्ध साहित्य की ही तरह महत्त्वपूर्ण हैं। अब तक उपलब्ध जैन साहित्य प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में मिलतें है। जैन साहित्य, जिसे ‘आगम‘ कहा जाता है, इनकी संख्या 12 बतायी जाती है।
  • आगे चलकर इनके ‘उपांग’ भी लिखे गये । आगमों के साथ-साथ जैन ग्रंथों में 10 प्रकीर्ण, 6 छंद सूत्र, एक नंदि सूत्र एक अनुयोगद्वार एवं चार मूलसूत्र हैं। इन आगम ग्रंथों की रचना सम्भवतः श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्यो द्वारा महावीर स्वामी की मृत्यु के बाद की गयी।

विदेशियों के विवरण

विदेशी यात्रियों एवं लेखकों के विवरण से भी हमें भारतीय इतिहास की जानकारियाँ मिलती है। इनको तीन भागों में बांट सकते हैं-

  1. यूनानी-रोमन लेखक
  2. चीनी लेखक
  3. अरबी लेखक

पुरातत्त्व

  • पुरातात्विक साक्ष्य के अंतर्गत मुख्यतः अभिलेख, सिक्के, स्मारक, भवन, मूर्तियां चित्रकला आदि आते हैं। इतिहास निमार्ण में सहायक पुरातत्त्व सामग्री में अभिलेखों का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
  • ये अभिलेख अधिकांशतः स्तम्भों, शिलाओं, ताम्रपत्रों, मुद्राओं पात्रों, मूर्तियों, गुहाओं आदि में खुदे हुए मिलते हैं।
  • यद्यपि प्राचीनतम अभिलेख मध्य एशिया के ‘बोगजकोई‘ नाम स्थान से क़रीब 1400 ई.पू. में पाये गये जिनमें अनेक वैदिक देवताओं – इन्द्र, मित्र, वरुण, नासत्य आदि का उल्लेख मिलता है।

चित्रकला

चित्रकला से हमें उस समय के जीवन के विषय में जानकारी मिलती है। अजंता के चित्रों में मानवीय भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति मिलती है। चित्रों में ‘माता और शिशु‘ या ‘मरणशील राजकुमारी‘ जैसे चित्रों से गुप्तकाल की कलात्मक पराकाष्ठा का पूर्ण प्रमाण मिलता है।

 

 

 

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लेक्चर – 2

पाषाण काल

 

समस्त इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा एकता है-

  1. प्राक्इतिहास या प्रागैतिहासिक कालPrehistoric A
  2. आद्य ऐतिहासिक कालProto-historic Age                                                                                  ऐतिहासिक काल Historic Age

प्राक् इतिहास या प्रागैतिहासिक काल

 

इस काल में मनुष्य ने घटनाओं का कोई लिखित विवरण नहीं रखा। इस काल में विषय में जो भी जानकारी मिलती है वह पाषाण के उपकरणों, मिट्टी के बर्तनों, खिलौने आदि से प्राप्त होती है।

आद्य ऐतिहासिक काल

इस काल में लेखन कला के प्रचलन के बाद भी उपलब्ध लेख पढ़े नहीं जा सके हैं।

ऐतिहासिक काल

मानव विकास के उस काल को इतिहास कहा जाता है, जिसके लिए लिखित विवरण उपलब्ध है। मनुष्य की कहानी आज से लगभग दस लाख वर्ष पूर्व प्रारम्भ होती है, पर ‘ज्ञानी मानव‘ होमो सैपियंस Homo sapiens का प्रवेश इस धरती पर आज से क़रीब तीस या चालीस हज़ार वर्ष पहले ही हुआ।

पाषाण काल

यह काल मनुष्य की सभ्यता का प्रारम्भिक काल माना जाता है। इस काल को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। –

  1. पुरा पाषाण कालPaleolithic Age
  2. मध्य पाषाण कालMesolithic Age एवं
  3. नव पाषाण काल अथवा उत्तर पाषाण कालNeolithic Age

 

पुरापाषाण काल

  • यूनानी भाषा मेंPalaios प्राचीन एवं Lithos पाषाण के अर्थ में प्रयुक्त होता था। इन्हीं शब्दों के आधार पर Paleolithic Age(पाषाणकाल) शब्द बना ।
  • यह काल आखेटक एवं खाद्य-संग्रहण काल के रूप में भी जाना जाता है।
  • अभी तकभारत में पुरा पाषाणकालीन मनुष्य के अवशेष कहीं से भी नहीं मिल पाये हैं, जो कुछ भी अवशेष के रूप में मिला है, वह है उस समय प्रयोग में लाये जाने वाले पत्थर के उपकरण।
  • प्राप्त उपकरणों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि ये लगभग 2,50,000 ई.पू. के होंगे। अभी हाल मेंमहाराष्ट्र के ‘बोरी’ नामक स्थान खुदाई में मिले अवशेषों से ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस पृथ्वी पर ‘मनुष्य’ की उपस्थिति लगभग 14 लाख वर्ष पुरानी है।
  • गोल पत्थरों से बनाये गये प्रस्तर उपकरण मुख्य रूप से सोहन नदी घाटी में मिलते हैं।
  • सामान्य पत्थरों के कोर तथा फ़्लॅक्स प्रणाली द्वारा बनाये गये औजार मुख्य रूप से मद्रास, वर्तमानचेन्नई में पाये गये हैं।
  • इन दोनों प्रणालियों से निर्मित प्रस्तर के औजार सिंगरौली घाटी, मिर्ज़ापुरएंवं बेलन घाटी, इलाहाबाद में मिले हैं।
  • मध्य प्रदेश के भोपाल नगर के पास भीम बेटका में मिली पर्वत गुफायें एवं शैलाश्रृय भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस समय के मनुष्यों का जीवन पूर्णरूप से शिकार पर निर्भर था। वे अग्नि के प्रयोग से अनभिज्ञ थे।
  • पूर्व पुरापाषाण काल के महत्त्वपूर्ण स्थल हैं –

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  • मध्य पुरापाषाण युग के महत्त्वपूर्ण स्थल हैं –
  1. भीमबेटका
  2. नेवासा
  3. पुष्कर
  4. ऊपरीसिंध की रोहिरी पहाड़ियाँ
  5. नर्मदाके किनारे स्थित समानापुर

मध्य पाषाण काल

  • इस काल में प्रयुक्त होने वाले उपकरण आकार में बहुत छोटे होते थे, जिन्हें लघु पाषाणोपकरणमाइक्रोलिथ कहते थे।
  • पुरापाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले कच्चे पदार्थ क्वार्टजाइट के स्थान पर मध्य पाषाण काल में जेस्परएगेटचर्ट और चालसिडनी जैसे पदार्थ प्रयुक्त किये गये।
  • इस समय के प्रस्तर उपकरण राजस्थान, मालवा, गुजरात, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश एवं मैसूर में पाये गये हैं। अभी हाल में ही कुछ अवशेष मिर्जापुर के सिंगरौली, बांदा एवं विन्ध्य क्षेत्र से भी प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाणकालीन मानव अस्थि-पंजर के कुछ अवशेष प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश के सराय नाहर राय तथा महदहा नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाणकालीन जीवन भी शिकार पर अधिक निर्भर था। इस समय तक लोग पशुओं में गाय, बैल, भेड़, घोड़े एवं भैंसों का शिकार करने लगे थे।
  • जीवित व्यक्ति के अपरिवर्तित जैविक गुणसूत्रों के प्रमाणों के आधार परभारत में मानव का सबसे पहला प्रमाण केरल से मिला है जो सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना है।
  • इस व्यक्ति के गुणसूत्र अफ़्रीक़ा के प्राचीन मानव के जैविक गुणसूत्रों (जीन्स) से पूरी तरह मिलते हैं।[1] यह काल वह है जब अफ़्रीक़ा से आदि मानव ने विश्व के अनेक हिस्सों में बसना प्रारम्भ किया जो पचास से सत्तर हज़ार साल पहले का माना जाता है।
  • मध्य पाषाण काल के अंतिम चरण में पशुपालन के साक्ष्य प्राप्त होने लगते हैं ऐसे पशुपालन के साथ भारत में आमगढ़ होशंगाबाद मध्य प्रदेश तथा बागोर भीलवाड़ा राजस्थान से मिले हैं
  • मध्य पाषाण कालीन महदहा से जोकि उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में स्थित है बड़ी मात्रा में हड्डी एवं सींग निर्मित उपकरण प्राप्त हुए हैं जी आर शर्मा महदहा में तीन क्षेत्रों का उल्लेख करते हैं झील क्षेत्र बूचड़खाना संकुल क्षेत्र एवं कब्रिस्तानमध्य गंगा घाटी के प्रतापगढ़ जिले में स्थित सराय नाहर महदहा तथा दमदमा का उत्खनन हुआ है दमदमा में कुल मिलाकर 41 मानव संसाधन समाधान समाधान ज्ञात हुए हैं एक समाधान में तीन मानव कंकाल दफनाए हुए मिले हैं सराय नाहर राय से ऐसी समाधी मिली है जिसमें चार मानव कंकाल दफ़नाए गए थे

नव पाषाण अथवा उत्तर पाषाण काल

  • साधरणतया इस काल की सीमा 3500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच मानी जाती है। यूनानी भाषा काNeo शब्द नवीन के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए इस काल को ‘नवपाषाण काल‘ भी कहा जाता है।
  • इस काल की सभ्यता भारत के विशाल क्षेत्र में फैली हुई थी। सर्वप्रथम 1860 ई. में ‘ली मेसुरियर’ Le Mesurier ने इस काल का प्रथम प्रस्तर उपकरण उत्तर प्रदेश की टौंस नदी की घाटी से प्राप्त किया।
  • भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीनतम कृषि साक्ष्य वाला स्थल उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जिले में स्थित लहुरादेव है यहां से 8000 ईसापूर्व से 9000 ईसा पूर्व मध्य के चावल के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं उल्लेखनीय है कि इस खोज के पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप का प्राचीनतम कृषि साक्ष्य वाला स्थल मेहरगढ़ पाकिस्तान के बलूचिस्तान में स्थित था यहां से 7000 ईसापूर्व के गेहूं के साक्ष्य मिले हैं जब की प्राचीनतम चावल के साक्ष्य वाला स्थल कोल्डिहवा इलाहाबाद जिले में बेलन नदी के तट पर स्थित है यहां से चावल की भूसी के साक्ष्य मिले हैं

ताम्र-पाषाणिक काल

  • जिस काल में मनुष्य ने पत्थर और तांबे के औज़ारों का साथ-साथ प्रयोग किया, उस काल को ‘ताम्र-पाषाणिक काल’ कहते हैं। सर्वप्रथम जिस धातु को औज़ारों में प्रयुक्त किया गया वह थी – ‘तांबा’। ऐसा माना जाता है कि तांबे का सर्वप्रथम प्रयोग क़रीब 5000 ई.पू. में किया गया।
  • भारत में ताम्र पाषाण अवस्था के मुख्य क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण-पूर्वी भारत में हैं। दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में स्थित ‘बनास घाटी’ के सूखे क्षेत्रों में ‘अहाड़ा’ एवं ‘गिलुंड’ नामक स्थानों की खुदाई की गयी।
  • मालवा, एवं ‘एरण‘ स्थानों पर भी खुदाई का कार्य सम्पन्न हुआ जो पश्चिमी मध्य प्रदेश में स्थित है। खुदाई में मालवा से प्राप्त होने वाले ‘मृद्भांड’ ताम्रपाषाण काल की खुदाई से प्राप्त अन्य मृद्भांडों में सर्वात्तम माने गये हैं।
  • पश्चिमी महाराष्ट्र में हुए व्यापकउत्खनन क्षेत्रों में अहमदनगर के जोर्वे, नेवासा एवं दायमाबाद, पुणे ज़िले में सोनगांव, इनामगांव आदि क्षेत्र सम्मिलित हैं। ये सभी क्षेत्र ‘जोर्वे संस्कृति‘ के अन्तर्गत आते हैं। इस संस्कृति का समय 1,400-700 ई.पू. के क़रीब माना जाता है। वैसे तो यह सभ्यता ग्रामीण थी पर कुछ भागों जैसे ‘दायमाबाद’ एवं ‘इनामगांव’ में नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी।
  • ‘बनासघाटी’ में स्थित ‘अहाड़’ में सपाट कुल्हाड़ियां, चूड़ियां और कई तरह की चादरें प्राप्त हुई हैं। ये सब तांबे से निर्मित उपकरण थे। ‘अहाड़’ अथवा ‘ताम्बवली’ के लोग पहले से ही धातुओं के विषय में जानकारी रखते थे। अहाड़ संस्कृति की समय सीमा 2,100 से 1,500 ई.पू. के मध्य मानी जाती है।
  • ‘गिलुन्डु’, जहां पर एक प्रस्तर फलक उद्योग के अवशेष मिले हैं, ‘अहाड़ संस्कृति’ का केन्द्र बिन्दु माना जाता है।
  • इस काल में लोगगेहूँ, धान और दाल की खेती करते थे। पशुओं में ये गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सूअर और ऊँट पालते थे।
  • ‘जोर्वे संस्कृति’ के अन्तर्गत एक पांच कमरों वाले मकान का अवशेष मिला है। जीवन सामान्यतः ग्रामीण था। चाक निर्मित लाल और काले रंग के ‘मृद्‌भांड’ पाये गये हैं।
  • कुछ बर्तन, जैसे ‘साधारण तश्तरियां’ एवं ‘साधारण कटोरे’ महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में ‘सूत एवं रेशम के धागे’ तथा ‘कायथा’ में मिले ‘मनके के हार’ के आधार पर कहा जा एकता है कि ‘ताम्र-पाषाण काल’ में लोग कताई-बुनाई एवं सोनारी व्यवसाय से परिचित थे। इस समय शवों के संस्कार में घर के भीतर ही शवों का दफ़ना दिया जाता था। दक्षिण भारत में प्राप्त शवों के शीश पूर्व और पैर पश्चिम की ओर एवं महाराष्ट्र में प्राप्त शवों के शीश उत्तर की ओर एवं पैर दक्षिण की ओर मिले हैं। पश्चिमी भारत में लगभग सम्पूर्ण शवाधान एवं पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान का प्रचलन था।
  • इस काल के लोग लेखन कला से अनभिज्ञ थे।
  • राजस्थान और मालवा में प्राप्त मिट्टी निर्मित वृषभ की मूर्ति एवं ‘इनाम गांव से प्राप्त ‘मातृदेवी की मूर्ति’ से लगता है कि लोग वृषभ एवं मातृदेवी की पूजा करते थे।
  • । ‘प्राक् हड़प्पा कालीन संस्कृति’ के अन्तर्गत राजस्थान के ‘कालीबंगा’ एवं हरियाणा के ‘बनवाली’ स्पष्टतः ताम्र-पाषाणिक अवस्था के हैं। 1,200 ई.पू. के लगभग ‘ताम्र-पाषाणिक संस्कृति’ का लोप हो गया। केवल ‘जोर्वे संस्कृति‘ ही 700 ई.पू. तक बची रह सकी। सर्वप्रथम चित्रित भांडों के अवशेष ‘ताम्र-पाषाणिक काल’ में ही मिलते हैं। इसी काल के लोगों ने सर्वप्रथम भारतीय प्राय:द्वीप में बड़े बड़े गांवों की स्थापना की।

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प्रश्न

1 . निम्न में से किस एक पुरास्थल से पाषाण संस्कृति से लेकर हड़प्पा सभ्यता तक के सांस्कृतिक अवशेष प्राप्त हुए हैं

(a) मेहरगढ़   b . कोटदीजी     c .कालीबंगा  d . आम्री

2 . राख का टीला किस नवपाषाणिक स्थल से संबंधित है

  1. संगन कल्लू b .कोल्डिहवा c .ब्रम्हगिरी d .उपर्युक्त में से कोई नहीं
    • . माइक्रोलिथ किस काल से संबंधित है

.(a) . पुरा पाषाण काल (Paleolithic Age)                                                                         (b) . मध्य पाषाण काल (MesolithicAge)                                                                                                                    (c ). नव पाषाण काल अथवा उत्तर पाषाण काल( Neolithic Age)

  • . निम्नलिखित में से किस स्थल से हड्डी के उपकरण प्राप्त हुए हैं

a . मांडो b . काकोरिया c .महदहा d .नाहरगढ़

  • . प्राचीनतम स्थाई जीवन के प्रमाण मिले हैं

a . धौलावीरा से  b .कालीबंगा  c .किले गुल मोहम्मद d . मेहरगढ़

6 .निम्नलिखित में से किस स्थान पर मानव के साथ कुत्ते को दफनाए जाने का साक्ष्य मिला है

a . बुर्जहोम  b.कोल्डिहवा c .चोपानी मांडो d .मांडव

लेक्चर – 2

पाषाण काल

 

समस्त इतिहास को तीन कालों में विभाजित किया जा एकता है-

  1. प्राक्इतिहास या प्रागैतिहासिक कालPrehistoric A
  2. आद्य ऐतिहासिक कालProto-historic Age                                                                                  ऐतिहासिक काल Historic Age

प्राक् इतिहास या प्रागैतिहासिक काल

 

इस काल में मनुष्य ने घटनाओं का कोई लिखित विवरण नहीं रखा। इस काल में विषय में जो भी जानकारी मिलती है वह पाषाण के उपकरणों, मिट्टी के बर्तनों, खिलौने आदि से प्राप्त होती है।

आद्य ऐतिहासिक काल

इस काल में लेखन कला के प्रचलन के बाद भी उपलब्ध लेख पढ़े नहीं जा सके हैं।

ऐतिहासिक काल

मानव विकास के उस काल को इतिहास कहा जाता है, जिसके लिए लिखित विवरण उपलब्ध है। मनुष्य की कहानी आज से लगभग दस लाख वर्ष पूर्व प्रारम्भ होती है, पर ‘ज्ञानी मानव‘ होमो सैपियंस Homo sapiens का प्रवेश इस धरती पर आज से क़रीब तीस या चालीस हज़ार वर्ष पहले ही हुआ।

पाषाण काल

यह काल मनुष्य की सभ्यता का प्रारम्भिक काल माना जाता है। इस काल को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। –

  1. पुरा पाषाण कालPaleolithic Age
  2. मध्य पाषाण कालMesolithic Age एवं
  3. नव पाषाण काल अथवा उत्तर पाषाण कालNeolithic Age

पुरापाषाण काल

  • यूनानी भाषा मेंPalaios प्राचीन एवं Lithos पाषाण के अर्थ में प्रयुक्त होता था। इन्हीं शब्दों के आधार पर Paleolithic Age(पाषाणकाल) शब्द बना ।
  • यह काल आखेटक एवं खाद्य-संग्रहण काल के रूप में भी जाना जाता है।
  • अभी तकभारत में पुरा पाषाणकालीन मनुष्य के अवशेष कहीं से भी नहीं मिल पाये हैं, जो कुछ भी अवशेष के रूप में मिला है, वह है उस समय प्रयोग में लाये जाने वाले पत्थर के उपकरण।
  • प्राप्त उपकरणों के आधार पर यह अनुमान लगाया जा रहा है कि ये लगभग 2,50,000 ई.पू. के होंगे। अभी हाल मेंमहाराष्ट्र के ‘बोरी’ नामक स्थान खुदाई में मिले अवशेषों से ऐसा अनुमान लगाया जा रहा है कि इस पृथ्वी पर ‘मनुष्य’ की उपस्थिति लगभग 14 लाख वर्ष पुरानी है।
  • गोल पत्थरों से बनाये गये प्रस्तर उपकरण मुख्य रूप से सोहन नदी घाटी में मिलते हैं।
  • सामान्य पत्थरों के कोर तथा फ़्लॅक्स प्रणाली द्वारा बनाये गये औजार मुख्य रूप से मद्रास, वर्तमानचेन्नई में पाये गये हैं।
  • इन दोनों प्रणालियों से निर्मित प्रस्तर के औजार सिंगरौली घाटी, मिर्ज़ापुरएंवं बेलन घाटी, इलाहाबाद में मिले हैं।
  • मध्य प्रदेश के भोपाल नगर के पास भीम बेटका में मिली पर्वत गुफायें एवं शैलाश्रृय भी महत्त्वपूर्ण हैं। इस समय के मनुष्यों का जीवन पूर्णरूप से शिकार पर निर्भर था। वे अग्नि के प्रयोग से अनभिज्ञ थे।
  • पूर्व पुरापाषाण काल के महत्त्वपूर्ण स्थल हैं –

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  • मध्य पुरापाषाण युग के महत्त्वपूर्ण स्थल हैं –
  1. भीमबेटका
  2. नेवासा
  3. पुष्कर
  4. ऊपरीसिंध की रोहिरी पहाड़ियाँ
  5. नर्मदाके किनारे स्थित समानापुर

मध्य पाषाण काल

  • इस काल में प्रयुक्त होने वाले उपकरण आकार में बहुत छोटे होते थे, जिन्हें लघु पाषाणोपकरणमाइक्रोलिथ कहते थे।
  • पुरापाषाण काल में प्रयुक्त होने वाले कच्चे पदार्थ क्वार्टजाइट के स्थान पर मध्य पाषाण काल में जेस्परएगेटचर्ट और चालसिडनी जैसे पदार्थ प्रयुक्त किये गये।
  • इस समय के प्रस्तर उपकरण राजस्थान, मालवा, गुजरात, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, आंध्र प्रदेश एवं मैसूर में पाये गये हैं। अभी हाल में ही कुछ अवशेष मिर्जापुर के सिंगरौली, बांदा एवं विन्ध्य क्षेत्र से भी प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाणकालीन मानव अस्थि-पंजर के कुछ अवशेष प्रतापगढ़, उत्तर प्रदेश के सराय नाहर राय तथा महदहा नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं। मध्य पाषाणकालीन जीवन भी शिकार पर अधिक निर्भर था। इस समय तक लोग पशुओं में गाय, बैल, भेड़, घोड़े एवं भैंसों का शिकार करने लगे थे।
  • जीवित व्यक्ति के अपरिवर्तित जैविक गुणसूत्रों के प्रमाणों के आधार परभारत में मानव का सबसे पहला प्रमाण केरल से मिला है जो सत्तर हज़ार साल पुराना होने की संभावना है।
  • इस व्यक्ति के गुणसूत्र अफ़्रीक़ा के प्राचीन मानव के जैविक गुणसूत्रों (जीन्स) से पूरी तरह मिलते हैं।[1] यह काल वह है जब अफ़्रीक़ा से आदि मानव ने विश्व के अनेक हिस्सों में बसना प्रारम्भ किया जो पचास से सत्तर हज़ार साल पहले का माना जाता है।
  • मध्य पाषाण काल के अंतिम चरण में पशुपालन के साक्ष्य प्राप्त होने लगते हैं ऐसे पशुपालन के साथ भारत में आमगढ़ होशंगाबाद मध्य प्रदेश तथा बागोर भीलवाड़ा राजस्थान से मिले हैं
  • मध्य पाषाण कालीन महदहा से जोकि उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में स्थित है बड़ी मात्रा में हड्डी एवं सींग निर्मित उपकरण प्राप्त हुए हैं जी आर शर्मा महदहा में तीन क्षेत्रों का उल्लेख करते हैं झील क्षेत्र बूचड़खाना संकुल क्षेत्र एवं कब्रिस्तानमध्य गंगा घाटी के प्रतापगढ़ जिले में स्थित सराय नाहर महदहा तथा दमदमा का उत्खनन हुआ है दमदमा में कुल मिलाकर 41 मानव संसाधन समाधान समाधान ज्ञात हुए हैं एक समाधान में तीन मानव कंकाल दफनाए हुए मिले हैं सराय नाहर राय से ऐसी समाधी मिली है जिसमें चार मानव कंकाल दफ़नाए गए थे

नव पाषाण अथवा उत्तर पाषाण काल

  • साधरणतया इस काल की सीमा 3500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच मानी जाती है। यूनानी भाषा काNeo शब्द नवीन के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इसलिए इस काल को ‘नवपाषाण काल‘ भी कहा जाता है।
  • इस काल की सभ्यता भारत के विशाल क्षेत्र में फैली हुई थी। सर्वप्रथम 1860 ई. में ‘ली मेसुरियर’ Le Mesurier ने इस काल का प्रथम प्रस्तर उपकरण उत्तर प्रदेश की टौंस नदी की घाटी से प्राप्त किया।
  • भारतीय उपमहाद्वीप में प्राचीनतम कृषि साक्ष्य वाला स्थल उत्तर प्रदेश के संत कबीर नगर जिले में स्थित लहुरादेव है यहां से 8000 ईसापूर्व से 9000 ईसा पूर्व मध्य के चावल के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं उल्लेखनीय है कि इस खोज के पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप का प्राचीनतम कृषि साक्ष्य वाला स्थल मेहरगढ़ पाकिस्तान के बलूचिस्तान में स्थित था यहां से 7000 ईसापूर्व के गेहूं के साक्ष्य मिले हैं जब की प्राचीनतम चावल के साक्ष्य वाला स्थल कोल्डिहवा इलाहाबाद जिले में बेलन नदी के तट पर स्थित है यहां से चावल की भूसी के साक्ष्य मिले हैं

ताम्र-पाषाणिक काल

  • जिस काल में मनुष्य ने पत्थर और तांबे के औज़ारों का साथ-साथ प्रयोग किया, उस काल को ‘ताम्र-पाषाणिक काल’ कहते हैं। सर्वप्रथम जिस धातु को औज़ारों में प्रयुक्त किया गया वह थी – ‘तांबा’। ऐसा माना जाता है कि तांबे का सर्वप्रथम प्रयोग क़रीब 5000 ई.पू. में किया गया।
  • भारत में ताम्र पाषाण अवस्था के मुख्य क्षेत्र दक्षिण-पूर्वी राजस्थान, मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग, पश्चिमी महाराष्ट्र तथा दक्षिण-पूर्वी भारत में हैं। दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में स्थित ‘बनास घाटी’ के सूखे क्षेत्रों में ‘अहाड़ा’ एवं ‘गिलुंड’ नामक स्थानों की खुदाई की गयी।
  • मालवा, एवं ‘एरण‘ स्थानों पर भी खुदाई का कार्य सम्पन्न हुआ जो पश्चिमी मध्य प्रदेश में स्थित है। खुदाई में मालवा से प्राप्त होने वाले ‘मृद्भांड’ ताम्रपाषाण काल की खुदाई से प्राप्त अन्य मृद्भांडों में सर्वात्तम माने गये हैं।
  • पश्चिमी महाराष्ट्र में हुए व्यापकउत्खनन क्षेत्रों में अहमदनगर के जोर्वे, नेवासा एवं दायमाबाद, पुणे ज़िले में सोनगांव, इनामगांव आदि क्षेत्र सम्मिलित हैं। ये सभी क्षेत्र ‘जोर्वे संस्कृति‘ के अन्तर्गत आते हैं। इस संस्कृति का समय 1,400-700 ई.पू. के क़रीब माना जाता है। वैसे तो यह सभ्यता ग्रामीण थी पर कुछ भागों जैसे ‘दायमाबाद’ एवं ‘इनामगांव’ में नगरीकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी।
  • ‘बनासघाटी’ में स्थित ‘अहाड़’ में सपाट कुल्हाड़ियां, चूड़ियां और कई तरह की चादरें प्राप्त हुई हैं। ये सब तांबे से निर्मित उपकरण थे। ‘अहाड़’ अथवा ‘ताम्बवली’ के लोग पहले से ही धातुओं के विषय में जानकारी रखते थे। अहाड़ संस्कृति की समय सीमा 2,100 से 1,500 ई.पू. के मध्य मानी जाती है।
  • ‘गिलुन्डु’, जहां पर एक प्रस्तर फलक उद्योग के अवशेष मिले हैं, ‘अहाड़ संस्कृति’ का केन्द्र बिन्दु माना जाता है।
  • इस काल में लोगगेहूँ, धान और दाल की खेती करते थे। पशुओं में ये गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सूअर और ऊँट पालते थे।
  • ‘जोर्वे संस्कृति’ के अन्तर्गत एक पांच कमरों वाले मकान का अवशेष मिला है। जीवन सामान्यतः ग्रामीण था। चाक निर्मित लाल और काले रंग के ‘मृद्‌भांड’ पाये गये हैं।
  • कुछ बर्तन, जैसे ‘साधारण तश्तरियां’ एवं ‘साधारण कटोरे’ महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में ‘सूत एवं रेशम के धागे’ तथा ‘कायथा’ में मिले ‘मनके के हार’ के आधार पर कहा जा एकता है कि ‘ताम्र-पाषाण काल’ में लोग कताई-बुनाई एवं सोनारी व्यवसाय से परिचित थे। इस समय शवों के संस्कार में घर के भीतर ही शवों का दफ़ना दिया जाता था। दक्षिण भारत में प्राप्त शवों के शीश पूर्व और पैर पश्चिम की ओर एवं महाराष्ट्र में प्राप्त शवों के शीश उत्तर की ओर एवं पैर दक्षिण की ओर मिले हैं। पश्चिमी भारत में लगभग सम्पूर्ण शवाधान एवं पूर्वी भारत में आंशिक शवाधान का प्रचलन था।
  • इस काल के लोग लेखन कला से अनभिज्ञ थे।
  • राजस्थान और मालवा में प्राप्त मिट्टी निर्मित वृषभ की मूर्ति एवं ‘इनाम गांव से प्राप्त ‘मातृदेवी की मूर्ति’ से लगता है कि लोग वृषभ एवं मातृदेवी की पूजा करते थे।
  • । ‘प्राक् हड़प्पा कालीन संस्कृति’ के अन्तर्गत राजस्थान के ‘कालीबंगा’ एवं हरियाणा के ‘बनवाली’ स्पष्टतः ताम्र-पाषाणिक अवस्था के हैं। 1,200 ई.पू. के लगभग ‘ताम्र-पाषाणिक संस्कृति’ का लोप हो गया। केवल ‘जोर्वे संस्कृति‘ ही 700 ई.पू. तक बची रह सकी। सर्वप्रथम चित्रित भांडों के अवशेष ‘ताम्र-पाषाणिक काल’ में ही मिलते हैं। इसी काल के लोगों ने सर्वप्रथम भारतीय प्राय:द्वीप में बड़े बड़े गांवों की स्थापना की।

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प्रश्न

1 . निम्न में से किस एक पुरास्थल से पाषाण संस्कृति से लेकर हड़प्पा सभ्यता तक के सांस्कृतिक अवशेष प्राप्त हुए हैं

(a) मेहरगढ़   b . कोटदीजी     c .कालीबंगा  d . आम्री

2 . राख का टीला किस नवपाषाणिक स्थल से संबंधित है

  1. संगन कल्लू b .कोल्डिहवा c .ब्रम्हगिरी d .उपर्युक्त में से कोई नहीं
    • . माइक्रोलिथ किस काल से संबंधित है

.(a) . पुरा पाषाण काल (Paleolithic Age)                                                                         (b) . मध्य पाषाण काल (MesolithicAge)                                                                                                                    (c ). नव पाषाण काल अथवा उत्तर पाषाण काल( Neolithic Age)

  • . निम्नलिखित में से किस स्थल से हड्डी के उपकरण प्राप्त हुए हैं

a . मांडो b . काकोरिया c .महदहा d .नाहरगढ़

  • . प्राचीनतम स्थाई जीवन के प्रमाण मिले हैं

a . धौलावीरा से  b .कालीबंगा  c .किले गुल मोहम्मद d . मेहरगढ़

6 .निम्नलिखित में से किस स्थान पर मानव के साथ कुत्ते को दफनाए जाने का साक्ष्य मिला है

a . बुर्जहोम  b.कोल्डिहवा c .चोपानी मांडो d .मांडव

lecture-3

सिंधु घाटी सभ्यता : (Indus Valley Civilization)

 

मुख्य परीक्षा

 

प्रश्न सिन्धु सभ्यता की नगर संरचना का संछिप्त वर्णन करें?

 

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lecture-3

सिंधु घाटी सभ्यता : (Indus Valley Civilization)

 

सिंधु घाटी सभ्यता :Indus Valley Civilization) विश्व की प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता थी। यह हड़प्पा सभ्यता और सिंधु-सरस्वती सभ्यता के नाम से भी जानी जाती है। आज से लगभग 77 वर्ष पूर्व पाकिस्तान के ‘पश्चिमी पंजाब प्रांत’ के ‘माण्टगोमरी ज़िले’ के निवासियों को शायद इस बात का किंचित्मात्र भी आभास नहीं था कि वे अपने आस-पास की ज़मीन में दबी जिन ईटों का प्रयोग इतने धड़ल्ले से अपने मकानों के निर्माण में कर रहे हैं, वह कोई साधारण ईटें नहीं, बल्कि लगभग 5,000 वर्ष पुरानी और पूरी तरह विकसित सभ्यता के अवशेष हैं। इसका आभास उन्हें तब हुआ जब 1856 ई. में ‘जॉन विलियम ब्रन्टम’ ने कराची से लाहौर तक रेलवे लाइन बिछवाने हेतु ईटों की आपूर्ति के इन खण्डहरों की खुदाई प्रारम्भ करवायी। खुदाई के दौरान ही इस सभ्यता के प्रथम अवशेष प्राप्त हुए, जिसे इस सभ्यता का नाम ‘हड़प्पा सभ्यता‘ का नाम दिया गया।

उद्भव

  • लगभग 5000 वर्ष पूर्व सिन्धु घाटी या हड़प्पा सभ्यता का उद्भव ताम्र पाषाणिक पृठभूमि पर भारतीय उप महाद्वीप के पश्चिमोत्तर भाग में हुआ था।
  • सिन्धु घाटी सभ्यता के सम्बन्ध में प्रारंभिक जानकारी 1826 में चार्ल्स मेसन ने दी थी।
  • वर्ष 1921 में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के महानिदेशक सर जॉन मार्शल के निर्देशन राय बहादुर दयाराम साहनी ने वर्तमान पाकिस्तान के पंजाब के मांटगोमरी जिले में रवि नदी के बाएं तात पर स्थित हड़प्पा नामक स्थल का अन्वेषण करके सर्वप्रथम सिन्धु सभ्यता के साक्ष्य उपलब्ध कराये थे।
  • सिन्धु सभ्यता के सम्बन्ध में सर्वप्रथम हड़प्पा नमक स्थल से साक्ष्य उपलब्ध होने के कारण इसे हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जाना जाता है।
  • 20वीं सदी के आरंभ तक इतिहासकारों एवं पुरातत्ववेत्ताओं ने यह धारणा थी की वैदिक सभ्यता ही भारत की प्राचीनतम सभ्यता है, किन्तु 1921 और 1922 में क्रमशः हड़प्पा और मोहनजोदड़ो नमक स्थलों की खुदाई से यह स्पष्ट हो गया की वैदिक सभ्यता से पूर्व भी भारत में एक अन्य सभ्यता भी अस्तित्व में थी।
  • मार्टिमर व्हीलर, डी. डी. कौशाम्बी, गार्डन चाइल्ड सहित कई अन्य विद्वानों ने सिन्धु सभ्यता की उत्पत्ति मेसोपोटामिया की सुमेरियन सभ्यता से मानी है।
  • रोमिला थापर तथा फेयर सर्विस जैसे विद्वान् सिन्धु सभ्यता की उत्पत्ति ईरानी – बलूची ग्रामीण संस्कृति से मानते, जबकि अमलानंद घोष जैसे विद्वान् सिन्धु सभ्यता की उत्पत्ति सोथी संस्कृति (भारतीय) से मानते हैं।
  • प्रथम बार नगरों के उदय के कारण इसे प्रथम नगरीकरण भी कहा जाता है प्रथम बार कांस्य के प्रयोग के कारण इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है।
  • अभी तक कुल खोजों में से 3 प्रतिशत स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है।

 

काल निर्धारण

  • 1931 में सर्वप्रथम जॉन मार्शल ने सिन्धु सभ्यता की तिथि 3250 ई.पू. से 2750 ई.पू. निर्धारित की है।
  • रेडियो कार्बन डेटिंग जैसी वैज्ञानिक पद्धति द्वारा सिन्धु सभ्यता की तिथि 2500 ई.पू. मानी गयी है। रेडियो कार्बन डेटिंग निर्धारण पद्धति की खोज वी. एफ. लिवि द्वारा की गयी थी।
  • नवीनतम आंकड़ों के विश्लेषण के अधर पर यह माना गया है की सिन्धु सभ्यता का अस्तित्व लगभग 400-500 वर्षों तक बना रहा तथा 2200 ई. पू. से 2000 ई.पू. के मध्य काल तक इस सभ्यता का परिपक्व चरण था।
  • अर्नेस्ट मैके सिन्धु सभ्यता का काल 2800 ई.पू. से ई. पू. के मध्य निर्धारित करते हैं, जबकि माधोस्वरूप वत्स 3500 ई. पू. से 2700 ई. पू. के मध्य मानते हैं।

 

इतिहासकार निर्धारण तिथि
जॉन मार्शल 3200 ई.पू. – 2750 ई.पू.
माधोस्वरूप वत्स 3500 ई.पू. – 2700 ई.पू.
अर्नेस्ट मैके 2800 ई.पू. – 2500 ई.पू.
सी. जे. गैड 2350 ई.पू. – 1750 ई.पू.
मार्टिमर व्हीलर 2500 ई.पू. – 1500 ई.पू.
फेयर सर्विस 2000 ई.पू. – 1500 ई. पू.

 

सभ्यता के सर्वधिक प्रसिद्ध  स्थल
पश्चिमी स्थल सुत्कांगेडोर
पूर्वी स्थल अलमगीरपुर
उत्तरी स्थल मांडा
दक्षिणी स्थल दैमाबाद

 

   विस्तार

  • सिन्धु सभ्यता का विस्तार उत्तर में जम्मू से लेकर दक्षिण में नर्मदा के मुहाने भगतराव तक और पश्चिम में मकरान तट से लेकर पूर्व में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के आलमगीरपुर (मेरठ) तक है।
  • इस सभ्यता का सम्पूर्ण क्षेत्र त्रिभुजाकार है, जिसका क्षेत्रफल 13 लाख वर्ग किमी. है। इस सभ्यता के स्थल भारत और पाकिस्तान में पायें जाते हैं।
  • पाकिस्तान में मोहनजोदड़ो, हड़प्पा, चन्हुदड़ो, बालाकोट, कोटदीजी, आमरी, एवं डेराइस्माइल खां आदि प्रमुख स्थल हैं।
  • भारत के प्रमुख स्थल है – रोपड़, मांडा, अलमगीरपुर, लोथल, रंगपुर, धौलावीरा, राखीगढ़ी आदि हैं।
  • हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो को स्टुअर्ट पिग्गट ने ‘एक विस्तृत साम्राज्य की जुड़वा राजधानियां‘कहा था।

 

निर्माता

  • सिन्धु घाटी के सभ्यता के निर्माताओं अवं संस्थापकों के सम्बन्ध में हमारी जानकारी केवल समकालीन खंडहरों से प्राप्त मानव कंकाल एवं खोपड़ियाँ हैं।
  • प्राप्त साक्ष्यों से पता चलता है की मोहनजोदड़ों की जनसँख्या में चार प्रजातियाँ शामिल थीं।
  1. प्रोटो ऑस्ट्रेलॅायड
  2. भूमध्यसागरीय
  3. अल्पाइन
  4. मंगोलॅायड
  • कुछ विद्वानों के अनुसार इस सभ्यता के निर्माता इस प्रकार थे-

 

पुरातत्ववेत्ता सभ्यता के निर्माता
डॉ. लक्ष्मण स्वरुप रामचंद्र आर्य
गार्डन चाइल्ड सुमेरियन
राखालदास बनर्जी द्रविड़
मार्टिमर व्हीलर दास एवं दस्यु

 

  • मोहनजोदड़ो के लीग मुख्यतः भूमध्यसागरीय प्रजाति के थे।
  • अधिकांश विद्वान् इस मत से सहमत है कि द्रविड़ ही सिन्धु सभ्यता के निर्माता थे।

 

नगर नियोजन

  • सिन्धु या हड़प्पा सभ्यता की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता उसकी नगर योजना है। इनकी नगर योजना में सड़के सीधी एवं नगर सामान्य रूप से चौकोर होते थे।
  • सड़के और गलियां निर्धारित योजना के अनुसार बनायीं गयी थीं। सड़के एक दुसरे को समकोण पर काटती हुई जाल सी प्रतीत होती थीं।
  • आमतौर पर नगरों में प्रवेश पूर्वी सड़क से होता था और जहाँ यह सड़क प्रथम सड़क से मिलती थी उसे ऑक्सफ़ोर्ड सर्कल कहा गया है।
  • जाल निकासी प्रणाली सिन्धी सभ्यता की अद्वितीय विशेषता थी, जो अन्य किसी भी समकालीन सभ्यता में प्राप्त नहीं होती है।
  • सड़कों के किनारे की नालियां ऊपर से ढकी होती थीं। घरों का गंदा पानी इन्हीं नालियों से होता हुआ नगर की मुख्य नाली में गिरता था।
  • नालियों के निर्माण में मुख्यतः ईंटों और मोर्टार का प्रयोग किया जाता था, कहीं कहीं पर चूने और जिप्सम का भी प्रयोग मिलता है।
  • भवनों के निर्माण मुख्यतः पक्की ईंटों का प्रयोग होता था, लेकिन कुछ स्थलों जैसे कालीबंगा और रंगपुर में कच्ची ईंटों का भी प्रयोग किया गया है।
  • सभी प्रकार की ईंटें निश्चित अनुपात में बनायीं गयीं थीं और अधिकांशतः आयताकार थीं। इनकी लम्बाई, चौड़ाई, और मोटाई का अनुपात 4:2:1 था।
  • सिन्धु सभ्यता के प्रायः सभी नगर दो भागों में विभाजित थे – पहला भाग प्राचीर युक्त दुर्ग कहलाता था, और दूसरा भाग जिसमे सामान्य लोग निवास करते थे निचला नगर कहलाता था।
  • घरों का निर्माण सादगीपूर्ण ढंग से किया जाता था। उनमे एकरूपता थी। सामान्यतया मकान छोटे होते थे, जिनमे 4-5 कमरे होते थे।
  • प्रत्येक घर में एक आंगन. एक रसोईघर तथा एक स्नानागार होता था। अधिकांश घरों में कुँओं के अवशेष मिले हैं।
  • सिन्धु सभ्यता में कुछ सार्वजानिक स्थल भी मिले हैं, जैसे – स्नानगृह अन्नागार आदि। मोहनजोदड़ों सा सर्वधिक प्रसिद्द स्थल वहां का विशाल स्नानागार है।
  • कुछ बड़े आकार के भवन भी मिले हैं, जिनमे 30 कमरे बने होते थे। दो मंजिलें भवनों का निर्माण भी कहीं कहीं मिलता है।
  • स्वच्छता और सफाई का ध्यान रखते हुए घरों के दरवाजे मुख्य सड़क की और न खुलकर पीछे की और खुलते थे।
  • धौलावीरा एक ऐसा नगर है, जिसमें नगर 3 भागों में विभाजित था।
  • मोहनजोदड़ो में विशाल अन्नागार मिला है, जो 71 मीटर लम्बा तथा 15.23 मीटर चौड़ा है। संभवतः यह सार्वजानिक स्थल था।
  • हड़प्पा में भी इस तरह के अन्नागार मिले हैं, पर वे आकार में छोटे हैं। इनकी लम्बाई 23 मीटर तथा चौड़ाई 6.9 मीटर है।

 

राजनीतिक वयवस्था

  • सिन्धु सभ्यता की राजनीतिक वयवस्था के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है। चूँकि हड़प्पावासी वाणिज्य-व्यापार की और अधिक आकर्षित थे इसलिए ऐसा मन जाता है की संभवतः हड़प्पा शासन व्यापारी वर्ग के हाथों में था।
  • व्हीलर ने सिन्धु प्रदेश के लोगों के शासन को मध्यमवर्गीय जनतंत्रात्मक कहा है और उसमे धर्म की भूमिका को प्रमुखता दी है।
  • हंटर के अनुसार मोहनजोदड़ो का शासन राजतंत्रात्मक न होकर जनतंत्रात्मक था।
  • मैके मानते हैं की मोहनजोदड़ो का शासन एक प्रतिनिधि शासक के हाथ में था।
  • स्टुअर्ट पिग्गट ने यहाँ पुरोहित वर्ग का शासन माना है।

 

सामाजिक वयवस्था

  • मातृदेवी की पूजा तथा मुहरों पर अंकित चित्रों से स्पष्ट होता है कि सिन्धु सभ्यता कालीन समाज संभवतः मातृसत्तात्मक था।
  • समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार थी।
  • सिन्धु सभ्यता 4 वर्गों में विभाजित थी-
  1. योद्धा
  2. पुरोहित
  3. व्यापारी
  4. श्रमिक
  • श्रमिकों की स्थिति का आकलन करके व्हीलर ने दास प्रथा के अस्तित्व को स्वीकार किया है।
  • सिन्धु सभ्यता के लोग सूती और ऊनी दोनों प्रकार के वस्त्रों का प्रयोग करते थे।
  • इस सभ्यता के लोग शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन का प्रयोग करते थे।
  • स्त्रियाँ सौन्दर्य पर काफी ध्यान देती थीं। काजल, लिपस्टिक, आइना, कंघी आदि के साक्ष्य हड़प्पा सभ्यता में मिले हैं।
  • आभूषणों का प्रयोग स्त्री और पुरुष दोनों ही करते थे। आभूषणों में चूड़ियाँ, कर्णफूल, हार, अंगूठी, मनके आदि का प्रयोग किया जाता था।
  • हड़प्पाई लागों के मनोरंजन के साधन चौपड़ तथा पासा खेलना, शिकार खेलना, मछली पकड़ना, पशु पक्षियों को लड़ाना आदि थे। धार्मिक उत्सव एवं समारोह समय-समय पर धूम-धाम से मनाये जाते थे।
  • अमीर लोग सोने चांदी, हाथी दांत के हार, कंगन अंगूठी कण के आभूषण प्रयोग करते थे। गरीब लोग सीपियों, हड्डियों, तांबे पत्थर आदि के बने आभूषणों का प्रयोग करते थे।
  • सिन्धु सभ्यता के लोग मृतकों का दाह संस्कार करते थे। मृतकों को जलाने और दफ़नाने दोनों प्रकार के अवशेष मिले हैं।

 

धार्मिक वयवस्था

  • सिन्धु सभ्यता के लोगों की धार्मिक मान्यता के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती है, फिर भी मूर्तियों, मृदभांड आदि के अधर पर इनका अनुमान लगाया जाता है।
  • इस सभ्यता के लोगों का धार्मिक दृष्टिकोण का आधार लौकिक तथा व्यवहारिक था। मूर्तिपूजा का आरंभ संभवतः सिन्धु सभ्यता से ही माना जाता है।
  • सिन्धु सभ्यता के लोग मातृदेवी, पुरुष देवता (पशुपति), लिंग-योनि, पशु, जल आदि की पूजा करते थे।
  • मोहनजोदड़ो से प्राप्त एक मुहर पर तीन मुख वाला पुरुष ध्यान की मुद्रा में बैठा हुआ है। उसके सर पर तीन सींग है। उसके बाएँ ओर एक गैंडा और भैंसा तथा दाएँ ओर एक हाथी, एक व्याघ्र और एक हिरन है। इसे पशुपति शिव की संज्ञा दी गई है।
  • हड़प्पा सभ्यता से स्वास्तिक और चक्र के भी साक्ष्य मिलते हैं। स्वास्तिक और चक्र सूर्य पूजा के प्रतीक थे।
  • कालीबंगा से हवन कुंड प्राप्त हुए हैं, जो धार्मिक विश्वास के द्योतक हैं। लोथा कालीबंगा एवं बनवाली से प्राप्त अग्नि वेदिकाओं से पता चलता है कि इस सभ्यता के लोग अग्नि पूजा करते थे।
  • कुछ मृदभांडों पर नाग की आकृतियाँ प्राप्त हुई हैं, जिससे अनुमान लगाया जाता है की नागपूजा की भी प्रचलन था।
  • हड़प्पा से प्राप्त एक मृणमूर्ति के गर्भ से एक पौधा निकलता दिखाया गया है, जो उर्वरता की देवी का प्रतीक है।

 

आर्थिक सभ्यता

  • सिन्धु सभ्यता की अर्थवयवस्था कृषि प्रधान थी, किन्तु पशुपालन और व्यापार भी प्रचलन में थे।
  • इस सभ्यता के लोग गेंहू, जौ, चावल, कपास, व् सब्जियों का उत्पादन करते थे।
  • सर्वप्रथम कपास के उत्पादनका श्रेय सिन्धु सभ्यता के लोगों को ही प्राप्त है। यूनानियों ने इसे ‘सिडोन’ नाम दिया।
  • हड़प्पाई लोग संभवतः लकड़ी के हलों का प्रयोग करते थे। फसल काटने के लिए पत्थर के हसियों का प्रयोग किया जाता था।
  • पशुपालन कृषि का सहायक व्यवसाय था। लोग गाय, बैल, भैंस, हाथी, ऊंट, भेड़, बकरी और सूअर और कुत्ते को पालतू बनाते थे।
  • वाणिज्य-व्यापार बैलगाड़ी और नावों से संपन्न होता था। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो तथा लोथल सिन्धु सभ्यता के प्रमुख व्यापारिक नगर थे।
  • सिन्धु सभ्यता का व्यापार सिन्धु क्षेत्र तक ही सीमित नहीं था, अपितु मिस्र, मेसोपोटामिया और मध्य एशियाई देशों से भी होता था।
  • सैन्धववासियों का व्यापारिक सम्बन्ध ईरान, अफगानिस्तान, ओमान, सीरिया, बहरीन आदि देशों से भी था। व्यापार मुख्यतः कीमती पत्थरों, धातुओं, सीपियों आदि तक सीमित था।
  • सैन्धव सभ्यता के प्रमुख बंदरगाह- लोथल, रंगपुर सुत्कांगेडोर, सुत्काकोह, प्रभासपाटन आदि थे।

 

हड़प्पा सभ्यता में आयात होने वाली वस्तुएं
वस्तुएं स्थल (प्रदेश)
टिन अफगानिस्तान और ईरान से
चांदी अफगानिस्तान और ईरान से
सीसा अफगानिस्तान, राजस्थान और ईरान से
सेल खड़ी गुजरात, राजस्थान तथा बलूचिस्तान से
सोना ईरान से
तांबा बलूचिस्तान और राजस्थान के खेतड़ी से
लाजवर्द मणि मेसोपोटामिया

 

सैन्धव कला

  • सिन्धु घाटी सभ्यता के लोगों में कला के प्रति स्पष्ट अभिरुचि दिखायी देती है।
  • हड़प्पा सभ्यता की सर्वोत्तम कलाकृतियाँ हैं- उनकी मुहरें, अब तक लगभग 2000 मुहरें प्राप्त हुई हैं। इनमे से अधिकांश मुहरें, लगभग 500, मोहनजोदड़ो से मिली हैं। मुहरों के निर्माण में सेलखड़ी का प्रयोग किया गया है।
  • अधिकांश मुहरों पर लघु लेखों के साथ साथएक सिंगी सांड, भैंस, बाघ, बकरी और हाथी की आकृतियाँ खोदी गयी हैं। सैन्धव मुहरे बेलनाकार, आयताकार एवं वृत्ताकार हैं। वर्गाकार मुद्राएं सर्वाधिक प्रचलित थीं।
  • इस काल में बने मृदभांड भी कला की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं। मृदभांडों पर आम तौर से वृत्त या वृक्ष की आकृतियाँ भी दिखाई देती हैं। ये मृदभांड चिकने और चमकीले होते थे। मृदभांडों पर लाल एवं काले रंग का प्रयोग किया गया है।
  • सिन्धु सभ्यता में भारी संख्या में आग में पकी लघु मुर्तिया मिली हैं, जिन्हें ‘टेराकोटा फिगरिन’ कहा जाता है। इनका प्रयोग या तो खिलौनों के रूप में या तो पूज्य प्रतिमाओं के रूप में होता था।
  • इस काल का शिल्प काफी विकसित था। तांबे के साथ टिन मिलाकर कांसा तैयार किया जाता था।

 

लिपि

  • हड़प्पा की लिपि को अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है। सिन्धु सभ्यता में लगभग 64 मूल चिन्ह एवं 250 से 400 तक आकार है, जो सेलखड़ी से बनी आयताकार मुहरों तथा तांबे की गुरिकाओं पर मिलते हैं।
  • हड़प्पा भाव चित्रात्मक है। उनकी लिखावट क्रमशः दाईं और से बाईं और की जाती थी।
  • बिहार के कुछ विद्वानों अरुण पाठक एवं एन. के. वर्मा ने सिन्धु सभ्यता की लिपियों का संथालों की लिपि से सम्बन्ध स्थापित किया है।उन्होंने संथाल आधिवासियों से अलग-अलग ध्वन्यात्मक संकेतों वाली 216 मुहरें प्राप्त की, जिनके संकेत चिन्ह सिन्धु घाटी में मिली मुहरों से काफी मेल खाते हैं।
  • सिन्धु सभ्यता की लिपि मूल रूप से भारतीय है, इसका पश्चिम एशिया आदि की सभ्यताओं की लिपियों से कोई सम्बन्ध नहीं है।

 

 

स्मरणीय तथ्य

  • मोहनजोदड़ो का अर्थ है- मृतकों का टीला
  • कालीबंगा का अर्थ है- काले रंग की चूड़ियाँ
  • लोथल सबसे महत्वपूर्ण बंदरगाह था।
  • बनवाली से अच्छे किस्म के जौ, सरसों, और टिल मिले हैं
  • अग्निकुंड लोथल और कालीबंगा से प्राप्त हुए हैं।
  • कालीबंगा और बनवली में दो सांस्कृतिक धाराओं प्राक्-हड़प्पा एवं हड़प्पा-कालीन संस्कृति के दर्शन होते हैं।
  • हड़प्पा काल में व्यापार का माध्यम वास्तु विनिमय था।
  • कालीबंगा के मकान कच्ची इंटों से बने थे।
  • चावल के प्रथम साक्ष्य लोथल से प्राप्त हुए हैं।
  • हड़प्पा मुहरों पर सर्वाधिक एक श्रृंगी पशु का अंकन मिलता है।
  • घोड़े की जानकारी मोहनजोदड़ो, लोथल तथा सुरकोटदा से प्राप्त हुई है।
  • स्वास्तिक चिन्ह हड़प्पा सभ्यता की देन है।
  • चन्हूदड़ो एकमात्र पुरास्थल है जहाँ से वक्राकर ईंटें मिली हैं।
  • हड़प्पा सभ्यता का परवर्ती काल रंगपुर तथा राजदी में परिलक्षित होता है।
  • हड़प्पा में अन्नागार गढ़ी से बाहर व मोहनजोदड़ो में गढ़ी के अन्दर मिले हैं।
  • R-37 कब्रिस्तान हड़प्पा से प्राप्त हुआ है।

 

सिन्धु सभ्यता से सम्बंधित पुरास्थल
महत्वपूर्ण पुरास्थल महत्वपूर्ण विशेषताएं
कालीबंगा दुर्गीकृत निचला शहर, भवन निर्माण में कच्ची इंटों का प्रयोग
लोथल बंदरगाह
मोहनजोदड़ो अन्नागार
धौलावीरा साइन बोर्ड, उत्तम जलप्रबंध, नगर तीन भागों में विभाजित
रोपड़ नवपाषाण, ताम्रपाषाण एवं सिन्धु सभ्यता तीनो के अवशेष, मानव के साथ दफनाया कुत्ता
मोहनजोदड़ो कालीबंगा व हड़प्पा के समान नगर योजना
आमरी गैंडे का साक्ष्य

 

 

सिन्धु सभ्यता से सम्बंधित महत्वपूर्ण वस्तुएं
महत्वपूर्ण वस्तुएं प्राप्ति स्थल
तांबे का पैमाना हड़प्पा
सबसे बड़ी ईंट मोहनजोदड़ो
केश प्रसाधन (कंघी) हड़प्पा
वक्राकार ईंटें चन्हूदड़ो
जुटे खेत के साक्ष्य कालीबंगा
मक्का बनाने का कारखाना चन्हूदड़ो, लोथल
फारस की मुद्रा लोथल
बिल्ली के पैरों के अंकन वाली ईंटे चन्हूदड़ो
युगल शवाधन लोथल
मिटटी का हल बनवाली
चालाक लोमड़ी के अंकन वाली मुहर लोथल
घोड़े की अस्थियां सुरकोटदा
हाथी दांत का पैमाना लोथल
आटा पिसने की चक्की लोथल
ममी के प्रमाण लोथल
चावल के साक्ष्य लोथल, रंगपुर
सीप से बना पैमाना मोहनजोदड़ों
कांसे से बनी नर्तकी की प्रतिमा मोहनजोदड़ों

 

सिन्धु सभ्यता के प्रमुख स्थल व खोजकर्ता
स्थल अवस्थिति खोजकर्ता वर्ष नदी / सागर तट
हड़प्पा मांटगोमरी (पाकिस्तान) दयाराम साहनी 1921 रावी
मोहनजोदड़ो लरकाना (पाकिस्तान) राखालदास बनर्जी 1922 सिन्धु
रोपड़ पंजाब यज्ञदत्त शर्मा 1953 सतलज
लोथल अहमदाबाद (गुजरात) रंगानाथ नाथ राव 1954 भोगवा नदी
कालीबंगा गंगानगर (राजस्थान) ए. घोष 1953 घग्घर
चन्हूदड़ो सिंध (पाकिस्तान) एन. जी. मजूमदार 1934 सिन्धु
सुत्कांगेडोर बलूचिस्तान (पाकिस्तान) आरेल स्टाइन 1927 दाश्क
कोटदीजी सिंध (पाकिस्तान) फज़ल अहमद खां 1955 सिन्धु
अलमगीरपुर मेरठ यज्ञदत्त शर्मा 1958 हिंडन
सुरकोटदा कच्छ (गुजरात) जगपति जोशी 1967
रंगपुर कठियावाड़ (गुजरात) माधोस्वरूप वत्स 1953-54 मादर
बालाकोट पाकिस्तान डेल्स 1979 अरब सागर
सोत्काकोह पाकिस्तान अरब सागर
बनवाली हिसार (हरियाणा) आर. एस. बिष्ट 1973-74
धौलावीरा कच्छ (गुजरात) जे.पी. जोशी 1967
पांडा जम्मू-कश्मीर चिनाब
दैमाबाद महाराष्ट्र आर. एस. विष्ट 1990`प्रवरा
देसलपुर गुजरात के. वी. सुन्दराजन 1964
भगवानपुरा हरियाणा जे.पी. जोशी सरस्वती नदी

 

सिन्धु सभ्यता का पतन

  • सिन्धु सभ्यता के पतन के बारे में मतभेद है। विभिन्न विद्वानों ने इसके पतन के कारण इस प्रकार दिए हैं।

 

विद्वान पतन के कारण
जॉन मार्शल प्रशासनिक शिथिलता
गार्डन चाइल्ड व व्हीलर वाह्य एवं आर्यों का आक्रमण
जहन मार्शल, मैके एवं एस.आर. राव बाढ़
आरेल स्टाइन जलवायु परिवर्तन
एम. आर. साहनी एवं आर. एल. रेईक्स जल प्लावन
के.यू. आर. केनेडी प्राकृतिक आपदा
फेयर सर्विस पारिस्थिकी असंतुलन

 

PAHUJA LAW ACADEMY

lecture-3

 

बहुवैकल्पिक प्रश्न :

1) सिंधु घाटी सभ्यता की खोज किस वर्ष हुई?

अ) 1920

ब)  1921

स) 1922

द) 1925

 

2) मोहन जोदड़ो की खोज किसने की थी ?

अ) जॉन मार्शल

ब) दयाराम साहनी

स) राखलदास बनर्जी

द) मेक्समूलर

 

3) हड़प्पा किस नदी के किनारे स्थित है ?

अ) सिंधु

ब) रावी

स) झेलम

द) सरस्वती

 

4) सिंधु घाटी सभ्यता का स्वरूप था ?

अ) ग्रामीण

ब) नगरीय

स) जंगली

द) कबीलाई

 

5) सिंधु सभ्यता का महान स्नानागार कहा से प्राप्त हुआ है ?

अ) हड़प्पा

ब) लोथल

स) कालीबंगा

द) मोहन जोदडो

 

6) सिंधु घाटी सभ्यता मे गोदीबाड़ा (बन्दरगाह) के अवशेष किस जगह से प्राप्त हुए है ?

अ) लोथल

ब) रंगपुर

स) कालीबंगा

द) हड़प्पा

7) सिंधु स्थल कालीबंगा कहा स्थित है ?

अ) हरियाणा

ब) गुजरात

स) राजस्थान

द) पंजाब

 

8) सिंधु घाटी सभ्यता का कोनसा स्थान अब पाकिस्तान मे है ?

अ) कालीबंगा

ब) हड़प्पा

स) दाइमाबाद

द) आलमगीरपुर

 

9) सिन्धु घाटी सभ्यता मे घोड़े के अवशेष कहाँ से मिला है ?
अ) सुरकोटडा
ब) बनावली
स)लोथल
द) कालीबंगा

10)  हडप्पा वासी किस धातु से परिचित नही थे ?
अ) सोना 
ब) चाँदी
स) ताम्बा
द) लोहा

 

11) कपास का उत्पादन सबसे पहले सिंधु क्षेत्र में हुआ जिसे ग्रीक या यूनान के लोग किस नाम से पुकारा ?
अ) सिन्डन
ब) कॉटन
स) दोनों नाम से
द) कोई नहीं
12) स्वतंत्रता के बाद भारत मे सबसे अधिक संख्या मे हडप्पा कालिन स्थल कहा पर खोजें गये हैं?

अ) गुजरात
ब) राजस्थान
स) पंजाब
द) हरियाणा

13) सिन्धु सभ्यता के घर किस से बनाये जाते थे ?

अ) ईटो से

ब) पत्थर से

स) लकड़ी से

द) बांसों से

 

14) सिंधु घाटी के लोग विश्वास करते थे ?

अ) आत्मा ओर ब्रह्म मे

ब) कर्मकांड मे

स) यज्ञ प्रणाली मे

द) मातृशक्ति मे

 

15) प्रसिद्ध नृत्यरत कांसे की स्त्री मूर्ति कहा से प्राप्त हुई है ?

अ) मोहन जोदड़ो

ब) हड़प्पा

स) सुरकोटड़ा

द) धौलावीरा

 

16) धौलावीरा कहा स्थित है ?

अ) हरियाणा

ब) राजस्थान

स) गुजरात

द) पंजाब

 

17) श्रेष्ठ जल प्रबंधन व्यवस्था का साक्ष्य कहा से प्राप्त हुआ है ?

अ) आलमगीरपुर

ब) कालीबंगा

स) धौलावीरा

द) लोथल

 

18) समान्यतः इतिहासकारो के अनुसार सिंधु घाटी सभ्यता के निर्माता थे ?

अ) शक

ब) आर्य

स) कुषाण

द) द्रविड़

 

19) सिंधु घाटी सभ्यता की प्रमुख विशेषता नहीं है ?

अ) नगर नियोजन

ब) मातृ सत्तात्मक

स) व्यापार वाणिज्य प्रधान

द) ग्रामीण सभ्यता

 

20) मोहन जोदड़ो  को किस एक अन्य नाम से जाना जाता है ?
अ) जिवितो का टिला
ब) कंकालो का टिला
स) दासो का टिला
द) मृतको का टिला

HISTORY

LECTURE – 4

(हिन्दी माध्यम)

मुख्य परीक्षा

  1. वेदांग कितने है?
  2. उपनयन संस्कार क्या है?
  3. आर्यो का व्यापार का माध्यम क्या था?

उत्तर वैदिक काल में स्त्रियों की दशा का विश्लेषण कीजिये

HISTORY

LECTURE – 4

(हिन्दी माध्यम)

 

ऋग्वैदिक काल (1500 ई.पू. से 1000 ई.पू.)

 

सिन्धु सभ्यता के पतन के बाद आर्य सभ्यता का उदय हुआ। आर्यों की सभ्यता वैदिक सभ्यता (Vedic civilization) भी कहलाती है। वैदिक सभ्यता दो काल खंडो में विभक्त है – ऋगवैदिक सभ्यता और उत्तर वैदिक सभ्यता। ऋगवैदिक सभ्यता के ज्ञान का मूल स्रोत ऋगवेद है, इसलिए यह सभ्यता उसी नाम से अभिहित है। ऋग्वैदिक काल से अभिप्राय उस काल से है जिसका विवेचन ऋग्वेद में मिलता है। इस काल के अध्ययन के लिए दो प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं।

 

वैदिक सभ्यता के निर्माता

  • वैदिक सभ्यता के संस्थापक आर्य थे। आर्यों का आरंभिक जीवन मुख्यतः पशुचारण था। वैदिक सभ्यता मूलतः ग्रामीण थी।
  • वैदिक सभ्यता की जानकारी के स्रोत वेद हैं। इसलिए इसे वैदिक सभ्यता के नाम से जाना जाता है।
  • आर्यों ने ऋग्वेद की रचना की, जिसे मानव जाती का प्रथम ग्रन्थ माना जाता है। ऋग्वेद द्वारा जिस काल का विवरण प्राप्त होता है उसे ऋग्वैदिक काल कहा जाता है।
  • ऋग्वेद भारत-यूरोपीय भाषाओँ का सबसे पुराना निदर्श है। इसमें अग्नि, इंद्र, मित्र, वरुण, आदि देवताओं की स्तुतियाँ संगृहित हैं।
  • वैदिक सभ्यता के संस्थापक आर्यों का भारत आगमन लगभग 1500 ई.पू. के आस-पास हुआ। हालाँकि उनके आगमन का कोई ठोस और स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है।
  • आर्यों के मूल निवास के सन्दर्भ में विभिन्न विद्वानों ने अलग-अलग विचार व्यक्त किये हैं।
  • अस्तों मा सद्गमय’वाक्य ऋग्वेद से लिया गया है।

 

विद्वान आर्यों का मूल निवास स्थान
प्रो. मैक्समूलर मध्य एशिया
पं. गंगानाथ झा ब्रह्मर्षि देश
गार्डन चाइल्ड दक्षिणी रूस
बाल गंगाधर तिलक उत्तरी ध्रुव
गाइल्स हंगर एवं डेन्यूब नदी की घाटी
दयानंद सरस्वती तिब्बत
डॉ. अविनाश चन्द्र सप्त सैन्धव प्रदेश
प्रो. पेंक जर्मनी के मैदानी भाग

 

  • अधिकांश विद्वान् प्रो. मैक्समूलर के विचारों से सहमत हैं कि आर्य मूल रूप से मध्य एशिया के निवासी थे।

भौगोलिक विस्तार

  • ऋग्वेद में नदियों का उल्लेख मिलता है। नदियों से आर्यों के भौगोलिक विस्तार का पता चलता है।
  • भारत में आर्य सर्वप्रथम सप्तसैंधव प्रदेश में आकर बसे इस प्रदेश में प्रवाहित होने वाली सात नदियों का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है।
  • ऋग्वैदिक काल की सबसे महत्वपूर्ण नदी सिन्धु का वर्णन कई बार आया है। ऋग्वेद में गंगा का एक बार और यमुना का तीन बार उल्लेख मिलता है।
  • ऋग्वेद की सबसे पवित्र नदी सरस्वती थी। इसे नदीतमा (नदियों की प्रमुख) कहा गया है।
  • सप्तसैंधव प्रदेश के बाद आर्यों ने कुरुक्षेत्र के निकट के प्रदेशों पर भी कब्ज़ा कर लिया, उस क्षेत्र को ‘ब्रह्मवर्त’ कहा जाने लगा। यह क्षेत्र सरस्वती व दृशद्वती नदियों के बीच पड़ता है।
ऋग्वैदिक नदियाँ
प्राचीन नाम आधुनिक नाम
शुतुद्रि सतलज
अस्किनी चिनाब
विपाशा व्यास
कुभा काबुल
सदानीरा गंडक
सुवस्तु स्वात
पुरुष्णी रावी
वितस्ता झेलम
गोमती गोमल
दृशद्वती घग्घर
कृमु कुर्रम

 

  • गंगा एवं यमुना के दोआब क्षेत्र एवं उसके सीमावर्ती क्षेत्रो पर भी आर्यों ने कब्ज़ा कर लिया, जिसे ‘ब्रह्मर्षि देश’ कहा गया।
  • आर्यों ने हिमालय और विन्ध्याचल पर्वतों के बीच के क्षेत्र पर कब्ज़ा करके उस क्षेत्र का नाम ‘मध्य देश’ रखा।
  • कालांतर में आर्यों ने सम्पूर्ण उत्तर भारत में अपने विस्तार कर लिया, जिसे ‘आर्यावर्त’ कहा जाता था।

 

राजनीतिक व्यवस्था

  • भौगोलिक विस्तार के दौरान आर्यों को भारत के मूल निवासियों, जिन्हें अनार्य कहा गया है से संघर्ष करना पड़ा।
  • दशराज्ञ युद्ध में प्रत्येक पक्ष में आर्य एवं अनार्य थे। इसका उल्लेख ऋग्वेद के 10वें मंडल में मिलता है।
  • यह युद्ध रावी (पुरुष्णी) नदी के किनारे लड़ा गया, जिसमे भारत के प्रमुख काबिले के राजा सुदास ने अपने प्रतिद्वंदियों को पराजित कर भारत कुल की श्रेष्ठता स्थापित की।
  • ऋग्वेद में आर्यों के पांच कबीलों का उल्लेख मिलता है- पुरु, युद्ध, तुर्वसु, अजु, प्रह्यु। इन्हें ‘पंचजन’ कहा जाता था।
  • ऋग्वैदिक कालीन राजनीतिक व्यवस्था, कबीलाई प्रकार की थी। ऋग्वैदिक लोग जनों या कबीलों में विभाजित थे। प्रत्येक कबीले का एक राजा होता था, जिसे ‘गोप’ कहा जाता था।
  • ऋग्वेद में राजा को कबीले का संरक्षक (गोप्ता जनस्य) तथा पुरन भेत्ता (नगरों पर विजय प्राप्त करने वाला) कहा गया है।
  • राजा के कुछ सहयोगी दैनिक प्रशासन में उसकी सहायता कटे थे। ऋग्वेद में सेनापति, पुरोहित, ग्रामजी, पुरुष, स्पर्श, दूत आदि शासकीय पदाधिकारियों का उल्लेख मिलता है।
  • शासकीय पदाधिकारी राजा के प्रति उत्तरदायी थे। इनकी नियुक्ति तथा निलंबन का अधिकार राजा के हाथों में था।
  • ऋग्वेद में सभा, समिति, विदथ जैसी अनेक परिषदों का उल्लेख मिलता है।
  • ऋग्वैदिक काल में महिलाएं भी राजनीती में भाग लेती थीं। सभा एवं विदथ परिषदों में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी थी।
  • सभा श्रेष्ठ एवं अभिजात्य लोगों की संस्था थी। समिति केन्द्रीय राजनितिक संस्था थी। समिति राजा की नियुक्ति, पदच्युत करने व उस पर नियंत्रण रखती थी। संभवतः यह समस्त प्रजा की संस्था थी।
  • ऋग्वेद में तत्कालीन न्याय वयवस्था के विषय में बहुत कम जानकारी मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है की राजा तथा पुरोहित न्याय व्यवस्था के प्रमुख पदाधिकारी थे।
  • वैदिक कालीन न्यायधीशों को ‘प्रश्नविनाक’ कहा जाता था।
  • न्याय वयवस्था वर्ग पर आधारित थी। हत्या के लिए 100 ग्रंथों का दान अनिवार्य था।
  • राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था, जबकि भूमि का स्वामित्व जनता में निहित था।
  • ग्राम, विश, और जन शासन की इकाई थे। ग्राम संभवतः कई परिवारों का समूह होता था।
  • विश कई गावों का समूह था। अनेक विशों का समूह ‘जन’ होता था।
  • विदथ आर्यों की प्राचीन संस्था थी।

 

वैदिक कालीन शासन के पदाधिकारी
पुरोहित राजा का मुख्य परामर्शदाता
कुलपति परिवार का प्रधान
व्राजपति चारागाह का अधिकारी
स्पर्श गुप्तचर
पुरुष दुर्ग का अधिकारी
सेनानी सेनापति
विश्वपति विश का प्रधान
ग्रामणी ग्राम का प्रधान
दूत सुचना प्रेषित करना
उग्र पुलिस

 

 

 

 

 

 

सामाजिक व्यवस्था

  • ऋग्वैदिक समाज पितृसत्तात्मक था। पिता सम्पूर्ण परिवार, भूमि संपत्ति का अधिकारी होता था।
  • पितृ-सत्तात्मक समाज के होते हुए इस काल में महिलाओं का यथोचित सम्मान प्राप्त था। महिलाएं भी शिक्षित होती थीं।
  • प्रारंभ में ऋग्वैदिक समाज दो वर्गों आर्यों एवं अनार्यों में विभाजित था। किन्तु कालांतर में जैसा की हम ऋग्वेद के दशक मंडल के पुरुष सूक्त में पाए जाते हैं की समाज चार वर्गों- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र; मे विभाजित हो गया।
  • संयुक्त परिवार प्रथा प्रचलन में थी।
  • विवाह व्यक्तिगत तथा सामाजिक जीवन का प्रमुख अंग था। अंतरजातीय विवाह होता था, लेकिन बाल विवाह का निषेध था। विधवा विवाह की प्रथा प्रचलन में थी।
  • पुत्र प्राप्ति के लिए नियोग की प्रथा स्वीकार की गयी थी। जीवन भर अविवाहित रहने वाली लड़कियों को ‘अमाजू कहा जाता था।
  • सती प्रथा और पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था।
  • ऋग्वैदिक काल में दास प्रथा का प्रचलन था, परन्तु यह प्राचीन यूनान और रोम की भांति नहीं थी।
  • आर्य मांसाहारी और शाकाहारी दोनों प्रकार का भोजन करते थे।
  • आर्यों के वस्त्र सूत, ऊन तथा मृग-चर्म के बने होते थे।
  • ऋग्वैदिक काल के लोगों में नशीले पेय पदार्थों में सोम और सुरा प्रचलित थे।
  • मृतकों को प्रायः अग्नि में जलाया जाता था, लेकिन कभी-कभी दफनाया भी जाता था।

 

ऋग्वैदिक धर्म

  • ऋग्वैदिक धर्म की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता इसका व्यवसायिक एवं उपयोगितावादी स्वरुप था।
  • ऋग्वैदिक लोग एकेश्वरवाद में विश्वास करते थे।
  • आर्यों का धर्म बहुदेववादी था। वे प्राकृतिक भक्तियों-वायु, जल, वर्षा, बादल, अग्नि और सूर्य आदि की उपासना किया करते थे।
  • ऋग्वैदिक लोग अपनी भौतिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए यज्ञ और अनुष्ठान के माध्यम से प्रकृति का आह्वान करते थे।
  • ऋग्वेद में देवताओं की संख्या 33 करोड़ बताई गयी है। आर्यों के प्रमुख देवताओं में इंद्र, अग्नि, रूद्र, मरुत, सोम और सूर्य शामिल थे।
  • ऋग्वैदिक काल का सबसे महत्वपूर्ण देवता इंद्र है। इसे युद्ध और वर्षा दोनों का देवता माना गया है। ऋग्वेद में इंद्र का 250 सूक्तों में वर्णन मिलता है।
  • इंद्र के बाद दूसरा स्थान अग्नि का था। अग्नि का कार्य मनुष्य एवं देवता के बीच मध्यस्थ स्थापित करने का था। 200 सूक्तों में अग्नि का उल्लेख मिलता है।
  • ऋग्वैदिक काल में मूर्तिपूजा का उल्लेख नहीं मिलता है।
  • देवताओं में तीसरा स्थान वरुण का था। इसे जाल का देवता माना जाता है। शिव को त्रयम्बक कहा गया है।

 

 

 

ऋग्वैदिक देवता

  • आकाश के देवता- सूर्य, घौस, मिस्र, पूषण, विष्णु, ऊषा और सविष्ह।
  • अंतरिक्ष के देवता- इन्द्र, मरुत, रूद्र और वायु।
  • पृथ्वी के देवता- अग्नि, सोम, पृथ्वी, वृहस्पति और सरस्वती।
  • पूषण ऋग्वैदिक काल में पशुओं के देवता थे, जो उत्तर वैदिक काल में शूद्रों के देवता बन गए।
  • ऋग्वैदिक काल में जंगल की देवी को ‘अरण्यानी’ कहा जाता था।
  • ऋग्वेद में ऊषा, अदिति, सूर्या आदि देवियों का उल्लेख मिलता है।
  • प्रसिद्द गायत्री मन्त्र, जो सूर्य से सम्बंधित देवी सावित्री को संबोधित है, सर्वप्रथम ऋग्वेद में मिलता है।

 

ऋग्वैदिक अर्थव्यवस्था

  1. कृषि एवं पशुपालन
  • कृषि
    सर्वप्रथम शतपथ ब्राम्हण में कृषि की समस्त प्रक्रियाओं का उल्लेख मिलता है।
  • ऋग्वेद के प्रथम और दसम मंडलों में बुआई, जुताई, फसल की गहाई आदि का वर्णन है।
  • ऋग्वेद में केवल यव (जौ) नामक अनाज का उल्लेख मिलता है।
  • ऋग्वेद के चौथे मंडल में कृषि का वर्णन है।
  • परवर्ती वैदिक साहित्यों में ही अन्य अनाजों जैसे ग गोधूम(गेंहू), ब्रीही (चावल) आदि की चर्चा की गई है।
  • काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा हल खींचे जाने का, अथर्ववेद में वर्षा, कूप एवं नाहर का तथा यजुर्वेद में हल का ‘ सीर ‘ के नाम से उल्लेख है। उस काल में कृत्रिम सिंचाई की व्यवस्था भी थी।
  • भूमि निजी संपत्ति नहीं होती थी उस पर सामूहिक अधिकार था।
  • घोडा आर्यों का अति उपयोगी पशु था।
  • आर्यों का मुख्य व्यवसाय पशुपालन था। वे गाय, बैल, भैंस घोड़े और बकरी आदि पालते थे।
  • पशुओं का चारण ही उनकी आजीविका का प्रमुख साधन था। गाय ही विनिमय का प्रमुख साधन थी।
  • ऋग्वैदिक काल में भूमिदान या व्यक्तिगत भू-स्वामित्व की धारणा विकसित नही हुई थी।

व्यापार
आरम्भ में अत्यन्त सीमित व्यापार प्रथा का प्रचालन था।

  • व्यापार विनिमय पद्धति पर आधारित था।
  • समाज का एक वर्ग ‘पाणी’ व्यापार किया करते थे। राजा को नियमित कर देने या भू-राजस्व देने की प्रथा नहीं थी।
  • राजा को स्वेच्छा से भाग या नजराना दिया जाता था। पराजित कबीला भी विजयी राजा को भेंट देता था। अपने धन को राजा अपने अन्य साथियों के बीच बांटता था।धातु एवं सिक्के : ऋग्वेद में उल्लेखित धातुओं में सर्वप्रथम धातू, अयस (ताँबा या कांसा) था। वे सोना (हिरव्य या स्वर्ण) एवं चांदी से भी परिचित थे। लेकिन ऋग्वेद में लोहे का उल्लेख नहीं है। ‘ निष्क ‘ संभवतः सोने का आभूषण या मुद्रा था जो विनिमय के काम में भी आता था।
    उद्योग
    ऋग्वैदिक काल के उद्योग घरेलु जरूरतों के पूर्ति हेतु थे।
  • बढ़ई एवं धूकर का कार्य अत्यन्त महत्वपूर्व था। अन्य प्रमुख उद्योग वस्त्र, बर्तन, लकड़ी एवं चर्म कार्य था।
  • स्त्रियाँ भी चटाई बनने का कार्य करतीं थीं।
  • सूदखोर को ‘वेकनाट’ कहा जाता था। क्रय विक्रय के लिए विनिमय प्रणाली का अविर्भाव हो चुका था। गाय और निष्क विनिमय के साधन थे।
  • ऋग्वेद में नगरों का उल्लेख नहीं मिलता है। इस काल में सोना तांबा और कांसा धातुओं का प्रयोग होता था।
  • ऋण लेने व बलि देने की प्रथा प्रचलित थी, जिसे ‘कुसीद’ कहा जाता था।
  • ऋग्वेद में बढ़ई, सथकार, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार, आदि कारीगरों के उल्लेख से इस काल के व्यवसाय का पता चलता है।
  • तांबे या कांसे के अर्थ में ‘आयस’ का प्रयोग यह संकेत करता है, की धातु एक कर्म उद्योग था।
  • ऋग्वेद में वैद्य के लिए ‘भीषक’ शब्द का प्रयोग मिलता है। ‘करघा’ को ‘तसर’ कहा जाता था। बढ़ई के लिए ‘तसण’ शब्द का उल्लेख मिलता है।
  • मिटटी के बर्तन बनाने का कार्य एक व्यवसाय था।

 

स्मरणीय तथ्य

  • जब आर्य भारत में आये, तब वे तीन श्रेणियों में विभाजित थे- योद्धा, पुरोहित और सामान्य। जन आर्यों का प्रारंभिक विभाजन था। शुद्रो के चौथे वर्ग का उद्भव ऋग्वैदिक काल के अंतिम दौर में हुआ।
  • इस काल में राजा की कोई नियमित सेना नहीं थी। युद्ध के समय संगठित की गयी सेना को ‘नागरिक सेना’ कहते थे।
  • ऋग्वेद में किसी परिवार का एक सदस्य कहता है- मैं कवि हूँ, मेरे पिता वैद्य हैं और माता चक्की चलने वाली है, भिन्न भिन्न व्यवसायों से जीवकोपार्जन करते हुए हम एक साथ रहते हैं।
  • ‘हिरव्य’ एवं ‘निष्क’ शब्द का प्रयोग स्वर्ण के लिए किया जाता था। इनका उपयोग द्रव्य के रूप में भी किया जाता था। ऋग्वेद में ‘अनस’ शब्द का प्रयोग बैलगाड़ी के लिए किया गया है। ऋग्वैदिक काल में दो अमूर्त देवता थे, जिन्हेंश्रद्धा एवं मनु कहा जाता था।
  • वैदिक लोगों ने सर्वप्रथ तांबे की धातु का इस्तेमाल किया।
  • ऋग्वेद में सोम देवता के बारे में सर्वाधिक उल्लेख मिलता है।
  • अग्नि को अथिति कहा गया है क्योंकि मातरिश्वन उन्हें स्वर्ग से धरती पर लाया था।
  • यज्ञों का संपादन कार्य ‘ऋद्विज’ करते थे। इनके चार प्रकार थे- होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्म।
  • संतान की इचुक महिलाएं नियोग प्रथा का वरण करती थीं, जिसके अंतर्गत उन्हें अपने देवर के साथ साहचर्य स्थापित करना पड़ता था।
  • ‘पणि’ व्यापार के साथ-साथ मवेशियों की भी चोरी करते थे। उन्हें आर्यों का शत्रु माना जाता था

 

 

 

 

वैदिक साहित्य

  • ऋग्वेद स्तुति मन्त्रों का संकलन है। इस मंडल में विभक्त 1017 सूक्त हैं। इन सूत्रों में 11 बालखिल्य सूत्रों को जोड़ देने पर कुल सूक्तों की संख्या 1028 हो जाती है।
ऋग्वेद के रचयिता
मण्डल ऋषि
द्वितीय गृत्समद
तृतीय विश्वामित्र
चतुर्थ धमदेव
पंचम अत्री
षष्ट भारद्वाज
सप्तम वशिष्ठ
अष्टम कण्व तथा अंगीरस

 

  • दशराज्ञ युद्ध का वर्णन ऋग्वेद में मिलता है। यह ऋग्वेद की सर्वधिक प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना मानी जाती है।
  • ऋग्वेद में 2 से 7 मण्डलों की रचना हुई, जो गुल्समद, विश्वामित्र, वामदेव, अभि, भारद्वाज और वशिष्ठ ऋषियों के नाम से है।
  • ऋग्वेद का नाम मंडल पूरी तरह से सोम को समर्पित है।
  • प्रथम एवं दसवें मण्डल की रचना संभवतः सबसे बाद में की गयी। इन्हें सतर्चिन कहा जाता है।
  • गायत्री मंत्र ऋग्वेद के दसवें मंडल के पुरुष सूक्त में हुआ है।
  • 10वें मंडल में मृत्यु सूक्त है, जिसमे विधवा के लिए विलाप का वर्णन है।
  • ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 95वें सूक्त में पुरुरवा,ऐल और उर्वशी बुह संवाद है।
  • ऋग्वेद के नदी सूक्त में व्यास (विपाशा) नदी को ‘परिगणित’ नदी कहा गया है।

 

उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.)

भौगोलिक विस्तार

  • 1500 ई.पू. से 1000 ई. पू. तक के काल को ऋग्वैदिक काल कहा जाता है एवं 1000 ई. पू. से 600 ई.पू. तक के काल को ‘उत्तर वैदिक काल’ कहा जाता है।
  • उत्तर वैदिक काल में ऋग्वेद को छोड़कर अन्य वेदों, ब्राह्मण, अरण्यक एवं उपनिषदों की रचना की गई।
  • इस काल में तीन वेदों सामवेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद के अतिरिक्त ब्राह्मण, अरण्यक, उपनिषद और वेदांशो की रचना हुई। ये सभी ग्रन्थ उत्तर वैदिक काल के साहित्यिक स्रोत माने जाते हैं।
  • इस काल के प्राप्त बर्तनों को धूसर मृदभांड कहा जाता है। चित्रित धूसर मृद्भाण्ड इस काल की विशिष्टता थी, क्योंकि यहाँ के निवासी मिट्टी के चित्रित और भूरे रंग के कटोरों तथा थालियों का प्रयोग करते थे।
  • इस काल मेंलोहे के प्रयोग ने समाजिक-आर्थिक क्रांति पैदा कर दी।
  • उत्तर वैदिक काल में आर्यो का विस्तार अधिक क्षेत्र पर इसलिए हो गया क्योंकि अब वे लोहे के हथियार एवं अश्वचालित रथ का उपयोग जान गए थे।
  • उत्तर वैदिक काल में आर्यों ने अपने क्षेत्र का विस्तार किया और गंगा के आगे बढ़ते हुए पूर्वी प्रदेशों में निवास करने लगे।
  • दिल्ली और दोआब के उपरी भाग पर अधिकार करते हुए बरेली, बदायूं, फर्रुखाबाद तक पहुँच गए और हस्तिनापुर को अपनी राजधानी बनाया, जो उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में स्थित है।
  • मगध में निवास करने वाले लोगों को अथर्ववेद में ‘व्रात्य’ कहा गया है। ये प्राकृत भाषा बोलते थे।
  • विदेथ माधव कला का उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में मिलता है। जो आर्यों के गंगा नदी के पूर्व की ओर विस्तार का प्रतीक है।

 

राजनीतिक व्यवस्था

  • ऐतरेय ब्राह्मण में वर्णित शासन पद्धतियाँ

 

स्थिति शासन का नाम शासन का प्रधान
पूर्व साम्राज्य सम्राट
मध्य राज्य राजा
पश्चिमी स्वराज्य स्वराट
उत्तर वैराज्य विराट
दक्षिण भोज्य भोज

 

  • शतपथ ब्राह्मण ने पंचालों को वैदिक सभ्यता का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि कहा।
  • अथर्ववेद में परिक्षित को मृत्यु लोक का देवता कहा गया है।
  • राजा की दैवीय उत्पत्ति का सिद्धांत सर्वप्रथम ऐतरेय ब्राह्मण में मिलता है।
  • उत्तर वैदिक काल में राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था और सशक्त हुई।
  • इस काल में राज्य का आकार बढ़ने से राजा का महत्त्व बढ़ा और उसके अधिकारों का विस्तार हुआ। अब राजा को सम्राट, एकराट और अधिराज आदि नामों से जाना जाने लगा।
  • इस काल में राजा का पद वंशानुगत हो गया।
  • राष्ट्र’शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम उत्तर वैदिक काल में ही किया गया।
  • पुनर्जन्मके सिद्धांत का सर्वप्रथम वर्णन शतपथ ब्राह्मण में किया गया।
  • उत्तर वैदिक में संस्थाओं, सभा और समिति का अस्तित्व कायम रहा किन्तु विदथ का उल्लेख नहीं मिलता है।
  • उत्तर वैदिक काल में ‘सभा’ में महिलाओं का प्रवेश निषिद्ध हो गया।
  • वैदिक कालीन शासन की सबसे बड़ी इकाई जन का स्थान जनपद ने ले लिया।
  • यजुर्वेद में राज्य के उच्च पदाधिकारियों को ‘रत्नीय’ कहा जाता था। ये राजपरिषद के सदस्य होते थे।
  • ‘रत्नीय’ की संख्या 12 बतायी गयी है। रत्नियों को सूची में, राजा के सम्बन्धी, मंत्री, विभागाध्यक्ष एवं दरबारी आते थे।
  • उत्तर वैदिक काल में त्रिककुद, कैञ्ज तथा मैनाम (हिमालय क्षेत्र में स्थित) पर्वतों का उल्लेख भी मिलता है।

 

 

सेनानी सेनापति
सूत राजा का सारथी
ग्रामणी ग्राम का मुखिया
भाग दुक कर संग्रहकर्ता
संगृहीता कोषाध्यक्ष
अक्षवाय पासे के खेल में राजा का सहयोगी
क्षता प्रतिहारी
गोविकर्ता जंगल विभाग का प्रधान
पालागल विदूषक
महिषि मुख्य रानी
पुरोहित धार्मिक कृत्य करने वाला
युवराज राजकुमार

 

  • सभा को अथर्ववेद में नरिष्ठा कहा गया है।
  • इस काल में राजा के प्रभाव में वृद्धि के साथ सभा और समिति का महत्त्व घट गया।
  • ऋग्वैदिक काल में बलि एक स्वेच्छाकारी कर था, जो की उत्तर वैदिक काल में नियमित कर बन गया।
  • अथर्ववेद के अनुसार राजा को आय का 16वां भाग मिलता था।

 

सामाजिक व्यवस्था

  • उत्तर वैदिक काल में समाज स्पष्ट रूप से चार वर्णों में विभक्त था- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
  • इस काल में ब्राह्मणों ने समाज में अपनी श्रेष्ठता स्थापित कर ली थी।
  • क्षत्रियों ने योद्धा वर्ग का प्रतिनिधित्व किया। इन्हें जनता का रक्षक माना गया। राजा का चुनाव इसी वर्ग से किया जाता था।
  • वैश्यों ने व्यापार, कृषि और विभिन्न दस्तकारी के धंधे ऋग्वैदिक काल से ही अपना लिए थे और उत्तर वैदिक काल में एक प्रमुख करदाता बन गए थे।
  • शूद्रों का काम तीनों उच्च वर्ग की सेवा करना था। इस वर्ग के सभी लोग श्रमिक थे।
  • उत्तर वैदिक काल में तीन उच्च वर्गों और शूद्रों के मध्य स्पष्ट विभाजन रेखा उपनयन संस्कार के रूप में देखने को मिलती है।
  • स्त्रियों को सामान्यतः निम्न दर्जा दिया जाने लगा।समाज में स्त्रियों को सम्मान प्राप्त था, परन्तु ऋग्वैदिक काल की अपेक्षा इसमें कुछ गिरावट आ गयी थी। लड़कियों को उच्च शिक्षा दी जाती थी। ऐतरेय ब्राह्मण में पुत्री को कृपष कहा गया है।
  • पारिवारिक जीवन ऋग्वेद के समान था। समाज पित्रसत्तात्मक था, जिसका स्वामी पिता होता था। इस काल में सती प्रथा के उद्भव का पता चलता है, लेकिन इसका प्रचलन बड़े पैमाने पर नहीं था। विधवा विवाह का प्रमाण नहीं मिलता है।
  • उत्तर वैदिक काल में गोत्र व्यवस्था स्थापित हुई। गोत्र शब्द का अर्थ है- वह स्थान जहाँ समूचे कुल के गोधन को एक साथ रखा जाता था। परन्तु बाद में इस शब्द का अर्थ एक मूल पुरुष का वंशज हो गया।
  • उत्तर वैदिक काल में केवल तीन आश्रमों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ तथा वानप्रस्थ की जानकारी मिलती है, चौथे आश्रम सन्यास की अभी स्पष्ट स्थापना नहीं हुई थी।
  • सर्वप्रथम चारों आश्रमों का उल्लेख जाबलो उपनिषद में मिलता है।

 

उत्तर वैदिक कालीन अर्थव्यवस्था

कृषि एवं पशुपालन

  • उत्तर वैदिक ग्रन्थों में लोहे के लिए लौह अयस एवं कृष्ण शब्द का प्रयोग हुआ है। अतरंजीखेड़ा में पहली बार कृषि से सम्बन्धित लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं।
  • उत्तर वैदिक काल में आर्यों का मुख्य व्यवसाय कृषि बन गया। शतपथ ब्राह्मण में कृषि की चारों क्रियाओं-जुताई, बुनाई, कटाई तथा मड़ाई का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद में पृथुवैन्य को हल एवं कृषि का अविष्कारक कहा गया है।
  • पशुपालन का महत्व कायम था। गाय और घोड़ा अभी भी आर्यों के लिए उपयोगी थे। वैदिक साहित्यों से पता चलता है की लोग देवताओं से पशु की वृद्धि के लिए प्रार्थना करते थे।
  • यव (गौ), व्रीहि (धान), माड़ (उड़द), गुदग (मूंग), गोधूम (गेंहू), मसूर आदि खाद्द्यानों का वर्णन यजुर्वेद में मिलता है।
  • काठक संहिता में 24 बैलों द्वारा हल खींचने का उल्लेख मिलता है।

 

वाणिज्य-व्यापार

  • उत्तर वैदिक काल में जीवन में स्थिरता आ जाने के बाद वाणिज्य एवं व्यापार का तीव्र गति से विकास हुआ।
  • इस काल के आर्य सामुद्रिक व्यापार से परिचित हो चुके थे।
  • शतपथ ब्राह्मण में वाणिज्य व्यापार और सूद पर रुपये देने वाले ‘बोहरे’ का उल्लेख मिलता है।
  • उत्तर वैदिक काल में मुद्रा का प्रचलन हो चुका था। परन्तु सामान्य लेन-देन में या व्यापार में वस्तु विनिमय का प्रयोग किया जाता था।
  • निष्क, शतमान, कृष्णल और पाद मुद्रा के प्रकार थे।
  • ऐतरेय ब्राह्मण में उल्लिखित ‘श्रेष्ठी’ तथा वाजसनेयी संहिता में उल्लिखित ‘गण या गणपति’ शब्द का प्रयोग संभवतः व्यापारिक संगठन के लिए किया गया है।
  • स्वर्ण तथा लोहे के अतिरिक्त इस युग के आर्य टिन, तांबा, चांदी और सीसा से भी परिचित हो चुके थे।

 

उद्योग एवं व्यवसाय

  • उद्योग और विभिन्न प्रकार के शिल्पों का उदय उत्तर वैदिक कालीन अर्थव्यवस्था की अन्य विशेषता थी।
  • वाजसनेयी संहिता तथा तैत्तरीय ब्राह्मण में विभिन्न व्यवसायों की लम्बी सूची मिलती है।
  • उत्तर वैदिक काल में अनेक व्यवसायों के विवरण मिलते हैं, जिनमें धातु शोधक, रथकार, बढ़ई, चर्मकार, स्वर्णकार, कुम्हार आदि का उल्लेख मिलता है।
  • इस काल में वस्त्र निर्माण उद्योग एक प्रमुख उद्योग था। कपास का उल्लेख नहीं मिलता। उर्ण (ऊन), शज (सन) का उल्लेख उत्तर वैदिक काल में मिलता है।
  • बुनाई का काम बड़े पैमाने पर होता था। संभवतः यह काम स्त्रियाँ करती थीं। रंगसाजी एवं कढ़ाई का काम भी स्त्रियाँ करती थीं।
  • सिलाई हेतु सूची (सुई) का उल्लेख मिलता है।
  • उत्तर वैदिक काल में मृदभांड निर्माण कार्य भी व्यवसाय का रूप ले चूका था। इस काल के लोगों में लाल मृदभांड अधिक प्रचलित था।
  • धातु शिल्प उद्योग बन चुका था। इस युग में धातु गलने का उद्योग बड़े पैमाने पर होता था। संभवतः तांबे को गलाकर विभिन्न प्रकार के उपकरण व वस्तुएं बनायीं जाती थीं।

 

धार्मिक व्यवस्था

  • उत्तर वैदिक काल में धर्म का प्रमुख आधार यज्ञ बन गया, जबकि इसके पूर्वज ऋग्वैदिक काल में स्तुति और आराधना को महत्व दिया जाता था।
  • उत्तर वैदिक काल में मूर्ति पूजा के आरंभ होने के कुछ संकेत मिलते हैं।
  • यज्ञ आदि कर्मकांडो का महत्त्व इस युग में बढ़ गया था। इसके साथ ही आनेकानेक मन्त्र विधियाँ एवं अनुष्ठान प्रचलित हुए।
  • उपनिषदों में स्पष्ट रूप से यज्ञों तथा कर्मकांडों की निंदा की गयी।
  • इस काल मेंऋग्वैदिक देवता इंद्र, अग्नि और वायु रूप महत्वहीन हो गए। इनका स्थान प्रजापति, विष्णु और रूद्र ने ले लिया।
  • प्रजापति को सर्वोच्च देवता कहा गया, जबकि परीक्षित को मृत्युलोक का देवता कहा गया।
  • उत्तर वैदिक काल में ही वासुदेव साम्प्रदाय एवं6 दर्शनों – सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा व उत्तर मीमांसा का अविर्भाव हुआ।
  • सांख्य दर्शन भारत के सभी दर्शनों में सबसे पुराना था. इसके अनुसार मूल तत्व 25 हैं, जिनमें पहला तत्व प्रकृति है।

 

दर्शन प्रवर्तक
चार्वाक चार्वाक
योग पतंजलि
सांख्य कपिल
न्याय गौतम
पूर्वमीमांसा जैमनी
उत्तरमीमांसा बादरायण
वैशेषिक कणाक या उलूम

 

 

 

 

 

 

 

 

 

  • गृहस्थ आर्यों के लिए पंच महायज्ञ का अनुष्ठान आवश्यक था। पांच महायज्ञ निम्न हैं-

 

ब्रह्मयज्ञ प्राचीन ऋषियों के प्रति कृतज्ञता
देवयज्ञ हवन द्वारा देवताओं की पूजा अर्चना
पितृयज्ञ पितरों का वर्णन
नृपश अथिति संस्कार
भूत यज्ञ की बलि समस्त जीवों के प्रति कृतज्ञता

 

  • उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में कर्मकांड एवं अनुष्ठानों के विरोध में वैचारिक आन्दोलन शुरू हुआ। इस आन्दोलन की शुरुआत उपनिषादों ने की।
  • उपनिषदों में पुनर्जन्म,  मोक्ष और कर्म के सिद्धांतों की स्पष्ट रूप से व्याख्या की गयी है।
  • उपनिषदों में ब्रह्म और आत्माके संबंधों को व्याख्या की गयी है।
  • छान्दोयज्ञ उपनिषद् में बताया गया है की मनुष्य इस जीवन में ब्रह्म, ज्ञान प्राप्त कर लेता है, वह मृत्यु के पश्चात ब्रह्म तत्व में विलीन हो जाता है और जन्म-मरण के चक्र से मुक्त हो जाता है।
  • निष्काम कर्म का सिद्धांत सर्वप्रथम ईशोपनिषद् में दिया गया है।
  • कठोपनिषद् में यम और नचिकेता का संवाद है।
  • वृहदराण्यक उपनिषद में गार्गी-याज्ञवल्क्य संवाद है।

 

स्मरणीय तथ्य

  • उत्तर वैदिक काल में लोग पक्की ईंटों का प्रयोग करना नहीं जानते थे।
  • अथर्ववेद में एक स्थान पर विश द्वारा राजा के चुनाव का वर्णन मिलता है।
  • शतपथ ब्राह्मण के अनुसार राजा वाही होता है, जिसे प्रजा का अनुमोदन प्राप्त हो।
  • यम और नचिकेता की कहानी का वर्णन कठोपनिषद में किया गया है।
  • उत्तर वैदिक काल में स्थायी सैन्य व्यवस्था की शुरुआत हुई।
  • उत्तर वैदिक काल में सर्वाधिक शक्तिशाली राज्य कुरु और पांचाल थे।
  • शिल्पियों में रथकार आदि जैसे कुछ वर्गों का स्थान ऊंचा था और उन्हें यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार प्राप्त था।
  • तैत्तरीय ब्राह्मण में करघा के लिए ‘वेमन’ शब्द का प्रयोग मिलता है।
  • उत्तर वैदिक कालीन आर्यों को गोबर की खाद तथा ऋतुओं के बारे में जानकारी थी।
  • भारत में लोहे का साक्ष्य उत्तर वैदिक काल में सर्वप्रथम अंतरजीखेड़ा से प्राप्त होता है।
  • उत्तर वैदिक काल में धार्मिक क्षेत्र में पशुओं की बलि देने की प्रथा का प्रचलन हुआ।
  • ऋग्वैदिक कालीन यज्ञों में 7 पुरोहित होते थे, जबकि उत्तर वैदिक कालीन यज्ञों में 14 पुरोहित होते थे।

 

 

 

 

 

 

 

 

PAHUJA LAW ACADEMY

HISTORY

LECTURE – 4

(हिन्दी माध्यम)

Pre- Questions

 

  1. ऋग्वेद में किसका उल्लेख है?
    A. मन्त्र
    B. जादू  
    C. आयुर्वेद  
    D. संगीत

 

  1. ऋग्वेद में कुल ऋचाओं (मंत्रो) की संख्या है?
    A. 10,000
    B. 10,500 
    C. 11,600
    D. 10,600

 

  1. 3उपनिषद को अन्य किस नाम से जाना जाता है?
    वेद
    B. वेदांग
    C. वेदांत   
    D. पुराण

 

  1. 4अष्टाध्यायी के रचयिता कौन थे?
    कालिदास
    B. वेदव्यास
    C. पाणिनि
    D. अष्टावक्र

 

  1. 5वैदिक आर्यों का मुख्य भोजन क्या था?
    जौ और चावल
    B. दूध और इसके उत्पादक
    C. चावल और दाल
    D. सब्जी और फल

 

 

 

 

 

  1. 6निम्नलिखित में से कौन-सा अन्न मनुष्य द्वारा सबसे पहले प्रयोग में लाया गया?
    जौ
    B. चावल
    C. गेहू
    D. राई

 

  1. 7आर्यों को एक जाति कहने वाला पहला यूरोपियन कौन था?
    विलियम जोन्स
    B. एच. विलियम
    C. मेक्समूलर
    D. जरनल कनिघम

 

  1. वेदों के टीकाओं को क्या कहते थे?
    A. ब्राह्मण ग्रन्थ
    B. धनुवेद
    C. वेद
    D. पुराण

 

  1. ऋग्वैदिक काल में सबसे प्रतापी देवता कौन था?
    A. ब्रह्मा
    B. विष्णु
    C. शिव
    D. इंद्र

 

  1. सर्वप्रथम कर लगाने की प्रथा किस काल से शुरु हुई?
    A. ऋग्वैदिक काल
    B. उत्तरवैदिक काल
    C. पुरावैदिक काल
    D. सिन्धु काल

 

  1. 11. वैदिक युग में ‘यव’ कहा जाता था?
    (A) गेहूँ
    (B) चावल
    (C) मक्का
    (D) जौ

 

 

 

 

  1. योग दर्शन का प्रतिपादन किसने किया?
    (A) मनु
    (B) पतञ्जलि
    (C) विश्वामित्र
    (D) भर्तृहरि

 

  1. 13ऋग्वेद में ‘अघन्य’ शब्द का प्रयोग किस पशु के लिए किया गया है?
    (A) गाय
    (B) बकरी
    (C) घोडा
    (D) हाथी

 

  1. वैदिक कर्मकांड में होता का संबंध है
  • ऋग्वेद से
  • यजुर्वेद
  • सामवेद
  • अथर्ववेद से

 

  1. ऋग्वेद की मूल लिपि थी
  • देवनागरी
  • खरोष्ठी
  • पाली
  • ब्राह्मी

 

  1. श्रीमद् भागवत मौलिक रुप से किस भाषा में लिखी गई थी
  • संस्कृत
  • उर्दू
  • पाली
  • हिंदी

 

  1. हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार समुद्र मंथन हेतु किस सर्प ने रस्सी के रूप में स्वयं को प्रस्तुत किया
  • कालिया
  • वासुकि
  • पुष्कर
  • शेषनाग

HISTORY NOTES

Lecture 5

 

मुख्य परीक्षा

 

  1. संछिप्त टिप्पणी लिखें
  2. त्रिपिटक
  3. त्रिरत्न
  4. आर्यसत्य
  5. मगध साम्राज्य

 

PAHUJA LAW ACADEMY

HISTORY NOTES

Lecture 5

 

महाजनपद, बौध जैन

 

प्रारंम्भिक भारतीय इतिहास में छठी शताब्दी ईसापूर्व को परिवर्तनकारी काल के रूप में महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह काल प्राय: प्रारंम्भिक राज्यों, लोहे के बढ़ते प्रयोग और सिक्कों के विकास के के लिए जाना जाता है। इसी समय में बौद्ध और जैन सहित अनेक दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ। बौद्ध और जैन धर्म के प्रारंम्भिक ग्रंथों में महाजनपद नाम के सोलह राज्यों का विवरण मिलता है। महाजनपदों के नामों की सूची इन ग्रंथों में समान नहीं है परन्तु वज्जि, मगध, कोशल, कुरु, पांचाल, गांधार और अवन्तिजैसे नाम अक्सर मिलते हैं। इससे यह ज्ञात होता है कि ये महाजनपद महत्त्वपूर्ण महाजनपदों के रूप में जाने जाते होंगे। अधिकांशतः महाजनपदों पर राजा का ही शासन रहता था परन्तु गण और संघ नाम से प्रसिद्ध राज्यों में लोगों का समूह शासन करता था, इस समूह का हर व्यक्ति राजा कहलाता था। भगवान महावीर और भगवान बुद्ध इन्हीं गणों से संबन्धित थे।

 

महाजनपद राजधानी

कुरु – मेरठ और थानेश्वर; इन्द्रप्रस्थ और हस्तिनापुर ।

पांचाल – बरेली, बदायूं और फ़र्रुख़ाबाद; अहिच्छत्र तथा कांपिल्य ।
शूरसेन – मथुरा के आसपास का क्षेत्र; मथुरा।
वत्स – इलाहाबाद और उसके आसपास; कौशांबी ।
कोशल – अवध; साकेत और श्रावस्ती ।
मल्ल – ज़िला देवरिया; कुशीनगर और पावा (आधुनिक पडरौना)
काशी – वाराणसी; वाराणसी।
अंग – भागलपुर; चंपा ।
मगध – दक्षिण बिहार, राजगृह और पाटलिपुत्र (नन्द काल में )
वृज्जि – ज़िला दरभंगा और मुजफ्फरपुर; मिथिला, जनकपुरी और वैशाली।
चेदि – बुंदेलखंड; शुक्तिमती (वर्तमान बांदा के पास)।
मत्स्य – जयपुर; विराट नगर।
अश्मक – गोदावरी घाटी; पांडन्य।
अवंति – मालवा; उज्जयिनी।
गांधार – पाकिस्तानस्थित पश्चिमोत्तर क्षेत्र; तक्षशिला।
कंबोज – कदाचित आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान; राजापुर।

Image 1

मगध साम्राज्य Magadh Empire

हर्यक वंश (544 ई.पू. से 412 ई.पू.)

 

  • छठी सदी ई.पू. मेँ सोलह महाजनपद मेँ से एक मगध महाजनपद का उत्कर्ष एक साम्राज्य के रुप मेँ हुआ। इसे भारत का प्रथम साम्राज्य होने का गौरव प्राप्त है।
  • हर्यक वंश के शासक बिंबिसार ने गिरिब्रज (राजगृह) को अपनी राजधानी बना कर मगध साम्राज्य की स्थापना की।
  • बिम्बिसार हर्यक वंश का प्रथम शक्तिशाली शासक था।
  • बिम्बिसार ने वैवाहिक संबंधों द्वारा अपनी राजनीतिक सुदृढ़ की और इसे अपनी समाजवादी महत्वाकांक्षा का आधार बनाया।
  • बिंबिसार ने कौशल जनपद की राजकुमारी कौशल देवी कथा लिच्छवी की राजकुमारी चेल्लन से विवाह किया।
  • बिंबिसार ने अंग राज्य पर अधिपत्य स्थापित करके उसे मगध साम्राज्य मेँ मिला लिया।
  • बिंबिसार गौतम बुद्ध का समकालीन था। इसे ‘श्रेणिक’ नाम से भी जाना जाता है।
  • बिम्बिसार ने अपने राजवैद्य जीवक को, अवंती नरेश चंद्रघ्रोत की चिकित्सा के लिए भेजा।
  • 15 वर्ष की आयु मेँ मगध साम्राज्य शासन की बागडोर संभालने वाला बिम्बिसार ने 52 वर्षों तक शासन किया।

 

अजातशत्रु (492 ई.पू. से 460 ई.पू.)

  • बिंबिसार की हत्या करने के उपरांत का पुत्र अजातशत्रु मगध का शासक बना। इसे ‘कुणिक’ कहा जाता है।
  • अजातशत्रु ने साम्राज्य विस्तार की नीति अपनाई। उसने काशी तथा वाशि संघ को एक लंबे संघर्ष के बाद मगध साम्राज्य मेँ मिला लिया।
  • लिच्छवियों के आक्रमण के भय से अजातशत्रु ने युद्ध में ‘दिव्यमूसल’ तथा ‘महाशिलाकंटक’ शासक नए हथियारोँ का प्रयोग किया।
  • प्रथम बौद्ध संगीति का आयोजन राजगीर के सप्तपर्णी गुफा मेँ आजातशत्रु के शासन काल मेँ हुआ।
  • अजातशत्रु ने पुराणोँ के अनुसार 20 वर्ष तथा बौद्ध साहित्य के अनुसार 32 वर्ष तक शासन किया।

 

उदयिन (460ई.पू. से 444 ई.पू.)

  • अजातशत्रु की हत्या करके उसका पुत्र उदयिन मगध साम्राज्य की गद्दी पर आसीन हुआ।
  • उदयिन ने गंगा नदी के संगम स्थल पर ‘कुसुमपुरा’ की स्थापना की जो बाद मेँ पाटलिपुत्र के रुप मेँ विख्यात हुआ।
  • उदयिन या उदय भद्र जैन धर्मावलंबी था।
  • उदयिन के बाद मगध सिंहासन पर बैठने वाले हर्यक वंश के शासक अनिरुद्ध, मुगल और दर्शक थे।
  • हर्यक वंश का अंतिम शासक ‘नागदशक’ था। जिसे ‘दर्शक’ भी कहा जाता है।

 

शिशुनाग वंश (412 ई.पू. से 344 ई.पू.)

  • हर्यक वंश के शासकोँ के बाद मगध पर पर शिशुनाग वंश का शासन स्थापित हुआ।
  • शिशुनाग नमक एक अमात्य हर्यक वंश के अंतिम शासक नागदशक को पदच्युत करके मगध की गद्दी पर बैठा और शिशुनाग नामक नए वंश की नींव डाली।
  • शिशुनाग ने अवन्ति तथा राज्य पर अधिकार कर के उसे मगध साम्राज्य मेँ मिला लिया।
  • शिशुनाग ने वज्जियों को नियंत्रित करने के लिए वैशाली को अपनी दूसरी राजधानी बनाया।
  • शिशुनाग ने 412 से 300 ई. पू. तक शासन किया।

 

कालाशोक (395-366 ई.पू.)

  • कालाशोक के शासन काल की राजनीतिक उपलब्धियोँ के बारे मेँ कोई स्पष्ट जानकारी नहीँ मिलती है।
  • कालाशोक को पुराणोँ और बौद्ध ग्रंथ दिव्यादान मेँ कालवर्प कहा गया है।
  • गौतम बुद्ध के महापरिनिर्वाण के के लगभग 100 वर्ष बाद कालाशोक के शासन काल के 10वें वर्ष मेँ वैशाली में द्वितीय बौद्ध संगीति  का आयोजन हुआ था।

 

नंद वंश (344 ई.पू. से 322 ई. पू.)

  • नंद वंश के शासक कालाशोक की मृत्यु के बाद मगध पर नंद वंश नामक एक शक्तिशाली राजवंश की स्थापना हुई।
  • पुराणों के अनुसार इस वंश का संस्थापक महापद्मनंद एक शुद्र शासक था। उसने ‘सर्वअभावक’ की उपाधि धारण की।
  • महापद्मनंद कलिंग के कुछ लोगोँ पर अधिकार कर लिया था। वहाँ उसने एक नहर का निर्माण कराया।
  • महापद्मनंद ने कलिंग के गिनसेन की प्रतिमा उठा ली थी। उसने एकराढ़ की उपाधि धारण की।
  • नंद वंश का अंतिम शासक घनानंद था।
  • घनानंद के शासन काल मेँ 325 ईसा पूर्व मेँ सिकंदर ने भारत पर आक्रमण किया था।

 

 

 

स्मरणीय तथ्य

  • ईसा पूर्व छठी शताब्दी मेँ आर्थिक दशा मेँ महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। व्यापार मेँ प्रगति, सिक्कों का प्रचलन और नगरों का उत्थान तीन महत्वपूर्ण परिवर्तन दृष्टिगोचर होते है।
  • ‘रत्नीन’ प्रशासनिक अधिकारी थे। ये राजा के प्रति उत्तरदायी थे।
  • मगध, वत्स, कोमल और अवंती ये 4 इस काल के शक्तिशाली राज्य थे।
  • कंबोज, कौशाम्बी, कोसल तथा वारामसी व्यापार के महत्वपूर्ण केंद्र थे।
  • कौशल की राजधानी श्रावस्ती की श्रवर्क कंबोज की राजधानी घटक थी।
  • इस काल मेँ राजतंत्रात्मक राज्योँ के अतिरिक्त कुछ ऐसे गणराज्य भी थे, जो प्रायः हिमालय की तलहटी मेँ स्थित थे।
  • ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल मेँ उच्च अधिकारी और मंत्री अधिकतर पुरोहित अर्थात ब्राम्हणों मेँ से नियुक्त किए जाते थे।
  • इस काल मेँ करारोपण प्रणाली नियमित हो गई। बलि, शुल्क और भाग नामक कर पूरी तरह से स्थापित हो गए।
  • योद्धा और पुरोहित वर्ग के लोग करोँ के भुगतान से पूरीतरह से मुक्त थे। करों का अधिकांश बोझ किसानो पर पड़ता था जो मुख्यतः वैश्य थे।
  • इस काल में पहली बार निवास की भूमि और कृषि की भूमि अलग-अलग कर दी गई। इस काल मेँ सर्वप्रथम स्थाई, नियमित और सुदृढ़ सेना का गठन हुआ।

 

धार्मिक आन्दोलन – बौद्ध एवं जैन धर्म

बौद्ध धर्म

बौद्ध धर्म की स्थापना महात्मा बुद्ध ने की थी। इनके बचपन का नाम सिद्धार्थ तथा माता का नाम महामाया और पिता का शुद्धोदन था।

  • माता के देहान्त के पश्चात इनका पालन-पोषण इनकी मौसी गौतमी ने किया।
  • महात्मा बुद्ध का जन्म 563 ई. पू. में नेपाल की ताराई में स्थित कपिलवस्तु के लुम्बिनी ग्राम में हुआ था।
  • इनका विवाह यशोधरा नमक कन्या से हुआ था, जिससे इन्हें एक पुत्र हुआ जिसका नाम राहुल था।
  • 29 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ ने ज्ञान प्राप्त करने के लिए गृह त्याग दिया, जिसे बौद्ध ग्रंथों में ‘महाभिनिष्क्रमण’ कहा गया है।
  • 35 वर्ष की अवस्था में इन्हें गया के निकट निरंजना नदी के किनारे एक पीपल के वृक्ष के नीचे 49वें दिन ज्ञान प्राप्त हुआ। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात सिद्धार्थ बुद्ध कहलाये।
  • वाराणसी के निकट सारनाथ में महात्मा बुद्ध ने अपना पहला उपदेश पांच ब्राह्मण योगियों (साधुओं) को दिया, जो बौद्ध परंपरा में धर्मचक्रप्रवर्तन के नाम से विख्यात है।
  • महात्मा बुद्ध का देहावसान अस्सी वर्ष की आयु में 483 ई. पू. में वर्तमान उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले में हुआ था। इसे बौद्ध परंपरा में महापरिनिर्वाण के नाम से जाना जाता है।
  • बौद्ध धर्म के मूल आधार 4 आर्य सत्य हैं। ये 4 आर्य सत्य हैं- दुःख, दुःख समुदाय, दुःख निरोध, तथा दुःख निरोध गामिनी प्रतिपदा (दुःख निवारक मार्ग) अर्थात अष्टांगिक मार्ग।
  • दुःख को हरने वाले तथा तृष्णा का नाश करने वाले आर्य अष्टांगिक मार्ग के आठ अंग हैं। उन्हें मज्झिम प्रतिपदा अर्थम् माध्यम मार्ग कहते हैं।
  • अष्टांगिक मार्ग को भिक्षुओं का ‘कल्याण मित्र’ भी कहा गया है।
  • महात्मा बुद्ध ने तपस्स एवं मल्लिक नामक दो शूद्रों को बौद्ध धर्म का सर्वप्रथम अनुयायी बनाया।
  • बुद्ध ने अपने जीवन के सर्वाधिक उपदेश कौशल देश की राजधानी श्रावस्ती में दिए उन्होंने मगध को अपना प्रचार केंद्र बनाया।
  • बुद्ध के अनुयायी शासकों में बिम्बिसार, प्रसेनजित तथा उदयन थे।
  • बुद्ध के प्रधान शिष्य उपालि व आनंद थे। सारनाथ में ही बौद्ध संघ की स्थापना हुई।
  • बौद्ध धर्म के अनुसार मनुष्य के जीवन का परम लक्ष्य निर्वाण-प्राप्ति है। निर्वाण का अर्थ है-दीपक का बुझ जाना अर्थात जीवन-मरण के चक्र से मुक्त हो जाना।
  • जिस प्रकार दुःख समुदाय का कारण जन्म है, उसी तरह जन्म का कारण अज्ञानता का चक्र है। यही अज्ञानता कर्म-फल को उत्पन्न करती है। इस अज्ञान चक्र को प्रतीत्य समुत्पाद कहा जाता है।
  • प्रतीत्य समुत्पाद बौद्ध दर्शन तथा सिद्धांत का मूल तत्व है।अन्य सिद्धांत जैसे क्षण-भंग-वाद तथा नैरात्मवाद इसी में निहित है।
  • बौद्ध धर्म मूलतः अनीश्वरवादी है। वास्तव में बुद्ध ने इश्वर के स्थान पर मानव प्रतिष्ठा पर बल दिया। बौद्ध धर्म में आत्मा की परिकल्पना नहीं है।अनात्मवाद के सिद्धांत के अंतर्गत यह मान्यता है की व्यक्ति में जो आत्मा है वह उसके अवसान के बाद समाप्त हो जाती है।
  • बौद्ध धर्म पुनर्जन्म में विश्वास करता है। फलतः कर्म-फल का सिद्धांत भी मान्य है। परन्तु कर्म फल को अगले जन्म में ले जाने वाला माध्यम आत्मा नहीं है। कर्म-फल चेतना के रूप में पुनर्जन्म का कारण होता है, ठीक उसी तरह, जिस प्रकार पानी में एक लहर उठकर दूसरी लहर को जन्म देकर स्वयं समाप्त हो जाती है।
  • बौद्ध धर्म ने वर्ण व्यवस्था एवं जाति व्यवस्था का विरोध किया।
  • बौद्ध धर्म का दरवाजा हर जातियों के लिए खुला था। स्त्रियों को भी संघ में प्रवेश का अधिकार प्राप्त था। इस प्रकार वह स्त्रियों के अधिकारों का हिमायती था।
  • संघ में प्रविष्टि होने को उप-सम्पदा कहा जाता था।
  • बौद्ध संघ का संगठन गणतंत्र प्रणाली पर आधारित था। संघ में चोर, हत्यारों, ऋणी व्यक्तियों, राजा के सेवक, दास तथा रोगी व्यक्तियों का प्रवेश वर्जित था।
  • बौद्धों के लिए महीने के 4 दिन अमावस्या, पूर्णिमा और दो चतुर्थी दिवस उपवास के दिन होते थे।
  • अमावस्या, पूर्णिमा तथा दो चतुर्थी दिवस को बौद्ध धर्म में ‘उपासक’ (‘रोया’ श्रीलंका में) का नाम से जाना जाता है।
  • बौद्धों का सबसे महत्वपूर्ण त्यौहार वैशाख की पूर्णिमा है, जिसे बुद्ध पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है।
  • बौद्ध धर्म में बुद्ध पूर्णिमा के दिन का महत्व इसलिए है क्योंकि इसी दिन बुद्ध का जन्म, ज्ञान की प्राप्ति एवं महापरिनिर्वाण की प्राप्ति हुई थी।
  • महात्मा बुद्ध से जुड़े 8 स्थान लुम्बिनी, गया, सारनाथ, कुशीनगर, श्रावस्ती, संकास्य, राजगृह तथा वैशाली को बौद्ध ग्रंथों में ‘अष्टमहास्थान’ नाम से भी जाना जाता है।

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  • बौद्ध धर्म के दो प्रमुख साम्प्रदाय थे- हीनयान तथा महायान।
  • हीनयान साम्प्रदाय के लोग श्रीलंका, म्यांमार तथा जावा आदि स्थलों पर फैले हुए हैं।
  • वर्तमान में महायान साम्प्रदाय के लोग तिब्बत, चीन, कोरिया, मंगोलिया तथा जापान में हैं।
  • 7वीं शताब्दी में तंत्र-मन्त्र से युक्त व्रजयान शाखा का उदय हुआ, जिसका प्रमुख केंद्र भागलपुर जिले (बिहार) में स्थित विक्रमशिला विश्वविद्यालय था।
  • भारतीय दर्शन में तर्क शास्त्र की प्रगति बौद्ध धर्म के प्रभाव से हुई। बौद्ध दर्शन में शून्यवाद तथा विज्ञानवाद की जिन दार्शनिक पद्धतियों का उदय हुआ उसका प्रभाव शंकराचार्य के दर्शन पर भी पड़ा। यही कारण है की शंकराचार्य को कभी-कभी प्रछन्न बौद्ध भी कहा जाता है।
  • बुद्ध के अस्थि अवशेषों पर भट्टि (द. भारत) में निर्मित प्राचीनतम स्तूप को महास्तूप की संज्ञा दी गयी है।
  • बौद्ध संघ का संगठन गणतांत्रिक प्रणाली पर आधारित था। संघ में न तो छोटे बड़े का भेद था और न ही बुद्ध ने अपना कोई उत्तराधिकारी ही नियुक्त किया, वरन धर्म तथा विनय को ही शासक माना।
  • प्रारंभ में संघ का द्वार सभी जातियों तथा वर्गों के लिए खुला था, परन्तु शीघ्र ही बुद्ध को नवीन सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक स्थितियों से समझौता करना पड़ा।
  • बौद्ध संघ में ऋणी व्यक्तियों का प्रवेश वर्जित था, परन्तु व्यापार के लिए ऋण लेने की निंदा नहीं की गयी है।
  • बौद्ध धर्म के मूल सिद्धांत त्रिपिटक में संगृहित हैं। ये हैं-
  1. सुत्त पिटक
  2. विनय पिटक
  3. अभिधम्म पिटक

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

  • महात्मा बुद्ध ने अपने उपदेश पाली भाषा (मूल रूप में मगधी) में दिए थे।

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‘प्रथम बौद्ध संगीति’ का आयोजन 483 ई. पू. में राजगृह (आधुनिक राजगिरि), एक शताब्दी बाद बुद्धोपदिष्ट कुछ विनय-नियमों के सम्बन्ध में भिक्षुओं में विवाद उत्पन्न हो जाने पर वैशाली में दूसरी संगीति हुई। इस संगीति में विनय-नियमों को कठोर बनाया गया और जो बुद्धोपदिष्ट शिक्षाएँ अलिखित रूप में प्रचलित थीं, उनमें संशोधन किया गया।

नागार्जुन भी शामिल हुए थे। इसी संगीति में तीनों पिटकों पर टीकायें लिखी गईं, जिनको ‘महाविभाषा’ नाम की पुस्तक में संकलित किया गया। इस पुस्तक को बौद्ध धर्म का ‘विश्वकोष’ भी कहा जाता है।

                                                                                                                                                

जैन धर्म

  • जैन परम्परा के अनुसार इस धर्म में कुल 24 तीर्थंकर हुए। इनमे प्रथम ऋषभदेव हैं। किन्तु 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को छोड़कर पूर्ववर्ती तीर्थंकरों की ऐतिहासिकता संदिग्ध है।
  • पार्श्वनाथ का काल महावीर से 250 ई.पू. माना जाता है। इसके अनुयायियों को निर्ग्रन्थ कहा जाता था।
  • जैन अनुश्रुतियों के अनुसार पार्श्वनाथ को 100 वर्ष की आयु में ‘सम्मेद पर्वत’ पर निर्वाण प्राप्त हुआ था।
  • पार्श्वनाथ द्वारा प्रतिपादित 4 महाव्रत इस प्रकार हैं- सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह तथा अस्तेय।
  • महावीर स्वामी- जैनियों के 24वें तीर्थंकर एवं जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक माने जाते हैं।
  • महावीर का जन्म वैशाली के निकट कुण्डग्राम (वज्जि संघ का गणराज्य) के ज्ञात्रृक कुल के प्रधान सिद्धार्थ के यहाँ 540 ई.पू. में हुआ था। इनकी माता का नाम त्रिशला था, जो लिच्छवी की राजकुमारी थीं तथा इनकी पत्नी का नाम यशोदा था।
  • यशोदा से जन्म लेने वाली महावीर की पुत्री ‘प्रियदर्शना’ का विवाह जमालि नमक क्षत्रिय से हुआ, वह महावीर का प्रथम शिष्य हुआ।
  • 30 वर्ष की अवस्था में महावीर ने गृहत्याग किया।
  • 12 वर्ष तक लगातार कठोर तपस्या एवं साधना के बाद 42 वर्ष की अवस्था में महावीर को जुम्भिकग्राम के समीप ऋजुपालिका नदी के किनारे एक साल के वृक्ष के नीचे कैवल्य (सर्वोच्च ज्ञान) प्राप्त हुआ।
  • कैवल्य प्राप्त हो जाने के बादमहावीर स्वामी को केवलिन, जिन (विजेता), अर्ह (योग्य) एवं निर्ग्रन्थ (बंधन रहित) जैसी उपाधियाँ मिलीं।
  • उनकी मृत्यु पावा में72 वर्ष की उम्र में 538 ई. पू. हुई।
  • जैन दर्शन- जैन ग्रन्थ आचारांग सूत्र में महावीर की तपश्चर्या तथा कायाक्लेश का बड़ा ही रोचक वर्णन मिलता है।
  • जैन धर्मानुसार यह संसार 6 द्रव्यों- जीव पुद्गल (भौतिक तत्व), धर्म, आकाश और काल से निर्मित है।
  • जैन धर्म के त्रिरत्न हैं-
  1. सम्यक श्रद्धास
  2. सम्यक ज्ञान
  3. सम्यक आचरण

 

  1. तेरापंथी (श्वेताम्बर)
  2. दिगंबर
  • भद्रबाहु एवं उनके अनुयायियों को दिगम्बर कहा गया। ये दक्षिणी जैनी कहै जाते थे।
  • स्थलबाहु एवं उके अनुयायियों को श्वेताम्बर कहा गया। श्वेताम्बर साम्प्रदाय के लोगों ने ही सर्वप्रथम महावीर एवं अन्य तीर्थंकरों (पार्श्वनाथ) की पूजा आरंभ की। ये सफ़ेद वस्त्र धारण करते थे।
  • महावीर के धर्म उपदेशों का संग्रह इन्हीं पूर्वा में है। इनकी संख्या 14 है तथा इनका संग्रह संभूतविजय तथा भद्रबाहु ने किया था।
  • जैनधर्म ग्रन्थ प्राकृत भाषा में लिखे गए हैं। कुछ ग्रंथों की रचना अपभ्रंश शैली में भी हुई है।
  • जैन धर्म ने वेदों की प्रमाणिकता नहीं मानी तथा वेद्वाद का विरोध किया।

 

 

 

 

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HISTORY NOTES

Lecture 5

 

प्रारंभिक परीक्षा

 

  1. मगध के किस प्रारंभिक शासक ने राज्यारोहण के लिए अपने पिता की हत्या की एवं स्वयं इसी कारणवश अपने पुत्र द्वारा मारा गया
  1. बिंबिसार
  2. अजातशत्रु
  3. उदयन
  4. नाग दशक

 

  1. मगध की प्रारंभिक राजधानी कौन सी थी
  1. पाटलिपुत्र
  2. वैशाली
  3. राजगृह
  4. चंपा

 

  1. गोदावरी नदी के तट पर स्थित महाजनपद था
  1. अवंती
  2. वत्स
  3. अश्मक
  4. कंबोज

 

  1. छठी शताब्दी ईसापूर्व में सूक्ति मति राजधानी थी
  1. पांचाल की
  2. कुरु की
  3. चेदि की
  4. अवंती की

 

  1. 16 महाजनपदों के युग में मथुरा इन में से किसकी राजधानी थी
  1. वज्जि
  2. कौशल
  3. काशी
  4. शूरसेन

 

  1. मालवा क्षेत्र पर मगध की सत्ता का विस्तार निम्न में से किसके शासनकाल में हुआ
  1. बिंबिसार के
  2. अजातशत्रु के
  3. उदय भद्र के
  4. शिशुनाग के
    1. किस शासक द्वारा सर्वप्रथम पाटलीपुत्र का राजधानी के रुप में चयन किया गया
  5. अजातशत्रु
  6. कालाशोक
  7. उदयन
  8. कनिष्

 

  1. प्रारंभिक गणतंत्र में कौनसा नहीं था
  1. शाक्य
  2. लिच्छवी
  3. यौधेय
  4. उपर्युक्त सभी

 

  1. निम्न में से कौन एक बौद्ध ग्रंथ 16 महाजनपदों का उल्लेख करता है
  1. अंगुत्तर निकाय
  2. मज्झिम निकाय
  3. खुद्दक निकाय
  4. दीघनिकाय

 

  1. महात्मा बुद्ध का जन्म कब हुआ था
  1. 563 ईसा पूर्व
  2. 558 ईसा पूर्व
  3. 561 ईसा पूर्व
  4. 544 ईसा पूर्व

 

  1. बुद्ध का जन्म हुआ था
  1. वैशाली
  2. लुंबिनी
  3. कपिलवस्तु
  4. पाटलिपुत्र

 

  1. गौतम बुद्ध की मां किस वंश से संबंधित थी
  1. शाक्य वंश
  2. माया वंश
  3. लिच्छवि वंश
  4. कोलिय वंश

LECTURE – 6

HINDI MEDIUM

भारत पर विदेशी आक्रमण

मुख्य परीक्षा

 

  1. निम्नलिखित की अवस्थिति तथा महत्त्व बताइए (50 शब्द)
  1. अशोक की ग्यारहवी शिला राजाज्ञा
  2. बोधगया
  3. मुद्राराक्षस
  4. अश्वघोष

 

  1. मौर्यकालीन नगर प्रशासन का संक्षिप्त वर्णन कीजिये

 

 

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LECTURE – 6

HINDI MEDIUM

भारत पर विदेशी आक्रमण

 

 

भारत पर विदेशी आक्रमण

  • भारत पर प्रथम विदेशी आक्रमण ईरान के हखमनी वंश के राजा पारसीक ने किया था.प्राचीन काल में ईरान को पार्शिया कहते थे.इस वंश का संस्थापक 599 -529 ई.वी साइरस था.
  • साइरस को कुरुष नाम से भी जानते हैं .साइरस ने जेड्रोसिया के रेगिस्तान से होकर भारत पर आक्रमण करने का असफल प्रयास किया था|
  • साइरस के उत्ताराधिकारी दारा प्रथम /दारयवहु ने सिन्धु नदी के तटवर्ती भारतीय क्षेत्र को विजित किया था.हेरोडोट्स के अनुसार ईरान साम्राज्य का बीसवाँ प्रान्त था.कम्बोज एवं गंधार पर भी उसका अधिकार था|
  • यूनान /ग्रीश /मकदूनिया के शासक सिंकदर ने 326 BC में बल्ख (बैक्ट्रिया) जीतने के बाद काबुल होते हुए हिन्दूकुश पर्वत पार किया तक्षशिला शासक आम्भी ने आत्मसमर्पण के साथ उसका स्वागत करते हुए उसे सहयोग का वचन दिया|
  • उसका 326 BC में सिन्धु के निकट झेलम नदी /वितस्ता /हिडास्पस का युध्द राज्य के राजा पुरु से हुआ.इसमें राजा पोरस की पराजय हुई.सिकंदर ने विजय के उपलक्ष्य में निकैया (विजय नगर ) तथा प्रिय घोङे के नाम पर बुकाफैला नगर बसाया.अपने सम्राज्य को फिलिप को सौपकर ,वापस लौटने के बाद बेवीलोन में 323 BC में उसकी मृत्यु हो गई|

 

ईसा पूर्व 326 में सिकन्दर की सेनाएँ पंजाब के विभिन्न राज्यों में विध्वंसक युद्धों में व्यस्त थीं। मध्यप्रदेश और बिहार में नंद वंश का राजा धननंद शासन कर रहा था। सिकन्दर के आक्रमण से देश के लिए संकट पैदा हो गया था। धननंद का सौभाग्य था कि वह इस आक्रमण से बच गया। यह कहना कठिन है कि देश की रक्षा का मौक़ा पड़ने पर नंद सम्राट यूनानियों को पीछे हटाने में समर्थ होता या नहीं।

  • मगध के शासक के पास विशाल सेना अवश्य थी किन्तु जनता का सहयोग उसे प्राप्त नहीं था। प्रजा उसके अत्याचारों से पीड़ित थी।
  • असह्य कर-भार के कारण राज्य के लोग उससे असंतुष्ट थे।
  • देश को इस समय एक ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जोमगध साम्राज्य की रक्षा तथा वृद्धि कर सके। विदेशी आक्रमण से उत्पन्न संकट को दूर करे और देश के विभिन्न भागों को एक शासन-सूत्र में बाँधकर चक्रवर्ती सम्राट के आदर्श को चरितार्थ करे।

शीघ्र ही राजनीतिक मंच पर एक ऐसा व्यक्ति प्रकट भी हुआ। इस व्यक्ति का नाम था ‘चंद्रगुप्त’। जस्टिन आदि यूनानी विद्वानों ने इसे ‘सेन्ड्रोकोट्टस’ कहा है। विलियम जोंस पहले विद्वान् थे जिन्होंने सेन्ड्रोकोट्टस’ की पहचान भारतीय ग्रंथों के ‘चंद्रगुप्त’ से की है। यह पहचान भारतीय इतिहास के तिथिक्रम की आधारशिला बन गई है।

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चन्द्रगुप्त मौर्य (322 ई.पू. से 298 ई. पू.)

  • चंद्रगुप्त मौर्य ने लगभग 322 ईसा पूर्व मेँ अपने गुरु चाणक्य की सहायता से मगध साम्राज्य के अंतिम शासक घनानंद को पराजित कर मौर्य साम्राज्य की स्थापना की।
  • आमतौर पर यह माना जाता है उसका संबंध मोदी ‘मोरिय’ जाति से था, जो एक निम्न जाति थी।
  • विशाखदत्त कृत मुद्राराक्षस में चंद्रगुप्त मौर्य के लिए ‘वृषल’ शब्द का प्रयोग हुआ है। वृषाल शब्द से आशय निम्न मूल से है। इसमें चंद्रगुप्त को नंदराज का पुत्र माना गया है।
  • चंद्रगुप्त ने पश्चिमोत्तर भारत मेँ तत्कालीन यूनानी शासक सेल्यूकस निकेटर, जो सिकंदर का सेनापति था को 305 ईसा पूर्व मेँ पराजित कर दिया।
  • सेल्यूकस ने अपनी पुत्री हेलेना का विवाह चंद्रगुप्त से किया और मेगस्थनीज़ को अपने राजदूत के रुप मेँ उसके के दरबार मेँ भेजा।
  • प्लूटार्क का कहना है कि, चंद्रगुप्त ने 6 लाख सैनिकों वाली सेना लेकर संपूर्ण भारत को रौंद डाला और उस पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। जस्टिन भी इसी प्रकार का विवरण प्रस्तुत करता है।
  • चंद्रगुप्त का साम्राज्य उत्तर पश्चिम मेँ ईरान (फारस) से लेकर बंगाल तक, उत्तर मेँ कश्मीर से लेकर दक्षिण में उत्तरी कर्नाटक (मैसूर) तक फैला हुआ था।
  • स्मिथ ने चन्द्रगुप्त के साम्राज्य का विवेचन करते हुए लिखा है कि उसके साम्राज्य मेँ आधुनिक अफगानिस्तान, हिंदुकुश घाटी, पंजाब, उत्तर प्रदेश, बिहार, बंगाल, काठियावाड़, नर्मदा पार के प्रदेश सम्मिलित थे।
  • विष्णुगुप्त चंद्रगुप्त का प्रधानमंत्री था, जिसे चाणक्य तथा कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है।
  • चाणक्य ने अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ की रचना की, जिसमे प्रशासन के नियमो का उल्लेख है।
  • चंद्रगुप्त ने के शासनकाल मे सौराष्ट्र के गवर्नर पुष्यगुप्त ने सुदर्शन झील का निर्माण कराया।
  • चंद्रगुप्त की दक्षिण भारत की विजयों के बारे मेँ जानकारी तमिल ग्रंथ अहनानूर एवम् मुरनानूर से मिलती है।
  • चंद्रगुप्त की बंगाल विजय का उल्लेख महास्थान अभिलेख से प्रकट होता है।
  • चन्द्रगुप्त जैन धर्मावलंबी था। उसने जैन मुनि भद्रबाहु से जैन धर्म की दीक्षा ली थी।
  • कहा जाता है कि मगध मेँ 12 वर्ष का दुर्भिक्ष (अकाल) पड़ा तो चंद्रगुप्त ने अपने पुत्र सिंहसेन के पक्ष मेँ सिंहासन त्यागकर भद्रबाहु के साथ श्रवणबेलगोला मेँ तपस्या करने के पश्चात 298 ई.पू. में अपना शारीर त्याग दिया।
  • यूनानी लेखक जस्टिन ने चंद्रगुप्त को सैण्ड्रोकोट्स कहा है। सैण्ड्रोकोट्स की पहचान चंद्रगुप्त के रुप मेँ पहली बार विलियम जोंस ने की थी।

 

बिंदुसार (298 ई.पू.-272 ई. पू.)

  • चन्द्रगुप्त के उपरांत उसका पुत्र बिंदुसार मौर्य साम्राज्य का शासक बना।
  • यूनानी साहित्य में बिन्दुसार को अमित्रोकेट्स या अभित्रघात्र कहा गया है। अभित्रघात्र का अर्थ शत्रुनाशक होता है।
  • जैन ग्रंथ राजबलि कथा मेँ बिंदुसार को सिंहसेन कहा गया है।
  • बौद्ध ग्रन्थ दिव्यादान के अनुसार बिंदुसार के सासन काल मेँ तक्षशिला मेँ विद्रोह हुआ था, जिसको दबाने के लिए उसने अपने पुत्र अशोक को कहाँ भेजा था।
  • स्ट्रेबो के अनुसार सीरिया के शासक एंटियोक्स ने डायमेक्स नामक अपना एक राजदूत बिंदुसार के दरबार मेँ भेजा था।
  • प्लिनी के अनुसार शासक तालमी द्वितीय फिलाडेल्फस ने एक राजदूत डायोनिसस को बिंदुसार के दरबार मेँ भेजा था।
  • एथेनियस के अनुसार बिन्दुसार ने सीरिया के शासक के पास एक संदेश भेजकर एक दार्शनिक भेजने का आग्रह किया था, जिसे उसने यह कह कर इंकार कर दिया गया कि दार्शनिकों का विक्रय नहीँ किया जा सकता।
  • चाणक्य बिंदुसार का प्रधान मंत्री रहा।
  • बिंदुसार आजीवक संप्रदाय का अनुयायी था। दिव्यादान से पता चलता है कि राजसभा में आजीवक संप्रदाय का एक ज्योतिषी निवास करता था।

 

सम्राट अशोक (273 ई.पू.- 232 ई.पू.)

  • बिन्दुसार की मृत्यु के उपरांत अशोक मोर्य साम्राज्य का शासक बना।
  • सिंहली अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने अपने 99 भाइयों का वध कर के मौर्य साम्राज्य का राजसिंहासन प्राप्त किया था।
  • राज्याभिषेक बुद्ध के महापरिनिर्वाण के 218 वर्ष बाद हुआ था।
  • अभिलेखों एवं साहित्यिक ग्रंथों में उसे देवनामपियद्शी कहा गया है।
  • अशोक ने अपने राजाभिषेक के 9वें वर्ष (260 ई.पू.) में कलिंग पर आक्रमण कर के अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।
  • कुछ इतिहासकारों के अनुसार कलिंग को जीतना आवश्यक था, क्योंकि दक्षिण के साथ सीधे संपर्क के लिए एक स्वतंत्र राज्य के समुद्री और स्थल मार्ग पर नियंत्रण होना जरुरी था।
  • कौटिल्य के अनुसार कलिंग हाथियों के लिए प्रसिद्द था। इन्हीं हाथियोँ को प्राप्त करने के लिए अशोक ने कलिंग पर आक्रमण किया किया था।
  • कलिंग के हाथी गुफा अभिलेख से प्रकट होता है कि अशोक के कलिंग आक्रमण के समय कलिंग पर ‘नंदराज’ नाम का कोई राजा राज्य कर रहा था।
  • कलिंग युद्ध तथा उसके परिणामों के विषय मेँ अशोक के 13वें शिलालेख मेँ विस्तृत जानकारी दी गई है।
  • अशोक के अभिलेखों से यह स्पष्ट होता है कि उसका साम्राज्य उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत (अफगानिस्तान), दक्षिण में कर्नाटक, पश्चिम में कठियावाड़ और पूर्व मेँ बंगाल की खाड़ी तक विस्तृत था।
  • पुराणों में अशोक को ‘अशोक वर्धन’ कहा गया है। मौर्य शासक बन्ने से पूर्व वह उज्जैन का गवर्नर रह चुका था।
  • ह्वेनसांग के अनुसार अशोक ने श्रीनगर की स्थापना की जो वर्तमान मेँ जम्मू कश्मीर की राजधानी है।
  • अशोक ने नेपाल मेँ ललित पाटन नमक नगर का निर्माण करवाया था।
  • दिव्यादान से पता चलता है कि अशोक के समय तो बंगाल मोर्य साम्राज्य का अंग था। व्हेनसांग ने अपनी यात्रा के दौरान बंगाल मेँ अशोक द्वारा निर्मित स्तूप देखा था।
  • कल्हण द्वारा रचित ग्रंथ राजतरंगिणी के अनुसार अपने जीवन के प्रारंभ मेँ अशोक शैव धर्म का उपासक था।
  • बौद्ध ग्रंथों के अनुसार कलिंग युद्ध के बाद अशोक ने बौद्ध धर्म अपना लिया।
  • बौद्ध धर्म दिव्यादान के अनुसार उपगुप्त नामक बौद्ध भिक्षु ने अशोक को बौद्ध धर्म में दीक्षित किया।
  • अशोक के बौद्ध होने का सबसे सबल प्रमाण उसके (वैराट-राजस्थान) लघु शिलालेख से प्राप्त होता है, जिसमे अशोक ने स्पष्तः बुद्ध धम्म एवं संघ का अभिवादन किया है।
  • अशोक के शासनकाल मेँ 250 धर्मावलंबियोँ को पुनर्गठित करने के लिए बौद्ध परिषद का तीसरा महासम्मेलन (संगीति) का आयोजन किया गया।
  • मास्की के लघु शिलालेख मेँ अशोक ने स्वयं को बुद्ध भावय कहा है।

 

अशोक और उसका धर्म

  • कलिंग युद्ध की विभीषिका ने अशोक के मन को बुरी तरह झकझोर दिया, क्योंकि इस युद्ध का कलिंग के लोगोँ पर विनाशकारी प्रभाव पड़ा।
  • अशोक के धम्म मे समाज की क्रियाकलापोँ मेँ नैतिक उत्थान की भावना का संचार करने का आग्रह था।
  • अशोक का धर्म वस्तुतः विभिन्न धर्मोँ का समन्वय है। वह नैतिक आचरणों का एक संग्रह है, ‘जो जियो और जीने दो’ की मूल पद्धति पर आधारित था।
  • इसमेँ कोई संदेह नहीँ है कि अशोक का व्यक्तिगत धर्म बौद्ध धर्म ही था। लेकिन यह भी सच है कि अशोक सभी धर्मोँ का आदर करता था और सभी पंथों और सम्प्रदायों के नैतिक मूल्यों के बीच पाई जाने वाली एकता मेँ विश्वास करता था।
  • रोमिला थापर ने अशोक के धर्म की तुलना अकबर के दीन-ए-इलाही धर्म से की है। उनके शब्दोँ मेँ अशोक का धर्म औपचारिक धार्मिक विश्वास पर आधारित सद्कार्यों से प्रसूत नैतिक पवित्रता तक ही सीमित नहीँ था, बल्कि वह समाजिक दायित्व बोध से प्रेरित भी था।
  • वस्तुत यह कहा जा सकता है कि अपनी प्रजा के नैतिक उत्थान के लिए अशोक ने जिन आचारो की संहिता प्रस्तुत की उसे उसके अभिलेखों में धर्म कहा गया है।

अशोक के 14 शिलालेख( 14 परिक्छेद , पैराग्राफ ) विभिन्‍न लेखों का समूह है जो आठ भिन्‍न-भिन्‍न स्थानों से प्राप्त किए गये हैं-

 

(१) धौली– यह उड़ीसा के पुरी जिला में है।

(२) शाहबाज गढ़ी– यह पाकिस्तान (पेशावर) में है।

(३) मान सेहरा– यह पकिस्तान के हजारा जिले में स्थित है।

(४) कालसी– यह वर्तमान उत्तराखण्ड (देहरादून) में है।

(५) जौगढ़– यह उड़ीसा के जौगढ़ में स्थित है।

(६) सोपरा– यह महराष्ट्र के थाणे जिले में है।

(७) एरागुडि– यह आन्ध्र प्रदेश के कुर्नूल जिले में स्थित है।

(८) गिरनार– यह काठियाबाड़ में जूनागढ़ के पास है।

 

 अशोक के शिलालेख और उसके विषय

  • शिलालेख -1. इसमें पशु बलि की निंदा की गई।
  • शिलालेख-2. समाज कल्याण, मनुष्य व पशु चिकित्सा।
  • शिलालेख-3. अशोक के तीसरे शिलालेख से ज्ञात होता है कि उसके राज्य में प्रादेशिक, राजूक , युक्तों को हर 5 वें वर्ष धर्म प्रचार हेतु भेजा जाता था जिसे अनुसन्धान कहा जाता था। इसमें बचत, धार्मिक नियम और अल्प व्यय को धम्म का अंग बताया है।
  • शिलालेख-4. भेरिघोष की जगह धम्म घोष की धोषणा।
  • शिलालेख-5. धर्म महामत्रों की नियुक्ति (13 वें वर्ष )
  • शिलालेख-6. आत्म नियंत्रण की शिक्षा। .
  • शिलालेख-7.व 8. अशोक द्वारा तीर्थ यात्राओ का वर्णन। सातवाँ अभिलेख सबसे लम्बा है।
  • शिलालेख-9. सच्ची भेंट व सच्चे शिष्टाचार का वर्णन।
  • शिलालेख-10. राजा व उच्च अधिकारी हमेशा प्रजा के हित में सोचें।
  • शिलालेख-11. धम्म की व्याख्या। धर्म के वरदान को सर्वोत्तम बताया।
  • शिलालेख-12. स्त्री महामत्रों की नियुक्ति व सभी प्रकार के विचारो के सम्मान की बात कही। धार्मिक सहिष्णुता की निति।
  • शिलालेख-13. कलिंग युद्ध, अशोक का हृदय परिवर्तन, पड़ोसी राजाओ का वर्णन।
  • शिलालेख-14. धार्मिक जीवन जीने की प्रेरणा दी।

 

सम्राट अशोक के स्तम्भ लेखों की संख्या 7 है, ब्राह्मी लिपि, अलग-अलग स्थानों से प्राप्त हुआ है.

  1. प्रयाग स्तम्भ लेख – यह पहले कौशाम्बी में स्थित था. इस स्तम्भ लेख को अकबर इलाहाबाद के किले में स्थापित कराया.
  2. दिल्ली टोपरा – यह स्तम्भ लेख फिरोजशाह तुगलक के द्वारा टोपरा से दिल्ली लाया गया.
  3. दिल्ली मेरठ – पहले मेरठ में स्थित यह स्तम्भ लेख फिरोजशाह द्वारा दिल्ली लाया गया है.
  4. रामपुरवा – यह स्तम्भ लेख चम्पारण बिहार में स्थापित है. इसकी खोज १८७२ ई में कारलायल ने की.
  5. लौरिया अरेराज – चम्पारण में.
  6. लौरिया नंदनगढ़ – चम्पारण में इस स्तम्भ पर मोर का चित्र बना है.

कुछ अन्य तथ्य –

कौशाम्बी अभिलेख को रानी का अभिलेख कहा जाता है.
अशोक का सबसे छोटा स्तम्भ लेख रुम्मिन देई है.
अशोक का 7 वां अभिलेख सबसे लम्बा है.

 

नगर प्रशासन

  • मेगस्थनीज़ के अनुसार नगर प्रशासन 30 सदस्योँ के एक मंडल द्वारा संचालित होता था। जिन्हें 6 समितियों में विभाजित किया गया था।
  • नगर मेँ अनुशासन मेँ रखने तथा अपराधी मनोवृत्ति का दमन करने हेतु पुलिस व्यवस्था थी, जिन्हें ‘सक्रिय’ कहा जाता था।
  • नगर आयुक्त को एरिस्टोनोमोई कहा जाता था।
  • कौटिल्य के अनुसार नगर का प्रमुख अधिकारी ‘नागरिक’ होता था। नगर निवासियों के जान माल की सुरक्षा तथा नगर प्रशासन से संबंधित नियमो का कार्यांवयन नागरिक का उत्तरदायित्व था।
  • महामात्य उच्च अधिकारी थे जो नगर प्रशासन से संबंधित थे।

 

जिला प्रशासन

जिले को को विषय या आहार कहा जाता था, जिसका प्रधान विषयपति होता था।

  • राजुक की नियुक्ति जनपदो की देखभाल व निरीक्षण के लिए की जाती थी। इनके पास कर संग्रह के साथ-साथ शक्तियाँ न्यायिक शक्तियां भी थीं।
  • जिले से जुड़े अन्य अधिकारीयों मेँ प्रादेशिक तथा युक्त या पूत थे, जो क्रमशः जिलाधिकारी (आर्थिक प्रकोष्ठ) और क्लर्क का कम सँभालते थे।

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स्थानीय प्रशासन या ग्राम प्रशासन

  • ग्राम मौर्य साम्राज्य की सबसे छोटी इकाई थी जिसका प्रधान ‘ग्रमिक’ कहलाता था। यह राजकीय कर्मचारी नहीँ था, इसका निर्वाचन जनता द्वारा किया जाता था।
  • ग्रामिक को ग्राम के ज्येष्ठ व वरिष्ट लोग प्रशासनिक कार्य मेँ सहायता प्रदान करते थे।
  • गोप तथा स्थानिक गाँव तथा जिले के प्रशासन के बीच एक मध्यवर्ती स्तर की ईकाई होती थी, ये संबंधित अधिकारी थे।
  • ग्रामिक के ऊपर गोप होता था, जिसके अधिकार मे 5-10- ग्राम होते थे, जबकि स्थानिक गोप के ऊपर होता था, जिसके तहत जिले का एक चौथाई क्षेत्र होता था। इन ग्राम पदाधिकारियों पर समाहर्ता नमक अधिकारी का नियंत्रण होता था।

 

मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था

  • मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था कृषि पशुपालन और वाणिज्य पर आधारित थी, जिन्हें सम्मिलित रुप से ‘वार्ता’ के नाम से जाना जाता था।
  • राज्य की भूमि पर राजा का स्वामित्व होता था। इसका उल्लेख मेगास्थनीज, स्ट्रेबो एवं एरियन ने भी किया है।
  • कृषि मौर्य काल का प्रमुख व्यवसाय था। कृषि राज्य की आय का प्रमुख स्रोत था।
  • राजकीय भूमि की व्यवस्था करने वाला प्रधान अधिकारी सीता धाम कहलाता था।
  • उसे राज्य की सिंचाई का प्रबंध करना पड़ता था और वह उसके बदले में कर वसूलता था। सिंचाई के लिए अलग से उपज का 1/5/ से 1/3 भाग कर के रूप में लिया जाता था।
  • जूनागढ अभिलेख से चंद्रगुप्त के गवर्नर पुष्यगुप्त द्वारा सौराष्ट्र में निर्मित झील का उल्लेख मिलता है।
  • भूमिकर और सिचाईं कर को मिलाकर किसान को उपज का लगभग ½ भाग देना पड़ता था।।
  • मौर्य कालीन उद्योग व्यापार उन्नत था। सूती वस्त्रों के प्रमुख केंद्र वाराणसी, वत्स, महिस्मति, पुन्द्रू और कलिंग थे।
  • विदेशी व्यापार मुख्यतः यूनान, रोम, फ़्रांस, लंका, सुमात्रा, जावा, मिस्र, सीरिया तथा बोर्नियों द्वीपों से होता था।
  • व्यापारी श्रेणियां संगठित थी। इनका मुखिया ‘श्रेष्ठिन’ कहलाता था। इनके ऊपर एक महाभेदी होता था, जो आपसी विवादों का हल करता था।
  • मौर्य काल मेँ सोने, चांदी तथा तांबे के सिक्कों का प्रचलन था।

 

 

मौर्यकालीन कला संस्कृति

  • मौर्यकाल में कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में अभूतपूर्व प्रगति हुई।
  • मौर्य कला का विकास राजकीय संरक्षण में हुआ|, जिसके अंतर्गत राजप्रसाद, स्तम्भ, गुफा विहार, स्तूप आदि आते थे।
  • लोक कलाएं राजकीय संरक्षण से मुक्त थीं, इसके अंतर्गत पक्ष न्याथिनी की मूर्तियाँ बनायीं जाती थीं।
  • मौर्यकालीन राजकीय कला का एक प्रसिद्द उदाहरण चन्द्रगुप्त का पटना में स्थित राजप्रसाद है, अशोक के समय में चट्टानों को काटकर कंदराओं के निर्माण द्वारा वस्तु कला की एक नई शैली का आरंभ किया गया।
  • स्तूप, मौर्य कालीन भारत की वास्तुकला की महत्वपूर्ण दें है। बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार अशोक ने 4000 स्तूपों का निर्माण करवाया।
  • मथुरा के पास मिली एक यक्ष मूर्ति, बेसनगर की स्त्री मूर्ति और दीदारगंज से मिली मूर्तियाँ मौर्य मूर्तिकला की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
  • मौर्यकालीन मृदभांड, जिन्हें उत्तरी काले पॉलिशदारमृदभांड कहा जाता है, कला की उत्कृष्टता के प्रतीक हैं।
  • मौर्यकाल की अद्भुत कला के असाधारण नमूनों में से एक ‘एकाश्म स्तंभ’ है, जो एक ही पत्थर से बनाया गया है और जिसकी ऊंचाई कई मीटर है।
  • रामपुरवा से प्राप्त वृषभ मूर्ति में गति, सजीवता एवं लालिप्त परिलक्षित होता है। यह मौर्य कालीन कला की अनुपम देन है।

मौर्योत्तर काल

  • मौर्य साम्राज्य के पतन के बाद भारत का इतिहास दो भागों में बढ़ जाता है मध्य एशिया से विदेशी आक्रमण हुए और इन आक्रमणकारियों ने उत्तर पश्चिमी सीमा प्रांत तथा मध्य भारत के 1 बड़े क्षेत्र पर अपना अधिकार कायम कर लिया दूसरी तरफ क्रमशा सॉन्ग कर्नल आंध्र सातवाहन एवं वाकाटक आदिवासी स्थापित हुए यह दोनों प्रवृत्तियां साथ साथ हुई
  • उत्तर पश्चिमी से विदेशियों के आक्रमण मौर्योत्तर काल की सबसे महत्त्वपूर्ण राजनीतिक घटना थी। इनमें सबसे पहले आक्रांता थे बैक्ट्रिया के ग्रीक, जिन्हें पूर्ववर्ती भारतीय साहित्य मेंयवन के नाम से सम्बोधित किया गया है। सिकन्दर ने अपने पीछे एक विशाल साम्राज्य छोड़ा था,
  • जिसमें मैसीडोनिया, सीरिया, बैक्ट्रिया, पार्थिया, अफ़ग़ानिस्तानएवं उत्तर पश्चिमी भारत के कुछ भाग सम्मिलित थे। इस साम्राज्य का काफ़ी बड़ा भाग सिकन्दर के बाद [सेल्युकस] के अधीन रहा। यद्यपि अफ़ग़ानिस्तान एवं भारत के उत्तर पश्चिम के भाग उसे चंद्रगुप्त मौर्य को समर्पित कर देने पड़े थे। सेल्यूकस एवं उसके तुरन्त बाद के अधिकारी कुशल शासक थे किन्तु उनके परवर्ती शासकों के अधीन साम्राज्य का विघटन प्रारम्भ हो गया। लगभग ई. पू. 250 में बैक्ट्रिया के गवर्नर डियोडोटस एवं पार्थिया के गवर्नर औरेक्सस ने अपने आपको स्वतंत्र घोषित कर दिया। बैक्ट्रिया के दूसरे राजा डियोडोटस द्वितीय ने अपने देश सेल्युकस के साम्राज्य से पूर्णतः अलग कर लिया। मौर्यों के पतन के बाद कई विदेशी आक्रमण हुए।
  • इन आक्रमणकारियों का क्रम इस प्रकार था- यूनानी, पार्थियन, कुषाण एवं शक

मौर्योत्तर कालीन भारतीय राजवंश

शुंग राजवंश

  • संस्थापक पुष्यमित्र, जो अंतिम मौर्य सम्राट वृहद्रथ का सेनापति था।
  • पुष्यमित्र ने दो अश्वमेघ यज्ञ किये।
  • इसको बौद्ध धर्म का उद्धारक माना जाता है।
  • इसने भरहुत स्तूप का निर्माण एवं साँची स्तूप का पुनरूद्धार किया था।
  • इस वंश का 9वां शासक भागभद्र था, जिसके दरबार में यूनानी राजदूत एण्टियाल कीड्स आया था।

शुंग वंश के अंतिम शासक देवभूति की हत्या इसके मंत्री वासुदेव ने कर के कण्व वंश

की स्थापना की

 

कण्व वंश

इसके केवल चार शासक ही हुए वसुदेव, भूमि मित्र, नारायण वासु सरमन अंतिम शासक सुशर्मन  की हत्या 30 ईसा पूर्व में सिमुक ने कर दी और एक नवीन ब्राम्हण वंश आंध्र सातवाहन की नींव रखी

 

पहलव वंश

  • इस वंश का प्रथम शासक माउस था।
  • गोणडोफर्नीज इस वंश का महत्वपूर्ण शासक था।

 

कुषाण वंश

  • ये यूची कबीले के थे।
  • कैडफाईसिस कुषाण वंश का प्रथम शासक था|, जिसने महाराज की उपाधि धारण की।
  • मौर्यों के बाद सबसे बड़े साम्राज्य के संस्थापक कुषाण थे।
  • अगला शासक विम कैडफाईसिस था, जिसने महेश्वर की उपाधि धारण की।

 

कनिष्क वंश

  • इसने शक संवत चलाया। इसकी राजधानी पुरुषपुर थी।
  • कनिष्क ने चीन के साथ युद्ध किया।
  • कश्मीर में चौथी बौद्ध संगीति का आयोजन किया था।
  • इसने चीन, जापान, तिब्बत में बौद्ध धर्म प्रचारक भेजे।
  • एशिया का एकमात्र शासक, जिसका राज्य पामीर के पठार के पार तक था।
  • चरक इसका राजकीय चिकित्सक था।, जिसे शल्य चिकित्सा में महारथ प्राप्त थी।
  • अश्वघोष इसका दरबारी कवि था।
  • नागार्जुन कनिष्क का पुरोहित था।
  • इसने विश्व प्रसिद्द रेशम मार्ग पर अधिकार किया था।

 

सातवाहन वंश

  • इनके मूल स्थान को लेकर विवाद है।
  • इनके अधिकांश महाराष्ट्र से मिलते हैं।
  • अभिलेखों के अधर पर इनका मूल स्थान महाराष्ट्र को माना जाता है।
  • शातकर्णी प्रथम; जिसकी पत्नी नागनिक थी ने कुछ समय तक शासन किया।
  • खारवेल ने इनके राज्य पर आक्रमण किया था।
  • गौतमीपुत्र शातकर्णी इस वंश का सबसे प्रतापी राजा था। इसने वैदिक धर्म की पुनः स्थापना की और वर्ण व्यवस्था को पुनः स्थापित किया।
  • इसके बाद वरिष्ठ पुत्र पुलमावी शासक हुआ। इसके सिक्कों पर दो पतवारों के साथ जहाज का अंकन मिलता है।

 

 

 

PAHUJA LAW ACADEMY

LECTURE – 6

HINDI MEDIUM

भारत पर विदेशी आक्रमण

प्रारंभिक परीक्षा प्रश्न

  1. निम्नलिखित में से मगध का कौन सा राजा सिकंदर महान के समकालीन था
  1. महापदम नंद
  2. धनानंद
  3. चंद्रगुप्त मौर्य
  4. नन्दिन

 

  1. युद्ध भूमि में बड़ी संख्या में सैनिकों के मारे जाने अथवा आहत हो जाने के बाद किस भारतीय गणराज्य की स्त्रियों ने सिकंदर के विरुद्ध शस्त्र धारण किया था
  1. अभिसार
  2. ग्लाऊसाईं
  3. कठ
  4. मस्सग

 

  1. अश्वघोष दरबारी कवि था
  1. कनिष्क
  2. हुविश्क
  3. चन्द्रगुप्त मौर्य
  4. अशोक

 

  1. निम्न में से किसने सैंड्रोकोट और सिकंदर महान की भेंट का उल्लेख किया है
  1. क्लीनिक
  2. जस्टिन
  3. स्ट्रेबो
  4. मेगास्थनीज

 

  1. कौटिल्य प्रधानमंत्री थे
  1. चंद्रगुप्त विक्रमादित्य
  2. के अशोक के
  3. चंद्रगुप्त मौर्य के
  4. राजा जनक के

 

  1. जिसके ग्रंथ में चंद्रगुप्त मौर्य का विशिष्ट रुप से वर्णन हुआ है वह है
  1. भास
  2. शूद्रक
  3. विशाखदत्त
  4. अश्वघोष

 

  1. कौटिल्य का अर्थशास्त्र है एक
  1. चंद्रगुप्त मौर्य के संबंध में नाटक
  2. आत्मकथा
  3. चंद्रगुप्त मौर्य का इतिहास
  4. शासन के सिद्धांतों की पुस्तक
  5. निम्नांकित में से किसकी तुलना मैकियावेली के प्रिंस से की जा सकती है
  6. कालिदास का मालविकाग्निमित्रम्
  7. कौटिल्य का अर्थशास्त्र
  8. वात्सायन का कामसूत्र
  9. तिरुवल्लुवर का तिरुक्कुरल

 

  1. पाटलिपुत्र में स्थित चंद्रगुप्त का महल मुख्यता बना था
  2. पत्थर का
  3. लकड़ी का
  4. सोने का
  5. चांदी का

 

  1. गुजरात चंद्रगुप्त मौर्य साम्राज्य में सम्मिलित था ज्ञात होता है
  2. जूनागढ़ अभिलेख से
  3. जैन परंपरा से
  4. अशोक के स्तंभ लेख द्वितीय
  5. उपर्युक्त में से किसी से नहीं

 

  1. सांची का स्तूप किसने बनवाया था
  2. चंद्रगुप्त
  3. गौतम बुद्ध
  4. ने अशोक ने
  5. कनिष्क ने

LECTURE -7

HISTORY (HINDI MEDIUM)

गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल

 

मुख्य परीक्षा

 

 

  1. 1. गुप्त काल में साहित्य और कला के विकास को स्पष्ट कीजिये

 

  1. संक्षिप्त टिपण्णी लिखे(50 शब्द )
  2. मृक्ष कटीकम
  3. गुप्त कालीन न्याय व्यवस्था
  4. भारतीय इतिहास का स्वर्णयुग
  5. चन्द्रगुप्त द्वितीय

 

 

 

 


 

PAHUJA LAW ACADEMY

LECTURE -7

HISTORY (HINDI MEDIUM)

गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल

 

गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल

  • मौर्य विघटन के बाद लम्बे समय तक भारत विभिन्न राजवंशों के अधीन रहा। इस काल में कोई ऐसा राजवंश नहीं हुआ जो भारत को एक शासन के सूत्र में बांध सके।
  • कुषाणों तथा सातवाहनों ने युद्ध में काफी हद तक स्थिरता लेन का प्रयत्न किया। किन्तु वे असफल रहै।
  • कुषाणों के पतन के बाद से लेकर गुप्तों के उदय के पूर्व का काल राजनैतिक दृष्टि से विकेंद्रीकरण तथा विभाजन का काल माना जाता है।
  • इस राजनीतिक संक्रमण को दूर करने के लिए भारत के तीनों कोने सेतीन नए राजवंश का उदय हुआ। मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग में नाग शक्ति, दक्कन में वाकाटक तथा पूर्वी भारत में गुप्त वंश के शासक उदित हुए।
  • अभिलेखीय साक्ष्योँ के आधार पर गुप्तों के आदि पुरुष का नाम श्रीगुप्त था। गुप्त वंश का संस्थापक श्रीगुप्त को ही माना जाता है।
  • 250 ई.पू.  के आसपास श्री गुप्त ने अपने पुत्र घटोत्कच को अपना उत्तराधिकारी बनाया। घटोत्कच ने महाराज की उपाधि धारण की।
  • गुप्त वंशावली मेँ गुप्त वंश के पहले शासक का नाम चंद्रगुप्त प्रथम मिलता है। चंद्रगुप्त प्रथम ने महाराजाधिराज की उपाधि धारण की थी।

 

चंद्रगुप्त प्रथम (319 ई. से 335 ई.)

  • चंद्रगुप्त प्रथम को गुप्त वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। यह गुप्त वंश का महत्वपूर्ण शासक था, जिसने गुप्त वंश को एक साम्राज्य की प्रतिष्ठा प्रदान की।
  • उसने 319-20 ई. में गुप्त वंश की शुरुआत की। उसने लिच्छवी राजकुमारी कुमारदेवी से विवाह कर के अपने वंश को राजनीतिक ओर सामाजिक सम्मान दिलाया। चन्द्रगुप्त प्रथम का शासन मगध और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कुछ क्षेत्रों (साकेत और प्रयाग) तक सीमित था। वैशाली संभवतः उसके राज्य में शामिल नहीं था।
  • गुप्त वंश मेँ चांदी के सिक्कोँ का प्रचलन इसी ने कराया।

 

समुद्रगुप्त (335 ई. से 375 ई.)

  • समुद्रगुप्त गुप्त वंश का सबसे महत्वपूर्ण शासक था। यह चन्द्रगुप्त प्रथम का पुत्र था।
  • समुद्रगुप्त एक महान साम्राज्य निर्माता था। उसने गुप्त साम्राज्य का विस्तार किया।
  • समुद्रगुप्त की सामरिक विजयों का विवरण हरिषेण के प्रयाग प्रशस्ति लेख में मिलता है।
  • आम तौर पर यह माना जाता है की उसने सम्पूर्ण उत्तर भारत पर (आर्यावर्त) प्रत्यक्ष शासन किया।
  • उत्तर भारत के जिन नौ शासकों को समुद्रगुप्त ने पराजित किया था, उनमे अहिच्छत्र के अच्युत, चम्पावती के नागसेन तथा विदिशा के गणपति के नाम प्रमुख हैं।
  • समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत के 12 शासकों को पराजित किया। समुद्रगुप्त की दक्षिणापथ विजय को राय चौधरी ने धर्म विजय की संज्ञा दी है।
  • समुद्रगुप्त एक महान सेनानायक और विजेता था। इस कारणविन्सेंट ने समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा है।
  • अपनी विजयों के बाद समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञकिया, जिसका परिचय उसके सिक्कों तथा उसके उत्तराधिकारियों के अभिलेखों से प्राप्त होता है।
  • समुद्रगुप्त विजेता के साथ-साथ कवि, संगीतज्ञ और विद्या का संरक्षक भी था। उसने महान बौद्ध विद्वान् वसुबंधु को संरक्षण भी प्रदान किया था।
  • समुद्रगुप्त संगीत प्रेमी था। उसके सिक्कों पर उसे वीणा बजाते भी दिखाया गया है।

 

चन्द्रगुप्त द्वितीय ‘विक्रमादित्य’ (380-412 ई.)

  • समुद्रगुप्त के पश्चात उसका पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय गुप्त साम्राज्य का शासक बना। परन्तु विशाखदत्त कृत देवीचंद्र्गुप्त नामक नाटक में समुद्रगुप्त और चन्द्रगुप्त द्वितीय के बीच एक दुर्बल रामगुप्त शासक के अस्तित्व का भी पता चलता है।
  • देवीचंद्र्गुप्त नाटक के अनुसार चन्द्रगुप्त द्वितीय समुद्रगुप्त को पदच्युत करके साम्राज्य के शासन पर बैठा।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर विजय के पश्चात् विक्रमादित्य की उपाधि धारण की। उसकी अन्य उपलब्धियां विक्रमांक और परम्परागत थीं।
  • चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य को भारत के महानतम सम्राटों में से एक माना जाता है, उसने अपने साम्राज्य का विस्तार वैवाहिक संबंधों और विजय दोनों से किया। ध्रुवदेवी और कुबेरनागा उसकी दो पत्नियाँ थीं।
  • दिल्ली स्थित महरौली से प्राप्त लौह स्तंभ से जिस पर ‘चन्द्र’ का उल्लेख मिलता है, चन्द्रगुप्त द्वितीय से सम्बंधित बताया जाता है।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन उसकी विजयों के कारण नहीं बल्कि कला और साहित्य के प्रति उसके अनुराग के कारण विख्यात है।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय कला और साहित्य का महँ संरक्षक था। उसके दरबार में विद्वानों की मंडली रहती थी, जिसेनवरत्न कहा जाता था।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में पाटलिपुत्र और उज्जयिनी विद्या के प्रमुख केंद्र थे। उज्जयिनी विक्रमादित्य की दूसरी राजधानी थी।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में चीनी यात्री फाह्यान भारत आया था। उसने अपने यात्रा वृतान्त में मध्य प्रदेश को ब्राह्मणों का देश कहा है।
  • फाह्यान के यात्रा विवरण से चन्द्रगुप्त द्वितीय के काल में शांति पूर्ण और सुखी जीवन की झांकी मिलती है। फाह्यान के अनुसार अतिथि पराजय और दान पराजय हैं। लोगों में धार्मिक सहिष्णुता विद्यमान थी। राज्य की ओर से उनमे किसी प्रकार का हस्तेक्षप नहीं किया जाता था।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय को नरेंद्र चंद्र, सिंहचंद्र, देवराज, देवगुप्त और देव श्री भी कहा गया है।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय का शासन काल कला संस्कृति और धर्म के लिए उन्नति का काल था।
  • साहित्यिक विकास की दृष्टि में चन्द्रगुप्त द्वितीय अत्यंत समृद्ध था। कालिदास, अमरसिंह और धनवंत आदि उसके समकालीन थे, जिन्होंने महत्वपूर्ण रचनाओं का सृजन किया।
  • कालिदास, धनवंतरि, क्षपणक,अमरसिंह, शंकु, वेताल, भट्ट, घटकर्पर, वराहमिहिर, वररूचि जैसे विद्वान नवरत्नों में शामिल थे।

 

कुमारगुप्त (415 ई. से 454 ई.)

  • चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के बाद कुमारगुप्त साम्राज्य की गद्दी पर बैठा।
  • परन्तु कुमारगुप्त से पूर्व एक और शासक का नाम आता है।वह शासक ध्रुवदेवी (रामगुप्त की पत्नी) का पुत्र गोविन्द गुप्त था। इसके सिक्कों पर सर्वप्रथम शिव-पार्वती को पति-पत्नी के रूप में दर्शाया गया है।
  • गुप्त वंशावली के आधार पर अधिकांश इतिहासकार इस मत से सहमत हैं की समुद्रगुप्त के उपरांत कुमारगुप्त गुप्त वंश का शासक बना।
  • कुमारगुप्त के शासनकाल में मध्य काल में मध्य एशिया के देशों की एक शाखा ने बैक्ट्रिया को जीत लिया और उसके बाद हिन्दुकुश के पहाड़ों से हूणों के आक्रमण का खतरा मंडराने लगा। लेकिन उसके शासन काल में गुप्त सम्राज्य हूणों के खतरे से दूर ही रहा।
  • कुमारगुप्त के सिक्कों से पता चलता है कि उसने अश्वमेघ यज्ञ किया।सुव्यवस्थित शासन का वर्णन उसके मंदसौर अभिलेख से मिलता है। मंदसौर अभिलेख की रचना वत्सभट्टि ने की थी।
  • कुमारगुप्त ने महेंद्रादित्य, श्रीमहेन्द्र और महेंद्र कल्प की उपाधियाँ धारण की थी।
  • कुमारगुप्त के शासन काल में नालंदा विश्वविद्यालय की की स्थापना हुई।

 

स्कंदगुप्त (455 ई. से 467 ई.)

  • कुमारगुप्त की मृत्यु के उपरांत उसका पुत्र स्कंदगुप्त गुप्त साम्राज्य का शासक बना।
  • स्कंदगुप्त गुप्तवंश का अंतिम महत्वपूर्ण शासक था। वह एक वीर और पराक्रमी योद्धा था।
  • इसके शासनकाल में हूणों (मलेच्छों) का आक्रमण हुआ, लेकिन उसने अपने पराक्रम से हूणों को पराजित कर साम्राज्य की प्रतिष्ठा स्थापित की।
  • हूणों पर स्कंदगुप्त की सफलता का उल्लेख जूनागढ़ अभिलेख से मिलता है।
  • स्कंदगुप्त का साम्राज्य कठियावाड़ से बंगाल तक सम्पूर्ण उत्तरी भारत में फैला हुआ था। पश्चिम में सौराष्ट्र, कैम्बे, गुजरात तथा मालवा के भाग सम्मिलित थे।
  • इसने सौ राजाओं के स्वामी की भी उपाधि धारण की।
  • प्रशासनिक सुविधा को ध्यान में रखते हुए उसने अपनी राजधानी को अयोध्या स्थनान्तरित किया।
  • स्कंदगुप्त को कहोम स्तंभ लेख में ‘शक्रादित्य’ आर्यमंजूश्री मूल कल्प में ‘देवरॉय’ कहा गया है।
  • स्कंदगुप्त ने सुदर्शनझील के पुनरुद्धार का कार्य सौराष्ट्र के गवर्नर पर्णदत्त के पुत्र चक्रपालित को सौंपा था।
  • स्कंदगुप्त गुप्त साम्राज्य का अंतिम महत्वपूर्ण शासक था। इसकी मृत्यु के बाद अनेक शासकों ने शासन किया लेकिन उसमे सबसे अधिक शक्तिशाली शासक बुद्धगुप्त हुआ।
  • परवर्ती शासकों की कमजोरी का लाभ उठाकर एक ओर सामंतों ने सर उठाना शुरू किया, दूसरी ओर हूणों के आक्रमण ने गुप्तों की शक्ति को इतना कम कर दिया की स्कंदगुप्त के बाद गुप्त साम्राज्य को कायम नहीं रखा जा सका।

 

हूणों का आक्रमण

  • बैक्ट्रिया  पर विजय प्राप्त करने के बाद हूणों ने कुमारगुप्त के समय भारत की और अपना रुख किया।
  • तोरमाण हूणों का प्रथम शासक था। इसका उल्लेख धन्यविस्यु के समय अभिलेख में मिलता है।
  • हूणों का भारत पर प्रथम आक्रमण स्कंदगुप्त के समय हुआ, परन्तु उन्हें पराजय का सामना करना पड़ा।
  • हूणों का आक्रमण भारत की उत्तर-पश्चिम सीमा से प्रारंभ होकर मध्य भारत तक होता रहा।
  • तोरमाण के उपरांत उसके पुत्र मिहिरकुल ने भी भारत पर आक्रमण जरी रखा।
  • मिहिरकुल को पराजित करने का श्रेय मालवा के यशोवर्मन और गुप्तों के बाद मगध पर शासन करने वाले शासक नरसिंह गुप्त बालादित्य को दिया जाता है।

 

राजनीतिक व्यवस्था

  • गुप्तों का शासन राजतंत्रात्मक व्यवस्था पर आधारित था। शासन का सर्वोच्च अधिकारी सम्राट था।
  • सम्राट व्यवस्थापिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका तीनों का प्रमुख था।
  • राजपद वंशानुगत था, परन्तु राजकीय सत्ता ज्येष्ठाधिकार की प्रथा के आभाव के कारण सीमित थी।

 

केन्द्रीय प्रशासन

  • केन्द्रीय प्रशासन का जो नियंत्रण मौर्य काल में देखने को मिलता है, वह गुप्त काल में नहीं मिलता है।
  • राजा की सहायता के लिए केन्द्रीय स्तर पर मंत्री और अमात्य होते थे।
  • मंत्रियों का चयन उनकी योग्यता के आधार पर किया जाता था।
  • कामन्दक और कालिदास दोनों ने मंत्रिमंडल या मंत्रिपरिषद का उल्लेख किया है।
  • गुप्त साम्राज्य के सबसे बड़े अधिकारी कुमारामात्य होते थे।
  • सम्राट द्वारा जो क्षेत्र स्वयं शासित होता था। उसकी सबसे बड़ी प्रादेशिक इकाई देश थी। देश के प्रशासक को ‘गोप्ता’ कहा जाता था। जूनागढ़ अभिलेख में में सौराष्ट्र को एक ‘देश’ कहा गया है।

साम्राज्य का केन्द्रीय प्रशासन अनेक विभागों में विभक्त था, जिसका उत्तरदायित्व विभिन्न अधिकारीयों को सौंपा गया था।

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प्रांतीय शासन

  • शासन की सुविधा के लिए गुप्त साम्राज्य को विभिन्न प्रान्तों में विभाजित किया गया था, जिन्हें ‘भुक्ति’ कहा जाता था।
  • प्रांतीय शासकों की नियुक्ति सम्राट द्वारा की जाती थी, जिन्हें उपरिक, गोप्ता, मोगपति तथा राजस्थानीय कहा जाता था।
  • प्रांतीय शासन के समस्त कार्यों का उत्तरदायित्व प्रांतीय शासक पर होता था। उनके उत्तरदायित्व केंद्र के शासकीय पदाधिकारियों के सामानांतर थे।
  • ‘विनयस्थिति स्थापक’ विधि एवं व्यवस्था मंत्री था। ‘अटाश्वपति’ पैदल और घुडसवार सेना का अधिपति था। जबकि ‘महापिल्लुपति’ हाथी सेना का अधिकारी था।

 

जिला प्रशासन

  • भुक्तियोका विभाजन अनेक जिलों में किया गया था। इन जिलों को विषय कहा जाता था। इसकी नियुक्ति उपरिक द्वारा की जाती थी।
  • विषयपति की सहायता एवं परामर्श देने के लिए एक विषयपरिषद् होती थी, जिसकी नियुक्ति प्रायः पांच वर्ष के लिए की जाती थी।
  • विषय परिषद् के सदस्य विषय महत्व कहलाते थे। इनमें सार्थवाह, प्रथम कुलिक और प्रथम कायरथ शामिल थे।

 

 

 

स्थानीय प्रशासन

  • गुप्त साम्राज्य में स्थानीय प्रशासन को दो भागों में बांटा गया था- नगर प्रशासन 2. ग्राम प्रशासन।
  • प्रमुख नगरों में नगरपालिकाए होती थी इसका प्रमुख अधिकारी पुरपाल, नगरअक या द्रांगिक कहा जाता था। यह नगर परिषद् की सहायता से समस्त समस्त नागरिक सुविधाओं तथा सुरक्षा के लिए उत्तरदायी होता था।
  • नगर परिषद् के प्रमुख को ‘नगरपति’ कहा जाता था। अवस्थिक नामक कर्मचारी धर्मशालाओं के पर्यवेक्षक के रूप में कार्य करते थे।
  • गुप्त काल में ग्राम, प्रशासन की सबसे छोटी इकाई थी। प्रत्येक विषय के अंतर्गत कई ग्राम होते थे।
  • ग्राम और विषय के मध्य एक और इकाई के अस्तित्व का साक्ष्य मिलता है। इसे ‘पेय’ कहा जाता था। पेय कई ग्रामों का एक समूह था।
  • ग्राम प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी ग्रामपति या ग्रामिक था। उसकी सहयता के लिए एक ग्राम पंचायत थी।
  • इस ग्राम सभा को मध्य भारत में ‘पंचमजुली’, तथा बिहार में ग्राम जनपद कहा जाता था।

 

न्याय व्यवस्था

  • गुप्त काल में ही प्रथम बार दीवानी तथा फौजदारी कानूनों की विषद व्याख्या की गयी तथा इनके बीच अंतर किया गया
  • सम्राट ही अंतिम न्यायाधीश होता था व्यापारियों तथा व्यावसायियों के अपने अलग न्यायालय होते थे इन्हें पूग एवं कुल कहा जाता था
  • दण्डविधान कठोर था।दण्डनायक, सर्वदण्डनायक और महादण्डनायक न्यायाधीश थे।
  • निम्न स्तर पर न्यायिक मामलों का निपटारा समिति, परिषदें तथा संस्थाएं भी करती थीं।मंत्री और पुरोहित भी न्यायायिक मामलों में सहायता करते थे।

सामाजिक व्यवस्था

  • गुप्तकालीन समाज पम्परागत चार वर्गों अर्थात, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र में विभक्त था।
  • इस काल की वर्ग व्यवस्था की विशेषता यह थी की अब शूद्र सैनिक वृत्ति अपनाने लगे थे।
  • ह्वेनसांग के विवरण से विदित होता है की मतिपुर का राजा शूद्र था।
  • समाज में ब्राह्मणों का स्थान सर्वोच्च था। ब्राह्मणों के 6 कर्तव्य माने जाते थे- अध्ययन, अध्यापन, यज्ञ करना, दान देना एवं दान लेना।
  • न्याय संहिताओं में कहा गया है की ब्राह्मण की परीक्षा तुला से, क्षत्रिय की अग्नि से, वैश्य की जल से तथा शूद्र की विष से की जानी चाहिए।
  • इस काल के ग्रंथों में यह उल्लेख मिलता है कि, ब्राह्मण को शूद्र का अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि इससे अध्यात्मिक बल घटता है।
  • मनु के अनुसार दस वर्षीय ब्राह्मण सौ वर्षीय क्षत्रिय से श्रेष्ठ था। ब्राह्मण एवं क्षत्रिय क्रमशः पिता और पुत्र तुल्य थे।
  • गुप्त काल में कायस्थ जाति का उदय हुआ। कायस्थ प्रारंभ में लिपिक का कार्य करने वाले लोग थे, जो आगे चलकर एक जाति के रूप में विकसित हो गए।
  • गुप्त काल में स्त्रियों की स्थिति में गिरावट आयी। सामान्यतः 12-13 वर्ष की आयु में लडकियोंकी शादी कर दी जाती थी।
  • इस काल में विधवाओं की स्थिति अत्यंत सोचनीय थी।। हालाँकि नारद एवं परामर्श स्मृति में विधवा विवाह का वर्णन मिलता है।
  • गुप्तकाल में सती प्रथा की शुरुआत मानी जाती है, क्योंकि सतीप्रथा का पहले अभिलेख प्रमाण 510 ई. के भानुगुप्त के अभिलेख से मिलता है।गोप्र्ज नमक सेनापति की पत्नी अपने पति के साथ सटी हो जाती है
  • गुप्तकालीन साहित्य एवं कला में नारी का आदर्श चित्रण है परंतु व्यावहारिकरूप में उनकी स्थिति पहले की अपेक्षा दयनीय हो गयी थी।
  • फाह्यान और ह्वेनसांग पर्दा प्रथा की चर्चा नहीं करते हैं परन्तु कालीदास के अभिज्ञान शाकुंतलम में अवगुंठन शब्द का प्रयोग हुआ है
  • पुत्र के आभाव में पुरुष की संपत्ति पर उसकी पत्नी का अधिकार होता था। उसके बाद उसकी पुत्रियों के अधिकार का विधान था।

आर्थिक व्यवस्था

  • गुप्त काल आर्थिक दृष्टि से सम्पन्नता का काल था। इस काल के लोगों का जीवन समृद्धि से परिपूर्ण था।
  • गुप्तकाल के लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि था। वृहद्संहिता में तीन फसलों की जानकारी मिलती है।
  • इत्सिंग के अनुसार चावल और जौ मुख्य फसलें थीं। कालिदास ने ईख और धान की खेती का उल्लेख मिलता है।
  • प्राचीन परम्परा के अनुसार राजा भूमि का मालिक होता था। वह भूमि से उत्पन्न उत्पादन का 1/6 भाग का अधिकारी था। राजकीय आय का मुख्य स्रोत भूमिकर था।
  • गुप्त काल के कुछ प्रमुख कर इस प्रकार हैं-
  • उपर्युक्तमुख्य करों के अतिरिक्त हिरण्य, प्रणय, आदि जैसे अन्य करों का भी उल्लेख मिलता है।
  • करों की अदायगी हिरण (नकद) तथा ‘मेय’ (अन्न के तौल) दोनों ही रूपों\ में की जा सकती थी
  • सिंचाई का सर्वोत्तम उदाहरण स्कंदगुप्त के जूनागढ़ अभिलेख से मिलता है। सिंचाई के लिए रहट या घट्टी यंत्र का प्रयोग होता था।
  • गुप्त शासकों ने सबसे अधिक स्वर्ण सिक्के जारी किये थे। सोने के सिक्कों को गुप्त अभिलेखों में दीनार कहा गया है।
  • व्यापारियों की एक समिति होती थी, जिसे नियम कहा जाता था। नियम के प्रधान को श्रेष्ठि कहा जाता था। व्यापारियों के समूह को सार्थ तथा उनके मुखिया को सार्थवाह कहा जाता था।
  • नगर श्रेष्ठिन बैंकरों एवं साहूकारों के रूप में कार्य करते थे।
  • मंदसौर अभिलेख से पता चलता है, की रेशम बुनकरों की श्रेणी ने एक भव्य सूर्य मंदिर का निर्माण करवाया था।
  • वस्त्र उद्योग गुप्त काल का एक प्रमुख उद्योग था। अमरकोश में कटाई, बुनाई, हथकरघा, धागे इत्यादि का सन्दर्भ आया है।
  • गुप्तकाल में विदेशों से भी व्यापारिक सम्बन्ध थे। इनमे वेजेन्टाईन साम्राज्य तथा चीन प्रमुख थे।
  • विदेशों को निर्यात की जाने वाली सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तुओं में मसाले और रेशम थे।

कला और साहित्य

  • कला और साहित्य के अप्रतिम विकास के आधार पर ही भारतीय इतिहास में गुप्तकाल को ‘स्वर्णयुग’ कहा गया है।
  • गुप्तकाल में ही सम्पूर्ण मंदिर निर्माण कला का जन्म हुआ।मंदिरों का प्रारंभ गर्भगृह से होता था ।शिखर युक्त मंदिरों का निर्माण गुप्तकला की सर्वाधिक महत्वपूर्ण विशेषता थी।
  • भूमरा का शिवमंदिर (नागोद).तिग्वा का विष्णु मंदिर गुप्त काल में निर्मित मंदिरों के प्रमुख उदाहरण हैंगुप्त मूर्ति कला के सर्वोत्तम उदाहरण सारनाथ की मूर्तियाँ हैं, और चित्रकला के सर्वोत्कृष्ट उदाहरण अजंता बौद्ध कला के उदाहरण हैं। गुप्तकालीन मूर्तियों की बनावट, भाव भंगिमा और कलात्मकता निःसंदेह अतुलनीय है।
  • कालिदास ने युगांतरकारी साहित्य की रचना से गुप्तकाल को इतिहास में सम्मानजनक स्थान दिलाया है।
  • कुमारसंभव, मेघदूत, ऋतुसंहार और अभिज्ञानशाकुन्तलम जैसी कालजयी कृतियों की रचना गुप्तकाल में ही हुईं थीं।
  • पुराणों तथा नारद कात्यारान, पराशर, वृहस्पति आदि स्मृतियों की रचना भी गुप्तकाल में ही हुई।
  • विज्ञान के क्षेत्र में भी साहित्य का सृजन हुआ। ब्रह्मसिद्धांत, आर्यभट्टीयम और सूर्यसिद्धान्त की रचना करने वाले आर्यभट्ट थे।
  • कामंदक ने ‘नीतिसार’ और वात्सायन में कामसूत्र की रचना गुप्तकाल में ही की।
  • विष्णु शर्मा द्वारा रचित ‘पंचतंत्र’ गुप्तकालीन साहित्य का सर्वोत्कृष्ट नमूना है।
  • यास्क कृत ‘निघतु’ निरुक्त से वैदिक साहित्य के अध्ययन में सहायता मिलती है। भट्टी, भौमक आदि व्याकरण के विद्वान् थे।
  • इस काल में बौद्ध साहित्य की भी रचना हुई, बुद्धघोष में सुमंगलविलासिनी की रचना की। इसके अतिरिक्त ‘लंकावतारसूत्र’ ‘महायानसूत्र’ ‘स्वर्णप्रभास’ आदि बौद्ध कृतियों की रचना की गयी।

जैनाचार्य सिद्धसेन ने तत्वानुसारिणी तत्वार्थटीका नामक ग्रन्थ की रचना की।

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  • गुप्त वंशके पतन के पश्चात छठी शताब्दी ईसा पूर्व के आस-पास ‘पुष्यभूति‘ नामक शासक ने ‘वर्द्धन या वर्धन वंश’ की स्थपना की थी। वर्द्धन या वर्धन वंश को ‘पुष्यभूति वंश’ भी कहा जाता है। इसकी राजधानी थानेश्वर थी। इस वंश का सबसे महान और ख्याति प्राप्त राजा हर्षवर्धन था। हर्षवर्धन को शिलादित्य के नाम से भी जाना जाता था, ये हर्षवर्धन की उपाधि थी।
  • हर्षवर्धनउत्तर भारत का अंतिम महान हिन्दू शासक था। जिसने अपना राज्य पुरे उत्तर भारत में फैलाकर एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की थी। हर्षवर्धन ने थानेश्वर और कन्नौज को एक कर अपनी राजधानी को थानेश्वर से कन्नौज स्थानांतरित किया था।
  • हर्षवर्धन का विशाल साम्राज्य पूर्व में कामरूप (असम स्थित एक प्राचीन राज्य) से लेकर पश्चिम में सौराष्ट्र (गुजरात का एक क्षेत्र) तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विंध्य पर्वत तक फैला हुआ था।
  • हर्षवर्धनबौद्ध धर्म की महायान शाखा का अनुयायी था, अतः उसने जनहितकारी और लोगों की उन्नति हेतु कई कार्य किये।
  • हर्षवर्धन ने प्रयाग (उत्तर प्रदेश) में बौद्ध महासम्मेलन का भी आयोजन किया था। हर्षवर्धन अपनी धार्मिक सभाएं लगभग हर 5 वर्ष के अंतराल में प्रयाग में ही आयोजित किया करता था। जिसे ‘महामोक्षपरिषद‘ कहा जाता था जिसकी समयावधि 75 दिनों की हुआ करती थी।
  • ऐसी भीजनश्रुति है कि हर्षवर्धन अपनी सम्पूर्ण संपत्ति इस परिषद् में दान कर दिया करता था। इसीलिए हर्षवर्धन के दान देने के गुण के कारण ही उसे ‘हातिम‘ कहा जाता था
  • हर्षवर्धन एक विद्वान व्यक्ति था, उसने ‘प्रियदर्शिका‘, ‘नागानंदया नागनन्दिन‘ तथा ‘रत्नावली‘ नामक तीन संस्कृत नाट्य ग्रंथों की रचना की थी।
  • हर्षवर्धन के दरबार मेंबाणभट्टमयूर दिवाकरहरिदत्त एवं जयसेन जैसे विद्वान विराजते थे। राजकवि बाणभट्ट ने हर्षवर्धन की जीवनी ‘हर्षचरित्र या हर्षचरितम्‘ की रचना की थी, जिसमें हर्षवर्धन काल की जानकारियां निहित हैं। इसके अलावा बाणभट्ट ने संस्कृत साहित्य के महान उपन्यास ‘कादम्बरी‘ की रचना भी की थी।
  • हर्षवर्धन के शासनकाल में प्रसिद्धचीनी यात्री ह्वेनसांग (ह्वेन त्सांग) भारत की यात्रा पर आया था। जिसने ‘सी-यू-की‘ नामक पुस्तक की रचना की थी, जिसमें हर्षकालीन भारत की सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक अवस्था का परिचय मिलता है। ह्वेनसांग को ‘यात्रियों में राजकुमार‘, ‘निति का पंडित‘ और ‘शाक्य मुनि‘ आदि नामों से भी जाना जाता है। ह्वेनसांग के सम्मान में हर्षवर्धन ने ‘कन्नौज सभा‘ का आयोजन किया था।
  • चीनी यात्री ह्वेनसांग नेनालंदा विश्वविद्यालय में भी अध्ययन किया था। हर्षवर्धन के समय नालंदा विश्वविद्यालय का कुलपति ‘शीलभद्र‘ था। हर्षवर्धन काल में नालंदा विश्वविद्यालय अपने चरमोत्कर्ष पर था। साथ ही ह्वेनसांग की भारत यात्रा के समय या यूँ कहा जाये कि हर्षवर्धन के समय मथुरा नगर सूती वस्त्रउत्पादन के लिये सबसे प्रसिद्ध नगर माना जाता था।
  • हर्षवर्धन के राज में किसानों द्वाराभूमि राजस्वकर स्वरूप कुल उपज का छठा हिस्सा राजा को देना होता था। भूमि देने की सामंती प्रथा की शुरुआत भी हर्षवर्धन द्वारा ही की गयी थी।

हर्षवर्धन की मृत्यु के बाद इसका राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और हर्षवर्धन अंतिम हिन्दू शासक के रूप में जाना गया। साथ ही हर्षवर्धन को अंतिम बौद्ध शासक और संस्कृत के महान विद्वान व लेखक के रूप में भी जाना जाता है। हर्षवर्धन के पश्चात कोई भी हिन्दू शासक इतिहास के पन्नों में अपनी छाप नहीं छोड़ सका।

 

 

 

 

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LECTURE -7

HISTORY (HINDI MEDIUM)

गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल

प्रारंभिक परीक्षा प्रश्न

 

  1. भारत का नेपोलियन किसे कहा जाता था
  • पुष्यमित्र शुंग
  • चंद्रगुप्त मौर्य
  • समुद्रगुप्त
  • अशोक महान

 

  1. इलाहाबाद स्तंभ अभिलेख निम्नलिखित में से किस एक से संबंध है
  • महापदम नंद
  • चंद्रगुप्त मौर्य
  • अशोक
  • समुद्रगुप्त

 

  1. परम भागवत की उपाधि धारण करने वाला प्रथम गुप्त शासक था
  • चंद्रगुप्त प्रथम
  • समुद्रगुप्त
  • चंद्रगुप्त द्वितीय
  • रामगुप्त

 

  1. प्रयाग प्रशस्ति के सैन्य अभियान के बारे में जानकारी देती है
  • चंद्रगुप्त प्रथम
  • समुद्रगुप्त
  • चंद्रगुप्त द्वितीय
  • कुमारगुप्त

 

  1. कौन सा राजवंश हूणों के आक्रमण से अत्यंत विचलित हुआ
  • गुप्त
  • मौर्य
  • सातवाहन
  • शुंग

 

 

 

 

 

 

 

 

  1. निम्नलिखित में से कौन गुप्त काल में अपनी आयुर्विज्ञान विषयक रचना के लिए जाना जाता है
  • शामिल
  • शूद्रक शौनक
  • सूत्र सूरत
  • सुश्रुत

 

  1. कालिदास किसके शासनकाल में थे
  • समुद्रगुप्त
  • अशोक महान
  • चंद्रगुप्त प्रथम
  • चंद्रगुप्त द्वितीय

 

  1. अधोलिखित में कौन गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्रा है
  • कौड़ी
  • पण
  • निष्क
  • दीनार

 

  1. गुप्तकाल में लिखित संस्कृत नाटकों में स्त्री और शूद्र बोलते थे
  • संस्कृत
  • प्राकृत
  • पाली
  • शौरसेनी

 

  1. गुप्त संवत की स्थापना किसने की
  • श्रीगुप्त
  • चंद्रगुप्त द्वितीय
  • घटोत्कच
  • चंद्रगुप्त प्रथम

 

11.किस शासक ने मंदिरों एवं ब्राह्मणों को सबसे अधिक ग्राम अनुदान में दिया था

  • गुप्त वंश
  • पाल वंश
  • राष्ट्रकूट
  • प्रतिहार

 

  1. प्राचीन भारतीय पुस्तक मृच्छकटिकम् का विषय था
  • एक धनी व्यापारी और एक गणिका की पुत्री की प्रेमगाथा
  • चंद्रगुप्त द्वितीय की पश्चिम भारत के सब शत्रुओं पर विजय
  • समुद्रगुप्त के सैन्य अभियान तथा संपूर्ण कार्य

गुप्त राजवंश के राजा तथा कामरुप की राजकुमारी की प्रेम गाथा

HISTORY HINDI LECTURE – 8

संगम युग

मुख्य परीक्षा

  1. संक्षिप्त टिपण्णी लिखे
    1. संगम साहित्य
    2. करिकाल
    3. विक्रमशिला महाविहार
    4. भोज
    5. हरिकेली

 

 

PAHUJA LAW ACADEMY

HISTORY HINDI LECTURE – 8

संगम युग

 

संगम युग

सुदूर दक्षिण भारत में कृष्णा एवं तुंगभद्रा नदियों के बीच के क्षेत्र को ‘तमिल प्रदेश’ कहा जाता था। इस प्रदेश में अनेक छोटे-छोटे राज्यों का अस्तित्व था, जिनमें चेर, चोल और पांड्य प्रमुख थे। दक्षिण भारत के इस प्रदेश में तमिल कवियों द्वारा सभाओं तथा गोष्ठियों का आयोजन किया जाता था। इन गोष्ठियों में विद्वानों के मध्य विभिन्न विषयों पर विचार-विमर्श किया जाता था, इसे ही ‘संगम’ के नाम से जाना जाता है। 100 ई. से 250 ई. के मध्य दक्षिण भारत में तीन संगमों को आयोजित किया गया। इस युग को ही इतिहास में “संगम युग” के नाम से जाना जाता है। सर्वप्रथम इन गोष्ठियों का आयोजन पांड्य राजाओं के राजकीय संरक्षण में किया गया था, जिसकी राजधानी मदुरई थी।

 

तमिल परंपरा से तीन साहित्यिक परिषदों का विवरण मिलता है। वे पांडय राजाओं की राजधानी में आयोजित की गयी थीं।

प्रथम संगम- यह मदुरै में आयोजित हुआ। आचार्य अगस्त्य ने इसकी अध्यक्षता की। अगस्त्य ऋषि को ही दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति के प्रसार का श्रेय दिया गया है। तमिल भाषा में प्रथम ग्रन्थ के प्रणेता भी इन्हें ही माना गया है। माना जाता है कि प्रथम संगम में देवताओं और ऋषियों ने भाग लिया था, किन्तु प्रथम संगम की सभी रचनाएँ विनष्ट हो गई।

 

दूसरा संगम- यह कवत्तापुरम या कपाटपुरम में आयोजित हुआ। इसके अध्यक्ष-अगस्त्य और तोल्कापियम हुए। इसकी भी सभी रचनाएँ विनष्ट हो गई, केवल एक तमिल व्याकरण तोल्कापियम बचा रहा।

 

तीसरा संगम- मदुरै में आयोजित हुआ। नकीर्र ने इसकी अध्यक्षता की। तीसरे संगम में रचित साहित्य 8 संग्रह ग्रन्थों में संकलित है। इन्हें ऐत्तुतोगई कहते हैं। आठ ग्रन्थों के नाम इस प्रकार हैं-

 

  1. नण्णिनै-प्रेम पर 400 छोटी कविताएँ हैं।
  2. कुरून्थोकै-प्रेम पर 400 कविताएँ हैं।
  3. एनगुरूनूर-किलार द्वारा रचित प्रेम पर 500 कविताएँ हैं।
  4. पदितुप्पतु-चेर राजाओं की प्रशंसा में आठ कविताएँ हैं।
  5. परिपादल-देवताओं की प्रशंसा में 20 कविताएँ हैं।
  6. करितोगई-150 कविताएँ हैं।
  7. अहनानुरू-रूद्रश्रमण द्वारा रचित 400 कविताएँ हैं।
  8. पुरनानुरू-राजा की स्तुति में 400 कविताएँ है।

 

उपर्युक्त आठ ग्रन्थ एवं दस ग्राम्य गीत मेलकन्कु के नाम से जाने जाते हैं। ये दस ग्राम्य गीत पतुपतु में संकलित हैं। मेलकन्कु आख्यानात्मक साहित्य को कहा गया है।

शिलप्पादिकारम

यह ‘तमिल साहित्य’ का प्रथम महाकाव्य है, जिसका शाब्दिक अर्थ है – ‘नूपुर की कहानी’। इस महाकाव्य की रचना चेर शासक ‘सेन गुट्टुवन’ के भाई ‘इलांगो आदिगल’ ने लगभग ईसा की दूसरी-तीसरी शताब्दी में की थी। इस महाकाव्य की सम्पूर्ण कथा नुपूर के चारों ओर घूमती है। इस महाकाव्य के नायक और नायिका ‘कोवलन’ और ‘कण्णगी’ हैं।

मणिमेखलै

  • इस महाकाव्य की रचनामदुराके एक बौद्ध व्यापारी ‘सीतलै सत्तनार’ ने की।
  • ‘मणिमेखलै’ की रचना ‘शिलप्पादिकारम’ के बाद की गयी। ऐसी मान्यता है कि जहाँ पर ‘शिलप्पादिकारम’ की कहानी ख़त्म होती है, वहीं से ‘मणिमेखलै’ की कहानी प्रारम्भ होती है।
  • ‘सत्तनार’ कृत इस महाकाव्य की नायिका ‘मणिमेखलै’, ‘शिलप्पादिकारम’ के नायक ‘कोवलन्’ की दूसरी पत्नी ‘माधवी वेश्या’ की पुत्री थी।

जीवक चिन्तामणि

  • ‘जीवक चिंतामणि’ जैनमुनिएवं महाकवि ‘तिरुतक्कदेवर’ की अमर कृति है।
  • इस ग्रंथ को तमिल साहित्य के 5 प्रसिद्ध ग्रंथों में गिना जाता है।
  • 13 खण्डों में विभाजित इस ग्रंथ में कुल क़रीब 3,145 पद हैं। ‘जीवक चिन्तामणि’ महाकाव्य में कवि ने जीवक नामक राजकुमार का जीवनवृत्त प्रस्तुत किया है। इस काव्य का नायक आठ विवाह करता है। वह जीवन के समस्त सुख और दुःख को भोग लेने के उपरान्त राज्य और परिवार का त्याग कर सन्न्यास ग्रहण कर लेता है।

महत्वपूर्ण संगम शासक

चोल वंश

  • चोलों की पहली राजधानी उत्तरी मलनुर थी। कालांतर में वह उरैयूर और तंजावूर हो गयी। चोलों का राजकीय चिह्न बाघ था।

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  • प्रथम चोल शासक इलजेतचेन्नी था। इसी ने उरैयूर राजधानी बनायी।

 

  • चोल राजाओं में करिकाल प्रमुख है। उसके बारे में कहा जाता है कि जब वह खुले समुद्र में जहाज चलाता था तो हवा भी उसके अनुसार बहने को बाध्य होती थी। करिकाल का अर्थ है जली हुए टांग वाला व्यक्ति। करिकाल को 7 स्वरों का ज्ञाता भी कहा जाता था। कावेरी नदी के मुहाने पर उसने पुहार की स्थापना की। उसने पटिनप्पालै के लेखक को 16 लाख मुद्राएँ भेंट कीं।

 

  • इसने दो प्रसिद्ध युद्धों से ख्याति अर्जित कीपहलावेण्णी का युद्ध इस युद्ध में करिकल ने पाण्ड्य तथा चेर राजाओं सहित 11 राजाओं को पराजित किया दूसरा युद्ध वाहैप्पारंदलाई था

 

  • दूसरी सदी ई.पू. के एक शासक एलारा की भी चर्चा मिली है। इसने श्रीलंका पर 50 वर्षों तक शासन किया।

 

चेर शासक

  • संगम साहित्य से चेर शासकों पर विशेष प्रकाश पड़ता है। प्राचीन चेर राज्य में मूल रूप से उतरी त्रावणकोर, कोचीन तथा दक्षिणी मालाबार सम्मिलित थे।
  • प्राचीन चेर राज्य की दो राजधानियाँ थीं, वंजि और तोण्डी। वंजि की पहचानकरूर से की गई है। टोलमी चेरों की राजधानी करौरा का उल्लेख करता है।

 

  • प्रथम चेर शासक उदयन जेराल के बारे में कहा जाता है कि उसने कुरुक्षेत्र में भाग लेने वाले सभी योद्धाओं को भोजन दिया। अत: उसे महाभोज उदयन जेरल की उपाधि दी गई।

 

  • उदयन जेरल का पुत्र नेदुजेरल आदन ने कई राजाओं को पराजित करके अधिराज की उपाधि ली। वह इमैवरैयन (जिसकी सीमा हिमालय तक हो) कहा जाता था। वह दावा करता है कि उसने सारे भारत की जीत लिया तथा हिमालय पर चेर राजवंश के चिह्न को अंकित किया। उसकी राजधानी का नाम मरन्दई था।

 

  • आदन का पुत्र सेनगुटुवन था, परनर कवि द्वारा यश वर्णन किया गया है।

 

  • उसने कन्नगी पूजा अथवा पत्नी पूजा आरंभ की। माना जाता है कि पत्नी पूजा की मूर्ति के लिए पत्थर गंगा नदी से धोकर लाया गया था।
  • इसे लाल या भला चेर भी कहा जाता था
  • बलिपुरम के युद्ध में नौ चोल शासकों को पराजित किया था इसे पश्चात इसने कदलाप्पीरक्कोत्तिय अर्थात समुद्र को पीछे हटाने वाले की उपाधि धारण की थी

 

  • एक चेर शासकआदिग इमान उर्फ नदुमान अंजि है। वह विद्वानों का बड़ा संरक्षक था, उसे दक्षिण में गन्ने की खेती शुरू करने का श्रेय दिया जाता है। एक चेर शासक शेय था जिसे हाथी जैसे आँखों वाला कहा जाता था। अंतिम चेर शासक कुडक्को इलंजेराल इरमपोई थी। चेरो की राजधानी करूयूर अथवा वंजीपुर थी।

 

  • चेरों का राजकीय चिह्न धनुष था।

पांड्य

  • मेगस्थनीज ने पंडैया द्वारा शासित पांडय राज्य का विलक्षण वर्णन प्रस्तुत किया है। पांड्य की राजधानी मदुरई थी और उनका राज-चिह्न मछली था।
  • कौटिल्य के अर्थशास्त्र से ज्ञात होता है कि मदुरा कीमती मोतियों, उच्च कोटि के वस्त्र एवं विकसित वाणिज्य और व्यापार के लिए प्रसिद्ध था।
  • पांड्यों की प्रारम्भिक राजधानी कोरकई करुयुर थी। प्रमुख पांड्य शासक नेडियोन ने सागर पूजा की प्रथा शुरू की।वेलबिक्री दानपत्र के अनुसार पलशायमुड्डोकुडमि, , पांडय वंश का प्रथम ऐतिहासिक शासक था। उसे अनेक यज्ञशाला बनाने का श्रेय दिया जाता हैं इसलिए उसका नाम पलशाय है। इस वंश का प्रसिद्ध शासक नेडूनजेलियन था। उसे तलैयालगानम का युद्ध जीतने का श्रेय दिया जाता है। उसने चेर शासक शेय को पराजित करके बंदीगृह में डाल दिया। इसी ने कन्नगी के पति कोवलन को दंडित किया था। फिर उसने पश्चाताप में आत्महत्या कर ली। संगम ग्रन्थ में नल्लिवकोडम को अन्तिम ज्ञात पांड्य शासक माना जाता है।

 

संगम युगीन प्रशासन

राज्य एक प्रकार के कुल राज्य संघ थे। इस प्रकार के राज्य का उल्लेख अर्थशास्त्र में भी हुआ है। संगमयुगीन शासन राजतंत्रात्मक तथा वंशानुगत था। राजा को मन्नम, वेन्दन राजा का मुख्य आदर्श दिग्विजय प्राप्त करना, प्रजा को संतान रूप में स्वीकार करना तथा पक्षपात रहित होकर शासन करना था।

 

 

राजा की सहायता के लिए अधिकारियों का एक समूह होता था जो 5 समूहों में विभाजित था।

  1. मंत्री-अमैईयच्चार- प्रधानमंत्री या मंत्री
  2. पुरोहित-पुरोहितार– धार्मिक विभाग
  3. सेनापतियार- सेनाविभाग
  4. दुत्तार- विदेशी विभाग
  5. गुप्तचर (ओरार)

 

  • राज्य मंडलों में विभाजित था,
  • मंडल नाडू या जिला में विभाजित था,
  • नाडू उर या गाँव में विभाजित था।
  • समुद्र तटीय कस्बों को पतिनम कहा जाता था। बड़े गाँव पेरूर, छोटे गाँव सिरूर और पुराने गाँव मुडूर कहलाते थे।

 

  • राजकीय आय का मुख्य स्रोत कृषि था। तमिल प्रदेश अपनी उर्वरता के लिए प्रसिद्ध था। कावेरी डेल्टा बहुत उपजाऊ था। आबूर किलार के अनुसार एक हाथी बैठने की जगह में 7 व्यक्तियों का भोजन मिल सकता था
  • कृषि कर करई या कदमई कहलाता था
  • सीमा शुल्क उलगू या उल्कू कहलाता था
  • मरुदम उपजाऊ कृषि भूभाग था

संक्रमण काल या राजपूत काल

  • राजपूतों का उदयहर्षवर्धन की मृत्यु के बाद उत्तर भारत में विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया तेज हो गयी। किसी शक्तिशाली केन्द्रीय शक्ति के अभाव में छोटे छोटे स्वतंत्र राज्यों की स्थापना होने लगी।
  • सातवीं-आठवीं शताब्दी में उन स्थापित राज्यों के शासक ‘ राजपूत’ कहे गए। उनका उत्तर भारत की राजनीति में बारहवीं सदी तक प्रभाव कायम रहा।इस काल में उत्तर भारत में राजपूतों के प्रमुख वंशों – चौहान, परमार, गुर्जर, प्रतिहार, पाल, चंदेल, गहड़वाल आदि ने अपने राज्य स्थापित किये।
  • 12वीं सदी में उत्तर भारत में प्रभुत्व स्थापित करने के लिए चंदेलों, गहड़वालों और चौहानों के बीच संघर्ष हुआ, जिसे ‘त्रिपक्षीय संघर्ष’ कहा जाता है।

 

गुर्जर-प्रतिहार वंश

 

  • अग्निकुल के राजपूतों में सर्वाधिक महत्त्व प्रतिहार वंश का था। जिन्हें गुर्जरों से सम्बद्ध होने के कारण गुर्जर-प्रतिहार भी कहा जाता है।
  • परंपरा के अनुसार हरिवंश को गुर्जर-प्रतिहार वंश का संस्थापक माना जाता है, लेकिन इस वंश का वास्तविक संस्थापक नागभट्ट प्रथम को माना जाता है।
  • प्रतिहार वंश की प्राथमिक जानकारी पुलकेशिन द्वितीय के ऐहोल अभिलेख, बाण के हर्षचरित और ह्वेनसांग के विवरणों से प्राप्त होता है।
  • प्रतिहारों का राज्य उत्तर भारत के व्यापक क्षेत्र में विस्तृत था। यह गंगा-यमुना, दोआब, पश्चिमी राजस्थान, हरियाणा तथा पंजाब के क्षेत्रों तक फैला हुआ था।
  • नागभट्ट प्रथम (730-756 ई.) ने सिंध के अरब शासकों से पश्चिमी भारत की रक्षा की। ग्वालियर प्रशस्ति में उसे ‘म्लेच्छों (सिंध के अरब शासक) का नाशक’ कहा गया है।
  • वत्सराज (780-805 ई.) इस वंश का शक्तिशाली शासक था। वत्सराज के बाद उसका पुत्र नागभट्ट द्वितीय (800-833 ई.) गद्दी पर बैठा। उसने कन्नौज पर अधिकार करके उसे प्रतिहार साम्राज्य की राजधानी बनाया।
  • मिहिरभोज के पुत्र ने राष्ट्रकूट शासक कृष्ण द्वितीय को हराकर मालवा प्राप्त किया तथा आदिवराह तथा प्रभास जैसी उपाधियाँ धारण की।
  • मिहिरभोज के पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम के दरबार में प्रसिद्द विद्वान् राजशेखर निवास करते थे।
  • राजशेखर ने कर्पूर मंजरी, काव्यमीमांसा, विद्वशालमंजिका, बालभारत, बालरामायण, भुवनकोश तथा हरविलास जैसे प्रसिद्द जैन ग्रंथों की रचना की।
  • महिपाल इसी वंश का एक कुशक एवं प्रतापी शासक था। इसके शासनकाल में बगदाद निवासी अल-मसूदी (915-916 ई.) गुजरात आया था।
  • महिपाल के शासनकाल में गुर्जर-प्रतिहार साम्राज्य का विघटन प्रारंभ हो गया था। इसके बाद महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, विनायक पाल और विजयपाल जैसे कमजोर शासकों ने शासन किया।

 

बंगाल के पाल एवं सेन वंश

  • पाल वंश की स्थापना गोपाल (750-770 ई.) नामक एक सेनानायक ने की थी।
  • गोपाल के पश्चात उसका पुत्र धर्मपाल (770-810 ई.) पाल वंश की गद्दी पर बैठा।
  • धर्मपाल एक बौद्ध धर्मानुयायी शासक था। इसने विक्रमशिला विश्वविद्यालय एवं उदन्तपुर विश्वविद्यालय की स्थापना की।
  • गुजराती कृति सोडढल ने धर्मपाल को उत्तरापथके स्वामी की उपाधि से सम्बंधित किया। धर्मपाल के लेखों में उसे ‘परम सौगात’ कहा गया है।
  • देवपाल (810-850 ई.) अपने पिता धर्मपाल की भांति साम्राज्यवादी था। अरब यात्री सुलेमान ने देवपाल को प्रतिहार, प्रतिहार, राष्ट्रकूट शासकों से अधिक शक्तिशाली बताया है।
  • महीपाल प्रथम ने (988-1038 ई.) ने पाल वंश की शक्ति तथा प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित करके अपनी योग्यता सिद्ध की।
  • संध्याकर नंदी द्वारा रचित ‘रामपालचरित’ पुस्तक में नायक रामपाल (1077-1120 ई.) को इस वंश का अंतिम शासक माना जाता है।
  • रामपाल की शासनावधि में ही ‘कैवर्तों का विद्रोह’ हुआ था,
  • पाल शासकों के साम्राज्य का विस्तार सम्पूर्ण बंगाल, बिहार तथा कन्नौज तक था। इनका शासन बंगाल की खाड़ी से लेकर दिल्ली तक तथा जालंधर से लेकर विन्ध्य पर्वत तक फैला हुआ था।

राष्ट्रकूट

  • नर्मदा नदी के दक्षिण में एक शक्तिशाली राज्य का उदय हुआ जिसके राजा राष्ट्रकूट कहलाये। राष्ट्रकूट राजा पहले चालुक्यों के सामन्त थे।
  • राष्ट्रकूट राजा दन्तिदुर्ग ने चालुक्य राजा कीर्तिवर्मा द्वितीय के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा कर दी।
  • मान्यखेट के राष्ट्रकूटों का महत्त्वपूर्ण काल दन्तिदुर्ग के शासन-काल से ही प्रारम्भ हुआ। उसने 8वीं शताब्दी के मध्य चालुक्य-शक्ति का अन्त करके अपनी शक्ति का विस्तार किया।
  • उसने कांची के पल्लवराज, कंलिगराज, कौशलराज, मालव (उज्जैन का गुर्जर-प्रतिहार नरेश), लाट (दक्षिण गुजरात) और श्री शैल (कर्नूल जिला) के राजाओं को पराजित किया। उसने उज्जैन में हिरण्यगर्भ यज्ञ किया।
  • जिसमें प्रतिहार राजा ने द्वारपाल का कार्य किया।
  • दन्तिदुर्ग ने महाराजाधिराजपरमेश्वर और परमभट्टारक की उपाधियाँ धारण की। दन्तिदुर्ग ने अरब आक्रमण को विफल बनाया जिसके बाद चालुक्य शासक विक्रमादित्य ने उसे पृथ्वी वल्लभ की उपाधि दी।
  • दन्तिदुर्ग के कोई पुत्र नहीं था। उसके बाद उसका चाचा कृष्ण प्रथम 758 ई. में सिंहासनारूढ़ हुआ।
  • कृष्ण प्रथम ने चालुक्य शक्ति को, जिसका विनाश दन्तिदुर्ग ने किया था, पूर्णरूपेण पराजित किया।
  • उसने अपने पुत्र गोविन्द द्वितीय को एक सेना के साथ वेगी के चालुक्य राजा पर आक्रमण करने भेजा। वेंगी के चालुक्य राजा ने आत्मसमर्पण कर दिया। कृष्ण प्रथम (758-773 ई.) एक महान् विजेता ही नहीं, एक महान् निर्माता भी था। एलोरा में ठोस चट्टान को कटवाकर उसने शिव मन्दिर (कैलाशनाथ) का निर्माण कराया। उसने राजाधिराज परमेश्वर की उपाधि ली।
  • कृष्ण प्रथम के पश्चात् उसका पुत्र गोविन्द द्वितीय शासक बना। वह विलासी था और उसके छोटे भाई ध्रुव ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया।
  • ध्रुव ने पल्लव नरेश दन्ति वर्मन् को पराजित किया।
  • ध्रुव गुर्जर प्रतिहार राजा वत्सराज और पाल राजा धर्मपाल का समकालीन था। ध्रुव ने अपनी सैनिक गतिविधियां उत्तर भारत तक बढ़ा दी।
  • उसने वत्सराज और धर्मपाल दोनों को युद्ध में पराजित किया। इन विजयों के फलस्वरूप यद्यपि राष्ट्रकूट साम्राज्य की सीमा में वृद्धि नहीं हुई, परन्तु इससे ध्रुव की प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई और गंगा-यमुना के दोआब में राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित करने के लिए राष्ट्रकूटों, पालों और प्रतिहारों में पारस्परिक संघर्ष प्रारम्भ हो गया।
  • ध्रुव ने निरूपम, कालीवल्लभ और धारावर्ष की उपाधि ली।

 

चौहान वंश

  • वासुदेव को इस वंश का संस्थापक माना जाता है। इसने अपनी राजधानी अजमेर के निकट शाकंभरी में स्थापित की थी।
  • चौहान शासक गुर्जर प्रतिहारों के सामंत थे। दसवीं शताब्दी के आरंभ में वाकपतितिराज प्रथम ने प्रतिहारों से अपने को स्वतंत्र घोषित कर दिया था।
  • पृथ्वीराज के प्रथम पुत्र अजयराज (12वीं शताब्दी) ने अजमेर नगर की स्थापना कर उसे अपने राज्य की राजधानी बनाया।
  • विग्रहराज चतुर्थ बीसलदेव इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। इसने तोमर राजाओं को पराजित करके दिल्ली पर अपना अधिकार कर लिया।
  • यह विजेता होने के साथ साथ कवि और विद्वान् भी था। इसने ‘हेरिकेली’ नमक एक संस्कृत नाटक की रचना की। इसके दरबार में ललितविग्रह्राज का रचनाकार सोमदेव रहता था।
  • इस वंश का सर्वाधिक उल्लेखनीय शासक और ऐतिहासिक महत्त्व का शासकपृथ्वीराज तृतीय थापृथ्वीराज तृतीय 1178 ई. में चौहान वंश का शासक बना।1192ई. में तराइन के युद्ध में मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज को पराजित कर भारत में मुस्लिम सत्ता का मार्ग प्रशस्त किया।
  • पृथ्वीराज के दरबार में भयानक भट्ट, विद्यापति गौड़, पृथ्वीभट्ट, बागीश्वर तथा चन्द्रबरदाई आदि विद्वान् निवास करते थे।
  • पृथ्वीराज तृतीय के राजकवि चंदरबरदाई ने पृथ्वीराज रासो नामक अपभ्रंश महाकाव्य और जयानक ने ‘पृथ्वीराज विजय’ नमक संस्कृत काव्य की रचना की।
  • दिल्ली लेख से पता चलता है की इस वंश के शासकों ने हिमालय से विन्ध्य पर्वत तक के क्षेत्र से कर वसूल किया था। इस वंश का साम्राज्य दिल्ली, झांसी, पंजाब, राजपुताना और पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक विस्तृत था।

 

गहड़वाल वंश

  • प्रतिहार साम्राज्य के ध्वंसावशेषों पर जिन राजवंशों का उदय हुआ, उनमे गहड़वाल वंश के शासक प्रमुख थे।
  • चन्द्रदेव को गहड़वाल वंश का संस्थापक माना जाता है। इसने कन्नौज को अपनी राजधानी बनाया।
  • गोविन्द इस वंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक था। इसने आधुनिक पश्चिम बिहार तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के भागों को अपने अधीन कर कन्नौज के प्राचीन गौरव को पुनः स्थापित किया।गोविन्द चंद्र एक विद्वान् शासक था। पृथ्वीराज रासो से इसके और चौहान शासक पृथ्वीराज तृतीय के संबंधों के बारे में पता चलता है।
  • आख्यानों के अनुसार पृथ्वीराज ने जयचंद की पुत्री संयोगिता का अपहरण कर लिया था।
  • जयचंद ने तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज तृतीय के विरुद्ध मुहम्मद गौरी का साथ दिया था तथा बनारस (वर्तमान वाराणसी) को अपनी दूसरी राजधानी बनाया था।

 

मालवा का परमार वंश

  • मालवा के परमार शासक पूर्व में राष्ट्रकूट शासकों के सामंत थे।
  • इस वंश का संस्थापक उपेन्द्र को माना जाता है। इसने धारानगरी को अपनी राजधानी बनाया।
  • सीयक द्वितीय को इस वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है क्योंकि इसने राष्ट्रकूटों को चुनौती देते हुए स्वतंत्रता की घोषणा की।
  • मालवा में परमारों की शक्ति का उत्कर्ष वाकपतिमुंज (972-994 ई.) के समय आरंभ हुआ। इसने त्रिपुरी के कलचुरी तथा चालुक्य नरेश तैलप द्वितीय को पराजित किया।
  • वाकपतिमुंज कला एवं साहित्य का महान संरक्षक था। इसके दरबार में पद्मगुप्त, धनंजय, धनिक तथा हलायुध जैसे विद्वान् निवास करते थे।
  • इसके द्वारा निर्मित मुंजसागर झील आज तक परिरक्षित है।
  • मुंज की मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई सिन्धुराज शासक बना,
  • भोज (1011-1066 ई.) सिन्धुराज का पुत्र और परमार वंश का सबसे महत्वपूर्ण शासक था। इसकी राजनितिक उपलब्धियों का विवरण उदयपुर प्रशस्ति से प्राप्त होता है।
  • भोज अपनी विद्वता के कारण कविराज उपाधि से विख्यात था। कहा जाता है की उसने विविध विषयों-चिकित्साशास्त्र, खगोलशास्त्र, धर्म, व्याकरण, स्थापत्य शास्त्र आदि पर 20 से अधिक ग्रंथों की रचना की।
  • भोज शिक्षा और संस्कृति का महान संरक्षक था। उसने धारा में एक सरस्वती मंदिर और एक संस्कृत महाविद्यालय का निर्माण कराया। इसने भोजपुर नामक एक नगर की स्थापना की।
  • भोज की मृत्यु पर यह कहावत प्रचलित हो गयी कि “अद्यधारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती” अर्थात विद्या और विद्वान् दोनों निराश्रित हो गए।

 

गुजरात का चालुक्य वंश

  • इस वंश के शासक जैन धर्म के पोषक तथा संरक्षक थे।
  • इस वंश के इतिहास की जानकारी मुख्य रूप से जैन लेखकों के ग्रंथों से होती है। इन ग्रंथों में हेमचन्द्र का द्वाश्रयकाव्य, मेरुतुंगकृत प्रबंध चिंतामणि, सोमेश्वरकृत कीर्तिकौमुदी आदि का उल्लेख किया जा सकता है।
  • गुजरात के चालुक्य वंश का संस्थापक मूलराज प्रथम था। इसने गुजरात के एक बड़े भाग को जीतकर अन्हिलवाड़ को अपनी राजधानी बनाया।
  • भीम प्रथम (1022-1064 ई.) इस वंश का सबसे शक्तिशाली शासक था। इसके शासन काल में गुजरात पर महमूद गजनवी (1025 ई.) ने आक्रमण कर सोमनाथ मंदिर को लूटा।
  • इसने सोमनाथ मंदिर कापुनर्निर्माण करवाया तथा इसके सामंत विमल ने आबू पर्वत पर दिलवाडा के मंदिर का निर्माण करवाया।
  • इस वंश के शासक जयसिंह ‘सिद्धराज’ ने मालवा के परमार शासक यशोवर्मन को युद्ध में पराजित कर अवन्तिनाथ की उपाधि धारण की। जयसिंह शैव धर्म अनुयायी था। इसके दरबार में प्रसिद्ध जैन आचार्य हेमचन्द्र सूरी निवास करते थे।
  • कुमारपाल (1153-1171 ई.) इस वंश का महत्वाकांक्षी शासक था। हेमचन्द्र ने इसे जैन धर्म में दीक्षित किया था।
  • जैन परम्परा के अनुसार कुमारपाल ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य में पशु हत्या, मद्यपान एवं द्यूतक्रीड़ा पर प्रतिबन्ध लगा दिया था।
  • मूलराज द्वितीय (1176-1178 ई.) ने 1178 ई. में आबू पर्वत के निकट मुहम्मद गौरी को हराया।
  • भीम द्वितीय-II (1178-1238 ई.) चालुक्य वंश का अंतिम शासक था। इसने चालुक्य शक्ति एवं प्रतिष्ठा को पुनर्स्थापित किया।

 

बुंदेलखंड के चंदेल

  • प्रारम्भिक चंदेल प्रतिहारों के सामंत थे। चंदेलों को अत्री के पुत्र चन्दात्रेय का वंशज कहा जाता है।
  • इस वंश का प्रथम शासक नन्नुक था उसके पौत्र जयसिंह अथवा जेजा के नाम पर यह प्रदेश जेजाकभुक्ति के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
  • यशोवर्मन (930-950 ई.) इस वंश का महत्वपूर्ण शासक था।।
  • खजुराहो अभिलेख में यशोवर्मन की विजयों एवं पराक्रम का वर्णन मिलता है।
  • यशोवर्मन ने खजुराहो में विष्णु को समर्पित चतुर्भुज मंदिर का निर्माण कराया। यशोवर्मन का पुत्र धंग (950-1008 ई.) इस वंश का प्रसिद्ध शासक था।इसने कालिंजर को अपनी राजधानी बनाया। ग्वालियर की विजय धंग की सबसे महत्वपूर्ण सफलता थी।
  • फ़रिश्ता के अनुसार धंग सुबुक्तगीन के विरुद्ध भटिंडा के शाही वंश के शासक जयपाल द्वारा बनाये गए संघ में शामिल हुआ, जिसे सुबुक्तगीन ने पराजित कर दिया था।
  • धंग एक महान मंदिर निर्माता था। इसने अनेक भव्य मंदिरों का निर्माण करवाया जिनमे जिजनाथ, विश्वनाथ, वैद्यनाथ आदि मंदिर उल्लेखनीय हैं।
  • यह प्रतापी शासक था। इसने न सिर्फ महमूद गजनवी का सफल प्रतिरोध किया, बल्कि उसे संधि करने के लिए बाध्य किया।
  • बुंदेलखंड के चंदेल शासकों में परमार्दिदेव अथवा परिमल अन्तिम शक्तिशाली शासक था। प्रसिद्द योद्धा आल्हा और ऊदल चंदेल शासक परिमल के राजाश्रय में थे।
  • आल्हा और ऊदल ने पृथ्वीराज चौहान से महोबा की रक्षा करते हुए अपने प्राणों का उत्सर्ग किया।

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चेदि राजवंश

  • चेदि राजवंश के शासकों को त्रिपुरी के कलचुरी वंश के नाम से भी जाना जाता है।
  • कोक्कल प्रथम इस वंश का प्रथम शासक था। इसने कन्नौज के प्रतिहार शासक मिहिरभोज को पराजित किया था।
  • चेदि शासक लक्ष्मणराज ने बंगाल, उड़ीसा तथा कौशल को तथा पश्चिम में गुर्जर, लाट शासक एवं अमीरों को जीता।
  • कोक्कल द्वितीय के शासनकाल में कुलचुरियों की शक्ति पुनर्स्थापित हुई। इसने गुजरात के चालुक्य वंशीय शासक चामुण्डराज को पराजित किया।
  • गांगेयदेव (1019-1041 ई.) ने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की थी। इसने अंग, उत्कल, प्रयाग पर अधिकार कर लिया तथा पाल शासकों से कशी छीन ली।
  • विजय सिंह इस वंश का अंतिम शासक था। तेहरवीं शताब्दी के आरंभ में चंदेल शासक त्रैलोक्य वर्मन ने इसे पराजित कर त्रिपुरी पर अधिकार कर लिया।

 

सेन वंश

  • पाल वंश के पतन के बाद सेन वंश के शासकों ने बंगाल और बिहार में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर ली। इनकी राजधानी लखनौती थी।
  • सेन वंश के शासक मूलतः कर्णाटक (कर्नाटक) के निवासी थे, जो बंगाल में आकर बस गए थे।
  • इस वंश के शासकों ने पुरी, काशी तथा प्रयाग में विजय स्तंभ स्थापित किये थे, जिससे यह पता चलता है कि सेन शासकों ने समकालीन शासकों से काशी और प्रयाग छीनकर अपने साम्राज्य का विस्तार किया था।
  • इस वंश का शासक सामंत सेन था, जिसे ब्राह्मण क्षत्रिय कहा गया है। विजय सेन (1095-1158 ई.) सबसे प्रतापी शासक था। इसने विजयपुरी तथा विक्रमपुर की स्थापना की थी।
  • विजयसेन की मृत्यु के बाद बल्लालसेन बंगाल का शासक बना। इसने बंगाल में जाति प्रथा तथा कुलीन प्रथा को संगठित करने का श्रेय दिया जाता है।
  • बल्लालसेन एक विद्वान् शासक था। इसने ‘दासनगर’ और ‘अद्भुत सागर’ दो ग्रंथों की रचना की।
  • लक्ष्मण सेन एक विजेता तथा साम्राज्यवादी शासक था। इसने गहड़वाल शासक जयचंद्र को पराजित किया था।
  • लक्ष्मणसेन के दरबार में अनेक प्रसिद्द विद्वान तथा लेखक निवास करते थे। इनमे जयदेव, धोयी और हलायुद्ध के नाम उल्लेखनीय हैं।

 

 

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HISTORY HINDI LECTURE – 8

संगम युग

प्रारंभिक परीक्षा प्रश्न

  1. तमिल परंपरा से तीन साहित्यिक परिषदों का विवरण मिलता है वे कहा आयोजित की गयी थी
  2. उरैयूर,
  3. पुहार
  4. मदुरै
  5. इनमे से कोई नहीं

 

  1. दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति के प्रसार का श्रेय दिया गया है
  2. पतंजलि
  3. पाणिनि
  4. विश्वामित्र
  5. अगस्त्य

 

  1. कोवलनऔर क्न्न्नागी जैसे पात्रो पर आधारित संगम साहित्य का महाकाव्य है
  2. मणिमेखलै
  3. जीवक चिन्तामणि
  4. शिलप्पादिकारम
  5. ऐत्तुतोगई

 

  1. इलजेतचेन्नी था
  2. प्रथम चोल शासक
  3. प्रथमचेर शासक
  4. प्रथम पाण्ड्य
  5. प्रथम पल्लव

 

  1. आल्हा ऊदल संबंधित थे
  2. चंदेरी से
  3. विदिशा से
  4. महोबा से
  5. पन्ना से

 

  1. निम्नलिखित में से किसने राष्ट्रकूट साम्राज्य की नींव रखी
  2. अमोघवर्ष प्रथम
  3. दंतिदुर्ग
  4. ध्रुव
  5. कृष्ण

 

  1. पृथ्वीराज विजय का लेखक कौन है
  2. चंदबरदाई
  3. पृथ्वीराज चौहान
  4. जयानक
  5. नयन चंद्र सूरी

 

  1. पाल वंश का संस्थापक कौन था
  2. धर्मपाल
  3. देवपाल
  4. गोपाल
  5. रामपाल

 

  1. विक्रमशिला विश्वविद्यालय में से आज के किस राज्य में अवस्थित था
  2. मध्य प्रदेश
  3. ओडिशा
  4. बिहार
  5. झारखंड

 

  1. विक्रमशिला महाविहार की स्थापना किस वंश के शासक द्वारा करवाई गई थी
  2. पुष्यभूति वंश
  3. वर्मन वंश
  4. सेन वंश
  5. पाल वंश

 

  1. महोदया किसका पुराना नाम है
  2. इलाहाबाद
  3. खजुराहो
  4. कन्नौज
  5. पटना

 

  1. निम्नलिखित में से किस एक नया संवत चलाने का यश प्राप्त है
  2. धर्मपाल
  3. देवपाल
  4. विजयसेन
  5. लक्ष्मण सेन

LECTURE – 9

(HINDI HISTORY)

सल्तनत काल

Mains Question

 

  1. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिपण्णी लिखे
  2. अलबरूनी
  3. अढ़ाई दिन का झोपड़ा
  4. अमीर खुसरों
  5. निजामुद्दीन औलिया


 

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LECTURE – 9

(HINDI HISTORY)

सल्तनत काल

मामलूक वंश

1206 से 1290 ई. के मध्य दिल्ली सल्तनत के सुल्तान गुलाम वंश के संतानों के नाम से विख्यात हुए।गुलाम वंश को मामलूक वंश के नाम से भी जाना जाता है। ‘मामलूक’ शब्द से अभिप्राय स्वतंत्र माता-पिता से उत्पन्न हुए दास से है।इस वंश में पहला शासककुतुबुद्दीन ऐबक (1206-1210 ई.) था

  • कुतुबुद्दीन ऐबक(1206-1210 ई.) एक तुर्क जनजाति का व्यक्ति था। ऐबक एक तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ होता है- “चन्द्रमा का देवता”। कुतुबुद्दीन का जन्म तुर्किस्तान में हुआ था। बचपन में ही वह अपने परिवार से बिछुड़ गया और उसे एक व्यापारी द्वारा निशापुर के बाज़ार में ले जाया गया, जहाँ ‘क़ाज़ी फ़खरुद्दीन अजीज़ कूफ़ी’ (जो इमाम अबू हनीफ़ के वंशज थे) ने उसे ख़रीद लिया। क़ाज़ी ने अपने पुत्र की भाँति ऐबक की परवरिश की तथा उसके लिए धनुर्विद्या और घुड़सवारी की सुविधाएँ उपलब्ध कराईं। कुतुबुद्दीन ऐबक बाल्याकाल से ही प्रतिभा का धनी था। उसने शीघ्र ही सभी कलाओं में कुशलता प्राप्त कर ली।
  • उसने अत्यन्त सुरीले स्वर में क़ुरान पढ़ना सीख लिया, इसलिए वह ‘क़ुरान ख़ाँ’ (क़ुरान का पाठ करने वाला) के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
  • कुछ समय बाद क़ाज़ी की भी मृत्यु हो गयी। उसके पुत्रों ने उसे एक व्यापारी के हाथों बेच दिया, जो उसे ग़ज़नी ले गया, जहाँ उसेमुहम्मद ग़ोरी ने ख़रीद लिया और यहीं से उसकी जीवनचर्चा का एक नया अध्याय आरम्भ हुआ, जिसने अन्त में उसे दिल्ली के सिंहासन पर बैठाया।
  • मिन्हाजुद्दीन सिराज ने कुतुबुद्दीन ऐबक को एक वीर एवं उदार ह्रदय का सुल्तान बताया है। उसकी असीम उदारता के लिए उसे ‘लाखबख्श’ कहा जाता था।
  • कुतुबुद्दीन ऐबक नेदिल्ली में ‘कुव्वत उल-इस्लाम’ और अजमेर में ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ नमक नस्जिदों का निर्माण कराया था।
  • ऐबक ने सूफी संत ‘ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी’ के नाम पर दिल्ली में कुतुबमीनार की नींव डाली, जिसे इल्तुतमिश ने पूरा किया।
  • ऐबक ने साम्राज्य विस्तार से अधिक ध्यान राज्य के सुदृढ़ीकरण पर दिया। उसने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया था।
  • 1210 ई. में घोड़े से गिरकर ऐबक की मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के बाद उसका अयोग्य पुत्र आरामशाह सुल्तान बना। किन्तु इल्तुतमिश ने उसे युद्ध में पराजित कर मर डाला और स्वयं सुल्तान बन गया।

 

  • इल्तुतमिश (1210-1236 ई.)
  • इल्तुतमिश को दिल्ली सल्तनत का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। यह कुतुबुद्दीन ऐबक का दामाद था।
  • इल्तुतमिश ने राजधानी को लाहौर से दिल्ली स्थानांतरित किया।
  • इल्तुतमिश ने ‘तुर्कन-ए-चिहलगानी’ (चालीसा दल) नाम से, चालीस गुलाम सरदारों के एक गुप्त संगठन का गठन किया।
  • इल्तुतमिश ने चांदी का ‘टंका’ और तांबे का ‘जीतल’ नामक सिक्का चलाया।
  • इल्तुतमिश ने 1229 ई. में बगदाद खलीफा से अधिकार प्राप्त किया। उसने इस संस्था का प्रयोग भारतीय समाज की सामंतवादी व्यवस्था को समाप्त करने तथा राज्य के भागों को केंद्र के साथ जोड़ने के साधन के रूप में प्रारंभ किया।
  • इल्तुतमिश ने 1231-1232 ई. में कुतुबमीनार ने निर्माण का कार्य पूरा करवाया।
  • इल्तुतमिश की मृत्यु के बाद उसके पुत्र रुकनुद्दीन फिरोज को तुर्की के अमीरों ने सुल्तान बनाया, लेकिन वह मुश्किल से 7 महीने ही शासन कर पाया।
  • उसने 1230 में महरौली केहौज-ए-शम्शी जलाशय का निर्माण किया ।
  • सुल्तान घड़ीजिसे दिल्ली की पहली इस्लामी समाधि माना जाता है उसने अपने सबसे बड़े पुत्र, राजकुमार नसीरुद्दिन महमूद की स्मृति निर्मित की थी ।
  • मंगोलियाई हमलावरचंगेज खान, ने इसीके शासनकाल के दौरान सिंधु नदी के तट पर पहला हमला किया था ।

 

  • रजिया सुल्तान (1236-1240 ई.)
  • रुकुनुद्दीन के समय वास्तविक सत्ता उसकी मां शाहतुर्कान के हाथों में थी, जो एक अति महत्वाकांक्षी महिला थी। इसलिए दिल्ली की जनता ने रुकुनुद्दीन को अपदस्थ करके रजिया को दिल्ली की गद्दी पर बैठाया।
  • रजिया दिल्ली सल्तनत की प्रथम महिला और अंतिम महिला सुल्तान थी।
  • रजिया सुल्तान दिल्ली के 23 सुल्तानों में से एक मात्र सुल्तान थी, जिसने जनता के समर्थन से गद्दी प्राप्त की थी।
  • 1240 ई. में अमीरों ने रजिया के भाई बहरामशाह को दिल्ली के तख़्त पर बैठाया। बहरामशाह ने रजिया को युद्ध में परास्त कर उसकी हत्या कर दी।
  • बहरामशाह ने 1240 से 1242 ई. तक शासन किया। उसके बाद अलाउद्दीन शाह ने 1242 से 1246 ई. तक शासन किया।
  • इन दोनों के काल में समस्त शक्ति चालीसा दल के हाथों में थी, सुल्तान नाममात्र के लिए ही था।
  • नसिरुद्दीन महमूद (1246 से 1226 ई.)
  • नसिरुद्दीन महमूद के शासनकाल में समस्त शक्ति बलबन के हाथों में थी। 1249 ई. में उसने बलबन को उलूग खां की उपाधि दी।
  • इसके शासनकाल में भारतीय मुसलमानों का एक अलग दल बन गया, जो बलबन का विरोधी था। इमादुद्दीन रिहान इस दल का नेता था।
  • 1265 ई, में नसिरुद्दीन की मृत्यु के बाद बलबन ने स्वयं को दिल्ली का सुल्तान घोषित कर दिया।
  • तबाकत-ए-नासिरी का लेखक मिन्हाज सिराज नसिरुद्दीन के शासन काल में दिल्ली का मुख्य काजी था।

 

  • बलबन (1265 ई. से 1285 ई.)
  • बलबन दिल्ली का पहला शासक था, जिसने सुल्तान के पद और अधिकारों के बारे में विस्तृत रूप से विचार प्रकट किये।
  • बलबन स्वयं को पौराणिक तुर्की वीर नायक ‘अफरासियाब’ का वंशज मानता था।
  • बलबन ने नौरोज, सिजरा और पैबोस प्रथा की शुरुआत की।
  • बलबन ने इल्तुतमिश द्वारा गठित चालीसा दल को समाप्त कर दिया।
  • बलबन के राज्य सिद्धांत की दो प्रमुख विशेषताएं थीं-प्रथम, सुल्तान का पद ईश्वर द्वारा प्रदान किया होता है। द्वितीय सुल्तान का निरंकुश होना आवश्यक है।
  • बलबन ने सुल्तान की प्रतिष्ठा को स्थापित करने के लिए रक्त और लौह की नीति अपनायी।
  • बलबन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र कैकुबाद उसका उत्तराधिकारी बना, जो अत्यंत विलासप्रिय था।
  • अमीरों के एक गुट के नेता जलालुद्दीन ने कैकुबाद की हत्या करके स्वयं राजगद्दी पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत में गुलाम वंश का अंत हो गया।

 

खिलजी वंश (1290 ई. से 1320 ई.)

  • जलालुद्दीन फिरोज खिलजी (1290 ई. से 1296 ई.)
  • जलालुद्दीन खिलजी ने दिल्ली सल्तनत में एक नवीन राजवंश, खिलजी वंश की स्थापना की।
  • खिलजी वंश की स्थापना ‘खिलजी क्रांति’ के नाम से प्रसिद्द है।
  • मुसलमानों का दक्षिण भारत का प्रथम आक्रमण जलालुद्दीन के शासनकाल में देवगिरी के शासक रामचंद्र देव पर हुआ। इस आक्रमण का नेतृत्व अलाउद्दीन खिलजी ने किया था।
  • जलालुद्दीन ने भारतीय हिन्दू समाज के प्रति उदार दृष्टिकोण अपनाया।
  • इसके शासनकाल में लगभग दो हजार मंगोल इस्लाम धर्म स्वीकार के दिल्ली के निकट बस गए।
  • जलालुद्दीन का भतीजा अलाउद्दीन इसकी छलपूर्वक हत्या कर दिल्ली की गद्दी पर बैठा।

 

  • अलाउद्दीन खिलजी (1296 ई. से 1316 ई.)
  • अलाउद्दीन खिलजी एक साम्राज्यवादी शासक था। इसने ‘सिकंदर द्वितीय’ की उपाधि धारण की थी।
  • अलाउद्दीन का राजत्व सिद्धांत तीन मुख्य बातों पर आधारित था- निरंकुश्वाद, साम्राज्यवाद और धर्म और राजनीति का पृथक्करण।
  • इसके शासन काल में शराब और भांग जैसे मादक पदार्थों का सेवन तथा जुआ खेलना बंद करा दिया गया था।
  • अलाउद्दीन सल्तनत का पहला सुल्तान था, जिसने भूमि की पैमाइश कराकर राजस्व वसूल करना आरंभ कर दिया।
  • अलाउद्दीन के केंद्र के अधीन एक बड़ी और स्थायी सेना रखी तथा उसे नकद वेतन दिया। ऐसा करने वाला वह दिल्ली का प्रथम सुल्तान था।
  • अलाउद्दीन ने 1304 ई. में ‘सीरी’ को अपनी राजधानी बनाकर किलेबंदी की।
  • अलाउद्दीन खिलजी ने खलीफा की सत्ता को अविकार किया किन्तु प्रशासन में उनके हस्तेक्षप के नहीं माना।
  • अलाउद्दीन सल्तनतकाल में आर्थिक सुधारों के लिए विशेष रूप से जाना जाता है। अलाउद्दीन के बाजार नियंत्रण का उद्देश्य राजकोष पर अतिरिक्त बोझ डाले बिना सैनिक आवश्यकताओं को पूरा करना था।
  • अलाउद्दीन ने उपज का 50 प्रतिशत भूमिकर (खराज) के रूप में निश्चित किया।
  • अलाउद्दीन ने सैनिक सुधारों के लिए दाग या घोड़ो पर निशान लगाने और विस्तृत सूची पत्रों की तैयारी के लिए हुलिया प्रथा प्रचलित की।
  • अलाउद्दीन ने जैसलमेर और गुजरात (1298 ई.) रणथम्बौर (1310 ई.), चित्तौड़ (1303 ई.), मालवा (1305 ई.) सिवाना (1308 ई.) और जालौर (1311 ई.) आक्रमण करके जीता।
  • अलाउद्दीन ने दक्षिण भारत के राज्यों देवगिरी (1307 ई.), तेलंगाना (1309 ई.) और होयसल (1311 ई.) पर आक्रमण करके उनको अपनी अधीनता स्वीकार करनेके लिए मजबूर किया।
  • अलाउद्दीन ने अमीर खुसरो तथा अमर हसन देहलवी को संरंक्षण प्रदान किया।
  • अलाउद्दीन ने अली दरवाजा का निर्माण कराया जिसे प्रारंभिक तुर्की कला का श्रेष्ठ नमूना माना गया है।

 

  • मुबारक शाह खिलजी (1316 ई. – 1320 ई.)
  • मुबारक शाह खिलजी ने खुतबा व सिक्कों पर से खलीफा का नाम हटा दिया एवं स्वयं को खलीफा घोषित किया।
  • इसने अलाउद्दीन खिलजी द्वारा शुरू किये गए आर्थिक सुधारों को समाप्त कर दिया तथा जागीर व्यवस्था को पुनर्जीवित किया।
  • खुसरो शाह 1320 ई. में मुबारक खिलजी की हत्या करके दिल्ली का सुल्तान बन गया। वह हिन्दू धर्म से परिवर्तित मुसलमान था। इसने पैगम्बर के सेनापति की उपाधि धारण की।
  • खुसरो शाह को संत निजामुद्दीन औलिया का नैतिक समर्थन प्राप्त था।

 

तुगलक वंश 1320 ई. – 1411 ई.

  • गयासुद्दीन तुगलक (1320 ई. से 1325 ई.)
  • दिल्ली सल्तनत में तुगलक वंश की स्थापना 1320 ई. में गयासुद्दीन तुगलक ने की थी।
  • वह मुबारक शाह खिलजी के शासन काल में उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत का गवर्नर था।
  • किसानों की स्थिति में सुधार करना और कृषि योग्य भूमि में वृद्धि करना उसके दो मुख्य उद्देश्य थे। उसने भू-राजस्व की दर को 1/3 किया तथा सिंचाई के लिए नहरों का निर्माण करवाया।
  • गयासुद्दीन तुगलक का संत निजामुद्दीन औलिया से मनमुटाव हो गया था। निजामुद्दीन औलिया ने गयासुद्दीन के बारे में कहा था-‘दिल्ली अभी दूर है।“
  • गयासुद्दीन ने लगभग सम्पूर्ण भारत को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया था।

 

  • मुहम्मद बिन तुगलक (1325 ई. से 1351 ई.)
  • 1325 में गयासुद्दीन तुगलक की मृत्यु के बाद मुहम्मद बिन तुगलक दिल्ली का सुल्तान बना।
  • इसका मूल नाम जूना खां था। इसे गयासुद्दीन तुगलक ने उलूग खां की उपाधि दी थी।
  • एडवर्ड थॉमस ने इसे सिक्के बनाने वालों का सुल्तान तथा धनवानों का राजकुमार कहा है।
  • मुहम्मद बिन तुगलक ने जैन आचार्य जिन प्रभा सुरी को संरक्षण प्रदान किया।
  • वह दिल्ली का पहला ऐसा सुल्तान था जो हिन्दुओं के त्यौहारों मुख्यतः होली में भाग लेता था।
  • मुहम्मद बिन तुगलक ने 1347 ई. में राजधानी दिल्ली से देवगिरी (दौलताबाद) ले गया तथा वहां जहांपनाह नगर की स्थापना की।
  • मुहम्मद बिन तुगलक ने अफ़्रीकी यात्री इब्न-बतूता को दिल्ली का काजी नियुक्त किया।
  • इब्न-बतूता ने मुहम्मद बिन तुगलक काल की प्रमुख घटनाओं का वर्णन अपनी पुस्तक ‘रेहला’ में किया है।
  • मुहम्मद बिन तुगलक ने मंगोल शासक कुबले खां द्वारा चलाई गई सांकेतिक मुद्रा से प्रेरित होकर 1330 ई. में सांकेतिक मुद्रा का प्रचलन किया।
  • मुहम्मद बिन तुगलक इल्तुतमिश के बाद दूसरा सुल्तान था, जिसने खलीफा से मान्यता प्राप्त की।
  • मुहम्मद बिन तुगलक भी अलाउद्दीन खिलजी की तरह साम्राज्यवादी था।
  • मुहम्मद बिन तुगलक का राज्य दिल्ली के सुल्तानों में सबसे बड़ा था। उसने मिस्र और चीन के साथ राजनीतिक सम्बन्ध स्थापित किये।
  • 1347 ई. में प्लेग के प्रकोप से बचने के लिए मुहम्मद बिन तुगलक ने कन्नौज के निकट ‘स्वर्गद्वारी’ नामक स्थान पर शरण ली।
  • 1351 ई. में सिंध के विद्रोह को दबाने के क्रम में मुहम्मद बिन तुगलक की मौत हो गयी।

 

  • फिरोज शाह तुगलक (1356-1388 ई.)
  • मुहम्मद बिन तुगलक की मृत्यु के बाद उसका चचेरा भाई फिरोज शाह तुगलक दिल्ली की गद्दी पर बैठा।
  • प्रशासन के मामले में फिरोज का दृष्टिकोण सस्ती लोकप्रियता हासिल करना था। उसने दण्ड संहिता को संशोधित करके दण्डों को अधिक मानवीय बनाया तथा सुल्तान को भेंट देने की प्रथा को समाप्त कर दिया।
  • उसने कर प्रणाली को धार्मिक स्वरूप प्रदान किया। उसने पहले से प्रचलित कम से कम 23 करों को समाप्त कर दिया और इस्लामी शरीयत कानून द्वारा अनुमति प्राप्त केवल चार करों-खराज, जकात, जजिया और खम्स को आरोपित किया।
  • फिरोज ने कर्मचारियों को कार्यके बदले में जागीरें दीं। उसने जागीरदारी प्रथा और भूमि को ठेके पर दिया जाना शुरू किया।
  • फिरोज तुगलक ऐसा सुल्तान था, जिसने सार्वजानिक निर्माण कार्य को प्रमुखता दी।
  • उसने पांच बड़ी नहरों का निर्माण करवाया तथा ‘दीवान-ए-खैरात’ नमक विभाग को प्रमुखता दी। जो अनाथ मुस्लिम स्त्रियों तथा विधवाओं को सहायता प्रदान करता था।
  • मुस्लिम बेरोजगारों के लिए उसने ‘दफ्तर-ए-रोजगार’ नामक विभाग की स्थापना की।
  • फिरोज ने फतेहाबाद, हिसार, फिरोजपुर, जौनपुर तथा फिरोजाबाद की स्थापना की।
  • फिरोज तुगलक दिल्ली के सुल्तानों में पहला सुल्तान था, जिसने इस्लाम के कनोंओं और उलेमा वर्ग को राज्य शासन में प्रधानता दी।
  • फिरोज ने हिन्दू ब्राह्मणों पर भी जजिया कर आरोपित किया।
  • हेनरी इलियट तथा एलिफिंस्टन ने फिरोज को ‘सल्तनत युग का अकबर’ कहा है।
  • फिरोज को मध्यकालीन भारत का पहला ‘कल्याणकारी निरंकुश शासक’ कहा जाता है।
  • फिरोज तुगलक की 1338 ई. में मृत्यु में के बाद तुगलक वंश तथा दिल्ली सल्तनत का पतन आरंभ हो गया।
  • तुगलक वंश के पतन का मुख्य कारण फिरोजशाह के उत्तराधिकारियों की अयोग्यता थी।
  • तुगलक वंश का अंतिम शासक नसिरुद्दीन महमूद शाह था। 1398 ई. में इसके शासन काल में मंगोल शासक तैमूर लंग का आक्रमण हुआ।

 

सैय्यद वंश (1414-1451 ई.)

खिज्र खां (1414-1421 ई.)

  • 1413-1414 ई. के बीच दौलत खां लोदी दिल्ली का सुल्तान बना, परन्तु खिज्र खां ने उसे पराजित कर एक नवीन राजवंश, सैय्यद वंश की नींव डाली।
  • खिज्र खां ने मंगोल आक्रमणकारी तैमूर लंग को सहयोग प्रदान किया था और उसकी सेवाओं के बदले तैमूर ने उसे लाहौर, मुल्तान एवं दिपालपुर की सूबेदारी प्रदान की।
  • खिज्र खां ने सुल्तान की उपाधि धारण नहीं की। वह ‘रैयत-ए-आला’ की उपाधि से संतुष्ट रहा।

 

मुबारक शाह (1421-1434 ई.)

  • मुबारक शाह ने मुबारकपुर नामक नगर की स्थापना की।
  • इसके शासनकाल में शेख अहमद सरहिन्दी ने ‘तारीख-ए-मुबारकशाही’ नामक पुस्तक की रचना की।
  • इसके बाद (1435-45 ई.) तक मुहम्मद शाह और (1445-51 ई.) तक अलाउद्दीन आलम शाह ने शासन किया।
  • अलाउद्दीन आलमशाह सैय्यद वंश का अंतिम शासक था।

 

लोदी वंश (1451-1526 ई.)

बहलोल लोदी

  • बहलोल लोदी ने अंतिम सैय्यद शासक आलमशाह को अपदस्थ कर लोदी वंश की स्थापना की।
  • बहलोल लोदी की मुख्य सफलता जौनपुर (1484 ई.) राज्य को दिल्ली सल्तनत में सम्मिलित करने की थी।
  • उसने बहलोली सिक्के जारी किये, जो अकबर से पहले तक उत्तरी भारत में विनिमय के मुख्य साधन बने रहे।

सिकंदर लोदी (1489-1517 ई.)

  • बहलोल लोदी के उपरांत सिकंदर लोदी दिल्ली का सुल्तान बना, जो लोदी वंश का सर्वश्रेष्ठ शासक सिद्ध हुआ।
  • सिकंदर लोदी ने 1504 ई. में आगरा नगर की स्थापना की तथा 1506 ई. में इसे अपनी राजधानी बनाया।
  • उसने नाप के लिए एक पैमाना ‘गज-ए-सिंदरी’ प्रारंभ किया तथा हिन्दुओं पर जजिया कर आरोपित किया।
  • सिकन्दर लोदी ने मुहर्रम और ताजिया निकालना बंद करा दिया। मस्जिदों को सरकारी संस्थाओं का रूप प्रदान करके उन्हें शिक्षा का केंद्र बनाने का प्रयत्न किया।
  • सिकंदर लोदी के अनुसार, “यदि मैं अपने एक गुलाम को भी पालकी में बैठा दूं तो मेरे आदेश पर मेरे सभी सरदार उसे अपने कन्धों पर बैठा कर ले जायेंगे।“
  • सिकंदर लोदी ने एक आयुर्वेदिक ग्रंथ का फारसी में अनुवाद करवाया, जिसका नाम ‘फरहंग-ए-सिकंदरी’ रखा गया।
  • सिकंदर लोदी गुलरूखी के उपनाम से फारसी में कविताएं लिखता था।

 

इब्राहिम  लोदी (1517-1526 ई.)

  • सिकंदर लोदी की मृत्यु के बाद उसका पुत्र इब्राहिम  लोदी दिल्ली का सुल्तान बना।
  • इसके शासनकाल में दिल्ली सल्तनत का पतन प्रारंभ हो गया। सभी राज्यों के गवर्नर स्वतंत्र शासकों जैसा व्यवहार करने लगे।
  • 1517-1518 ई. में इब्राहिम लोदी व राणा सांगा के बीच ‘घाटोली का युद्ध’ हुआ, जिसमे लोदियों को पराजित होना पड़ा।
  • 1526 ई. में पानीपत के मैदान में इब्राहिम  लोदी और बाबर के बीच ऐतिहासिक युद्ध हुआ, जिसमे इब्राहिम लोदी की हार हुई।
  • इसे पानीपत के प्रथम युद्ध के नाम से भी जाना जाता है। लोदियों के साथ-साथ दिल्ली सल्तनत का पतन हो गया।
  • इतिहासकार निमायमतुल्ला के अनुसार, “इब्राहिम  लोदी के अतिरिक्त दिल्ली का कोई भी सुल्तान युद्ध में नहीं मारा गया।

 

प्रशासन व्यवस्था

  • केन्द्रीय शासन का प्रधान सुल्तान था। नाह राज्य का सर्वोच्च न्यायधीश, कानून का सूत्रधार और सेवाओं का प्रधान सेनापति था।
  • सुल्तान के कार्यों में सहयता प्रदान करने के लिए मंत्रियों की व्यवस्था की, जो अपने-अपने विभागों के प्रभारी होते थे, किन्तु उनकी नीति सदैव सुल्तान द्वारा निर्धारित व शासित होती थी।
  • राजकीय शक्ति का व्यवहारिक नियंत्रण रखने हेतु केवन दो ही करक थे- अमीर तथा उलेमा।
  • अमीर वर्ग में विदेशी मूल के लोग थे, जो दो समूहों में बनते थे- तुर्कीदास और गैर तुर्की, जिन्हें ‘ताजिक’ कहा जाता था।
  • इस्लामी धर्माचार्यों तथा शरीयत कानून के रुढ़िवादी व्याख्याकारों को उलेमा कहा जाता था।
  • सल्तनत का प्रधानमंत्री वजीर कहलाता था, उसके कार्यकाल को दीवान-ए-विजारत (राजस्व विभाग) कहा जाता था।
  • दीवान-ए-इंशा पत्र व्यवहार का शाही कार्यालय था, जिसका संचालन दबीर द्वारा किया जाता था।
  • दीवान-ए-रसालत का प्रधान विदेश मंत्री था। इसका कार्य विदेशी वार्ता और कूटनीतिक संबंधों की देखभाल करना था।
  • प्रान्तों के गवर्नर या इकता के प्रधान को वाली, नाजिम, नायब, मुक्ति या इक्तादार कहा जाता था।
  • 14वीं सदी में सल्तनत के विस्तार के कारण प्रान्तों को जिलों में बांट दिया गया था, जिन्हें ‘शिक’ कहा जाता था। शिक का प्रधान ‘शिकदार’ कहा जाता था।
  • शिकों को परगने में बांटागया था। प्रत्येक में आमिल एवं मुंसिफ नामक अधिकारी होते थे। आमिल मुख्य प्रशासनिक अधिकारी तथा मुंसिफ राजस्व विभाग का प्रधान होता था।
  • प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम थी। ग्राम के मुख्य अधिकारी थे- खुत, चौधरी, मुकद्दम और पटवारी।

 

न्याय और दण्ड व्यवस्था

  • न्याय व्यस्था के प्रमुख स्रोत- कुरान, हदीस, इजमा तथा अयास थे।
  • सुल्तान काजियों और मुफ्तियों की सहायता से न्याय का कार्य देखता था।इस्लामी कानूनों की व्यवस्था करने वाले विधिवेत्ता ‘मुजतहिन्द’ कहे जाते थे।
  • फौजदारी कानून हिन्दू एवं मुसलमानों दोनों के लिए बराबर था।
  • प्रान्तों के इक्तादार न्याय का कार्य संभालते थे।
  • राज्य का सबसे बड़ा न्यायधीश सुल्तान होता था, जिसका निर्णय अंतिम होता था। वह धार्मिक मामलों में सद-उस-सुदूर से सलाह लेता था।

 

आर्थिक व्यवस्था

  • आर्थिक दृष्टि से सल्तनत राज्य समृद्ध था। कृषि और व्यापार दोनों उन्नत अवस्था में थे।
  • इस काल का मुख्य व्यवसाय बुनाई, रंगाई, धातु कार्य, चीनी व्यवसाय, कागज व्यवसाय आदि था।
  • आयात की प्रमुख वस्तु घोड़े और खच्चर थे।
  • निर्यात की वस्तुओं में कृषि सम्बन्धी वस्तुएं, वस्त्र, अफीम और नील शामिल थे।
  • सल्तनत काल में पांच मुख्य कर थे- उश्र 2. खराज 3. खम्स 4. जकात और 5. जजिया।
  • उश्र मुसलमानों से लिया जाने वाला भूमि कर था, जो 5 से 10 प्रतिशत होता था।
  • लूट, खानों अथवा भूमि में गड़े हुए खजानों से प्राप्त धन, जिसके 1/5 भाग पर राज्य का अधिकार होता था, खम्स कहा जाता था।
  • जकात मुसलमानों से लिया जाने वाला धार्मिक कर था। यह 2 से 2½ प्रतिशत तक होता था।
  • जजिया गैर मुसलमानों से लिया जाने वाला धार्मिक कर था। स्त्रियाँ, बच्चे, भिखारी, पुजारी, साधु, आदि इस कर सर मुक्त थे।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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LECTURE – 9

(HINDI HISTORY)

सल्तनत काल

प्रारंभिक परीक्षा प्रश्न

 

  1. गुलाम वंश का प्रथम शासक कौन था
  1. इल्तुतमिश
  2. कुतुबुद्दीन ऐबक
  3. रजिया
  4. बलबन

 

  1. दिल्ली सल्तनत का कौन सा सुल्तान लाख बक्स के नाम से जाना जाता है
  2. इल्तुतमिश
  3. मोहम्मद बिन तुगलक
  4. कुतुबुद्दीन ऐबक
  5. अलाउद्दीन खिलजी

 

  1. निम्नलिखित में से किसने प्रसिद्ध कुतुब मीनार के निर्माण में योगदान नहीं दिया
  2. कुतुबुद्दीन ऐबक
  3. इल्तुतमिश
  4. गयासुद्दीन तुगलक
  5. फिरोजशाह तुगलक

 

  1. कुतुबुद्दीन ऐबक की राजधानी थी
  2. दिल्ली
  3. अजमेर
  4. लखनऊ
  5. आगरा

 

  1. किसने दिल्ली सल्तनत की राजधानी के रूप में स्थापित किया था
  2. कुतुबुद्दीन ऐबक
  3. इल्तुतमिश
  4. रजिया
  5. मोइनुद्दीन गोरी

 

 

 

  1. दिल्ली के किस सुल्तान के विषय में कहा गया है कि उसने रक्त और लौह की नीति अपनाई थी
  2. इल्तुतमिश
  3. बलबन
  4. जलालुद्दीन
  5. फिरोज खिलजी

 

  1. चंगेज खान का मूल नाम था
  2. कसूर खाने
  3. ओगदी
  4. तेमूचीन
  5. उलुग खान

 

  1. सिकंदर सानी की उपाधि धारण की थी
  2. बलबन
  3. अलाउद्दीन खिलजी
  4. मोहम्मद बिन तुगलक
  5. सिकंदर लोदी

 

  1. अलाउद्दीन खिलजी के आक्रमण के समय देवगिरी का शासक कौन था
  2. रामचंद्र देव
  3. प्रताप रुद्रदेव
  4. मलिक काफूर
  5. राणा रतन सिंह

 

  1. रानी पद्मिनी का नाम अलाउद्दीन की चित्तौड़ विजय से जोड़ा जाता है उनके पति का नाम है
  2. महाराणा प्रताप
  3. रणजीत सिंह
  4. राजा मान सिंह
  5. राणा रतन सिंह

 

  1. निम्नलिखित में से कौन सही सुमेलित नहीं है
  2. दीवाने अर्ज सैन्य विभाग
  3. दीवान ए बरीद गुप्तचर विभाग
  4. दीवान ए इंशा दान विभाग
  5. दीवान ए रियासत बाजार नियंत्रण विभाग

विजय नगर एवं मुग़ल शासन

Lecture -10

 

मुख्य परीक्षा

 

  1. मुग़ल शासकों का मध्यकाल में साहित्यिक विकास में योगदान को रेखांकित कीजिये|

 

  1. संक्षिप्त टिप्पणी लिखें| (50 शब्द)
    • हुमायूनामा
    • शेख सलीम चिश्ती
    • जहाँगीर के समय में चित्रकला

 

 


 

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Lecture -10

विजय नगर एवं मुग़ल शासन

 

विजयनगर साम्राज्य (लगभग 1350 ई. से 1565 ई.) की स्थापना राजा हरिहर ने की थी। विजयनगर’ का अर्थ होता है ‘जीत का शहर’। हम्पी के मंदिरों और महलों के खंडहरों को देखकर जाना जा सकता है कि यह कितना भव्य रहा होगा। इसे यूनेस्को ने विश्‍व धरोहर में शामिल किया है

 

स्थापना

  • इतिहासकारों के अनुसार विजयनगर साम्राज्य की स्थापना5 भाइयों वाले परिवार के 2 सदस्यों हरिहर और बुक्का ने की थी।
  • वे वारंगल के ककातीयों के सामंत थे और बाद में आधुनिक कर्नाटक में काम्पिली राज्य में मंत्री बने थे। जब एक मुसलमान विद्रोही को शरण देने पर मुहम्मद तुगलक ने काम्पिली को रौंद डाला, तो इन दोनों भाइयों को भी बंदी बना लिया गया था। इन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया और तुगलक ने इन्हें वहीं विद्रोहियों को दबाने के लिए विमुक्त कर दिया। तब मदुराई के एक मुसलमान गवर्नर ने स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया था और मैसूर के होइसल और वारगंल के शासक भी स्वतंत्र होने की कोशिश कर रहे थे। कुछ समय बाद ही हरिहर और बुक्का ने अपने नए स्वामी और धर्म को छोड़ दिया। उनके गुरु विद्यारण के प्रयत्न से उनकी शुद्धि हुई और उन्होंने विजयनगर में अपनी राजधानी स्थापित की।

विजयनगर के राजवंश

विजयनगर साम्राज्य पर जिन राजवंशों ने शासन किया, वे निम्नलिखित हैं-

  1. संगम वंश- 1336-1485 ई.
  2. सालुव वंश- 1485-1505 ई.
  3. तुलुव वंश- 1505-1570 ई.
  4. अरविडु वंश- 1570-1650 ई.

संगम वंश

विजयनगर साम्राज्य के हरिहर’ और बुक्का’ ने अपने पिता संगम” के नाम पर संगम वंश (1336-1485 ई.) की स्थापना की थी।

इस वंश में जो राजा हुए, उनके नाम व उनकी शासन अवधी निम्नलिखित हैं-

  • हरिहर प्रथम– (1336 – 1356 ई.)
  • बुक्का प्रथम– (1356 – 1377 ई.)
  • हरिहर द्वितीय– (1377 -1404 ई.)
  • विरुपाक्ष प्रथम– (1404 ई.)
  • बुक्का द्वितीय– (1404 – 1406 ई.)
  • देवराय प्रथम– (1406 – 1410 ई.)
  • विजयराय – (1410 -1419 ई.)
  • देवराय द्वितीय– (1419 – 1444 ई.)
  • मल्लिकार्जुन– (1447 – 1465 ई.)
  • विरुपाक्ष द्वितीय- (1465 – 1485 ई.
  • हरिहरप्रथम  (1336 से 1353 र्इ.  तक) – हरिहर प्रथम ने अपने भार्इ बुककाराय के सहयोग से विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की। उसने धीरे-धीरे साम्राज्य का विस्तार किया 1353 र्इ. में हरिहर की मृत्यु हो गर्इ।
  • बुक्काराय (1353 से 1379 र्इ. तक) – बुक्काराय ने गद्दी पर बैठते ही राजा की उपाधि धारण की। उसका पूरा समय बहमनी साम्राज्य के साथ संघर्ष में बीता। 1379 र्इ. को उसकी मृत्यु हुर्इ। वह सहिष्णु तथा उदार शासक था।
  • हरिहर द्वितीय (1379 से 1404 र्इ. तक) –बुक्काराय की मृत्यु के उपरान्त उसका पुत्र हरिहर द्वितीय सिंहासन पर बैठा तथा साथ ही महाराजाधिराज की पदवी धारण की। इसने कर्इ क्षेत्रों को जीतकर साम्राज्य का विस्तार किया। 1404 र्इ. में हरिहर द्वितीय कालकवलित हो गया।
  • विरुपाक्ष प्रथम (1404 ई.), बुक्काराय द्वितीय (1404-06 र्इ.), देवराय प्रथम (1406-10 र्इ.), विजय राय (1410-19 र्इ.), देवराय द्वितीय (1419-44 र्इ), मल्लिकार्जुन (1444-65 र्इ.) तथा विरूपाक्ष द्वितीय (1465-85 र्इ.) इस वंश के अन्य शासक थे।
  • देवराय द्वितीय के समय इटली के यात्री निकोलोकोण्टी 1421 र्इ. को विजयनगर आया था।
  • अरब यात्री अब्दुल रज्जाक भी उसी के शासनकाल 1443 र्इ. में आया था, जिसके विवरणों से विजय नगर राज्य के इतिहास के बारे में पता चलता है। अब्दुल रज्जाक के तत्कालीन राजनीतिक स्थितियों का वर्णन करते हुये लिखा है – ‘‘यदि जो कुछ कहा जाता है वह सत्य है जो वर्तमान राजवंश के राज्य में तीन सौ बन्दरगाह हैं, जिनमें प्रत्येक कालिकट के बराबर है, राज्य तीन मास 8 यात्रा की दूरी तक फैला है, देश की अधिकांश जनता खेती करती है। जमीन उपजाऊ है, प्राय: सैनिको की संख्या 11 लाख होती है।’’ उनका बहमनी सुल्तानों के साथ लम्बा संघर्ष हुआ।
  • विरूपाक्ष की अयोग्यता का लाभ उठाकर नरसिंह सालुव ने नये राजवंश की स्थापना की।

सालुव वंश (1486 से 1505 र्इ.)

सालुव वंश का संस्थापक सालुव नरसिंह’ था। 1485 ई. में संगम वंश के विरुपाक्ष द्वितीय की हत्या उसी के पुत्र ने कर दी थी, और इस समय विजयनगर साम्राज्य में चारों ओर अशांति व अराजकता का वातावरण था। इन्हीं सब परिस्थितियों का फ़ायदा नरसिंह के सेनापति नरसा नायक ने उठाया। उसने विजयनगर साम्राज्य पर अधिकार कर लिया और सालुव नरसिंह को राजगद्दी पर बैठने के लिय आमंत्रित किया।

सालुव वंश के राजाओं का विवरण इस प्रकार से है-

  1. सालुव नरसिंह – (1485 – 1491 ई.)
  2. तिम्मा राय – (1491 ई.)
  3. इम्माडि नरसिंह – (1491 – 1505 ई.)

तुलुव वंश (1505-1570 ई.)

तुलुव वंश (1505-1570 ई.) की स्थापना नरसा नायक के पुत्र ‘वीर नरसिंह’ ने की थी। इतिहास में इसे ‘द्वितीय बलापहार’ की संज्ञा दी गई है। 1505 में नरसिंह ने सालुव वंश के नरेश इम्माडि नरसिंह की हत्या करके स्वंय विजयनगर साम्राज्य के सिंहासन पर अधिकार कर लिया और तुलुव वंश की स्थापना की।

नरसिंह का पूरा शासन काल आन्तरिक विद्रोह एवं आक्रमणों के प्रभावित था। 1509 ई. में वीर नरसिंह की मृत्यु हो गयी। यद्यपि उसका शासन काल अल्प रहा, परन्तु फिर भी उसने सेना को सुसंगठित किया था। उसने अपने नागरिकों को युद्धप्रिय तथा मज़बूत बनने के लिय प्रेरित किया था। वीर नरसिंह ने पुर्तग़ाली गवर्नर अल्मीडा से उसके द्वारा लाये गये सभी घोड़ों को ख़रीदने के लिए एक समझौता किया था। उसने अपने राज्य से विवाह कर को हटाकर एक उदार नीति को आरंभ किया। नूनिज द्वारा वीर नरसिंह का वर्णन एक ‘धार्मिक राजा’ के रूप में किया गया है, जो पवित्र स्थानों पर दान किया करता था। वीर नरसिंह की मृत्यु के पश्चात् उसका अनुज ‘कृष्णदेव राय’ सिंहासनारूढ़ हुआ।

तुलुव वंश के राजाओं का विवरण इस प्रकार से है-

  1. वीर नरसिंह – (1505-1509 ई.)
  2. कृष्णदेव राय – (1509-1529 ई.)
  3. अच्युतदेव राय – (1529-1542 ई.)
  4. वेंकट प्रथम – (1542 ई.)
  5. सदाशिव राय – (1542-1570 ई.)

अरविडु वंश (1570-1652 ई.)

  • अरविडु वंशअथवा कर्णाट राजवंश’ (1570-1652 ई.) की स्थापना 1570 ई. के लगभग तिरुमल ने सदाशिव राय को अपदस्थ कर पेनुगोण्डा में की थी। यह वंश दक्षिण भारत के विजयनगर साम्राज्य का चौथा और अंतिम वंश था। पेनुगोण्डा इस वंश की राजधानी थी
  • अरविडु वंश को बीजापुर, अहमदनगर और गोलकुंडा की मिली-जुली सेनाओं द्वारा 1565 में तालीकोट या ‘राक्षस तंगडी’ की लडाई में विजयनगर की विनाशकारी हार विरासत के तौर पर मिली थी। इस वंश के तिरुमल का उत्तराधिकारी रंग द्वितीय हुआ था। रंग द्वितीय के बाद वेंकट द्वितीय शासक हुआ। उसने चन्द्रगिरि को अपना मुख्यालय बनाया था। विजयनगर साम्राज्य के महान् शासकों की श्रंखला की यह अन्तिम कड़ी थी। वेंकट द्वितीय ने स्पेन के फ़िलिप तृतीय से सीधा पत्र व्यवहार किया और वहाँ से ईसाई पादरियों को आमंत्रित किया। उसके शासन काल में ही वाडियार ने 1612 ई. में मैसूर राज्य की स्थापना की थी। वेंकट द्वितीय चित्रकला में विशेष रुचि रखता था।

अरविडु वंश के राजाओं का विवरण इस प्रकार से है-

  1. तिरुमल – (1570 – 1572 ई.)
  2. श्रीरंग – (1572 – 1585 ई.)
  3. वेंकट प्रथम – (1585 – 1614 ई.)
  4. श्रीरंग प्रथम – (1614 ई.)
  5. रामदेव – (1614 – 1630 ई.)
  6. वेंकट द्वितीय – (1630 – 1642 ई.)
  7. श्रीरंग द्वितीय – (1642 – 1652 ई.)

विजय नगर साम्राज्य  के पतन के कारण

  • पड़ौसी राज्यों से शत्रुता की नीति –विजयनगर सम्राज्य सदैव पड़ोसी राज्यों से संघर्ष करता रहा। बहमनी राज्य से विजयनगर नरेशों का झगड़ा हमेशा होते रहता था। इससे साम्राज्य की स्थिति शक्तिहीन हो गयी।
  • निरंकुश शासक –अधिकांश शासक निरकुश थे, वे जनता में लोकपिय्र नहीं बन सके।
  • अयोग्य उत्तराधिकारी –कृष्णदेव राय के बाद उसका भतीजा अच्युत राय गद्दी पर बैठा। वह कमजोर शासक था। उसकी कमजोरी से गृह-युद्ध छिड़ गया तथा गुटबाजी को प्रोत्साहन मिला।
  • उड़ी़सा –बीजापुर के आक्रमण – जिन दिनों विजयनगर साम्राज्य गृह-युद्ध में लिप्त था। उन्हीं दिनों उड़ीसा के राजा प्रतापरूद्र गजपति तथा बीजापुर के शासक इस्माइल आदिल ने विजयनगर पर आक्रमण कर दिया। गजपति हारकर लौट गया पर आदिल ने रायचूर और मुदगल के किलों पर अधिकार जमा लिया।
  • गोलकुंडा तथा बीजापुुर के विरूद्ध सैनिक अभियान-इस अभियान से दक्षिण की मुस्लिम रियासतों ने एक संघ बना लिया। इनसे विजयनगर की सैनिक शक्ति कमजोर हो गयी।
  • बन्नीहट्टी का युद्ध तथा विजयनगर साम्राज्य का अन्त –तालीकोट के पास हट्टी में मुस्लिम संघ तथा विजयनगर साम्राज्य के मध्य युद्ध हुआ। इससे रामराय मारा गया । इसके बाद विजयनगर साम्राज्य का अन्त हो गया। बीजापुर व गोलकुंडा के शासकों ने धीरे- धीरे उसके राज्य को हथिया लिया।

इस प्रकार दक्षिण भारत के अंतिम हिन्दू साम्राज्य का अंत हो गया।

मुग़ल साम्राज्य (1526-1707 ई.)

1494 में ट्रांस-आक्सीयाना की एक छोटी सी रियासत फ़रग़ना का बाबर उत्तराधिकारी बना बाबर ने लिखा है कि क़ाबुल जीतने (1504) से लेकर पानीपत की लड़ाई तक उसने हिन्दुस्तान जीतने का विचार कभी नहीं त्यागा। लेकिन उसे भारत विजय के लिए कभी सही अवसर नहीं मिला था। “कभी अपने बेगों के भय के कारण, कभी मेरे और भाइयों के बीच मतभेद के कारण।”

 

  • बाबर (1526-1530 ई.)
  • दिल्ली सल्तनत के अंतिम शासक इब्राहिम लोदी को 1526 ई. में पराजित कर बाबर ने मुग़ल साम्राज्य की स्थापना की।
  • बाबर फरगना का शासक था। बाबर को भारत आने का निमंत्रण पंजाब के सूबेदार दौलत खां लोदी तथा इब्राहिम लोदी के चाचा आलम खां ने लोदी ने दिया था।
  • बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध से पूर्व भारत पर चार बार आक्रमण किया था। पानीपत विजय उसका पांचवा आक्रमण था।
  • बाबर ने जिस समय भारत पर आक्रमण किया उस समय भारत में बंगाल, मालवा, गुजरात, सिंध, कश्मीर, मेंवाड़, खानदेश, विजयनगर और बहमनी आदि स्वतंत्र राज्य थे।
  • बाबर का पानीपत के बाद दूसरा महत्त्वपूर्ण युद्ध राणा सांगा के विरुद्ध खानवा का युद्ध (1527 ई.) था, जिसमें विजय के पश्चात बाबर ने गाजी की उपाधि धारण की।
  • बाबर ने 1528 में मेंदिनी राय को परास्त कर चंदेरी पर अधिकार कर लिया।
  • बाबर ने 1529 में घाघरा के युद्ध में बिहार और बंगाल की संयुक्त अफगान सेना को पराजित किया, जिसका नेतृत्व महमूद लोदी ने किया था।
  • बाबर ने पानीपत के प्रथम युद्ध में तुलगमा सामरिकी का प्रयोग किया था, जिसे उसने उज्बेकों से ग्रहण किया था।
  • अपनी उदारता के कारण बाबर को ‘कलन्दर’ कहा जाता था। उसने पानीपत विजय के पश्चात काबुल के प्रत्येक निवासी को एक-एक चांदी का सिक्का दान में दिया था।
  • बाबर ने आगरा में बाग लगवाया, जिसे ‘नूर-ए-अफगान’ के नाम से जाना जाता था, किन्तु अब इसे ‘आराम बाग’ कहा जाता है।
  • बाबर ने ‘गज-ए-बाबरी’ नामक नाप की एक इकाई का प्रचलन किया।
  • बाबर ने ‘मुबइयान’ नामक एक पद्य शैली का विकास किया। ‘रियाल-ए-उसज’ की रचना बाबर ने ही की थी।
  • 26 दिसंबर, 1530 को आगरा में बाबर की मृत्यु हो गयी, उसे नूर-ए-अफगान बाग में दफनाया गया।

 

हुमायूं (1530 ई.-1556 ई.)

  • बाबर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र हुमायूं मुग़ल वंश के शासन पर बैठा।
  • बाबर के चरों पुत्र-कामरान, अस्करी, हिंदाल और हुमायूं में हुमायूं सबसे बड़ा था।
  • हुमायूं ने अपने साम्राज्य का विभाजन भाइयों में किया था। उसने कामरान को काबुल एवं कंधार, अस्करी को संभल तथा हिंदाल को अलवर प्रदान किया था।
  • हुमायूं का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी अफगान नेता शेर खां था, जिसे शेरशाह शूरी भी कहा जाता है।बाबर ने उसे चालाक अफगान कहते हुए हुमायू को उससे सावधान रहने की सलाह दी थी ।
  • हुमायूं का अफगानों से पहला मुकाबला 1532 ई. में ‘दोहरिया’ नामक स्थान पर हुआ। इसमें अफगानों का नेतृत्व महमूद लोदी ने किया था। इस संघर्ष में हुमायूं सफल रहा।
  • 1532 में हुमायूं ने शेर खां के चुनार किले पर घेरा डाला। इस अभियान में शेर खां ने हुमायूं की अधीनता स्वीकार कर अपने पुत्र क़ुतुब खां के साथ एक अफगान टुकड़ी मुगलों की सेवा में भेज दी।
  • 1532 ई. में हुमायूं ने दिल्ली में ‘दीन पनाह’ नामक नगर की स्थापना की।
  • 1535 ई. में ही उसने बहादुर शाह को हराकर गुजरात और मालवा पर विजय प्राप्त की।
  • शेर खां की बढती शक्ति को दबाने के लिए हुमायूं ने 1538 ई. में चुनारगढ़ के किले पर दूसरा घेरा डालकर उसे अपने अधीन कर लिया।
  • 1538 ई. में हुमायूं ने बंगाल को जीतकर मुग़ल शासक के अधीन कर लिया। बंगाल विजय से लौटने समय 26 जून, 1539 को चौसा के युद्ध में शेर खां ने हुमायूं को बुरी तरह पराजित किया।
  • शेर खां ने 17 मई, 1540 को बिलग्राम के युद्ध में पुनः हुमायूं को पराजित कर दिल्ली पर बैठा। हुमायूं को मजबूर होकर भारत से बाहर भागना पड़ा।
  • 1544 में हुमायूं ईरान के शाह तहमस्प के यहाँ शरण लेकर पुनः युद्ध की तैयारी में लग गया।
  • 1545 ई. में हुमायूं ने कामरान से काबुल और गंधार छीन लिया।
  • 15 मई, 1555 को मच्छीवाड़ा तथा जून, 1555 को सरहिंद के युद्ध में सिकंदर शाह सूरी को पराजित कर हुमायूं ने दिल्ली पर पुनः अधिकार लिया।
  • 23 जुलाई, 1555 को हुमायूं एक बार फिर दिल्ली के सिंहासन पर आसीन हुआ, परन्तु अगले ही वर्ष 27 जनवरी, 1556 को पुस्तकालय की सीढियों से गिर जाने से उसकी मृत्यु हो गयी।
  • लेनपूल ने हुमायूं पर टिप्पणी करते हुए कहा, “हुमायूं जीवन भर लड़खड़ाता रहा और लड़खड़ाते हुए उसने अपनी जान दे दी।“
  • बैरम खां हुमायूं का योग्य एवं वफादार सेनापति था, जिसने निर्वासन तथा पुनः राजसिंहासन प्राप्त करने में हुमायूं की मदद की।

 

शेरशाह सूरी (1540 ई. –1545 ई.)

  • बिलग्राम के युद्ध में हुमायूं को पराजित कर 1540 ई. में 67 वर्ष की आयु में दिल्ली की गद्दी पर बैठा। इसने मुग़ल साम्राज्य की नींव पर भारत में अफगानों का शासन स्थापित किया।
  • इसके बचपन का नाम फरीद था। शेरशाह का पिता हसन खां जौनपुर का एक छोटा जागीरदार था।
  • दक्षिण बिहार के सूबेदार बहार खां लोहानी ने शेर मारने के उपलक्ष्य में फरीद खां की उपाधि प्रदान थी।
  • बहार खां लोहानी की मृत्यु के बाद शेर खां ने उसकी विधवा ‘दूदू बेगम’ से विवाह कर लिया।
  • 1539 ई. में बंगाल के शासक नुसरतशाह को पराजित करने के बाद शेर खां ने ‘हजरत-ए-आला’ की उपाधि धारण की।
  • 1539 ई. में चौसा के युद्ध में हुमायूं को पराजित करने के बाद शेर खां ने ‘शेरशाह’ की उपाधि धारण की।
  • 1540  में दिल्ली की गद्दी पर बैठने के बाद शेरशाह ने सूरवंश अथवा द्वितीय अफगान साम्राज्य की स्थापना की।
  • शेरशाह ने अपनी उत्तरी पश्चिमी सीमा की सुरक्षा के लिए ‘रोहतासगढ़’ नामक एक सुदृढ़ किला बनवाया।
  • 1542 और 1543 ई. में शेरशाह ने मालवा और रायसीन पे आक्रमण करके अपने अधीन कर लिया।
  • 1544 ई. में शेरशाह ने मारवाड़ के शासक मालदेव पर आक्रमण किया। बड़ी मुश्किल से सफलता मिली। इस युद्ध में राजपूत सरदार ‘गयता’ और ‘कुप्पा’ ने अफगान सेना के छक्के छुड़ा दिए।
  • 1545 ई में शेरशाह ने कालिंजर के मजबू किले का घेरा डाला, जो उस समय कीरत सिंह के अधिकार में था, परन्तु 22 मई 1545 को बारूद के ढेर में विस्फोट के कारण उसकी मृत्यु हो गयी।
  • भारतीय इतिहास में शेरशाह अपने कुशल शासन प्रबंध के लिए जाना जाता है।
  • शेरशाह ने भूमि राजस्व में महत्वपूर्ण परिवर्तन किया, जिससे प्रभावित होकर अकबर ने अपने शासन को प्रबंध का अंग बनाया।
  • प्रसिद्ध ग्रैंड ट्रंक रोड (पेशावर से कलकत्ता) की मरम्मत, करवाकर व्यापार और आवागमन को सुगम बनाया।
  • शेरशाह का मकबरा बिहार के सासाराम में स्थित है, जो मध्यकालीन कला का एक उत्कृष्ट नमूना है।
  • शेरशाह की मृत्यु के बाद भी सूर वंश का शासन 1555 ई. में हुमायूं द्वारा पुनः दिल्ली की गद्दी प्राप्त करने तक कायम रहा।

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  • अकबर (1556 ई. – 1605 ई.)
  • 1556 ई. में हुमायूं की मृत्यु के बाद उसके पुत्र अकबर का कलानौर नामक स्थान पर 14 फरवरी, 1556 को मात्र 13 वर्ष की आयु में राज्याभिषेक हुआ।
  • अकबर का जन्म 15 अक्टूबर, 1542 को अमरकोट के राजा वीरसाल के महल में हुआ था।
  • भारत का शासक बनने के बाद 1556 से 1560 तक अकबर बैरम खां के संरक्षण में रहा।
  • अकबर ने बैरम खां को अपना वजीर नियुक्त कर खाना-ए-खाना की उपाधि प्रदान की थी।
  • 5 नवम्बर, 1556 को पानीपत के द्वितीय युद्ध में अकबर की सेना का मुकाबला अफगान शासक मुहम्मद आदिल शाह के योग्य सेनापति हेमू की सेना से हुआ युद्ध में हेमू की स्थिति सुदृढ़ थी किन्तु हेमू की आँख में अचानक एकी तीर लग जाने जिसमें हैमू की हार एवं मृत्यु हो गयी।
  • 1560 से 1562 ई. तक दो वर्षों तक अकबर अपनी  मां महम अनगा, उसके पुत्र आदम खां तथा उसके सम्बन्धियों के प्रभाव में रहा। इन दो वर्षों के शासनकाल को पेटीकोट सरकार की संज्ञा दी गयी है।
  • अकबर ने भारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की, जो इस प्रकार है:
  • अकबर ने दक्षिण भारत के राज्यों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया था। खानदेश (1591), दौलताबाद (1599), अहमदनगर (1600) और असीर गढ़ (1601) मुग़ल शासन के अधीन किये गए।
  • अकबर ने भारत में एक बड़े साम्राज्य की स्थापना की, परन्तु इससे ज्यादा वह अपनी धार्मिक सहिष्णुता के लिए विख्यात है।
  • अकबर ने 15 75 ई. में फतेहपुर सीकरी में इबादतखाना की स्थापना की। इस्लामी विद्वानों की अशिष्टता से दुखी होकर अकबर ने 1578 ई. में इबादतखाना में सभी धर्मों के विद्वानों को आमंत्रित करना शुरू किया।
  • 1582 ई. में अकबर ने एक नवीन धर्म ‘तोहिद-ए-इलाही’ या ‘दीन-ए-इलाही’ की स्थापना की, जो वास्तव में विभिन्न धर्मों के अच्छे तत्वों का मिश्रण था।
  • अकबर ने सती प्रथा को रोकने का प्रयत्न किया, साथ ही विधवा विवाह को क़ानूनी मान्यता दी। अकबर ने लड़कों के विवाह की उम्र 16 वर्ष और लड़कियों के लिए 14 वर्ष निर्धारित की।
  • अकबर ने 1562 में दास प्रथा का अंत किया तथा 1563 में तीर्थयात्रा पर से कर को समाप्त कर दिया।
  • अकबर ने 1564 में जजिया कर समाप्त कर दिया।
  • 1579 में अकबर ने ‘महजार’ की घोषणा की।
  • अकबर ने गुजरात विजय की स्मृति में फतेहपुर सीकरी में ‘बुलंद दरवाजा’ का निर्माण कराया था।
  • अकबर ने 1575-76 ई. में सम्पूर्ण साम्राज्य को 12 सूबों में बांटा था, जिनकी संख्या बराड़, खानदेश और अहमदनगर को जीतने के बाद बढ़कर 15 हो गयी।
  • अकबर ने सम्पूर्ण साम्राज्य में एक सरकारी भाषा (फारसी), एक समान मुद्रा प्रणाली, समान प्रशासनिक व्यवस्था तथा बात माप प्रणाली की शुरुआत की।
  • अकबर ने 1573-74 ई. में ‘मनसबदारी प्रथा’ की शुरुआत की, जिसकी खलीफा अब्बा सईद द्वारा शुरू की गयी तथा चंगेज खां और तैमूरलंग द्वारा स्वीकृत सैनिक व्यवस्था से मिली थी।

अकबर के दरबार के नौ रत्न (नवरत्न)

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जहाँगीर (1605 ई.- 1627 ई.)

  • 17 अक्टूबर 1605 को अकबर की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र सलीम जहाँगीर के नाम से गद्दी पर बैठा।
  • गद्दी पर बैठते ही सर्वप्रथम 1605 ई. में जहाँगीर को अपने पुत्र खुसरो के विद्रोह का सामना करना पड़ा।जहाँगीर और खुसरो के बीच भेरावल नामक स्थान पर एक युद्ध हुआ, जिसमें खुसरो पराजित हुआ।
  • खुसरो को सिक्खों के पांचवे गुरु अर्जुन देव का आशीर्वाद प्राप्त था। जहाँगीर ने अर्जुन देव पर राजद्रोह का आरोप लगाते हुए फांसी की सजा दी।
  • 1585 मेँ जहाँगीर का विवाह आमेंर के राजा भगवान दास की पुत्री तथा मानसिंह की बहन मानबाई से हुआ, खुसरो मानबाई का ही पुत्र था।
  • जहाँगीर दूसरा विवाह राजा उदय सिंह की पुत्री जगत गोसाईं से हुआ था, जिसकी संतान शाहजादा खुर्रम (शाहजहाँ) था।
  • मई 1611 जहाँगीर ने मेंहरुन्निसा नामक एक विधवा से विवाह किया जो, फारस के मिर्जा गयास बेग की पुत्री थी। जहाँगीर ने मेंहरुन्निसा को ‘नूरमहल’ एवं ‘नूरजहाँ’ की उपाधि दी।
  • नूरजहाँ के पिता गयास बेग को वजीर का पद प्रदान कर एत्माद्दुदौला की उपाधि दी गई, जबकि उसके भाई आसफ खाँ को खान-ए-सामा का पद मिला।
  • जहाँगीर के दक्षिण विजय मेँ सबसे बडी बाधा अहमदनगर के योग्य वजीर मलिक अंबर की उपस्थिति थी। उसने मुगलोँ के विरोध ‘गुरिल्ला युद्ध नीति’ अपनाई और बडी संख्या मेँ सेना मेँ मराठोँ की भरती की।
  • जहाँगीर ने 1611 मेँ खरदा, 1615 मेँ खोखर, 1620 मेँ कश्मीर के दक्षिण मेँ किश्तवाड़ तथा 1620 में ही कांगड़ा को जीता।
  • जहाँगीर के शासन की सबसे उल्लेखनीय सफलता 1620 मेँ उत्तरी पूर्वी पंजाब की पहाडियोँ पर स्थित कांगड़ा के दुर्ग पर अधिकार करना था।
  • 1626 मेँ महावत खान का विद्रोह जहाँगीर के शासनकाल की एक महत्वपूर्ण घटना थी। महावत खां ने जहाँगीर को बंदी बना लिया था। नूरजहाँ की बुद्धिमानी के कारण महावत ख़ाँ की योजना असफल सिद्ध हुई।
  • नूर जहाँ से संबंधित सबसे महत्वपूर्ण घटना उसके द्वारा बनाया गया ‘जुंटा गुट’ था। गुट मेँ उसके पिता एत्माद्दुदौला, माता अस्मत बेगम, भाई आसफ खान और शाहजादा खुर्रम सम्मिलित थे।
  • जहाँगीर ने ‘तुजुक-ए-जहांगीरी’ नाम से अपनी आत्मकथा की रचना की।
  • नूरजहाँ, जहाँगीर के साथ झरोखा दर्शन देती थी। सिक्कोँ पर बादशाह के साथ उसका नाम भी अंकित होता था। जहाँगीर के चरित्र की सबसे मुख्य विशेषता उसकी ‘अपरिमित महत्वाकांक्षा’ थी।
  • जहाँगीर ने तंबाकू के सेवन पर प्रतिबंध लगाया था।
  • जहाँगीर के शासन काल में इंग्लैड के सम्राट जेम्स प्रथम ने कप्तान हॉकिंस (1608) और थॉमस (1615)  को भारत भेजा। जिससे अंग्रेज भारत मेँ कुछ व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त करने मेँ सफल हुए।
  • नूरजहाँ की माँ अस्मत बेगम ने इत्र बनाने की विधि का आविष्कार किया।
  • जहाँगीर धार्मिक दृष्टि से सहिष्णु था। वह अकबर की तरह ब्राम्हणों और मंदिरोँ को दान देता था। उसने 1612 ई. में पहली बार रक्षाबंधन का त्योहार मनाया।
  • किंतु कुछ अवसरों पर जहाँगीर ने इस्लाम का पक्ष लिया। कांगड़ा का किला जीतने के बाद उसने एक गाय कटवाकर जश्न मनाया।
  • जहाँगीर ने सूरदास को अपने दरबार मेँ आश्रय दिया था, जिसने ‘सूरसागर’ की रचना की।
  • नवंबर 16 27 में जहाँगीर की मृत्यु हो गई। उसे लाहौर के शाहदरा मेँ रावी नदी के किनारे दफनाया गया।

 

शाहजहाँ (1627 ई. 1658 ई.)

  • शाहजहाँ (खुर्रम) का जन्म 1592 मेँ जहाँगीर की पत्नी जगत गोसाईं से हुआ।
  • जहाँगीर की मृत्यु के समय शाह जहाँ दक्कन में था। जहाँगीर की मृत्यु के बाद नूरजहाँ ने लाहौर मेँ अपने दामाद शहरयार को सम्राट घोषित कर दिया। जबकि आसफ़ खां ने शाहजहाँ के दक्कन से आगरा वापस आने तक अंतरिम व्यवस्था के रुप मेँ खुसरो के पुत्र द्वार बक्श को राजगद्दी पर आसीन किया।
  • शाहजहाँ ने अपने सभी भाइयो एवम सिंहासन के सभी प्रतिद्वंदियोँ का सामना करते हुए अंत में 24 फरवरी 1628 मेँ आगरा के सिंहासन पर बैठा।
  • शाहजहाँ का विवाह 1612 ई. मेँ आसफ की पुत्री और नूरजहाँ की भतीजी ‘अर्जुमंद बानू बेगम’ से हुआ था, जो बाद मेँ इतिहास मेँ मुमताज महल के नाम से विख्यात हुई।
  • शाहजहाँ को मुमताज महल 14 संतानेँ हुई लेकिन उनमेँ से चार पुत्र और तीन पुत्रियाँ ही जीवित रहै। चार पुत्रों मेँ दारा शिकोह, औरंगजेब, मुराद बख्श और शुजाथे, जबकि रोशनआरा, गौहन आरा, और जहांआरा पुत्रियाँ थी।
  • शाहजहाँ के प्रारंभिक तीन वर्ष बुंदेला नायक जुझार सिंह और खाने जहाँ लोदी नामक अफगान सरदार के विद्रोह को दबाने मेँ निकले।
  • शाहजहाँ के शासन काल मेँ सिक्खोँ के छठे गुरु हरगोविंद सिंह से मुगलोँ का संघर्ष हुआ जिसमें सिक्खों की हार हुई।
  • शाहजहाँ ने दक्षिण भारत मेँ सर्वप्रथम अहमदनगर पर आक्रमण कर के 1633 में उसे मुग़ल साम्राज्य मेँ मिला लिया।
  • फरवरी 1636 में  गोलकुंडा के सुल्तान अब्दुल्ला शाह ने शाहजहाँ का आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
  • मोहम्मद सैय्यद (मीर जुमला), गोलकुंडा के वजीर ने, शाहजहाँ को कोहिनूर हीरा भेंट किया था।
  • शाहजहाँ ने 1636  में बीजापुर पर आक्रमण करके उसके शासक मोहम्मद आदिल शाह प्रथम को संधि करने के लिए विवश किया।
  • मध्य एशिया पर विजय प्राप्त करने के लिए शाहजहाँ ने 1645 ई. में शाहजादा मुराद एवं 1647 ई. मेँ औरंगजेब को भेजा पर उसको सफलता प्राप्त न हो सकी।
  • व्यापार, कला, साहित्य और स्थापत्य के क्षेत्र मेँ चर्मोत्कर्ष के कारण ही इतिहासकारोँ ने शाहजहाँ के शासनकाल कोस्वर्ण काल की संख्या दी है।
  • शाहजहाँ ने दिल्ली मेँ लाल किला और जामा मस्जिद का निर्माण कराया और आगरा मेँ अपनी पत्नी मुमताज महल की याद मेँताजमहल बनवाया जो कला और स्थापत्य का उत्कृष्ट नमूना प्रस्तुत करते हैं।
  • शाहजहाँ के शासन काल का वर्णन फ्रेंच यात्री बर्नियर, टेवरनियर तथा इटालियन यात्री मनुची ने किया है।
  • शाहजहाँ ने अपने शासन के प्रारंभिक वर्षोँ में इस्लाम का पक्ष लिया किंतु कालांतर मेँ दारा और जहाँआरा के प्रभाव के कारण वह सहिष्णु बन गया था।
  • शाहजहाँ ने अहमदाबाद के चिंतामणि मंदिर की मरमत किए जाने की आज्ञा दी तथा खंभात के नागरिकोँ के अनुरोध पर वहाँ गो हत्या बंद करवा दी थी।
  • पंडित जगन्नाथ शाहजहाँ के राज कवि थे जिनोने जिंहोनेगंगा लहरी और रस गंगाधर की रचना की थी।
  • शाहजहाँ के पुत्र दारा नेभगवत गीता और योगवासिष्ठ का फारसी मेँ अनुवाद करवाया था। शाहजहाँ ने दारा को शाहबुलंद इकबाल की उपाधि से विभूषित किया था।
  • दारा का सबसे महत्वपूर्ण कार्यवेदो का संकलन है, उसने वेदो को ईश्वरीय कृति माना था। दारा सूफियोँ की कादरी परंपरा से बहुत प्रभावित था।
  • अप्रैल 1658 ई. कोधर्मत के युद्ध मेँ औरंगजेब ने दारा को पराजित कर दिया।
  • बनारस के पास बहादुरपुर के युद्ध मेँ शाहशुजा, शाही सेना से पराजित हुआ।
  • जून 1658 में सामूगढ़ के युद्ध मेँ औरंगजेब और मुराद की सेनाओं का मुकाबला शाही सेना से हुआ, जिसका नेतृत्व दारा कर रहा था। इस युद्ध मेँ दारा पुनः पराजित हुआ।
  • सामूगढ़ की विजय के बाद औरंगजेब ने कूटनीतिक से मुराद को बंदी बना लिया और बाद मेँ उसकी हत्या करवा करवा दी।
  • औरंगजेब और शुजा के बीच इलाहाबाद खंजवा के निकट जनवरी 1659 मेँ एक युद्ध हुआ जिसमें पराजित होकर शुजा अराकान की और भाग गया।
  • शाहजहाँ की मृत्यु के उपरांत उसके शव को ताज महल मेँ मुमताज महल की कब्र के नजदीक दफनाया गया था।

 

  • औरंगजेब(1658-1707 ई.)
  • औरंगजेब का जन्म 3 नवंबर 1618 को उज्जैन के निकट दोहन नामक स्थान पर हुआ था।
  • उत्तराधिकार के युद्ध मेँ विजय होने के बाद औरंगजेब 21 जुलाई 1658 को मुग़ल साम्राज्य की गद्दी पर आसीन हुआ।
  • औरंगजेब ने 1661 ई. में मीर जुमला को बंगाल का सूबेदार नियुक्त किया जिसने कूच बिहार की राजधानी को अहोमो से जीत लिया। 1662 ई. में  मीर जुमला ने अहोमो की राजधानी गढ़गाँव पहुंचा जहां बाद मेँ अहोमो ने मुगलो से संधि कर ली और वार्षिक कर देना स्वीकार किया।
  • औरंगजेब शाहजहाँ के काल मेँ 1636 ई. से 1644 ई.  तक दक्षिण के सूबेदार के रुप मेँ रहा और औरंगाबाद मुगलोँ की दक्षिण सूबे की राजधानी थी।
  • शासक बनने के बाद औरंगजेब के दक्षिण मेँ लड़े गए युद्धों को दो भागोँ मेँ बाँटा जा सकता है – बीजापुर तथा गोलकुंडा के विरुद्ध युद्ध और मराठोँ के साथ युद्ध।
  • ओरंगजेब ने 1665 ई. में राजा जयसिंह को बीजापुर एवं शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा। जय सिंह शिवाजी को पराजित कर पुरंदर की संधि (जून, 1665) करने के लिए विवश किया। किंतु जयसिंह को बीजापुर के विरुद्ध सफलता नहीँ मिली।
  • पुरंदर की संधि के अनुसार शिवाजी को अपने 23 किले मुगलों को सौंपने पड़े तथा बीजापुर के खिलाफ मुगलों की सहायता करने का वचन देना पड़ा।
  • 1676 में मुगल सुबेदार दिलेर खां ने बीजापुर को संधि करने के लिए विवश किया। अंततः 1666 ई. मेँ बीजापुर के सुल्तान सिकंदर आदिल शाह ने औरंगजेब के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया फलस्वरुप बीजापुर को मुग़ल साम्राज्य मेँ मिला लिया गया।
  • 1687 ई. मेँ औरंगजेब ने गोलकुंडा पर आक्रमण कर के 8 महीने तक घेरा डाले रखा, इसके बावजूद सफलता नहीँ मिली। अंततः अक्टूबर 1687 मेँ गोलकुंडा को मुग़ल साम्राज्य मेँ मिला लिया गया।
  • जयसिंह के बुलाने पर शिवाजी औरंगजेब के दरबार मेँ आया जहाँ उसे कैद कर लिया गया, किंतु वह गुप्त रुप से फरार हो गये।
  • शिवाजी की मृत्यु के बाद के बाद उनके पुत्र संभाजी ने मुगलों से संघर्ष जारी रखा किंतु 1689 ई. मेँ उसे पकड़ कर हत्या कर दी गई।
  • संभाजी की मृत्यु के बाद सौतेले भाई राजाराम राजाराम ने भी मुगलोँ से संघर्ष जारी रखा, जिसे मराठा इतिहास मेँ ‘स्वतंत्रता संग्राम’ के नाम से जाना जाता है।
  • औरंगजेब ने राजपूतोँ के प्रति अकबर, जहांगीर, और शाहजहाँ द्वारा अपनाई गई नीति मेँ परिवर्तन किया।
  • औरंगजेब के समय आमेर (जयपुर) के राजा जयसिंह, मेंवाड़ के राजा राज सिंह, और जोधपुर के राजा जसवंत सिंह प्रमुख राजपूत राजा थे।
  • मारवाड़ और मुगलोँ के बीच हुए इस तीस वर्षीय युद्ध (1679 – 1709 ई.) का नायक दुर्गादास था, जिसे कर्नल टॉड ने ‘यूलिसिस’ कहा है।
  • औरंगजेब ने सिक्खोँ के नवें गुरु तेग बहादुर की हत्या करवा दी।
  • औरंगजेब के समय हुए कुछ प्रमुख विद्रोह मेँ अफगान विद्रोह (1667-1672), जाट विद्रोह (1669-1681), सतनामी विद्रोह (1672), बुंदेला विद्रोह (1661-1707), अकबर द्वितीय का विद्रोह (1681), अंग्रेजो का विद्रोह (1686), राजपूत विद्रोह (1679-1709) और सिक्ख विद्रोह (1675-1607 ई.) शामिल थे।
  • औरंगजेब एक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। उसका प्रमुख लक्ष्य भारत मेँ दार-उल-हर्ष के स्थान पर    दार-उल-इस्लाम की स्थापना करना था।
  • औरंगजेब ने 1663 ई. मेँ सती प्रथा पर प्रतिबंध लगाया प्रथा हिंदुओं पर तीर्थ यात्रा कर लगाया।
  • औरंगजेब ने 1668 ई. मेँ हिंदू त्यौहारोँ और उत्सवों को मनाने जाने पर रोक लगा दी।
  • औरंगजेब के आदेश द्वारा 1669 ई. में  काशी विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवराय मंदिर तथा गुजरात का सोमनाथ मंदिर को तोड़ा गया।
  • औरंगजेब ने 1679 ई. मेँ हिंदुओं पर जजिया कर आरोपित किया। दूसरी ओर उसके शासनकाल मेँ हिंदू अधिकारियो की संख्या संपूर्ण इतिहास मेँ सर्वाधिक (एक तिहाई) रही।
  • औरंगजेब की मृत्यु 3 मार्च 1707 को हो गई।

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LECTURE – 11

मुग़ल काल में कला और संस्कृत तथा आधुनिक युग का प्रारंभ

 

मुग़ल काल में कला और संस्कृत तथा आधुनिक युग का प्रारंभ

 

फ़ारसी साहित्य

मुग़लकालीन फ़ारसी साहित्य की प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं-

 

बाबरनामा (तुजुके बाबरी)

बाबर द्वारा रचित तुर्की भाषा की यह कृति, जिसका अकबर ने 1583 ई. में अर्ब्दुरहमान ख़ानख़ाना द्वारा अनुवाद करवाया था, भारत की 1504 से 1529 ई. तक की राजनीतिक एवं प्राकृतिक स्थिति पर वर्णनात्मक प्रकाश डालती है।

 

तारीख़-ए-रशीदी

हुमायूँ की शाही फ़ौज में कमांडर के पद पर नियुक्त मिर्ज़ा हैदर दोगलत द्वारा रचित यह कृति मध्य एशिया में तुर्कों के इतिहास तथा हुमायूँ के शासन काल पर विस्तारपूर्वक प्रकाश डालती है।

 

क़ानूने हुमायूँनी

1534 ई. में ख्वान्दमीर द्वारा रचित इस कृति में हुमायूँ की चापलूसी करते हुए उसे ‘सिकन्दर-ए-आजम’, ख़ुदा का साया आदि उपाधियाँ देने का वर्णन है।

 

हुमायूँनामा

दो भागों में विभाजित यह पुस्तक ‘गुलबदन बेगम’ द्वारा लिखी गयी, जिसके एक भाग में बाबर का इतिहास तथा दूसरे में हुमायूँ के इतिहास का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त इस पुस्तक से तत्कालीन सामाजिक स्थिति पर भी प्रकाश पड़ता है।

 

तजकिरातुल वाकयात

1536-1537 ई. में ‘जौहर आपताबची’ द्वारा रचित इस पुस्तक में हुमायूँ के जीवन के उतार-चढ़ाव का उल्लेख है।

 

वाकयात-ए-मुश्ताकी

लोदी एवं सूर काल के विषय में जानकारी देने वाली यह कृति ‘रिजकुल्लाह मुश्ताकी’ द्वारा रचित है।

 

तोहफ़ा-ए-अकबरशाही

अकबर को समर्पित इस पुस्तक को ‘अब्बास ख़ाँ सरवानी’ ने अकबर के निर्देश पर लिखा था। इस पुस्तक से शेरशाह मे विषय मे जानकारी मिलती है।

 

तारीख़-ए-शाही

बहलोल लोदी के काल से प्रारम्भ होकर एवं हेमू की मृत्यु के समय समाप्त होने वाली यह पुस्तक ‘अहमद यादगार’ द्वारा रचित है।

 

तजकिरा-ए-हुमायूँ व अकबर

अकबर द्वारा अपने दरबारियों को हूमायूँ के विषय में जो कुछ जानते हैं, लिखने का आदेश देने पर अकबर के रसोई प्रबंधक ‘बायर्जाद बयात’ ने यह पुस्तक लिखी थी।

 

नफाइस-उल-मासिर

अकबर के समय यह प्रथम ऐतिहासिक पुस्तक ‘मीर अलाउद्दौला कजवीनी’ द्वारा रचित है, जिससे 1565 से 1575 ई. तक की स्थिति का पता चलता है।

 

तारीख़-ए-अकबरी

9 भागों में विभाजित यह पुस्तक ‘निज़ामुद्दीन अहमद’ द्वारा रचित है। इसके प्रथम दो भाग मुग़लों के इतिहास का उल्लेख करते हैं तथा शेष भाग दक्कन, मालवा, गुजरात, बंगाल, जौनपुर, कश्मीर, सिंध एवं मुल्तान की स्थिति का आभास कराते हैं।

इंशा

अबुल फ़ज़ल की रचना ‘इंशा’ (अकबर द्वारा विदेशी शासकों को भेजे गये शाही पत्रों का संकलन) ऐतिहासिक एवं साहित्यिक दोनों दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।

 

मुन्तखब-उत-तवारीख़

1590 ई. में प्रारम्भ अब्दुल कादिर बदायूंनी द्वारा रचित यह पुस्तक हिन्दुस्तान के आम इतिहास के रूप में जानी जाती है, जो तीन भागों में विभाजित है। प्रथम भाग जिसे ‘तबकाते-अकबरी’ का संक्षिप्त रूप भी कहा जाता है, सुबुक्तगीन से हुमायूँ की मृत्यु तक की स्थिति का उल्लेख करता है तथा तीसरा भाग सूफ़ियों, शायरों एवं विद्वानों की जीवनियों पर प्रकाश डालता है। पुस्तक का रचयिता बदायूंनी, अकबर की उदार धार्मिक नीतियों का कट्टर विरोधी होने के कारण अकबर द्वारा लागू की गई उसकी हर नीति को इस्लाम धर्म के विरुद्ध साज़िश समझता था।

 

तुजुक-ए-जहाँगारी

जहाँगीर ने इस पुस्तक को अपने शासन काल के 16वें वर्ष तक लिखा। उसके बाद के 19 वर्षों का इतिहास ‘मौतमिद ख़ाँ ने अपने नाम से लिखा। अन्तिम रूप से इस पुस्तक को पूर्ण करने का श्रेय ‘मुहम्मद हादी’ को है। यह पुस्तक जहाँगीर के शासन कालीन उतार-चढ़ाव तथा शासन सम्बन्धी क़ानूनों का उल्लेख करती है।

इक़बालनामा-ए-जहाँगीरी

जहाँगीर के शासन काल के 19वें वर्ष के बाद की जानकारी देने वाली यह पुस्तक ‘मौतमद ख़ाँ बख्शी’ द्वारा रचित है।

 

पादशाहनामा

‘पादशाहनामा’ नाम से कई पुस्तकों की रचना हुई है, जिन रचनाकारों ने इन पुस्तकों की रचना की है, वे निम्नलिखित हैं-

  • शाहजहाँके शासन काल में प्रारम्भिक 10 वर्षों का उल्लेख करने वाली ‘पादशाहनामा’ नामक पुस्तक को शाहजहाँ के समय के प्रथम इतिहासकार ‘मोहम्मद अमीन कजवीनी’ ने शाहजहाँ के शासन काल के 8वें वर्ष प्रारम्भ कर 20वें वर्ष में लिखकर पूर्ण की।
  • अब्दुल हमीद लाहौरी‘ द्वारा रचित ‘पादशाहनामा’ कृति में शाहजहाँ के शासन के 20 वर्षों के इतिहास का उल्लेख मिलता है, साथ ही यह कृति शाहजहाँ के शासन काल की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति पर भी प्रकाश डालती है।
  • ‘मोहम्मद वारिस’ ने अपनी ‘पादशाहनामा’ पुस्तक को शाहजहाँ के शासन के 21 वें वर्ष में आरम्भ कर 30वें वर्ष में ख़त्म किया।

 

अमल-ए-सालेह

‘मोहम्मद सालेह’ द्वारा रचित इस कृति में शाहजहाँ के अन्तिम 2 वर्षों का इतिहास मिलता है।

 

तारीख़-ए-शाहजहाँनी

शाहजहाँ कालीन शासन के हालातों एवं अफ़सरों के सम्बन्ध में जानकारी देने वाली यह पुसतक ‘सादिक ख़ाँ’ द्वारा रचित है।

 

चहारचमन

‘चन्द्रभान’ द्वारा रचित यह कृति शाहजहाँ की शासन प्रणाली और कार्य प्रणाली का ज़िक्र करती है।

 

शाहजहाँनामा, आलमगीरनामा

ये दोनों ही कृतियाँ औरंगज़ेब के शासन काल के प्रथम 10 वर्षों के इतिहास को बताने वाली एकमात्र कृति मानी जाती है। ‘शाहजहाँनामा’ के रचयिता ‘इनायत ख़ाँ एवं ‘आलमगीरनामा’ के रचयिता ‘काजिम शीराजी’ हैं। इन कृतियों में क़ीमते बढ़ने, खेती की हालत बिगड़ने आदि का भी उल्लेख है। काजिम शिराजी, औरंगज़ेब का सरकारी इतिहासकार था।

 

वाकयात-ए-आलमगीरी

‘आकिल ख़ाँ’ द्वारा रचित यह कृति औरंगज़ेब के राज्यारोहण के समय हुई लड़ाईयों का विस्तार से उल्लेख करती है।

 

खुलासत-उत-तवारीख़

औरंगज़ेब कालीन आर्थिक स्थिति, राज्यों की भौगोलिक सीमाओं एवं व्यापारिक मार्गों पर प्रकाश डालने वाली यह पुस्तक ‘सुजान राय भंडारी’ द्वारा रचित है।

 

मुन्तखब-उल-लुबाब

‘खफी ख़ाँ’ द्वारा रचित यह कृति औरंगज़ेब के शासन काल का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत करती है।

 

फतुहात-ए-आलमगीरी

औरंगज़ेब के 34 वर्षों के शासन काल पर प्रकाश डालने वाली यह कृति ‘ईश्वरदास नागर’ द्वारा रचित है।

 

नुस्खा-ए-दिलकुशा

औरंगज़ेब की शासन कालीन सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक स्थिति का उल्लेख करने वाली यह पुस्तक ‘भीमसेन कायस्थ’ द्वारा रचित है।

 

 

मासिर-ए-आलमगीरी

‘साकी मुस्तैद ख़ाँ’ द्वारा रचित यह कृति औरंगज़ेब के शासन काल के 11 वें वर्ष से लेकर 20वें वर्ष तक की स्थिति पर प्रकाश डालती है। ‘जदुनाथ सरकार’ ने इस कृति को ‘मुग़ल राज्य का गजेटियर’ कहा है।

 

फतवा-ए-आलमगीरी

मुस्लिम क़ानूनों का अत्यन्त प्रामाणिक एवं विस्तृत सार संग्रह ‘फतवा-ए-आलमगीरी’ के नाम से जाना जाता है, जिसे औरंगज़ेब के आदेश से धर्माचार्यों के एक समूह ने तैयार किया था।

 

मजमा-ए-बहरीन

(दो महासागरों का मिलन)- दारा शिकोह द्वारा रचित इस पुस्तक में हिन्दू धर्म और इस्लाम धर्म को एक ही लक्ष्य के दो मार्ग बताया गया है।

 

संस्कृत साहित्य

  • मुग़ल कालमें संस्कृत का विकास बाधित रहा। अकबर के समय में लिखे गये महत्त्वपूर्ण संस्कृत ग्रंथ थे- महेश ठाकुर द्वारा रचित ‘अकबरकालीन इतिहास’, पद्म सुन्दर द्वारा रचित ‘अकबरशाही श्रृंगार-दर्पण’, जैन आचार्य सिद्ध चन्द्र उपाध्याय द्वारा रचित ‘भानुचन्द्र चरित्र’, देव विमल का ‘हीरा सुभाग्यम’, ‘कृपा कोश’ आदि। अकबर के समय में ही ‘पारसी प्रकाश’ नामक प्रथम संस्कृत-फ़ारसी शब्द कोष की रचना की गई।
  • शाहजहाँके समय में कवीन्द्र आचार्य सरस्वती एवं जगन्नाथ पंडित को दरबार में आश्रय मिला हुआ था। पंडित जगन्नाथ ने ‘रस-गंगाधर’ एवं ‘गंगालहरी’ की रचना की। पंडित जगन्नाथ शाहजहाँ के दरबारी कवि थे।

जहाँगीर ने ‘चित्र मीमांसा खंडन’ (अलंकार शास्त्र पर ग्रंथ) एवं ‘आसफ़ विजय’ (नूरजहाँ के भाई आसफ़ ख़ाँ की स्तुति) के रचयिता जगन्नाथ को ‘पंडिताराज’ की उपाधि से सम्मानित किया था। वंशीधर मिश्र और हरिनारायण मिश्र वाले संस्कृत ग्रंथ हैं- रघुनाथ रचित ‘मुहूर्तमाला’, जो कि मुहूर्त संबंधी ग्रंथ है और चतुर्भुज का ‘रसकल्पद्रम’ जो औरंगज़ेब के चाचा शाइस्ता ख़ाँ को समर्पित है।

 

हिन्दी साहित्य

  • बाबर, हुमायूँऔर शेरशाह के समय में हिन्दी को राजकीय संरक्षण प्राप्त नहीं हुआ, किन्तु व्यक्तिगत प्रयासों से ‘पद्मावत’ जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थ की रचना हुई।
  • मुग़लसम्राट अकबर ने हिन्दी साहित्यको संरक्षण प्रदान किया। मुग़ल दरबार से सम्बन्धित हिन्दी के प्रसिद्ध कवि राजा बीरबल, मानसिंह, भगवानदास, नरहरि, हरिनाथ आदि थे।
  • व्यक्त्गित प्रयासों से हिन्दी साहित्य को मज़बूती प्रदान करने वाले कवियों में महत्त्वपूर्ण थे- नन्ददास, विट्ठलदास, परमानन्द दास, कुम्भन दास आदि।
  • तुलसीदासएवं सूरदास मुग़ल काल के दो ऐसे विद्वान् थे, जो अपनी कृतियों से हिन्दी साहित्य के इतिहास में अमर हो गये। अर्ब्दुरहमान ख़ानख़ाना और रसखान को भी इनकी हिन्दी की रचनाओं के कारण याद किया जाता है।
  • इन सबके महत्त्वपूर्ण योगदान से ही ‘अकबर के काल को हिन्दी साहित्य का स्वर्ण काल’ कहा गया है। अकबर ने बीरबल को ‘कविप्रिय’ एवं नरहरि को ‘महापात्र’ की उपाधि प्रदान की। जहाँगीर का भाई दानियाल हिन्दी में कविता करता था।
  • शाहजहाँ के समय में सुन्दर कविराय ने ‘सुन्दर श्रृंगार’, ‘सेनापति ने ‘कवित्त रत्नाकर’, कवीन्द्र आचार्य ने ‘कवीन्द्र कल्पतरु’ की रचना की। इस समय के कुछ अन्य महान् कवियों का सम्बन्ध क्षेत्रीय राजाओं से था, जैसे- बिहारी महाराजा जयसिंह से, केशवदासओरछा से सम्बन्धित थे। केशवदास ने ‘कविप्रिया’, ‘रसिकप्रिया’ एवं ‘अलंकार मंजरी’ जैसी महत्त्वपूर्ण रचनायें की। अकबर के दरबार में प्रसिद्ध ग्रंथकर्ता कश्मीर के मुहम्मद हुसैन को ‘जरी कलम’ की उपाधि दी गई। बंगाल के प्रसिद्ध कवि मुकुन्दराय चक्रवर्ती को प्रोफ़ेसर कॉवेल ने ‘बंगाल का क्रैब’ कहा है।
  • उर्दू साहित्य

 

 

उर्दू का जन्म दिल्ली सल्तनत काल में हुआ।

  • इस भाषा ने उत्तर मुग़लकालीन बादशाहों के समय में भाषा के रूप में महत्व प्राप्त किया। प्रारम्भ में उर्दू को ‘जबान-ए-हिन्दवी’ कहा गया।
  • अमीर ख़ुसरो प्रथम विद्वान् कवि था, जिसने उर्दू भाषा को अपनी कविता का माध्यम बनाया। मुग़ल बादशाहों में मुहम्मद शाह (1719-1748 ई.) प्रथम बादशाह था, जिसने उर्दू भाषा के विकास के लिए दक्षिण के कवि शम्सुद्दीन वली को अपने दरबार में बुलाकर सम्मानित किया।
  • वली दकनी को उर्दू पद्य साहितय का जन्मदाता कहा जाता है। कालान्तर में उर्दू को ‘रेख्ता’ भी कहा गया। रेख्ता में गेसूदराज द्वारा लिखित पुस्तक ‘मिरातुल आशरीन’ सर्वाधिक प्राचीन है।

 

दारा शिकोह की रचनायें

  • दारा शिकोहने स्वयं अपनी देखरेख में संस्कृत ग्रन्थ श्रीमद्भागवदगीता और ‘योग वशिष्ठ’ का फ़ारसी भाषा में अनुवाद कराया।
  • दारा का सबसे महत्त्वपूर्ण कृत्यवेदों को संकलन है।
  • दारा शिकोह ने मौलिक पुस्तक ‘मज्म-उल-बहरीन’ (दो समुद्रो का संगम) की रचना की, जिसमेंहिन्दू और इस्लाम धर्म को एक ही ईश्वर की प्राप्ति के दो मार्ग बताया गया है।
  • दारा ने स्वयं तथाकाशी के कुछ संस्कृत पंडितों की सहायता से ‘बावन उपनिषदों’ का ‘सिर-ए-अकबर’ नाम से फ़ारसी में अनुवाद कराया।
  • मुग़ल कालको गुप्तकाल के बाद का ‘द्वितीय क्लासिकी युग’ कहा जाता है।

 

महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का अनुवाद

मुग़ल सम्राट अकबर ने ‘अनुवाद विभाग’ की स्थापना की थी। इस विभाग में संस्कृत अरबी भाषा, तुर्की एवं ग्रीक भाषाओं की अनेक कृतियों का अनुवाद फ़ारसी भाषा में किया गया। फ़ारसी मुग़लों की राजकीय भाषा थी।

  • ‘महाभारत’का फ़ारसी भाषा में ‘रज्मनामा’ नाम से अनुवाद अब्दुल कादिर बदायूनी, नकीब ख़ाँ एवं अब्दुल कादिर ने किया।
  • रामायणका अनुवाद 1589 ई. में फ़ारसी में अब्दुल कादिर बदायूनी ने किया।
  • ज्योतिष के प्रसिद्ध ग्रंथ ‘तजक’ या ‘तुजुक’ का फ़ारसी में अनुवाद ‘जहान-ए-जफर’ नाम से मुहम्मद ख़ाँ गुजराती ने किया।
  • ‘अथर्ववेद’का अनुवाद फ़ारसी में हाजी इब्राहिम सरहिन्दी ने किया।
  • ‘पंचतन्त्र’ का फ़ारसी अनुवादअबुल फ़ज़ल ने ‘अनवर-ए-सुहैली’ नाम से तथा मौलाना हुसैन फ़ैज़ ने ‘यार-ए-दानिश’ नाम से किया।
  • ‘कालिया दमन’ का अनुवाद फ़ारसी में अबुल फ़ज़ल ने ‘आयगर दानिश’ नाम से किया।
  • ‘राजतरंगिणी’का फ़ारसी में अनुवाद मौलाना शेरी ने किया।
  • गणित की पुस्तक ‘लीलावती’ का अनुवादटोडरमल ने किया।
  • ‘भागवत पुराण’का अनुवाद फ़ारसी में टोडरमल ने किया।
  • ‘नलदमयन्ती’ का अनुवाद फ़ारसी मेंफ़ैज़ी ने किया।
  • ‘सिंहासन बत्तीसी’ का अनुवाद फ़ारसी में अब्दुल कादिर बदायूंनी ने किया।
  • ‘तुजुक-ए-बाबरी’ का अनुवादअब्दुर्रहीम ख़ानख़ाना ने फ़ारसी में किया।
  • अरबी भाषामें लिखी गयी भूगोल की पुस्तक ‘मज्म-उल-बुलदान’ का फ़ारसी में अनुवाद मुल्ला अहमद टट्ठवी, कासिम बेग एवं मुनव्वर ने किया।
  • अरबी कृति ‘हयात-उल-हयवान’ का फ़ारसी में अनुवाद अबुल फ़ज़ल एवं शेख़ मुबारक ने किया। ‘योगवशिष्ठ’ का अनुवाद फ़ारसी में फ़ैज़ी ने किया।
  • इस्लाम धर्मके प्रति हिन्दू जनता में भाईचारे एवं सम्मान की भावना जगाने के लिए अकबर ने ‘अल्लोपषिद’ ग्रंथ की रचना फ़ैज़ी से करवायी।
  • ‘फ़ारसी संस्कृत कोष’ की रचना कृष्णदास ने की।
  • दारा शिकोह ने ‘श्रीमद्भागवदगीता’ ‘योग वशिष्ठ’ तथा पचास अन्यउपनिषदों का फ़ारसी भाषा में अनुवाद करवाया।

 

मुग़ल काल में फ़ारसी कविता के क्षेत्र में भी काफ़ी काम हुआ था। बादशाह बाबर ने फ़ारसी कविता के क्षेत्र में ‘मुबइयान’ शैली को जन्म दिया। अकबर भी फ़ारसी एवं हिन्दी कविताओं की रचना करता था।

  • प्रो. इथे के अनुसार, ‘अकबर का काल फ़ारसी कविता का भारतीय ग्रीष्मकाल था।’ अकबर के समय में फ़ैज़ी, गजाली और उर्फी फ़ारसी के महत्त्वपूर्ण कवि हुए।जहाँगीर, नूरजहाँ, औरंगज़ेब की पुत्री जेबुन्निसा, औरंगज़ेब की बहन जहाँनारा आदि शाही परिवार के लोग ग़ज़ल, रुबाइयाँ एवं कवितायें लिखते थे।
  • भारत में चित्रकला का विकास हुमायूँ के शासन-काल में प्रारंभ हुआ। शेरशाह से पराजित होने के बाद जब वह ईरान में निवास – तारीख-ए-खानदानी तैमुरिया की पाण्डुलिपि को चित्रित करने के लिए इरानी चित्रकारों की सेवा प्राप्त की। ये चित्रकार मीर सैयद अली सिराजी और ख्वाजा अब्दुल समद तबरीजी थे। सिराजी एवं तबरिजी का निर्णायक रूप से पडा। भारतीय चित्रकार अधिकतर धार्मिक विषयों का चित्रण करते थे। जबकि इरानी चित्रकारों ने राजदरबारों के जीवन, युद्ध के दृश्य आदि का चित्रण किया। सल्तनत काल से ही भारत मेंकागज का प्रयोग लोकप्रिय होने लगा था।
  • अकबर के समय चित्रकला-मीर सैयद अली और ख्वाजा अब्दुस समद अकबर के दरबार में थे। अबुल फजल के अनुसार अकबर ने उन्हें सीरीन-ए-कलम की उपाधि दी। अकबर के समय सबसे बड़ी योजना हम्जानामा का चित्रण 1562 ई. में प्रारंभ हुआ। इसे ही दास्तान-ए-अमीर-हम्जा कहा जाता है। इसमें अकबर के यौवन काल का सजीव चित्रण है। अबुल फजल, बदायूंनी और शाहनवाज खाँ का मानना है कि इसके चित्रण का कार्य अकबर की प्रेरणा से प्रारंभ हुआ और सबसे पहले मीर सैयद अली के मार्ग निर्देशन में यह प्रारंभ हुआ। फिर इसे ख्वाजा अब्दुससमद के निर्देशन में पूरा किया गया। मुल्ला दाउद कजवीनी का मानना है कि हम्जानामा हुमायूँ की मस्तिष्क की उपज था और यह मीर सैयद अली के मार्ग निर्देशन में संपन्न हुआ।
  • इनमें से कुछ हैं- दसबंत, बसाबन, केशव लाल, मुकुंद, मिशिकन, फारूख, कलमक, माधो, जगन, महेश, हेमकरन, तारा, साबल, हरिवंश, राम आदि।
  • इस काल में चित्रकारी सामूहिक प्रयास था। एक से अधिक कलाकार मिलकर किसी चित्र का निर्माण करते थे। कलाकार नकद वेतन प्राप्त कर्मचारी थे। अकबर के समय चित्रकला के मुख्य रूप से दो विषय थे- दरबार की प्रतिदिन की घटनाओं का चित्रण 2. छवि चित्रण।
  • अकबर के समय में ही मुगलं चित्रकला पर भारतीय प्रभाव गहरा हो गया। 1562 ई. में जब मुगल दरबार में तानसेन के आगमन का प्रसिद्ध चित्र बनाया गया, हिन्दू एवं फारसी पद्धति का सहयोग दिखने लगा। । अकबर के दरबार में अब्दुसमद, फरुख बेग, खुसरो कुली एवं जमशेद विदेशी कलाकार थे।
  • अकबर के समयदसवंत अपने समय का पहला अग्रणी चित्रकार था। उसने रज्मनामा का चित्रण किया। बाद में वह विक्षिप्त हो गया और 1584 ई. में उसने आत्महत्या कर ली। अब्दुस समद का दरबारी पुत्र मुहम्मद शरीफ ने रज्मनामा का पर्यवेक्षण किया। अकबर के समय कुछ महत्त्वपूर्ण कृतियों की पांडुलिपि तैयार की गयी जो निम्नलिखित है- रामायण, अकबरनामा, अनबर सुहाय, बाबरनामा, खम्सा, तारीख-ए-अल्फी, कालियादमन।
  • इस काल में विशेष कर राजपूत चित्रकला ने मुगल चित्रशैली को प्रभावित किया। इसकी विशेषता चौड़े ब्रश की जगह गोल ब्रश का प्रयोग थी। इसके साथ गहरे नीले  रंग एवं गहरे लाल रंग का अधिक प्रयोग होने लगा।
  • अकबर के शासनकाल में यूरोपीय चित्रकला का प्रभाव भी मुगल चित्रकला शैली पर पड़ा था। यूरोपीय चित्रकला के कुछ नमूने पूर्तगालियों के माध्यम से अकबर के दरबार में पहुँचे। इससे मुगल चित्रकारों ने दो विशेषताएँ ग्रहण कीं- व्यक्ति विशेष का चित्रण 2. दृश्य में आगे दिखने वाली वस्तुओं को छोटे आकार में बनाना (Technique of Foreshortening).

 

  • सलीम–शाहजादा सलीम ने आगा रेजा नामक एक हेराती प्रवासी चित्रकार के नेतृत्व में आगरा में एक चित्रणशाला प्रारंभ की।

 

  • जहाँगीर–जहाँगीर का शासनकाल मुगल चित्रकला के चर्मोत्कर्ष का युग था। जहाँगीर के काल में चित्रकला की दो महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ थीं-

 

 

  • मोरक्का के रूप में 2. डेकोरेटेड मार्जिन।

जहाँगीर के समय छवि-चित्रण की तुलना में पांडुलिपि के चित्रण का महत्त्व कम हो गया।

  • इस काल के चित्रों में चौड़े हासिए का प्रयोग हुआ। जिन्हें फूल-पत्तियों, पेड़-पौधों और मनुष्यों की आकृतियों से अलंकृत किया जाता था। शिकार, युद्ध तथा राजदरबार के दृश्यों को चित्रित करने के अतिरिक्त जहाँगीर के काल में जानवरों के चित्र बनाने की कला अधिक विकसित हुई।
  • इस क्षेत्र में उस्ताद मंसूर का बहुत नाम था।तुजुक-ए-जहाँगीरी ही एकमात्र पांडुलिपि चित्र का उदाहरण है। जहाँगीर के काल से ही राजा के दैवी अधिकार के सिद्धांतों को चित्रकला का विषय बनाया गया। शाहजहाँ के काल में यह और भी महत्त्वपूर्ण हो गया। जहाँगीर के दरबार में फारसी चित्रकार आगा रेजा, अबुल हसन, मुहम्मद नादिर, मुहम्मद मुराद और उस्ताद मंसूर थे। हिन्दू चित्रकारों में बिशनदास और गोवर्द्धन प्रमुख थे। जहाँगीर के दरबार में चित्रकार दोलत था जिसने बादशाह के आदेश पर अपने साथी चित्रकारों का चित्र तैयार किया। जहाँगीर ने बिशनदास को इरान के दरबार में भेजा था और उससे कहा गया था कि वह फारस के शाह और उसके महत्त्वपूर्ण अमीर और संबंधियों के चित्र उतार कर लाएं। उस्ताद मंसूर तथा अबुल हसन की विशेषता की तारीफ करते हुए उन दोनों को क्रमश: नादिर-उल-असर और नादिर-उज-जमाँ की उपाधि दी गयी।

 

  • आरंभ में मनोहर, नन्हा तथा फारूख बेग को छवि चित्र तैयार करने का काम सौंपा गया। तुजुक-ए-जहाँगीरी में मनोहर का नाम नहीं मिलता है। जहाँगीर के काल के एक चित्र में ईरान के शाह अब्बास का स्वागत करते हुए तथा गले लगाते हुए जहाँगीर को दिखाया गया है और पैरों के नीचे एक ग्लोब है परंतु वास्तविकता यह है कि जहाँगीर शाह अब्बास से कभी नहीं मिला था। उसी तरह जहाँगीर के कट्टर शत्रु मलिक अम्बर के कटे सिर पर जहाँगीर को पैर मारते हुए दिखाया गया है जबकि जहाँगीर उसे युद्ध में हरा नहीं पाया था। मनोहर, बिशनदास और मंसूर ये सभी अकबर के शासनकाल के अंतिम वर्षों में आ चुके थे। मनोहर, बसाबन का पुत्र था। जहाँगीर के समय यूरोपीय चित्रकला का प्रभाव और भी गहरा हो गया। यूरोपीय चित्रकला के प्रभाव में जहाँगीर के चित्रकारों ने निम्नलिखित विषय चुने-
  • यीशु का जन्म 2. कुमारी मरीयम और शिशु  3. विभिन्न संतों के शहीद होने का चित्र 4. प्रभामंडल 5. पंख वाले देवदूत 6. गरजते बादल।
  • किंतु मुगल चित्रकारों ने तैल चित्रकला को नहीं अपनाया। जहाँगीर स्वयं चित्रकला का अच्छा पारखी था। उसने तुजुक-ए-जहाँगीरी में लिखा है कि मैं चित्र देखकर ही बता सकता हूँ कि इसे किसने बनाया है। इसके अलग-अलग हिस्से को किस-किस चित्रकार ने बनाया है। एक बार जहाँगीर के आग्रह पर सर टॉमस रो द्वारा लाए गए चित्र का हुबहू उसके दरबारी चित्रकारों ने बना दिया। इतना तक कि सर टॉमस रो भी मूल चित्र को नहीं पहचान सका।

 

  • शाहजहाँ और औरंगजेब-शाहजहाँ के समय चित्रकला में वह सजीवता नहीं है जो जहाँगीर के समय थी। इसमें अलंकरण पर बहुत बल दिया गया है और रंगों के बदले सोने की सजावट पर अधिक बल दिया गया है और औरंगजेब के समय तो चित्रकला का अवसान ही हो गया।

 

  • राजस्थानी चित्रकला-मेवाड़, आमेर, बूंदी, गुजरात, जोधपुर, मालवा आदि राजस्थानी चित्रकला के महत्त्वपूर्ण केन्द्र थे। राजस्थानी चित्रकला में प्रकृति चित्रण को महत्त्वपूर्ण माना गया है। गीत गाते पंछी और उछलते कूदते पशु चित्रकला के लोकप्रिय विषय थे। मेवाड़ का निथारदीन घराना राजस्थानी समूह का प्राचीनतम स्कूल है। जोधपुर और नागोर स्कूल की विशेषता यह थी कि इनमें मनुष्य की आँखें, मछली की आँख की तरह बनायी जाती थी। दूसरी तरफ किशनगढ़ स्कूल अधिक गीतात्मक और संवेदनशील है। इसे प्रारंभ करने का श्रेय महाराजा सावंत सिंह को है। 10वीं सदी के उत्तरार्द्ध में कांगड़ा स्कूल के द्वारा, जिसकी एक शाखा टिहरी गहड़वाल स्कूल थी, अत्यंत सुंदर चित्र बनाये गये और 19वीं सदी के प्रारंभ में यह पंजाबी और सिक्ख चित्रकला के रूप में विकसित हुआ।

 

  • कांगड़ा शैली का सबसे कुशल चित्रकार भोलाराम था। वह गढ़वाल का था। भोला राव का रंगों का प्रयोग बहुत ही सुन्दर है और पशुओं, पेड़-पौधों आदि के उसके चित्र अपनी सुस्पष्ट प्राचीन परम्पराओं के बावजूद कूंची के बारीक कान और सौन्दर्य के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। उसके रात्रि के चित्र विशेष रूप से सुन्दर हैं।

 

संगीत कला

  • अबुल फजल के अनुसार अकबर के दरबार में 36 गायक थे जिनमें सबसे प्रमुखतानसेन एवं बाजबहादुर थे। तानसेन ध्रुपद गायक था। उसके प्रारंभिक गुरु मुहम्मद गौस थे। फिर उसने स्वामी हरीदास से संगीत की शिक्षा पायी थी। उसने रूद्रवीणा नामक वाद्ययंत्र की खोज की। साथ ही उसने मियाँ की मल्हारमियाँ की तोड़ीदरबारी कान्हीर आदि रागों का अविष्कार किया। तानसेन का प्रारंभिक नाम रामतनु पाण्डेय था। तानसेन के विषय में अबुल फज़ल ने लिखा है, उसके समान गायक पिछले हजार वर्षों में भी भारत में नहीं हुआ।

 

  • शाहजहाँ स्वयं एक अच्छा गायक था। इसके दरबार में तानसेन केदामाद लाल खाँ और तानसेन के पुत्र विलास खाँ रहते थे। उसके दरबार में सुख सेन और पंडित जगन्नाथ भी रहते थे। शाहजहाँ ने लाल खाँ को गुणसमुद्र एवं पंडित जगन्नाथ को महाकवि राय की उपाधि दी।
  • रंगजेब को छोड़कर, जिसकी धार्मिक कट्टरता कला के पोषण के साथ सामंजस्य स्थापित नहीं कर सकी, भारत के सभी प्रारम्भिक मुगल बादशाहमहान् निर्माता थे। यद्यपि बाबर का भारतीय राज्यकाल छोटा था, फिर भी वह अपने संस्मरण (आत्मकथा) में हिन्दुस्तान की भवन निर्माण कला की आलोचना करने तथा भवननिर्माण के लिए विचार करने का समय निकाल सका। कहा जाता है कि उसने भारत में मस्जिदें तथा अन्य स्मारक बनाने के लिए कुस्तुन्तुनिया से अल्बानिया के प्रसिद्ध भवननिर्माता सीनान के शिष्यों को आमंत्रित किया। श्री पसी ब्राउन लिखते हैं, यह बहुत असंभाव्य है कि इस प्रस्ताव का कभी कोई परिणाम निकला हो; क्योंकि यदि उस प्रसिद्ध स्कूल का कोई भी सदस्य मुगलों के यहाँ नौकरी कर लेता, तो बाइजैण्टाइन शैली के प्रभाव के चिन्ह दिखाई देते किन्तु ऐसा कोई चिन्ह नहीं है। बाबर ने अपने भवनों के निर्माण के लिए भारतीय संगतराशों को बहाल किया। वह स्वयं अपने संस्मरण में लिखता है कि आगरे में उसके भवनों में छः सौ अस्सी तथा सीकरी, बियाना, धौलपुर, ग्वालियर एवं किउल में उसके भवनों में लगभग पंद्रह सौ मजदूर प्रतिदिन काम करते थे। बाबर के बड़े-बड़े भवन पूर्णत: लुप्त हो चुके हैं। तीन छोटे भवन बच रहे हैं। इनमें एक पानीपत के काबुली बाग में एक स्मारक मस्जिद है (1526); दूसरा, रोहिलखंड में सम्भल नामक स्थान पर जामी मस्जिद (1526) है तथा तीसरा, आगरे के पुराने लोदी किले के भीतर एक मस्जिद है

 

  • भाग्यहीन बादशाह हुमायूँ के राज्यकाल के अर्धभग्नावस्था में केवल दो भवन शेष हैं। एक भवनआगरे की मस्जिद है। दूसरा भवन पूर्वी पंजाब के हिसार जिले के फतहाबाद में एक बड़ी और अच्छे अनुपात पर निर्मित मस्जिद है, जो फारसी ढंग के मीनाकारी किये हुए खपड़ों की सजावट के साथ लगभग 1540 ई. में बनी थी। यहाँ पर हमें यह याद रखना चाहिए कि यह फारसी, बल्कि मंगोल, पद्धति पहले-पहल भारत में हुमायूँ द्वारा नहीं लायी गयी; यह पहले से ही बहमनी राज्य में पंद्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में वर्तमान थी।

 

  • भारतीय-अफगान पुनर्जीवनकर्ता शेरशाह का छोटा शासनकाल भारतीय भवन-निर्माण-कला के इतिहास में संक्रान्ति का युग है। उसके द्वारा योजित दिल्ली में चहारदीवारियों से घिरी हुई राजधानी के, जो उसकी असामयिक मृत्यु के कारण पूरी नहीं की जा सकी, दो बचे हुए द्वार तथापुराना किला नामक गढ़ कुछ काल तक प्रचलित भवन-पद्धति से अधिक परिष्कृत एवं कलात्मक रूप से अलंकृत भवन-पद्धति प्रदर्शित करते हैं। किला-ए-कुहना नामक मस्जिद को, जो 1545 ई. में दीवारों के भीतर बनी थी, उसके उज्ज्वल वास्तुकलात्मक गुणों के कारण, उत्तरी भारत के भवनों में उच्च स्थान देना चाहिए। शेरशाह का मकबरा, जो बिहार के शाहाबाद जिले के सहसराम नामक स्थान पर एक तालाब के बीच ऊँचे चबूतरे पर बना है, आकार एवं गौरव, दोनों दृष्टियों से भारतीय मुसलमानी निर्माण कला का चमत्कार है तथा हिन्दू एवं मुस्लिम वास्तुकलात्मक विचारों का आनंदजनक सम्मिश्रण प्रदर्शित करता है। इस प्रकार शासन में ही नहीं, बल्कि संस्कृति तथा कला में भी महान् अफगान ने महान् मुगल अकबर के लिए रास्ता तैयार कर दिया।

 

स्थापत्य कला

  • अकबर के शासनकाल में भवन-निर्माण-कला का अद्भुत विकास हुआ। बादशाह ने अपनी पहले की संपूर्णता के साथ कला के प्रत्येक ब्योरेवार विवरण का पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया तथा उदार एवं समन्वयशील मन से विभिन्न साधनों से कलात्मक विचारों को ग्रहण किया। इन कलात्मक विचारों को व्यावहारिक रूप उन कुशल कारीगरों ने दिया, जिन्हें अकबर ने अपने चारों ओर एकत्रित कर रखा था। अबुल फजल उचित ही कहता है कि उसके बादशाह ने आलीशान इमारतों की योजना बनायी तथा अपने मस्तिष्क एवं हृदय की रचना को पत्थर और मिट्टी की पोशाक पहनायी। फर्गुसन ने ठीक ही कहा कि फतेहपुर सीकरी किसी महान् व्यक्ति के मस्तिष्क का प्रतिबिम्ब था।

 

  • अकबर क्रियाशीलता केवल वास्तुकला की परमोत्कृष्ट कृतियों तक ही सीमित नहीं थी बल्कि उसने कुछ दुर्ग, ग्राम्य गृह, मीनारें, सराय, स्कूल, तालाब एवं कुएँ भी बनवाये। उसकी माँ जाम के एक फारसवासी शेख परिवार में उत्पन्न हुई थी, जिससे उसने विरासत में फारसी विचार पाये और वह अभी भी उनसे चिपका रहा। फिर भी हिन्दुओं के प्रति उसकी सहनशीलता, उनकी संस्कृति से सहानुभूति तथा उन्हें अपने पक्ष में करने की नीति के कारण उसने अपने बहुत-से भवनों में वास्तुकला की हिन्दू शैलियों का व्यवहार किया। इन भवनों की सजावट की विशेषताएँ हिन्दू तथा जैन मंदिरों में पायी जाने वाली सजावट की विशेषताओं की अनुकृतियाँ हैं। इसकी अभिव्यक्ति निम्नांकित कला-कृतियों में देखी जा सकती है- आगरे के किले के अन्दर जहाँगीरी महल में, जिसमें वर्गाकार स्तम्भ तथा सहारे के रूप में चोटियाँ हैं एवं हिन्दू ढंग पर बनी, (पत्थर या ईंटों की) तहाँ से शून्य, छोटी मेहराबों की पत्तियाँ हैं; फतेहपुर सीकरी के, जो 1569 से लेकर 1584 ई. तक शाही राजधानी रही, बहुत-से भवनों में तथा लाहौर के किले में। पुरानी दिल्ली में हुमायूँ के प्रसिद्ध मकबरे तक में, जो 1569 ई. के आरम्भ में तैयार हुआ था तथा जो साधारणतः पारसी कला के प्रभावों को प्रदर्शितकरता हुआ समझा जाता है, कब्र की धरातल पर की योजना भारतीय है। भवन के बाहरी भाग में उजले संगमरमर का स्वच्छन्द प्रयोग भारतीय है तथा रंग-बिरंगे खपडों की सजावट, जिसका पारसी भवन-निर्माता इतना अधिक व्यवहार करते थे, अनुपस्थित है। फतेहपुर सीकरी में बादशाह के सबसे शानदार भवन हैं-जोधाबाई का महल तथा दो अन्य रहने के भवन जो कुछ लोगों के कथनानुसार उसकी रानियों के रहने के लिए बनवाये गये थे; दीवाने-आम, जो हिन्दू शैली का था, जिसमें खम्भे पर निकली हुई बरामदे की छत थी; आश्चर्यजनक दीवाने-खास, जो योजना, बनावट एवं अलंकार में स्पष्ट रूप से भारतीय था; जामी मस्जिद नामक संगमरमर की मस्जिद, जिसका वर्णन फर्गुसन ने पत्थर में रूमानी कथा के रूप में किया है; बुलन्द दरवाजा, जो मस्जिद के दक्षिणी द्वार पर है तथा अकबर की गुजरात-विजय के स्मारक स्वरूप संगमरमर तथा बलुआ पत्थर से बनाया गया है तथा पंचमहल, जो पिरामिड के आकार का पाँच महलों का था और भारतीय बौद्ध विहारों की, जो अब तक भारत के कुछ भागों में वर्तमान है, योजना का प्रसार था। उस युग के दो अन्य उल्लेखनीय भवन हैं- इलाहाबाद में चालीस स्तम्भों का राजमहल तथा सिकन्दरा में अकबर का मकबरा। इलाहाबाद का राजमहल, जिसके निर्माण में विलियम पिंच के लेखानुसार चालीस वर्ष लगे तथा विभिन्न वगों के पाँच हजार से लेकर बीस हजार तक मजदूर लगाये गये, निश्चित रूप में भारतीय ढंग का है तथा उसमें हिन्दू स्तम्भों की पंक्तियों पर आधारितबाहर निकली हुई बरामदे की छत है। सिकन्दरा में अकबर के मकबरे के विशालकाय ढाँचे में, जिसकी योजना बादशाह के जीवन-काल में बनी थी, किन्तु जो 1605 तथा 1613 के बीच निर्मित हुआ था, पाँच चबूतरे हैं, जो सफेद संगमरमर के सबसे ऊपरी महल तक एक गुम्बजदार छत के साथ ऊपर बढ़ने में एक-के-बाद दूसरे घटते जाते हैं तथा यह समझा जाता है कि स्मारक के ऊपर एक केन्द्रीय गुम्बज बनवाने का विचार थ। इस भवन का भारतीय ढग भारत के बौद्ध विहारों से तथा संभवत: कोचीन-चीन में प्रचलित खमेर वास्तुकला से भी प्रेरित था।
  • जहाँगीर के शासनकाल में, उसके पिता के वास्तुकला-विषयक कार्य को ध्यान में रखते हुए, बहुत कम इमारतें बनीं किन्तु उसके समय की कुछ इमारतें विशेष आकर्षण की हैं। एक है अकबर का मकबरा, जिसकी खास विशेषताओं की चर्चा पहले की जा चुकी है। दूसरी है आगरे में इतिमादुद्दौला की कब्रें, जिसे उसकी पुत्री तथा जहाँगीर की बेगम नूरजहाँ ने बनवाया। यह कब्र बिलकुल उजले संगमरमर की बनी हुई थी तथा संगमरमर में जडित कम मूल्य वाले पत्थरों से सजी हुई थी।

 

  • कबर की इमारतों की तुलना में शाहजहाँ की इमारतें चमक-दमक एवं मौलिकता में घटिया हैं, परन्तु अति व्ययपूर्ण प्रदर्शन एवं समृद्ध और कौशलपूर्ण सजावट में वे बढ़ी हुई हैं, जिससे शाहजहाँ की वास्तुकला एक अधिक बड़े पैमाने पर रत्नो के सजाने की कला बन जाती है। यह विशेष रूप से दीवाने-आम एवं दीवाने-खास जैसे उसके दिल्ली के भवनों में देखी जा सकती हैं

 

  • शाहजहाँ के द्वारा अपनी प्रिय पत्नी मुमताजमहल की कब्र पर बनवाया गया शानदार मकबरा ताजमहल जिसके निर्माण में उस समय 50 लाख रुपए लगे थे उचित ही अपनी सुन्दरता एवं वैभव के लिए संसार का एक आश्चर्य मन जाता है।

 

  • संगमरमर तथा अन्य पत्थरों में बेल-बूटे का काम तथा संगमरमर में बहुमूल्य पत्थरों के जड़ने की कला भी पहले से ही पश्चिमी भारत एवं राजपूत कला में उपस्थित थी। दूसरे, उजले संगमरमर के प्रचुर मात्रा में प्रयोग तथा भारतीय ढंग की कुछ सजावटों से पता चलता है कि शाहजहाँ की इमारतों पर पारसी प्रभाव की उतनी बहुलता नहीं थी, जितनी कि सामान्यतः सोची जाती है।

 

  • तीसरे, मुगलकाल में भारत का पश्चिमी जगत् विशेष रूप से भूमध्य सागरीय क्षेत्र के साथ सम्बन्ध का ध्यान रखते हुए यह विश्वास करना ऐतिहासिक रूप से असंगत नहीं होगा कि सोलहवीं और सत्रहवीं सदियों में भारत की कला पर पश्चिमी जगत् की कला के कुछ तत्वों का प्रभाव था तथा तत्कालीन भारत के विभिन्न भागों में कुछ यूरोपीय निर्माता विद्यमान् थे।

 

  • जहाँगीर का मकबरा, जिसे शाहजहाँ ने आरम्भ में ही लाहौर मेंशाहदरा नामक स्थान में बनवाया था, यद्यपि ताज के समान प्रसिद्ध नहीं है, तथापि कला का एक सुन्दर नमूना है। इस राज्यकाल की दूसरी प्रसिद्ध कला की कृति थी मयूर सिंहासन (तख्ते-ताऊस)। सिंहासन सुनहले पाँवों पर एक खाट के रूप में था। मीनाकारी किया हुआ चंदवा पन्ने के बारह स्तम्भों पर आधारित था। प्रत्येक स्तम्भ पर रत्नों से जड़े दो मयूर थे। प्रत्येक जोडे पक्षियों के बीच हीरों, पन्नों, लाल मणियों तथा मोतियों से आच्छादित एक वृक्ष था। नादिरशाह इस सिंहासन को 1739 ई. में फारस ले गया परन्तु दुर्भाग्यवश अब यह इस संसार में कहीं नहीं है।
  • औरंगजेब के शासनकाल में भवन-निर्माण-कला की शैली का ह्रास होने लगा। यह कट्टर बादशाह प्रत्यक्ष रूप में भवन-निर्माण-कला के विरुद्ध तो था ही, तो उसने अपने पूर्वगामियों के विपरीत इसे प्रोत्साहन देना या भवनों का निर्माण करना भी बंद कर दिया। उसके राज्यकाल की जो कुछ भी इमारतें हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण थीलाहौर मस्जिद, जो 1674 ई. में पूरी हुई थी, वे पुराने आदशों की कमजोर नकल मात्र है। शीघ्र भारतीय कलाकारों की रचनात्मक प्रतिभा अधिकतर लुप्त हो गयी और अठारहवीं सदी में एवं उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में आशिक रूप में अवध तथा हैदराबाद में शेष रहीं।

 

उद्यान

  • बाबर ने आगरा मेंआरामबाग का निर्माण कराया। जहाँगीर के द्वारा कश्मीर की घाटी में अनेक बाग लगवाए गए जिनमें शालीमार बाग सबसे प्रमुख है। शाहजहाँ ने कश्मीर में निशात बाग एवं चश्मा-ए-शाही लगवाया। औरंगजेब ने हरियाणा में पिंजोर बाग उद्यान लगवाया।

 

  • सिख धर्म में गुरु नानक देव जी से लेकर गुरु गोबिन्द सिंह जी तककुल 10 गुरु हुए है। दसवें गुरु , गोबिन्द सिंह जी ने गुरु परम्परा को समाप्त करके गुरु ग्रन्थ साहिब को ही एक मात्र गुरु मान लिया था।

 

  1. गुरु नानक देव जी ( Guru Nanak Dev ji) –

सिख धर्म के प्रवर्तक गुरुनानक देव का जन्म 15 अप्रैल, 1469 में ‘तलवंडी’ नामक स्थान पर हुआ  था। नानक जी के पिता का नाम कल्यानचंद या मेहता कालू जी और माता का नाम तृप्ता था। नानक जी के जन्म के बाद तलवंडी का नाम ननकाना पड़ा। वर्तमान में यह जगह पाकिस्तान में है। उनका विवाह नानक सुलक्खनी के साथ हुआ था। इनके दो पुत्र श्रीचन्द और लक्ष्मीचन्द थे। उन्होंने कर्तारपुर नामक एक नगर बसाया, जो अब पाकिस्तान में है। इसी स्थान पर सन् 1539 को गुरु नानक जी का देहांत हुआ था।

गुरु नानक की पहली ‘उदासी’ (विचरण यात्रा) 1507 ई. में 1515 ई. तक रही। इस यात्रा में उन्होंने हरिद्वार, अयोध्या, प्रयाग, काशी, गया, पटना, असम, जगन्नाथपुरी, रामेश्वर, सोमनाथ, द्वारका, नर्मदातट, बीकानेर, पुष्कर तीर्थ, दिल्ली, पानीपत, कुरुक्षेत्र, मुल्तान, लाहौर आदि स्थानों में भ्रमण किया।

 

  1. गुरु अंगद देव जी (Guru Angad Dev ji) –

गुरु अंगद देव सिखों के दूसरे गुरु थे। गुरु नानक देव ने अपने दोनों पुत्रों को छोड़कर उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया था। उनका जन्म फिरोजपुर, पंजाब में 31 मार्च, 1504 को हुआ था। इनके पिता का नाम फेरू जी था, जो पेशे से व्यापारी थे। उनकी माता का नाम माता रामो जी था। गुरु अंगद देव को ‘लहिणा जी’ के नाम से भी जाना जाता है। अंगद देव जी पंजाबी लिपि ‘गुरुमुखी’ के जन्मदाता हैं।

  • गुरु अंगद देव का विवाह खीवी नामक महिला से हुआ था। इनकी चार संतान हुई, जिनमें दो पुत्र और दो पुत्री थी।गुरु अंगद देव जी ने जात-पात के भेद सेहटकर लंगर प्रथा चलाई और पंजाबी भाषा का प्रचार शुरू किया।

 

  1. गुरु अमर दास जी (Guru Amar Das Ji) –

गुरु अंगद देव के बाद गुरु अमर दास सिख धर्म के तीसरे गुरु हुए। उन्होंने जाति प्रथा, ऊंच-नीच, कन्या-हत्या, सती प्रथा जैसी कुरीतियों को समाप्त करने में अहम योगदान किया। उनका जन्म 23 मई, 1479 को अमृतसर के एक गांव में हुआ। उनके पिता का नाम तेजभान एवं माता का नाम लखमी था। गुरु अमरदास जी ने सिख धर्म को हिंदू धर्म की कुरीतियों से मुक्‍त किया। उन्होंने अंतरजातीय विवाह को बढ़ावा दिया और विधवाओं के पुनर्विवाह की अनुमति दी। उन्‍होंने सती प्रथा का घोर विरोध किया।

 

  1. गुरु रामदास जी (Guru Ramdas Ji) –

गुरु अमरदास के बाद गद्दी पर गुरु रामदास बैठे। वह सिख धर्म के चौथे गुरु थे। इन्होंने गुरु इनका जन्म लाहौर में हुआ था। जब गुरु रामदास बाल्यावस्था में थे, तभी उनकी माता का देहांत हो गया।

  • गुरु रामदास ने 1577 ई. में ‘अमृत सरोवर’ नामक एक नगर की स्थापना की थी, जो आगे चलकर अमृतसर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुरु रामदास बड़े साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। इस कारण सम्राट अकबर भी उनका सम्मान करता थे। गुरु रामदास के कहने पर अकबर ने एक साल पंजाब से लगान नहीं लिया था।

 

  1. गुरु अर्जन देव जी (Guru Arjun Dev ji) –

गुरु अर्जन देव सिखों के पांचवें गुरु हुए। उनका जन्म 15 अप्रैल, 1563 में हुआ था। वह सिख धर्म के चौथे गुरु गुरु अर्जन देव देव जी के पुत्र थे। ये 1581 ई. में गद्दी पर बैठे। सिख गुरुओं ने अपना बलिदान देकर मानवता की रक्षा करने की जो परंपरा स्थापित की, उनमें सिखों के पांचवें गुरु अर्जुन देव का बलिदान महान माना जाता है।

  • उन्होंने ‘अमृत सरोवर’ का निर्माण कराकर उसमें ‘हरमंदिर साहब’ (स्वर्ण मंदिर) का निर्माण कराया, जिसकी नींव सूफी संत मियां मीर के हाथों से रखवाई गई थी। इनकी मृत्यु 30 मई 1606 को हुई थी।

 

  1. गुरु हरगोबिन्द सिंह जी (Guru Hargobind Singh ji) –

गुरु हरगोबिन्द सिंह सिखों के छठे गुरु थे। यह सिखों के पांचवें गुरु अर्जन देव के पुत्र थे। गुरु हरगोबिन्द सिंह ने ही सिखों को अस्त्र-शस्त्र का प्रशिक्षण लेने के लिए प्रेरित किया व सिख पंथ को योद्धा चरित्र प्रदान किया।

  • वे स्वयं एक क्रांतिकारी योद्धा थे। इनसे पहले सिख पंथ निष्क्रिय था। सिख धर्म के पांचवें गुरु अर्जन को फांसी दिए जाने के बाद उन्होंने गद्दी संभाली। उन्होंने एक छोटी-सी सेना इकट्ठी कर ली थी। इससे नाराज होकर जहांगीर ने उनको 12 साल तक कैद में रखा। रिहा होने के बाद उन्होंने शाहजहां के खिलाफ़ बगावत कर दी और 1628 ई. में अमृतसर के निकट संग्राम में शाही फौज को हरा दिया। सन् 1644 ई. में कीरतपुर, पंजाब में उनकी मृत्यु हो गई।

 

  1. गुरु हरराय जी (Guru Harrai ji)
    गुरु हरराय का सिख के सातवें गुरु थे। उनका जन्म 16 जनवरी, 1630 ई. में पंजाब में हुआ था। गुरु हरराय जी सिख धर्म के छठे गुरु के पुत्र बाबा गुरदिता जी के छोटे बेटे थे। इनका विवाह किशन कौर जी के साथ हुआ था।
  • उनके दो पुत्र गुरु रामराय जी और हरकिशन साहिब जी थे। गुरु हरराय ने मुगल शासक औरंगजेब के भाई दारा शिकोह की विद्रोह में मदद की थी। गुरु हरराय की मृत्यु सन् 1661 ई. में हुई थी।

 

  1. गुरु हरकिशन साहिब जी (Guru Harkishan Sahib ji) –
    गुरु हरकिशन साहिब सिखों के आठवें गुरु हुए। उनका जन्म 7 जुलाई, 1656 को किरतपुर साहेब में हुआ था। उन्हें बहुत छोटी उम्र में गद्दी प्राप्त हुई थी। इसका मुगल बादशाह औरंगजेब ने विरोध किया। इस मामले का फैसला करने के लिए औरंगजेब ने गुरु हरकिशन को दिल्ली बुलाया।
  • गुरु हरकिशन जब दिल्ली पहुंचे, तो वहां हैजे की महामारी फैली हुई थी। कई लोगों को स्वास्थ्य लाभ कराने के बाद उन्हें स्वयं चेचक निकल आई। 30 मार्च सन्, 1664 को मरते समय उनके मुंह से ‘बाबा बकाले’ शब्द निकले, जिसका अर्थ था कि उनका उत्तराधिकारी बकाला गांव में ढूंढा जाए।

 

  1. गुरु तेग बहादुर सिंह जी (Guru Teg Bahadur ji) –
    गुरु तेग बहादुर सिंह का जन्म 18 अप्रैल, 1621 को पंजाब के अमृतसर नगर में हुआ था। वह सिखों के नौवें गुरु थे। गुरु तेग बहादर सिंह ने धर्म की रक्षा और धार्मिक स्वतंत्रता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और सही अर्थों में ‘हिन्द की चादर’ कहलाए।
  • उस समय मुगल शासक जबरन लोगों का धर्म परिवर्तन करवा रहे थे। इससे परेशान होकर कश्मीरी पंडित गुरु तेग बहादुर के पास आए और उन्हें बताया कि किस प्रकार ‍इस्लाम को स्वीकार करने के लिए अत्याचार किया जा रहा है। इसके बाद उन्होंने पंडितों से कहा कि आप जाकर औरंगजेब से कह ‍दें कि यदि गुरु तेग बहादुर ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया तो उनके बाद हम भी इस्लाम धर्म ग्रहण कर लेंगे और यदि आप गुरु तेग बहादुर जी से इस्लाम धारण नहीं करवा पाए तो हम भी इस्लाम धर्म धारण नहीं करेंगे। औरंगजेब ने यह स्वीकार कर लिया।
  • इसके बाद उसने दिल्ली के चांदनी चौक पर गुरु तेग बहादुर जी का शीश काटने का हुक्म जारी कर दिया और गुरु जी ने 24 नवंवर, 1675 को धर्म की रक्षा के लिए बलिदान दे दिया।

 

  1. गुरु गोबिन्द सिंह जी (Guru Gobind Singh ji) –
    गुरु गोबिन्द सिंह सिखों के दसवें और अंतिम गुरु माने जाते हैं। उनका जन्म 22 दिसंबर, 1666 ई. को पटना में हुआ था। वह नौवें गुरु तेग बहादुर जी के पुत्र थे। उनको 9 वर्ष की उम्र में गुरुगद्दी मिली थी। गुरु गोबिन्द सिंह के जन्म के समय देश पर मुगलों का शासन था।
  • गुरु गोबिन्द सिंह ने धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की आन-बान और शान के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया था। उन्होंने अपने पिता का बदला लेने के लिए तलवार हाथ में उठाई थी।बाद में गुरु गोबिन्द सिंह ने गुरु प्रथा समाप्त कर गुरु ग्रंथ साहिब को ही एकमात्र गुरु मान लिया।

 

  • 1707 मेँ औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारतीय इतिहास मेँ एक नए युग का पदार्पण हुआ, जिसे ‘उत्तर मुगल काल’ कहा जाता है।
  • औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुग़ल साम्राज्य का पतन भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना है। इस घटना ने मध्यकाल का अंत कर आधुनिक भारत की नींव रखी।
  • मुग़ल साम्राज्य जैसे विस्तृत साम्राज्य का पतन किसी एक कारण से नहीँ हो सकता इसलिए इतिहासकारोँ मेँ इस बात को लेकर मतभेद है।
  • यदुनाथ सरकार, एस. आर. शर्मा और लीवर पुल जैसे इतिहासकारोँ का मानना है कि औरंगजेब की नीतियोँ – धार्मिक, राजपूत, दक्कन आदि के कारण मुग़ल साम्राज्य का पतन हुआ। सतीश चंद्र, इरफान हबीब और अतहर अली जैसे मुझे इतिहासकारोँ ने मुग़ल साम्राज्य के पतन को दीर्घकालिक प्रक्रिया का परिणाम माना है।
  • औरंगजेब की मृत्यु के बाद उसके पुत्रों मुअज्जम, मुहम्मद आजम और मोहम्मद कामबख्श मेँ उत्तराधिकार के लिए युद्ध हुआ, जिसमें मुअज्जम सफल हुआ।

 

बहादुर शाह प्रथम (1707 ई. से 1712 ई.)

  • उत्तराधिकार के युद्ध मेँ सफल होने के बाद मुअज्जम 65 वर्ष की अवस्था मेँ बहादुर शाह प्रथम की उपाधि के साथ दिल्ली की गद्दी पर आसीन हुआ।
  • बहादुर शाह ने मराठोँ और राजपूतो के प्रति मैत्रीपूर्ण नीति अपनाई। इसने शंभाजी के पुत्र शाहू मुग़ल कैद से आजाद कर दिया।
  • बहादुर शाह ने बुंदेल शासक छत्रसाल को बुंदेल राज्य का स्वामी स्वीकार कर लिया।
  • इतिहासकार खफी खाँ के अनुसार बादशाह राजकीय कार्योँ मेँ इतना लापरवाह था की लोग उसे ‘शाह-ए-बेखबर’ कहने लगे।
  • सिक्ख नेता बंदा बहादुर के विरुद्ध एक सैन्य अभियान के दौरान फरवरी 1712 ई. मेँ बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु हो गई। इसे औरंगजेब के मकबरे के आंगन मेँ दफनाया गया।
  • सर सिडनी ओवन ने बहादुर शाह के विषय मेँ लिखा है की वह अंतिम मुगल शासक था, जिसके बारे मेँ कुछ अच्छी बातेँ कही जा सकती हैं।

 

जहांदार शाह (1712 ई. से 1713 ई.)

  • 1712 ई. मेँ बहादुरशाह प्रथम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जहाँदारशाह मुग़ल शासन की गद्दी पर बैठा।
  • ईरानी मूल के शक्तिशाली अमीर जुल्फिकार खां की सहायता से जहांदार शाह ने अपने भाई अजीम-उस-शान, रफी-उस-शान तथा जहान शाह की हत्या कर शासक बना।
  • यह एक अयोग्य एवं विलासी शासक था। जहांदार शाह पर उसकी प्रेमिका लालकंवर का काफी प्रभाव था।
  • जहांदार शाह ने जुल्फिकार खां को बजीर के सर्वोच्च पद पर नियुक्त किया।
  • जहांदार शाह ने वित्तीय व्यवस्था मेँ सुधार के लिए राजस्व वसूली का कार्य ठेके पर देने की नई व्यवस्था प्रारंभ की जिसे इस्मतरारी व्यवस्था कहते है।
  • जहांदार शाह ने आमेर के राजा सवाई जयसिंह को ‘मिर्जा’ की उपाधि के साथ मालवा का सूबेदार बनाया।
  • जहांदार शाह ने मारवाड़ के राजा अजीत सिंह को ‘महाराजा’ की उपाधि प्रदान कर गुजरात का सूबेदार बनाया।
  • अजीमुशान के पुत्र फरूखसियर ने हिंदुस्तानी अमीर सैय्यद बंधुओं के सहयोग से जहांदार शाह को सिंहासन से अपदस्थ उसकी हत्या करवा दी।

 

फरूखसियर (1713 ई. से 1719 ई.)

  • सैय्यद बंधुओं की सहायता से मुग़ल सासन की गद्दी पर फरूखसियर आसीन हुआ।
  • फर्रुखसियर ने सैय्यद बंधुओं में से अब्दुल्ला खां को वजीर और हुसैन अली को मीर बख्शी नियुक्त किया। सैय्यद बंधुओं को मध्यकालीन भारतीय इतिहास मेँ ‘शासक निर्माता’ के रुप मेँ जाना जाता है।
  • फरूखसियर के शासन काल मेँ सिक्खोँ के नेता बंदा बहादुर को पकड़ कर 1716 मेँ उसका वध कर दिया गया।
  • फरूखसियर ने 1717 ई. मेँ ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की बहुत सारी व्यापारिक रियायतें प्रदान कीं।
  • 1719 में हुसैन अली खान ने तत्कालीन मराठा बालाजी विश्वनाथ से ‘दिल्ली की संधि’ की जिसके तहत मुग़ल सम्राट की ओर से मराठा राज्य को मान्यता देना, दक्कन में मुगलोँ के 6 प्रांतो से मराठोँ को चौथ और सरदेशमुखी वसूल करने का अधिकार प्रदान किया गया। इसके बदले मेँ मराठोँ द्वारा दिल्ली मेँ सम्राट की रक्षा के लिए 15 हजार सैनिक रखने थे।
  • सैय्यद बंधुओं ने षड्यंत्र द्वारा जून, 1719 में फरुखसियर को सिंहासन से अपदस्थ करके उसकी हत्या करवा दी।
  • फरूखसियर की हत्या के बाद सैय्यद बंधुओं ने रफी-उर-दरजात तथा रफी-उद-दौला को मुग़ल बादशाह बनाया। दोनो ही सैय्यद बंधुओं के कठपुतली थे।
  • रफी-उद-दौला ‘शाहजहाँ द्वितीय’ की उपाधि धारण कर मुग़ल शासन की गद्दी पर बैठा।

 

 

मुहम्मद शाह (1719 ई. से 1748 ई.)  

  • शाहजहाँ द्वितीय की मृत्यु के बाद उसके पुत्र रौशन अख्तर को सैय्यद बंधुओं ने मुहम्मद शाह की उपाधि के साथ मुग़ल शासन की गद्दी पर बैठाया।
  • मोहम्मद शाह के शासनकाल मेँ सैय्यद बंधुओं का पतन हो गया। इनके बाद आमीन खाँ को बजीर बनाया गया। लेकिन उसकी मृत्यु के बाद निजाम-उल-मुल्क वजीर बना, जो बाद मेँ मुगल दरबार की साजिशों से तंग आकर दक्कन चला गया।
  • मुहम्मद शाह ने 1724 मेँ जजिया कर अंतिम रुप से समाप्त कर दिया।
  • मुहम्मद शाह की सार्वजनिक मामलोँ के प्रति उदासीनता एवं विलासिता में तल्लीनता के कारण उसे ‘रंगीला’ कहा जाता था।
  • इसके शासन काल मेँ कई राज्योँ के सूबेदारोँ ने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली थी।
  • इसके शासनकाल मेँ ईरान के साथ नादिर शाह ने 1739 में भारत पर आक्रमण किया।
  • मुहम्मद शाह के शासन काल मेँ नादिरशाह के उत्तराधिकारी अहमद शाह अब्दाली ने 1748 ई. में 50 हजार सैनिकोँ के साथ पंजाब पर आक्रमण किया।

 

अहमद शाह (1748 ई. से 1754 ई.)

  • 1748 में मुहम्मद शाह की मृत्यु के बाद अहमद शाह मुगल शासक बना।
  • अहमद शाह ने अवध के सूबेदार सफदरजंग को अपना बजीर बनाया।
  • अहमद शाह एक अयोग्य एवं भ्रष्ट शासक था। उसकी दुर्बलता का लाभ उठा कर उसकी माँ उधम भाई ने हिजड़ो के सरदार जावेद खां के साथ मिलकर शासन पर कब्जा जमा लिया था।
  • अहमद शाह अब्दाली ने अहमद शाह के शासन काल मेँ 1748-59 के बीच भारत पर पांच बार आक्रमण किया।
  • मराठा सरदार मल्हार राव की सहायता से इमाद-उल-मुल्क, सफदरजंग को अपदस्थ कर मुग़ल साम्राज्य का वजीर बन गया।
  • 1754 वजीर इमाद-उल-मुल्क ने मराठोँ के सहयोग से अहमद शाह को अपदस्थ कर जहांदार शाह के पुत्र अजीजुद्दीन को ‘आलमगीर द्वितीय’ के नाम से गद्दी पर बैठाया।
  • आलमगीर द्वितीय वजीर इमाद-उल-मुल्क की कठपुतली था। इमाद-उल-मुल्क ने 1759 मेँ आलमगीर द्वितीय की हत्या कर दी।

 

शाहआलम द्वितीय (1759 ई. से 1806 ई.)

  • आलमगीर द्वितीय के बाद अलीगौहर, शाह आलम द्वितीय की उपाधि धारण कर मुग़ल शासन की गद्दी पर बैठा।
  • शाहआलम द्वितीय ने 1764 में बंगाल के शासक मीर कासिम और अवध के नवाब शुजाउद्दौला के साथ मिलकर अंग्रेजो के विरुद्धबक्सर के युद्ध मेँ भाग लिया।
  • बक्सर के युद्ध मेँ ऐतिहासिक पराजय के बाद अंग्रेजो ने शाह आलम के साथ इलाहाबाद की संधि की, जिसके द्वारा शाहआलम को कड़ा तथा इलाहाबाद का क्षेत्र मिला। मुग़ल बादशाह शाह आलम ने बंगाल बिहार तथा उड़ीसा की दीवानी ईस्ट इंडिया कंपनी को प्रदान की। जिसके बदले मेँ कंपनी ने 26 लाख रुपए देने का वादा किया।
  • 1772 ई. मराठा सरदार महादजी सिंधिया ने पेंशनभोगी शाहआलम द्वितीय को पुनः दिल्ली की गद्द्दी पर बैठाया।
  • रुहेला सरदार गुलाम कादिर ने शाहआलम द्वितीय को अंधा कर के 1806 ई. में उसमे उसकी हत्या कर दी।
  • शाहआलम द्वितीय के समय मेँ 1803 में दिल्ली पर अंग्रेजो का अधिकार हो गया।
  • शाहआलम द्वितीय की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अकबर द्वितीय अंग्रेजो के संरक्षण मेँ 1806 में मुगल बादशाह बना।
  • उसने 1837 तक शासन किया। उसने राजा राम मोहन राय को इंग्लैण्ड भेजा था।

 

बहादुरशाह द्वितीय (1837 ई. –1857 ई.)

  • अकबर द्वितीय की मृत्यु के बाद बहादुरशाह द्वितीय मुगल बादशाह बना। यह जफ़र के नाम से शायरी लिखता था।
  • 1857 के विद्रोह मेँ विद्रोहियोँ का साथ देने के कारण अंग्रेजो ने इसे निर्वासित कर रंगून भेज दिया जहाँ 1862 मेँ इसकी मृत्यु हो गई।
  • यह मुगल साम्राज्य का अंतिम शासक सिद्ध हुआ। इसकी मृत्यु के साथ मुग़ल साम्राज्य का भारत मेँ अंत हो गया।

 

मुग़ल काल में कला और संस्कृत तथा आधुनिक युग का प्रारंभ

प्रारंभिक परीक्षा प्रश्न

 

  1. ‘जो चित्रकला का शत्रु है वहमेरा शत्रु हैं’ किस मुगल शासक ने कहा था
  • जहाँगीर ने
  • शाहजहाँ
  • औरंगजेब
  • अकबर

 

  1. दीन पनाह’ नगरकी स्थापना किसने की
  • जहाँगीर ने
  • शाहजहाँ
  • औरंगजेब
  • हुमायूँ ने

 

  1. कौन-सा बादशाह सप्तहा केसातों दिन अलग-अलग रंग के कपड़ेपहनता था —
  • जहाँगीर ने
  • शाहजहाँ
  • औरंगजेब
  • हुमायूँ ने

 

  1. फतेहपुर सीकरी में बुलंद दरवाजेका निर्माण किसने कराया—
  • जहाँगीर ने
  • शाहजहाँ
  • औरंगजेब
  • हुमायूँ ने

 

  1. जजिया कर को किस शासक नेहटाया—
  • जहाँगीर ने
  • शाहजहाँ
  • औरंगजेब
  • अकबर

 

  1. जजिया कर किस धर्म केलोगों से लिया जाता था—
  • हिन्दू धर्म
  • पारसी
  • मुस्लिम
  • इनमे से किसी से नहीं
    1. मुगल सम्राट अकबर के समय का प्रसिद्ध चित्रकार कौन था—
  • दशवंत,
  • अब्दुस्समद
  • मंसूर
  • बसावन

 

  1. मुगल काल में किस बंदरगाहको ‘बाबुल मक्का’ कहा जाता था—
  • सूरत
  • अरिकामेदु
  • कालीकट
  • मुज़िरिस

 

  1. किस राजपूताना राज्य ने अकबरकी संप्रभुत्ता स्वीकारनही की
  • मेवाड़
  • मारवाड़
  • जयपुर
  • जैसलमेर

 

  1. अकबर ने ‘कठाभरणवाणी’की उपाधि किस संगीतज्ञको दी थी—
  • तानसेन
  • बैजूबावरा
  • कवीन्द्र
  • रवीन्द्र

 

 

मुग़ल काल में कला और संस्कृत तथा आधुनिक युग का प्रारंभ

मुख्य परीक्षा प्रश्न

  1. जहाँगीर के काल में चित्रकला के विकास पर प्रकाश डाले (75 शब्द)

 

  1. संक्षिप्त टिपण्णी लिखे (50 शब्द)
  • दिल्ली का लाल किला
  • मुगल स्थापत्य
  • पादशाहनामा

LECTURE – 12

HISTORY (GS)

1857 का विद्रोह (कारण और असफलताए)

मुख्य परीक्षा प्रश्न

 

  1. पुनर्जागरणका तात्पर्य क्या था? इतिहास के किस कालखंड को पुनर्जागरण काल कहा जाता है?

 

  1. संक्षिप्त टिपण्णी लिखें
  2. कांग्रेस की स्थापना
  3. दादाभाई नैरोजी
  4. द्वैध शासन
  5. पलासी का युद्ध

 

 

PAHUJA LAW ACADEMY

LECTURE – 12

HISTORY (GS)

1857 का विद्रोह (कारण और असफलताए)

1857 का विद्रोह (कारण और असफलताए)

  • सन1857 का विद्रोह उत्तरी और मध्य भारत में ब्रिटिश अधिग्रहण के विरुद्ध उभरे सैन्य असंतोष व जन-विद्रोह का परिणाम था| सैन्य असंतोष की घटनाएँ जैसे- छावनी क्षेत्र में आगजनी आदि जनवरी से ही प्रारंभ हो गयी थीं लेकिन बाद में मई में इन छिटपुट घटनाओं ने सम्बंधित क्षेत्र में एक व्यापक आन्दोलन या विद्रोह का रूप ले लिया|
  • इस विद्रोह ने भारत में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया के शासन को समाप्त कर दिया और अगले 90 वर्षों के लिए भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश भाग को ब्रिटिश सरकार (ब्रिटिश राज) के प्रत्यक्ष शासन के अधीन लाने का रास्ता तैयार कर दिया|

 

विद्रोह के कारण

  • चर्बीयुक्त कारतूसों के प्रयोग और सैनिकों से सम्बंधित मुद्दों को इस विद्रोह का मुख्य कारण माना गया लेकिन वर्त्तमान शोध द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि कारतूसों का प्रयोग न तो विद्रोह का एकमात्र कारण था और न ही मुख्य कारण |
  • सामजिक और धार्मिक कारण: ब्रिटिशों ने भारतीयों के सामजिक-धार्मिक जीवन में दखल न देने की नीति से हटकर सती-प्रथा उन्मूलन (1829) और हिन्दू-विधवा पुनर्विवाह(1856) जैसे अधिनियम पारित किये |
  • ईसाई मिशनरियों को भारत में प्रवेश करने और धर्म प्रचार करने की अनुमति प्रदान कर दी गयी|1950 ई. के धार्मिक निर्योग्यता अधिनियम के द्वारा हिन्दुओं के परंपरागत कानूनों में संशोधन किया गया |
  • इस अधिनियम के अनुसार धर्म परिवर्तन करने के कारण किसी भी पुत्र को उसके पिता की संपत्ति से वंचित नहीं किया जा सकेगा|
    • आर्थिक कारण:ब्रिटिश शासन ने ग्रामीण आत्मनिर्भरता को समाप्त कर दिया | कृषि के वाणिज्यीकरण ने कृषक-वर्ग पर बोझ को बढ़ा दिया| इसके अलावा मुक्त व्यापार नीति को अपनाने,उद्योगों की स्थापना को हतोत्साहित करने और धन के बहिर्गमन आदि कारकों ने अर्थव्यवस्था को पूरी तरह से नष्ट कर दिया|
    • सैन्य कारण:भारत में ब्रिटिश उपनिवेश के विस्तार ने सिपाहियों की नौकरी की परिस्थितियों को बुरी तरह से प्रभावित किया |उन्हें बगैर किसी अतिरिक्त भत्ते के भुगतान के अपने घरों से दूर नियुक्तियां प्रदान की जाती थीं|
    • सैन्य असंतोष का महत्वपूर्ण कारण जनरल सर्विस एन्लिस्टमेंट एक्ट ,1856 था,जिसके द्वारा सिपाहियों को आवश्यकता पड़ने पर समुद्र पार करने को अनिवार्य बना दिया गया | 1954 के डाक कार्यालय अधिनियम द्वारा सिपाहियों को मिलने वाली मुफ्त डाक सुविधा भी वापस ले ली गयी|
    • राजनीतिक कारण:भारत में ब्रिटिश क्षेत्र का अंतिम रूप से विस्तार डलहौजी के शासन काल में हुआ था| डलहौजी ने 1849 ई. में घोषणा की कि बहादुरशाह द्वितीय के उत्तराधिकारियों को लाल किला छोड़ना होगा| बाघट और उदयपुर केसम्मिलन को किसी भी तरह से रद्द कर दिया गया और वे अपने शासक-घरानों के अधीन बने रहे| जब डलहौजी ने करौली (राजस्थान) पर व्यपगत के सिद्धांत को लागू करने की कोशिश की तो उसके निर्णय को कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स द्वारा निरस्त कर दिया गया|

 

 

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विद्रोह से सम्बंधित ब्रिटिश अधिकारी

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निष्कर्ष:

 

1857 का विद्रोह भारतीय इतिहास की एक महत्वपूर्ण घटना थी |हालाँकि इसका आरम्भ सैनिको के विद्रोह द्वारा हुआ था लेकिन यह कम्पनी के प्रशासन से असंतुष्ट और विदेशी शासन को नापसंद करने वालों की शिकायतों व समस्याओं की सम्मिलित अभिव्यक्ति थी|

  • 19वीं शताब्दी के दौरान संपूर्ण भारत में एक नयी बौद्धिक चेतना और सांस्कृतिक उथल – पुथल दृष्टिगोचर होता है। इस काल में पूरे देश में मानवतावादी जीवन दृष्टि, विवेक की केंद्रीयता एवं आधुनिक ज्ञान विज्ञान का प्रसार हुआ। आधुनिक पश्चिमी संस्कृति के प्रभाव और विदेशी शक्ति के हाथों पराजित होने की स्थिति ने नई जागृति पैदा की। इस नयी जागृति के परिणाम स्वरूप अपनी सामाजिक सांस्कृतिक दुर्बलताओं को लेकर नये सिरे से चिंतन आरंभ हुआ।
  • 19वीं सदी के भारत में जिस नवीन चेतना का उदय हो रहा था उसे कई नामों से संबोधित किया गया जैसे – रेनेसां, पुनर्जागरण, नवजागरण, पुनरूत्थान, प्रबोधन, नवोत्थान, समाज-सुधार आदि।
  • नवजागरण का अभिप्राय है– 19वीं सदी में घटित होने वाली जागरूकता। इस जागरूकता के विविध आयाम हैं। राजनैतिक क्षेत्र में स्वाधीनता की भावना का उदय हुआ परिणामस्वरूप राष्ट्रीयता का प्रसार हुआ।
  • भारतीय नवजागरण के अग्रदूत के रूप में राजा राममोहन राय को जाना जाता है। उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में स्त्री – पुरूष समानता के लिए व्यवहारिक प्रयत्न किये। धर्म के क्षेत्र में मूर्तिपूजा जैसी अतार्कित आस्था पर स्वामी दयानंद ने प्रश्न उठाए। चिंतन एवं दर्शन के क्षेत्र में परलौकिक चीजों को हाशिये पर डालकर इहलौकिकता की प्रतिष्ठा हुयी। ईश्वर के स्थान पर अब मनुष्य केंद्र में आया। इन्हीं तत्वों के समावेश से नवजागरण का वातावरण तैयार हुआ।

नवजागरण का आशय है वह दृष्टिकोण जिसके लिए मानवता, इहलौकिकता, तार्किकता, वैज्ञानिकता, समानता, आत्मान्वेषण, राष्ट्रीयता, स्वाधीनता आदि मूल्य अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। हिंदी में पुनर्जागरण शब्द अंग्रेजी के रेनेसां के स्थान पर प्रयुक्त हुआ है।

  • हिन्दू सुधार आन्दोलन
    इसके अंतर्गत हिन्दू धर्म तथा समाज में सुधार हेतु कई आन्दोलनों को चलाया गया, जिनमें से कुछ इस प्रकार से हैं-
  • ब्रह्मसमाज
    ब्रह्मसमाज हिन्दू धर्म से सम्बन्धित प्रथम धर्म-सुधार आन्दोलन था। इसके संस्थापक राजा राममोहन राय थे, जिन्होंन 20 अगस्त, 1828 ई. में इसकी स्थापना कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में की थी। इसका मुख्य उद्देश्य तत्कालीन हिन्दू समाज में व्याप्त बुराईयों, जैसे- सती प्रथा, बहुविवाह, वेश्यागमन, जातिवाद, अस्पृश्यता आदि को समाप्त करना। राजा राममोहन राय को भारतीय पुनर्जागरण का पिता माना जाता है। राजा राममोहन राय पहले भारतीय थे, जिन्होंने समाज में व्याप्त मध्ययुगीन बुराईयों को दूर करने के लिए आन्दोलन चलाया।
  • देवेन्द्रनाथ टैगोर ने भी ब्रह्मसमाज को अपनी सेवाएँ प्रदान की थीं। उन्होंने ही केशवचन्द्र सेन को ब्रह्मसमाज का आचार्य नियुक्त किया था। केशवचन्द्र सेन का बहुत अधिक उदारवादी दृष्टिकोण ही आगे चलकर ब्रह्मसमाज के विभाजन का कारण बना।
  • राजा राममोहन राय को भारत में पत्रकारिता का अग्रदूत माना जाता है। इन्होंने समाचार-पत्रों की स्वतंत्रता का समर्थन किया था। भारत की स्वतंत्रता के बारे में उनका मत था कि, भारत को तुरन्त स्वतंत्रता न लेकर प्रशासन में हिस्सेदारी लेना चाहिए।
  • आदि ब्रह्मसमाज
  • आदि ब्रह्मसमाज की स्थापना ब्रह्मसमाज के विभाजन के उपरान्त आचार्य केशवचन्द्र सेन द्वारा की गई थी। आदि ब्रह्मसमाज की स्थापना कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में हुई थी। ब्रह्मसमाज का 1865 ई. में विखण्डन हो चुका था। केशवचन्द्र सेन को देवेन्द्रनाथ टैगोर ने आचार्य के पद से हटा दिया। फलतः केशवचन्द्र सेन ने ‘भारतीय ब्रह्म समाज’ की स्थापना की, और इस प्रकार पूर्व का ब्रह्मसमाज ‘आदि ब्रह्मसमाज’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
  • प्रार्थना समाज
    प्रार्थना समाज की स्थापना वर्ष 1867 ई. में बम्बई (महाराष्ट्र) में आचार्य केशवचन्द्र सेन की प्रेरणा से महादेव गोविन्द रानाडे, डॉ. आत्माराम पांडुरंग, चन्द्रावरकर आदि द्वारा की गई थी। जी.आर. भण्डारकर प्रार्थना समाज के अग्रणी नेता थे। प्रार्थना समाज का मुख्य उद्देश्य जाति प्रथा का विरोध, स्त्री-पुरुष विवाह की आयु में वृद्धि, विधवा-विवाह, स्त्री शिक्षा आदि को प्रोत्साहन प्रदान करना था।
  • आर्य समाज
    10 अप्रैल सन् 1875 ई. में बम्बई में दयानंद सरस्वती ने ‘आर्य समाज’ की स्थापना की। इसका उद्देश्य वैदिक धर्म को पुनः शुद्ध रूप से स्थापित करने का प्रयास, भारत को धार्मिक, सामाजिक व राजनीतिक रूप से एक सूत्र में बांधने का प्रयत्न, पाश्यात्य प्रभाव को समाप्त करना आदि था। 1824 ई. में गुजरात के मौरवी नामक स्थान पर पैदा हुए स्वामी दयानंद को बचपन में ‘मूलशंकर’ के नाम से जाना जाता था। 21 वर्ष की अवस्था में मूलशंकर ने गृह त्याग कर घुमक्कड़ों का जीवन स्वीकार किया। 24 वर्ष की अवस्था में उनकी मुलाकात दण्डी स्वामी पूर्णानंद से हुई। इन्हीं से सन्न्यास की दीक्षा लेकर मूलशंकर ने दण्ड धारण किया। दीक्षा प्रदान करने के बाद दण्डी स्वामी पूर्णानंद ने मूलशंकर का नाम ‘स्वामी दयानन्द सरस्वती’ रखा।

रामकृष्ण मिशन
‘रामकृष्ण मिशन’ की स्थापना स्वामी विवेकानन्द ने 1 मई, 1897 ई. में की थी। उनका उद्देश्य ऐसे साधुओं और सन्न्यासियों को संगठित करना था, जो रामकृष्ण परमहंस की शिक्षाओं में गहरी आस्था रखें, उनके उपदेशों को जनसाधारण तक पहुँचा सकें और संतप्त, दु:खी एवं पीड़ित मानव जाति की नि:स्वार्थ सेवा कर सकें। 1893 ई. में स्वामी विवेकानन्द ने शिकांगो में हुई धर्म संसद में भाग लेकर पाश्चात्य जगत को भारतीय संस्कृति एवं दर्शन से अवगत कराया। धर्म संसद में स्वामी जी ने अपने भाषण में भौतिकवाद एवं आध्यात्मवाद के मध्य संतुलन बनाने की बात कही। विवेकानन्द ने पूरे संसार के लिए एक ऐसी संस्कृति की कल्पना की, जो पश्चिमी देशों के भौतिकवाद एवं पूर्वी देशों के अध्यात्मवाद के मध्य संतुलन बनाने की बात कर सके तथा सम्पूर्ण विश्व को खुशियाँ प्रदान कर सके।

थियोसोफ़िकल सोसाइटी 
‘थियोसोफ़िकल सोसाइटी’ की स्थापना वर्ष 1875 ई. में न्यूयॉर्क (संयुक्त राज्य अमरीका) में तथा इसके बाद 1886 ई. में अडयार (चेन्नई, भारत) में की गई थी। इसके संस्थापक ‘मैडम हेलना पेट्रोवना व्लावात्सकी’ एवं ‘कर्नल हेनरी स्टील ऑल्काट’ थे। थियोसोफ़िकल सोसाइटी का मुख्य उद्देश्य धर्म को आधार बनाकर समाज सेवा करना, धार्मिक एवं भाईचारे की भावना को फैलाना, प्राचीन धर्म, दर्शन एवं विज्ञान के अध्ययन में सहयोग करना आदि था। भारत में इसकी व्यापक गतिविधियों को सुचारू रूप से चलाने का श्रेय एनी बेसेंट को दिया जाता है।

यंग बंगाल आन्दोलन

  • यंग बंगाल आन्दोलन की स्थापना वर्ष 1828 ई. में बंगाल में की गई थी। इसके संस्थापक ‘हेनरी विविनय डेरोजियो’ (1809-1831 ई.) थे। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य प्रेस की स्वतन्त्रता, ज़मींदारों द्वारा किये जा रहे अत्याचारों से रैय्यत की संरक्षा, सरकारी नौकरियों में ऊँचे वेतनमान के अन्तर्गत भारतीय लोगों को नौकरी दिलवाना था। एंग्लों-इंडियन डेरोजियो ‘हिन्दू कॉलेज’ में अध्यापक थे। वे फ़्राँस की महान क्रांति से बहुत प्रभावित थे।

मुस्लिम सुधार आन्दोलन
मुस्लिम समाज तथा इस्लाम धर्म में सुधार के लिए गये आन्दोलन इस प्रकार से थे-

अलीगढ़ आन्दोलन
‘अलीगढ़ आन्दोलन’ की शुरुआत अलीगढ़ (उत्तर प्रदेश) से हुई थी। इस आन्दोलन के संस्थापक सर सैय्यद अहमद ख़ाँ थे। सर सैय्यद अहमद ख़ाँ के अतिरिक्त इस आन्दोलन के अन्य प्रमुख नेता थे- नजीर अहमद, चिराग अली, अल्ताफ हुसैन, मौलाना शिबली नोमानी आदि। दिल्ली में पैदा हुए सैय्यद अहमद ने 1839 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी में नौकरी कर ली। कम्पनी की न्यायिक सेवा में कार्य करते हुए 1857 ई. के विद्रोह में उन्होंने कम्पनी का साथ दिया। 1870 ई. के बाद प्रकाशित ‘डब्ल्यू. हण्टर’ की पुस्तक ‘इण्डियन मुसलमान’ में सरकार को यह सलाह दी गई थी कि वे मुसलमानों से समझौता कर तथा उन्हें कुछ रियायतें देकर अपनी ओर मिलाये।

वहाबी आन्दोलन
वहाबी आन्दोलन 1830 ई. से प्रारम्भ होकर 1860 ई. चलता रहा था। इतने लम्बे समय तक चलने वाले ‘वहाबी आन्दोलन’ के प्रवर्तक रायबरेली के ‘सैय्यद अहमद’ थे। यह विद्रोह मूल रूप से मुस्लिम सुधारवादी आन्दोलन था, जो उत्तर पश्चिम, पूर्वी भारत तथा मध्य भारत में सक्रिय था। सैय्यद अहमद इस्लाम धर्म में हुए सभी परिवर्तनों तथा सुधारों के विरुद्ध थे। उनकी इच्छा हजरत मोहम्मद के समय के इस्लाम धर्म को पुन:स्थापित करने की थी।

अहमदिया आन्दोलन
अहमदिया आन्दोलन की स्थापना वर्ष 1889 ई. में की गई थी। इसकी स्थापना गुरदासपुर (पंजाब) के ‘कादिया’ नामक स्थान पर की गई। इसका मुख्य उद्देश्य मुसलमानों में इस्लाम धर्म के सच्चे स्वरूप को बहाल करना एवं मुस्लिमों में आधुनिक औद्योगिक और तकनीकी प्रगति को धार्मिक मान्यता देना था। अहमदिया आन्दोलन की स्थापना ‘मिर्ज़ा ग़ुलाम अहमद’ (1838-1908 ई.) द्वारा 19वीं शताब्दी के अंत में की गई थी।

  • देवबन्द स्कूल
    देवबन्द स्कूल की स्थापना मुहम्मद क़ासिम ननौत्वी (1832-1880 ई.) एवं रशीद अहमद गंगोही (1828-1905 ई.) द्वारा की गई थी। इस स्कूल की शुरुआत 1866-1867 ई. में देवबन्द, सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) से की गई थी। इसका मुख्य उद्देश्य मुस्लिम सम्प्रदाय के लिए धार्मिक नेता तैयार करना, विद्यालय के पाठ्यक्रमों में अंग्रेज़ी शिक्षा एवं पश्चिमी संस्कृति को प्रतिबन्धित करना, मुस्लिम सम्प्रदाय का नैतिक एवं धार्मिक पुनरुद्धार करना तथा अंग्रेज़ सरकार के साथ असहयोग करना था।
  • सामाजिक सुधार अधिनियम
    सामाजिक सुधार अधिनियम मुख्यत: 19वीं शताब्दी में लाये गए। इस शताब्दी के सुधार आन्दोलन ने केवल धार्मिक सुधार के क्षेत्र को ही नहीं, बल्कि समाज सुधार को भी अपना लक्ष्य बनाया। तत्कालीन समाज में व्याप्त ऐसी कई कुप्रथाओं, जैसे- सती प्रथा, बाल विवाह, बाल हत्या, जातीय भेदभाव आदि को इन आंदोलनों ने अपना निशाना बनाया। भारतीय समाज में बसी हुई अनेकों कुरीतियों तथा कुप्रथाओं को इसके माध्यम से समाप्त करने काफ़ी मदद मिली।
  • सती प्रथा
    भारतीय, मुख्य रूप से हिन्दू समाज में सती प्रथा का उद्भव यद्यपि प्राचीन काल से माना जाता है, परन्तु इसका भीषण रूप आधुनिक काल में देखने को मिलता है। सती प्रथा का पहला अभिलेखीय साक्ष्य 510 ई. एरण के अभिलेख में मिलता है। 15वीं शताब्दी में कश्मीर के शासक सिकन्दर ने इस प्रथा को बन्द करवा दिया था। बाद में पुर्तग़ाली गर्वनर अल्बुकर्क ने इस प्रथा को बन्द करवा दिया। भारत मे मुग़ल बादशाह अकबर व पेशवाओं के अलावा ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कुछ गर्वनर-जनरलों जैसे लॉर्ड कॉर्नवॉलिस एवं लॉर्ड हेस्टिंग्स ने इस दिशा में कुछ प्रयत्न किये, परन्तु इस क्रूर प्रथा को क़ानूनी रूप से बन्द करने का श्रेय लॉर्ड विलियम बैंटिक को जाता है। राजा राममोहन राय ने बैंटिक के इस कार्य में सहयोग किया। राजा राममोहन राय ने अपने पत्र ‘संवाद कौमुदी’ के माध्यम से इस प्रथा का व्यापक विरोध

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  • किया। राधाकान्त देव तथा महाराजा बालकृष्ण बहादुर ने राजा राममोहन राय की नीतियों का विरोध किया। 1829 ई. के 17वें नियम के अनुसार विधवाओं को जीवित ज़िन्दा जलाना अपराध घोषित कर दिया गया। पहले यह नियम ‘बंगाल प्रेसीडेंसी’ में लागू हुआ, परन्तु बाद में 1830 ई. के लगभग इसे बम्बई और मद्रास में भी लागू कर दिया गया।
  • बाल हत्या
    बाल हत्या की प्रथा राजपूतों में सर्वाधिक प्रचलित थी। वे कन्या के जन्म को अशुभ मानते थे, अतः इनके यहाँ नशीली दवाओं एवं भूखा रखकर कन्याओं को मार दिया जाता था। लॉर्ड हार्डिंग ने 1795 ई. के ‘बंगाल नियम’ एवं 1804 ई. के नियम-3 से बाल हत्या को साधारण हत्या मान लिया। 1870 ई. में इस दिशा में कुछ क़ानून बने, जिसके अन्तर्गत बालक-बालिकाओं की सूचना देना अनिवार्य कर दिया गया।
  • दास प्रथा
    भारतीय समाज में दास प्रथा का प्रचलन प्राचीन काल से था। 18 जनवरी, 1823 ई. को लिस्टर स्टैनहोप ने इंग्लैण्ड के ड्यूक ऑफ़ ग्लोस्टर को दास प्रथा की समाप्ति के लिए एक पत्र लिखा। 1789 ई. की घोषणा द्वारा दासों का निर्यात बन्द कर दिया गया। 1811 ई. एवं 1823 ई. में दासों के सम्बन्ध में क़ानून बनाए गये। 1833 में अंग्रेज़ी साम्राज्य में दासता समाप्त कर दी गयी। 1833 ई. में चार्टर एक्ट में दासता को शीघ्र-अतिशीघ्र समाप्त करने के लिए गर्वनर को क़ानून बनाने को कहा गया। 1843 ई. में समस्त भाग में दासता को अवैध घोषित कर दिया गया। 1860 ई. में ‘भारतीय दण्ड संहिता’ के अन्तर्गत दासता को अपराध घोषित कर दिया गया।
  • विधवा पुनर्विवाह
    कलकत्ता के ‘संस्कृत कॉलेज’ के आचार्य ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य किया। उन्होंने विधवा विवाह के समर्थन में लगभग एक सहस्र हस्ताक्षरों वाला प्रार्थना पत्र तत्कालीन गर्वनर डलहौज़ी को दिया, जिसके परिणामस्वरूप 1856 ई. में ‘हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम’ द्वारा विधवा विवाह को मान्यता दे दी गई।
  • इस क्षेत्र में धोंडो केशव कर्वे एवं वीरेसलिंगम पुण्टलु ने भी उल्लेखनीय कार्य किया। कर्वे महोदय ने पूना में 1899 ई. में एक ‘विधवा आश्रम’ स्थापित किया। उनके प्रयास से ही 1906 ई. में बम्बई में ‘भारतीय महिला विश्वविद्यालय’ की स्थापना की गई। धोंडो केशव कर्वे विधवा पुनर्विवाह संघ के सचिव थे।
  • बाल विवाह
    इस क्षेत्र में केशवचन्द्र सेन के प्रयासों से 1872 ई. में देशी बाल विवाह अधिनियम पास हुआ, जिसमें बाल विवाह पर प्रतिबन्ध लगाने की व्यवस्था की गई।
  • सिविल मैरिज एक्ट (1872 ई.) के अन्तर्गत 14 वर्ष से कम आयु की कन्याओं तथा 18 वर्ष से कम आयु के लड़कों का विवाह वर्जित कर दिया गया। इस अधिनियम के द्वारा बहुपत्नी प्रथा भी समाप्त कर दी गयी।
  • 1891 ई. में ब्रिटिश सरकार ने एस.एस. बंगाली के सहयोग से ‘एज ऑफ़ कंसेट एक्ट’ पारित किया। एक्ट के अनुसार 12 वर्ष से कम आयु की कन्याओं के विवाह पर रोक लगा दी गई। इस एक्ट का लोकमान्य तिलक ने इस आधार पर विरोध किया कि वे इसे भारतीय मामले में विदेशी हस्तक्षेप मानते थे।
  • 1930 ई. में ‘शारदा अधिनियम’ द्वारा विवाह के लिए लड़की की आयु कम से कम 14 वर्ष और लड़के की 18 वर्ष निश्चित की गई।
  • स्त्री शिक्षा
    हिन्दू शास्त्रों में दी हुई व्यवस्था के आधार पर 19वीं सदी के लोगों में एक ग़लत मान्यता का प्रचार था कि स्त्रियों को अध्ययन का अधिकार नहीं है, परन्तु सुधार आन्दोलनों के द्वारा इस क्षेत्र में फैली भ्रांति को दूर किया गया। सर्वप्रथम ईसाई धर्म प्रचारकों ने इस क्षेत्र में कार्य करते हुए 1819 ई. में स्त्री शिक्षा के लिए कलकत्ता में एक ‘तरुण सभा’ की स्थापना की। जेडी. बेथुन ने 1849 ई. में कलकत्ता में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की।ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने भी इस क्षेत्र में भी उल्लेखनीय योगदान कार्य किया। वे बंगाल के लगभग 35 विद्यालयों से जुड़े थे। 1854 ई. के ‘चार्ल्स वुड पत्र’ में स्त्री शिक्षा की आवश्यकता पर ध्यान दिया गया।
  • महिलाओं के उत्थान के क्षेत्र में पुरुषों ने प्रयत्न किये, परन्तु 20वीं शताब्दी तक अपने अधिकारों के लिए महिलायें खुद आगे आने लगीं।
  • 1926 ई. में ‘अखिल भारतीय महिला संघ’ की स्थापना हुई। देश के आज़ाद होने के बाद 1956 ई. के ‘हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम’ में यह व्यवस्था की गई कि पिता की सम्पत्ति में पुत्र के साथ पुत्री भी बराबर की हकदार होगी और इसके साथ ही बहुविवाह, दहेज प्रथा आदि को भी प्रतिबन्धित किया गया। इस तरह 20वीं सदी में महिलाओं की स्थिति में काफ़ी सुधार हुआ।
  • जातीय वैकल्प निराकरण अधिनियम
    उच्च वर्ग के सम्पन हिन्दू व्यक्तियों की ईसाई धर्म में परिवर्तित करने में बड़ी बाधा यह थी कि धर्म परिवर्तन से व्यक्ति अपने सम्पत्ति के अधिकारों से वंचित हो जाता था। कालान्तर में ब्रिटिश सरकार ने इस बाधा को समाप्त कर दिया, जिससे हिन्दुओं को धर्म परिवर्तन के लिए प्रोत्साहन मिला, परन्तु इस अधिनियम का हिन्दुओं ने जमकर विरोध किया। 20वीं शताब्दी में सामाजिक सुधार के लिए चलाये गये कुछ अन्य आंदोलनों में 1887 ई. में महादेव गोविन्द रानाडे द्वारा ‘भारतीय राष्ट्रीय सामजिक सम्मेलन, 1903 ई. में ‘बम्बई समाज सुधारक सभा’ एवं एनी बेसेन्ट द्वारा हिन्दू सम्मेलन की स्थापना की गई।
  • जाति प्रथा का विरोध एवं अछूतोद्धार आन्दोलन
    प्राचीन काल से ही भारतीय समाज में व्याप्त इस कुप्रथा में सुधार के लिए आधुनिक काल में कुछ प्रयास अवश्य किये गये। गांधी जी ने इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने अछूतों के लिए ‘हरिजन’ (भगवान का जन) शब्द प्रयोग किया और ‘हरिजन’ नामक साप्ताहिक पत्र का संपादन किया।
  • उन्होंने हरिजनों के कल्याण के लिए 1932 ई. में ‘हरिजन सेवक संघ’ नामक संस्था की स्थापना की। संभवतः गांधीजी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने हरिजन समस्या की ओर जनसाधारण का ध्यान खीचा।
  • निम्न जाति या कुल में पैदा हुए डॉक्टर भीमराव अम्बेडकर जीवन भर जाति प्रथा तथा छुआछूत से लड़ते रहे।
  • इन्होने ‘ऑल इंडिया डिप्रेस्ड क्लास एसोसिएशन’ (अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ) की स्थापना की।
  • 1906 ई. में बी.आर.शिंदे के नेतृत्व में बम्बई में ‘डिप्रेस्ड क्लास मिशन सोसइटी’ की स्थापना की गई। मद्रास में ‘डिप्रेस्ड क्लासेज मिशन सोसाइटी’ की स्थापना 1909 ई. में की गई।
  • दक्षिण भारत में 1920 ई. में ई.वी. रामास्वामी नायकर के नेतृत्व में ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ चलाया गया। मद्रास के ब्राह्मण विरोधी संगठन प्रजा मित्र मंडली के संस्थापक सी.आर. रेड्डी थे। दक्षिण भारत के ‘आत्मसम्मान आंदोलन’ ने 1925 ई. में बिना ब्राह्मण के सहयोग से शादी, जबरन मंदिर प्रवेश, नास्तिकवाद एवं मनुस्मृति को जलाने का तर्क दिया। सी.एन. मुदालियार, टी.एम. नायर एवं पी.टी. चेट्टी के नेतृत्व में दक्षिण में ‘जस्टिस पार्टी’ की स्थापना की गई। पहले इस पार्टी को ‘साउथ इंडियन लिबरल एसोसिएशन’ के नाम से जाना जाता था।
  • बंगाल में 1899 ई. में जाति निर्धारण सभा की स्थापना की गई। केरल में एझवा आंदोलन के अन्तर्गत इस आंदोलन के नेताओं द्वारा 1903 ई. में ‘श्रीनारायण धर्म परिपाल योगम’ की स्थापना की गई।
  • 1885 में भारतीय इतिहास का एक नया अध्याय शुरु हुआ था
  • इस वर्ष एक राष्ट्रीय महत्व की घटनाघटित हुई थी
  • 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्म हुआ था
  • जिसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की आधारशिलारखी और समय-समय पर नए आयाम दिए
  • इसका भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन मे इतना महत्वपूर्ण योगदान है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का इतिहास ही भारतीय राष्ट्रीय आंदोलनका पर्याय बन चुका था
  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 28 दिसंबर 1885 को मुंबई में गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कॉलेज भवन में की गई थी
  • इसके संस्थापक एलन आक्टेवियन ह्यम थे
  • इस संस्था के अध्यक्ष व्योमेश चंद्र बनर्जी थे
  • इसमें सदस्य की संख्या 72थी
  • इसके महत्वपूर्ण सदस्य दादा भाई नौरोजी, फिरोज शाह मेहता, दिनशा एदलजी वाचा, काशीनाथ तेलंग वी० राघवाचार्य एन०जी०चंद्रावरकर एस०सुब्रह्यण्यम आदि थे
  • कांग्रेस शब्द उत्तरी अमेरिकासे लिया गया हैजिसका अर्थ लोगों का समूह होता है 
  • प्रारंभ में इसका नाम भारतीय राष्ट्रीय संस्था थाबाद मे दादा भाई नौरोजी के सुझाव पर इसका नाम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कर दिया गया था 

लेकिन इंडियन एसोसिएशन कलकत्ता और इसके नेता सुरेंद्र नाथ बनर्जी का नाम इंडियन नेशनल कॉन्फ्रेंस को संगठित करने में विशेष रुप से उल्लेखनीय है 

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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के महत्वपूर्ण अधिवेशन

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बंगाल विभाजन एवं स्वदेशी आंदोलन (1905 से 1906 .)

  • भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के साथ ही संपूर्ण भारत के लोग ब्रिटिश शासन के विरुद्ध एक राष्ट्रीय मुख्यधारा मेँ शामिल होते जा रहै थे। बंगाल तब भारतीय राष्ट्रवाद का प्रधान केंद्र था।
  • तत्कालिक बंगाल मेँ आधुनिक बिहार, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल तथा बांग्लादेश आते थे। लार्ड कर्जन ने प्रशासनिक सुविधा का बहाना बनाकर बंगाल को दो भागोँ मेँ बांट दिया।
  • बंगाल विभाजन की सर्वप्रथम घोषणा 3 दिसंबर 1903 को की गई। यह 16 अक्टूबर 1905 को लागू हुआ। राष्ट्रीय नेताओं ने विभाजन को भारतीय राष्ट्रवाद के लिए एक चुनौती समझा।
  • बंगाल के नेताओं ने इसे क्षेत्रीय और धार्मिक आधार पर बांटने का प्रयास माना। अतः इस विभाजन का व्यापक विरोध हुआ तथा 16 अक्टूबर को पूरे देश मेँ शोक दिवस के रुप मेँ मनाया गया।
  • हिंदू मुसलमानोँ ने अपनी एकता प्रदर्शित करते हुए एक बहुत ही तीव्र आंदोलन 7 अगस्त 1905 से चलाया।
  • स्वदेशी तथा बहिष्कार आंदोलन की उत्पत्ति बंगाल विभाग विभाजन विरोधी आंदोलन के रुप मेँ हुई।
  • इसके अंतर्गत अनेक स्थानोँ पर विदेशी कपड़ोँ की होली जलाई गई और विदेशी कपड़े बेचने वाली दुकानोँ पर धरने दिए गए।
  • इस प्रकार बंगाल के नेताओं ने बंगाल विभाजन विरोधी आंदोलन को स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन के रुप मेँ परिवर्तित कर इसे राष्ट्रीय स्तर पर व्यापकता प्रदान की।

उग्र और क्रांतिकारी आंदोलन (1905 से 1914 .)

  • बंग बंग विरोधी आंदोलन का नेतृत्व तिलक बिपिन चंद्र पाल और अरविंद घोष जैसे नेताओं के हाथों मेँ आना ही राष्ट्रवादियोँ के उत्कर्ष का प्रतीक था। सरकारी दमन और जनता को कुशल नेतृत्व देने मेँ नेताओं की असफलता के कारण उपजी कुंठा ने क्रांतिकारी आंदोलन को जन्म दिया।
  • क्रांतिकारी युवकों अनेक गुप्त संगठन, जैसे-अनुशीलन समिति, अभिनव भारत, मित्र मेला, आर्य बांधव समाज आदि बनाये।
  • बंगाल, मद्रास, महाराष्ट्र मेँ ही नहीँ वरन कनाडा, अमेरिका, जर्मनी, सिंगापुर आदि देशोँ मेँ भी अनेक क्रांतिकारी दल स्थापित हो गए।
  • गदर पार्टी भी एक ऐसा ही दल था जिसकी स्थापना सान फ्रांसिस्को मेँ लाला हरदयाल सिंह और भाई परमानंद आज क्रांतिकारियों ने 1913 मेँ की थी।
  • यद्यपि गदर पार्टी का यह अभियान असफल रहा, फिर भी उसने अमेरिका मेँ भारतीय स्वाधीनता के लिए प्रचार कार्य जारी रखा।

होमरुल लीग आंदोलन (1915 से 1916 .)

  • प्रथम विश्व युद्ध के आरंभ होने पर भारतीय राष्ट्रवादी नेताओं ने सरकार के युद्ध प्रयास मेँ सहयोग का निश्चय किया।
  • इसके लिए एक वास्तविक राजनीतिक जन आंदोलन की आवश्यकता थी। लेकिन ऐसा कोई जन-आंदोलन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व मेँ संभव नहीँ था, क्योंकि यह नरमपंथियोँ के नेतृत्व मेँ एक निष्क्रिय और जड़ संगठन बन चुकी थी। इसलिए 1915-1916 मेँ दो होमरूल लीगों की स्थापना हुई।
  • भारतीय होम रुल लीग का गठन आयरलैंड के होमरुल लीग के नमूने पर किया गया, जो तत्कालीन परिस्थितियों में तेजी से उभरती हुई प्रतिक्रियात्मक राजनीति के नए स्वरुप का प्रतिनिधित्व करता था। एनी बेसेंट और बाल गंगाधर तिलक इस नए स्वरुप के नेतृत्वकर्ता थे।
  • होमरुल आंदोलन के दौरान तिलक ने अपना प्रसिद्ध नाराहोमरुल या स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैँ इसे लेकर रहूँगा दिया था।
  • 1917 का वर्ष होमरुल के इतिहास मेँ एक मोड़ बिंदु था। जून मेँ एनी बेसेंट तथा उसके सहयोगियोँ को गिरफ्तार कर लेने के पश्चात आंदोलन अपने चरम पर था।
  • सितंबर 1917 मेँ भारत सचिव मांटेग्यू की घोषणा, जिस मेँ होमरुल का समर्थन किया गया था, ने इस आंदोलन मेँ एक और निर्णायक मोड़ ला दिया।
  • लीग ने अपने उद्देश्योँ की सफलता के लिए एक कोष बनाया तथा धन एकत्रित किया, सामाजिक कार्यो का आयोजन किया तथा स्थानीय प्रशासन के कार्योँ मेँ भागीदारी भी निभाई।

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LECTURE – 12

HISTORY (GS)

1857 का विद्रोह (कारण और असफलताए)

प्रारंभिक परीक्षा प्रश्न

 

  1. 1. 1857 के विद्रोह की असफलता के बाद मुगल बादशाह बहादुरशाह II को कहाँ व किसने गिरफ्तार किया?

(A) रंगून में, कर्नल नील ने

(B) ग्वालियर में, लेफ्टिनेंट हडसन ने

(C) बरेली में, जेम्स आउट्रम ने

(D) हुमायूँ की कब्र के पास, लेफ्टिनेंट हडसन ने

 

  1. 2. 1857 के बरेली विद्रोह का नेता कौन था?

(A) खान बहादुर

(B) कुँवर सिंह

(C) मौलवी अहमदशाह

(D) बिरजिस कादिर

 

  1. 3. कानुपर के गदर का नेतृत्व किसने किया था?

(A) बेगम हजरत महल

(B) नाना साहिब

(C) तांत्या टोपे

(D) रानी लक्ष्मीबाई

 

  1. 4. किसी स्थान पर हुए विद्रोह के दमन के दौरान ब्रिटिश सैन्य अधिकारी हैवलाक की मौत हो गई?

(A) दिल्ली

(B) कानपुर

(C) लखनऊ

(D) झांसी

 

  1. 5. सर्वप्रथम किसने 1857 के विद्रोह के तुंरत बाद इसे एक ‘राष्ट्रीय विद्रोह’ की संज्ञा दी?

(A) बेंजामिन डिजरायली

(B) वी.डी. सावरकर

(C) के. एम. पणिक्कर

(D) ताराचंद

 

  1. 6. वह कौन-सा ब्रिटिश सेनापति था, जिसकी 1857 के विद्रोह को दबाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही?

(A) आउट्रम

(B) चार्ल्स नेपियर

(C) कैम्पबेल

(D) हैवलॉक

 

 

 

 

  1. 7. निम्नलिखित में से वह कौन-सा स्थान था, जो 1857 के विद्रोह से अछूता रहा?

(A) अवध

(B) मद्रास

(C) पूर्वी पंजाब

(D) मध्य प्रदेश

 

  1. 8. 1857 के विद्रोह की असफलता के बाद बहादुरशाह II को कहाँ निर्वासित कर दिया गया?

(A) रंगून

(B) सिंगापुर

(C) साइबेरिया

(D) इनमें से कोई नहीं

 

  1. 9. मंगल पाण्डे, जिसने अकेले 1857 ई. में विद्रोह का सूत्रपात किया, सम्बन्धित था–

(A) 34वीं नेटिव इंफैंट्री से

(B) 22वीं नेटिव इंफैंट्री से

(C) 19वीं नेटिव इंफैंट्री से

(D) 38वीं नेटिव इंफैंट्री से

 

  1. 10. ‘इस मिसाल में हम मुसलमानों को हिन्दुओं से भिड़ा नहीं पाए।’ निम्नलिखित में से कौन-सी एक घटना से एचिसन के इस कथन का सम्बन्ध है?

(A) 1857 का विद्रोह

(B) चम्पारण सत्याग्रह, 1917

(C) खिलाफत और असहयोग आन्दोलन, 1919-22

(D) 1942 की अगस्त क्रांति

 

  1. 11. बिहार के जगदीशपुर में विद्रोह के दमन का श्रेय किस ब्रिटिश अधिकारी को है?

(A) हडसन

(B) हैवलाक

(C) ह्यूरोज

(D) टेलर व विसेंट आयर

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दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी की गतिविधियां (1893-1914)

  • नटाल भारतीय कांग्रेस का गठन एवं इण्डियन आोपीनियन नामक पत्र का प्रकाशन।
  • पंजीकरण प्रमाणपत्र के विरुद्ध सत्याग्रह।
  • भारतियों के प्रवसन पर प्रतिबंध लगाये जाने के विरुद्ध सत्याग्रह।
  • टाल्सटाय फार्म की स्थापना।
  • पोल टेक्स तथा भारतीय विवाहों को अप्रमाणित करने के विरुद्ध अभियान।
  • गांधीजी को आंदोलन के लिये जनता के शक्ति का अनुभव हुआ, उन्हें एक विशिष्ट राजनीतिक शैली, नेतृत्व के नये अंदाज और संघर्ष के नये तरीकों को विकसित करने का अवसर मिला।

 

खिलाफत-असहयोग आंदोलन

तीन मांगें-

तुर्की के साथ सम्मानजनक व्यवहार।

  1. सरकार पंजाब में हुयी ज्यादतियों का निराकरण करे।
  2. स्वराज्य की स्थापना।

 

गांधीजी की भारत वापसी

गांधीजी, जनवरी 1915 में भारत लौटे। दक्षिण अफ्रीका में उनके संघर्ष और उनकी सफलताओं ने उन्हें भारत में अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया था। न केवल शिक्षित भारतीय अपितु जनसामान्य भी गांधीजी के बारे में भली-भांति परिचित हो चुका था। भारत की तत्कालीन सभी राजनीतिक विचारधाराओं से गांधीजी असहमत थे। उन्होंने कहा कि इन परिस्थितियों में राष्ट्रवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग है- अहिंसक सत्याग्रह। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया कि जब तक कोई राजनीतिक संगठन सत्याग्रह के मार्ग की नहीं अपनायेगा तब तक वे ऐसे किसी भी संगठन से सम्बद्ध नहीं हो सकते।
रौलेट सत्याग्रह प्रारम्भ करने के पहले, 1917 और 1918 के आरम्भ में गांधीजी ने तीन संघर्षों- चम्पारण आंदोलन (बिहार) तथा अहमदाबाद और खेड़ा (दोनों गुजरात) सत्याग्रह में हिस्सा लिया। ये तीनों ही आंदोलन स्थानीय आर्थिक मांगों से सम्बद्ध थे। अहमदाबाद का आंदोलन, औद्योगिक मजदूरों का आंदोलन था तथा चम्पारण और खेड़ा किसान आंदोलन थे।

चम्पारण सत्याग्रह 1917

  • प्रथमसविनय अवज्ञा: चम्पारण की समस्या काफी पुरानी थी। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में गोरे बागान मालिकों ने किसानों से एक अनुबंध कर लिया, जिसके अंतर्गत किसानों को अपनी भूमि के 3/20वें हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था। यह व्यवस्था तिनकाठिया पद्धति’ के नाम से जानी जाती थी।
  • 19वीं सदी के अंत में जर्मनी में रासायनिक रंगों (डाई) का विकास हो गया, जिसने नील की बाजार से बाहर खदेड़ दिया। इसके कारण चम्पारण के बागान मालिक नील की खेती बंद करने की विवश हो गये। किसान भी मजबूरन नील की खेती से छुटकारा पाना चाहते थे। किन्तु परिस्थितियों को देखकर गोरे बागान मालिक किसानों की विवशता का फायदा उठाना चाहते थे। उन्होंने दूसरी फसलों की खेती करने के लिये किसानों को अनुबंध से मुक्त करने की एवज में लगान व अन्य करों की दरों में अत्याधिक वृद्धि कर दी। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने द्वारा तय की गयी दरों पर किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिये बाध्य किया। चम्पारण से जुड़े एक प्रमुख आंदोलनकारीराजकुमार शुक्ल ने गांधीजी को चम्पारण बुलाने का फैसला किया।
  • गांधीजी, राजेन्द्र प्रसाद, ब्रीज किशोर, मजहर उल-हक़, महादेव देसाई, नरहरि पारिख तथा जे.बी. कृपलानीकेसहयोग से मामले की जांच करने चम्पारण पहुंचे। गांधीजी चंपारण के गॉंव में घूमते व किसानों की समस्या को सुनते |
  • इस बीच सरकार ने सारे मामले की जांच करने के लिये एक आयोग का गठन किया तथा गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया। गांधीजी, आयोग को यह समझाने में सफल रहे कि तिनकाठिया पद्धति समाप्त होनी चाहिये। उन्होंने आयोग को यह भी समझाया कि किसानों से पैसा अवैध रूप से वसूला गया है, उसके लिये किसानों को हरजाना दिया जाये।
  • बाद में एक और समझौते के पश्चात् गोरे बागान मालिकअवैध वसूली का 25 प्रतिशत हिस्सा किसानों को लौटाने पर राजी हो गये। इसके एक दशक के भीतर ही बागान मालिकों ने चम्पारण छोड़ दिया। इस प्रकार गांधीजी ने भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रथम युद्ध सफलतापूर्वक जीत लिया।

अहमदाबाद मिल हड़ताल 1918- प्रथम भूख हड़ताल

  • चम्पारण के पश्चात् गांधीजी ने अहमदाबाद मिल हड़ताल के मुद्दे पर हस्तक्षेप किया। यहां मिल मालिकों और मजदूरों मेंप्लेग बोनस को लेकर विवाद छिड़ा था। गांधीजी ने मजदूरों को हड़ताल पर जाने तथा 35 प्रतिशत बोनस की मांग करने को कहा। जबकि मिल मालिक, मजदूरों को केवल 20 प्रतिशत बोनस देने के लिये राजी थे।
  • गांधीजी ने मजदूरों को सलाह दी कि वे शांतिपूर्ण एवं अहिंसक ढंग से अपनी हड़ताल जारी रखें। गांधीजी ने मजदूरों के समर्थन में भूख हड़ताल प्रारम्भ करने का फैसला किया ।
  • अंबालाल साराभाई की बहन अनुसुइया बेनने इस संघर्ष में गांधीजी को सक्रिय योगदान प्रदान किया। इस अवसर पर उन्होंने एक दैनिक समाचार पत्र का प्रकाशन भी प्रारम्भ किया। गांधीजी के अनशन पर बैठने के फैसले से मजदूरों के उत्साह में वृद्धि हुई तथा उनका संघर्ष तेज हो गया।
  • मजबूर होकर मिल मालिक समझौता करने को तैयार हो गये तथा सारे मामले को एक ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया। जिस मुद्दे को लेकर हड़ताल प्रारम्भ हुई थी, ट्रिब्यूनल के फैसले से वह समाप्त हो गया। ट्रिब्यूनल ने मजदूरों के पक्ष में निर्णय देते हुये मिल मालिकों को 35 प्रतिशत बोनस मजदूरों को भुगतान करने का फैसला सुनाया। गांधीजी की यह दूसरी प्रमुख विजय थी।

खेड़ा सत्याग्रह 1918- प्रथम असहयोग

  • वर्ष 1918 के भीषण दुर्भिक्ष के कारण गुजरात के खेड़ा जिले में पूरी फसल बरबाद हो गयी, फिर भी सरकार ने किसानों से मालगुजारी वसूल करने की प्रक्रिया जारी रखी।
  • राजस्व संहिता’के अनुसार, यदि फसल का उत्पादन, कुल उत्पाद के एक-चौथाई से भी कम हो तो किसानों का राजस्व पूरी तरह माफ कर दिया जाना चाहिए, किन्तु सरकार ने किसानों का राजस्व माफ करने से इन्कार कर दिया।
  • खेड़ा जिले के युवा अधिवक्तावल्लभभाई पटेल, इंदुलाल याज्ञिक तथा कई अन्य युवाओं ने गांधीजी के साथ खेड़ा के गांवों का दौरा प्रारम्भ किया। इन्होंने किसानों को लगान न अदा करने की शपथ दिलायी।
  • गांधीजी ने घोषणा की कि यदि सरकार गरीब किसानों का लगान माफ कर दे तो लगान देने में सक्षम किसान स्वेच्छा से अपना लगान अदा कर देंगे। दूसरी ओर सरकार ने लगान वसूलने के लिये दमन का सहारा लिया। कई स्थानों पर किसानों की संपत्ति कुर्क कर ली गयी तथा उनके मवेशियों को जब्त कर लिया गया।
  • इसी बीच सरकार ने अधिकारियों को गुप्त निर्देश दिया कि लगान उन्हीं से वसूला जाये जो लगान दे सकते हैं। इस आदेश से गांधीजी का उद्देश्य पूरा हो गया तथा आंदोलन समाप्त हो गया।

चम्पारण, अहमदाबाद तथा खेड़ा में गांधीजी की उपलब्धियां

  • चम्पारण, अहमदाबाद तथा खेड़ा आन्दोलन ने गांधीजी को संघर्ष के गांधीवादी तरीके ‘सत्याग्रह’ की आजमाने का अवसर दिया।
  • गांधीजी की देश की जनता के करीब आने तथा उसकी समस्यायें समझाने का अवसर मिला।
  • गांधीजी जनता की ताकत तथा कमजोरियों से परिचित हुये तथा उन्हें अपनी रणीनति का मूल्यांकन करने का अवसर मिला।
  • इन आन्दोलनों में गांधीजी को समाज के विभिन्न वर्गों विशेषतया युवा पीढ़ी का भरपूर समर्थन मिला तथा भारतीयों के मध्य उनकी विशिष्ट पहचान कायम हो गयी।

रौलेट एक्ट

1919 का वर्ष भारत के लिये अत्यन्त सोच एवं असंतोष का वर्ष था। देश में फैल रही राष्ट्रीयता की भावना तथा क्रांतिकारी गतिविधियों को कुलचने के लिये ब्रिटेन को पुनः शक्ति की आवश्यकता थी क्योंकि भारत के रक्षा अधिनियम की शक्ति समाप्त प्राय थी।

इसी संदर्भ में सरकार ने सर सिडनी रौलेट (Sidney Rowlatt) की नियुक्ति की, जिन्हें इस बात की जांच करनी थी कि भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र करने वाले लोग कहां तक फैले हुये हैं और उनसे निपटने के लिये किस प्रकार के कानूनों की आवश्यकता है। इस संबंध में सर सिडनी रौलेट की समिति ने जो सिफारिशें कीं उन्हें ही रौलेट अधिनियम या रौलेट एक्ट के नाम से जाना जाता है।

रौलेट एक्ट के प्रमुख प्रावधान

  • इस एक्ट के अंतर्गत एक विशेष न्यायालय की स्थापना की गयी, जिसमें उच्च न्यायालय के तीन वकील थे। यह न्यायालय ऐसे साक्ष्यों को मान्य कर सकता था, जो विधि के अंतर्गत मान्य नहीं थे।
  • इसके निर्णय के विरुद्ध कहीं भी अपील नहीं की जा सकती थी।
  • न्यायालय द्वारा बनाये गये नियम के अनुसार, प्रांतीय सरकारों को बिना वारंट के तलाशी, गिरफ्तारी तथा बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को रद्द करने आदि की असाधारण शक्तियां दे दी गयीं।
  • युद्ध काल में तो यह विधेयक उचित माना जा सकता था किंतु शांतिकाल में यह पूर्णतया अनुचित था। भारतवासियों ने इस विधेयक को काला कानून कहा तथा इसके विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की।

रौलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह-प्रथम जन आन्दोलन

विश्व युद्ध की समाप्ति पर, जब भारतीय जनता संवैधानिक सुधारों का इंतजार कर रही थी, ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी रौलेट एक्ट को जनता के सम्मुख पेश कर दिया, इसे भारतीयों ने अपना घोर अपमान समझा। अपने पूर्ववर्ती अभियानों से अदम्य व साहसी हो चुके गांधीजी ने फरवरी 1919 में प्रस्तावित रौलेट एक्ट के विरोध में देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया। किन्तु संवैधानिक प्रतिरोध का जब सरकार पर कोई असर नहीं हुआ तो गांधीजी ने सत्याग्रह प्रारम्भ करने का निर्णय किया। एक सत्याग्रह सभा’ गठित की गयी तथा होमरूल लीग के युवा सदस्यों से सम्पर्क कर अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष करने का निर्णय हुआ। प्रचार कार्य प्रारम्भ हो गया। राष्ट्रव्यापी हड़ताल, उपवास तथा प्रार्थना सभाओं के आयोजन का फैसला किया गया। इसके साथ ही कुछ प्रमुख कानूनों की अवज्ञा तथा गिरफ्तारी देने की योजना भी बनाई गयी।

आन्दोलन के इस मोड़ के लिये कई कारण थे जो निम्नानुसार हैं

  • जन सामान्य को आन्दोलन के लिये एक स्पष्ट दिशा-निर्देश प्राप्त हुआ। अब वे अपनी समस्याओं की केवल मौखिक अभिव्यक्ति के स्थान पर प्रत्यक्ष कार्यवाई कर सकते थे।
  • इसके कारण किसान, शिल्पकार और शहरी निर्धन वर्ग सक्रियता से आंदोलन से जुड़ गया। उनकी यह सक्रियता आगे के आंदोलनों में भी बनी रही।
  • राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष स्थायी रूप से जनसामान्य से सम्बद्ध हो गया। गांधीजी ने स्पष्ट किया कि अनशन की प्रासंगिकता तभी है जब सभी भारतीय जागृत होकर सक्रियता से राजनीतिक प्रक्रिया में सहभागी बनें।

परिणाम

  • सत्याग्रह प्रारम्भ करने के लिये 6 अप्रैल की तारीख तय की गयी। किन्तु तारीख की गलतफहमी के कारण सत्याग्रह प्रारम्भ होने से पहले ही आंदोलन ने हिंसक स्वरूप धारण कर लिया। कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद इत्यादि स्थानों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई तथा अंग्रेज-विरोधी प्रदर्शन आयोजित किये गये।
  • प्रथम विश्व-युद्ध के दौरान सरकारी दमन, बलपूर्वक नियुक्तियों तथा कई कारणों से त्रस्त जनता ने पंजाब में हिंसात्मक प्रतिरोध प्रारम्भ कर दिया तथा परिस्थिति अत्यन्त विस्फोटक हो गयीं। अमृतसर और लाहौर में तो स्थिति पर नियंत्रण पाना मुश्किल हो गया। मजबूर होकर सरकार को सेना का सहारा लेना पड़ा। गांधीजी ने पंजाब जाकर यथास्थिति को संभालने का प्रयत्न किया, किन्तु उन्हें बम्बई भेज दिया।
  • 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड के रूप में अंग्रेजी सरकार का वह बर्बर और घिनौना रूप सामने आया जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिह्रास में एक रक्तरंजित धब्बा लगा दिया।

जलियांवाला बाग हत्याकांड

  • 13 अप्रैल 1919 को बैशाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया। सभा में भाग लेने वाले अधिकांश लोग आसपास के गांवों से आये हुये ग्रामीण थे, जो सरकार द्वारा शहर में आरोपित प्रतिबंध से बेखबर थे। ये लोग 10 अप्रैल 1919 को सत्याग्रहियों पर गोली चलाने तथा अपने नेताओंडा. सत्यपाल व डा. किचलू को पंजाब से बलात् बाहर भेजे जाने का विरोध कर रहे थे।
  • जनरल डायरने इस सभा के आयोजन को सरकारी आदेश की अवहेलना समझा तथा सभा स्थल को सशस्त्र सैनिकों के साथ घेर लिया। डायर ने बिना किसी पूर्व चेतावनी के सभा पर गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। लोगों पर तब तक गोलियां बरसायी गयीं, जब तक सैनिकों की गोलियां समाप्त नहीं हो गयीं।

परिणाम

  • सभा स्थल के सभी निकास मागों के सैनिकों द्वारा घिरे होने के कारण सभा में सम्मिलित निहत्थे लोग चारों ओर से गोलियों से छलनी होते रहे।
  • इस घटना में 379 लोग मारे गये, जिसमें युवा, महिलायें, बूढ़े, बच्चे सभी शामिल थे। जलियांवाला बाग हत्याकांड से पूरा देश स्तब्ध रह गया। वहशी क्रूरता ने देश को मौन कर दिया।
  • पूरे देश में बर्बर हत्याकांड की भर्त्सना की गयी।
  • रवीन्द्रनाथ टैगोरने विरोध स्वरूप अपनी नाइटहुड’ की उपाधि त्याग दी तथा शंकरराम नागर ने वायसराय की कार्यकारिणी से त्यागपत्र दे दिया।
  • अनेक स्थानों पर सत्याग्रहियों ने अहिंसा का मार्ग त्यागकर हिंसा का मार्ग अपनाया, जिससे 18 अप्रैल 1919 को गांधीजी ने अपना सत्याग्रह समाप्त घोषित कर दिया क्योंकि उनके सत्याग्रह में हिंसा का कोई स्थान नहीं था।
  • सरकार ने अत्याचारी अपराधियों को दडित करने के स्थान पर उनका पक्ष लिया। जनरल डायर को सम्मानित किया गया।

 

भारत के गवर्नर जनरल एवं वायसराय
भारत के गवर्नर जनरल

लॉर्ड विलियम बैंटिक (1828 ई. से 1835 ई.)

Ø  लॉर्ड विलियम बैंटिक भारत मेँ किए गए सामाजिक सुधारोँ के लिए विख्यात है।

Ø  लॉर्ड विलियम बैंटिक ने कोर्ट ऑफ़ डायरेक्टर्स की इच्छाओं के अनुसार भारतीय रियासतोँ के प्रति तटस्थता की नीति अपनाई।

Ø  इसने ठगों के आतंक से निपटने के लिए कर्नल स्लीमैन को नियुक्त किया।

Ø  लॉर्ड विलियम बैंटिक के कार्यकाल मेँ 1829 मे सती प्रथा का अंत कर दिया गया।

Ø  लॉर्ड विलियम बैंटिक ने भारत मेँ कन्या शिशु वध पर प्रतिबंध लगाया।

Ø  बैंटिक के ही कार्यकाल मेँ देवी देवताओं को नर बलि देने की प्रथा का अंत कर दिया गया।

Ø  शिक्षा के क्षेत्र मेँ इसका महत्वपूर्ण योगदान था। इसके कार्यकाल मेँ अपनाई गई मैकाले की शिक्षा पद्धति ने भारत के बौद्धिक जीवन को उल्लेखनीय ढंग से प्रभावित किया।

सर चार्ल्स मेटकाफ (1835 ई. से 1836 ई.)

Ø  विलियम बेंटिक के पश्चात सर चार्ल्स मेटकाफ को भारत का गवर्नर जनरल बनाया गया।

Ø  इसने समाचार पत्रोँ पर लगे प्रतिबंधोँ को समाप्त कर दिया। इसलिए इसे प्रेस का मुक्तिदाता भी कहा जाता है।

लॉर्ड ऑकलैंड (1836 ई. से 1842 ई.)

Ø  लॉर्ड ऑकलैंड के कार्यकाल मे प्रथम अफगान युद्ध (1838 ई. – 1842 ई.) हुआ।

Ø  1838 में लॉर्ड ऑकलैंड ने रणजीत सिंह और अफगान शासक शाहशुजा से मिलकर त्रिपक्षीय संधि की।

Ø  लॉर्ड ऑकलैंड को भारत मेँ शिक्षा एवं पाश्चात्य चिकित्सा पद्धति के विकास और प्रसार के लिए जाना जाता है।

Ø  लॉर्ड ऑकलैंड के कार्यकाल मेँ बंबई और मद्रास मेडिकल कॉलेजों की स्थापना की गई। इसके कार्यकाल मेँ शेरशाह द्वारा बनवाए गए ग्रांड-ट्रंक-रोड की मरम्मत कराई गई।

लॉर्ड एलनबरो (1842 ई. –1844 ई.)

Ø  लॉर्ड एलनबरो के कार्यकाल मेँ प्रथम अफगान युद्ध का अंत हो गया।

Ø  इसके कार्यकाल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना 1843 में सिंध का ब्रिटिश राज मेँ विलय करना था।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ भारत मेँ दास प्रथा का अंत कर दिया गया।

लॉर्ड हार्डिंग (1844 ई. से 1848 ई.)

Ø  लॉर्ड हार्डिंग के कार्यकाल मेँ आंग्ल-सिख युद्ध (1845) हुआ, जिसकी समाप्ति लाहौर की संधि से हुई।

Ø  लॉर्ड हार्डिंग को प्राचीन स्मारकोँ के संरक्षण के लिए जाना जाता है। इसने स्मारकों की सुरक्षा का प्रबंध किया।

Ø  लॉर्ड हार्डिंग ने सरकारी नौकरियोँ मेँ नियुक्ति के लिए अंग्रेजी शिक्षा को प्राथमिकता।

लार्ड डलहौजी (1848 ई. से 1856 ई.)

Ø  ये साम्राज्यवादी था लेकिन इसका कार्यकाल सुधारोँ के लिए भी विख्यात है। इसके कार्यकाल मेँ (1851 ई. – 1852 ई.) मेँ द्वितीय आंग्ल बर्मा युद्ध लड़ा गया। 1852 ई. में बर्मा के पीगू राज्य को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।

Ø  लॉर्ड डलहौजी ने व्यपगत के सिद्धांत को लागू किया।

Ø  व्यपगत के सिद्धांत द्वारा ब्रिटिश साम्राज्य मेँ मिलाये गए राज्यों मेँ सतारा (1848), जैतपुर व संभलपुर (1849), बघाट (1850), उदयपुर (1852), झाँसी (1853), नागपुर (1854) आदि थे।

Ø  लार्ड डलहौजी के कार्यकाल मेँ भारत मेँ रेलवे और संचार प्रणाली का विकास हुआ।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ दार्जिलिंग को भारत मेँ सम्मिलित कर लिया गया।

Ø  लार्ड डलहौजी ने 1856 मेँ अवध के नवाब पर कुशासन का आरोप लगाकर अवध का ब्रिटिश साम्राज्य मेँ विलय कर लिया।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ वुड का निर्देश पत्र आया जिसे भारत मेँ शिक्षा सुधारों के लिए मैग्नाकार्टा कहा जाता है।

Ø  इसने 1854 में नया डाकघर अधिनियम (पोस्ट ऑफिस एक्ट) पारित किया, जिसके द्वारा देश मेँ पहली बार डाक टिकटों का प्रचलन प्रारंभ हुआ।

Ø  लार्ड डलहौजी के कार्यकाल मेँ भारतीय बंदरगाहों का विकास करके इन्हेँ अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य के लिए खोल दिया गया।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम पारित हुआ।

भारत के वायसराय

Ø  लॉर्ड कैनिंग (1858 ई. से 1862 ई.)

Ø  यह 1856 ई. से 1858 ई. तक भारत का गवर्नर जनरल रहा। यह भारत का अंतिम गवर्नर जनरल था। तत्पश्चात ब्रिटिश संसद द्वारा 1858 में पारित अधिनियम द्वारा इसे भारत के प्रथम वायरस बनाया गया।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ IPC, CPC तथा CrPCजैसी दण्डविधियों को पारित किया गया था। इसके शासन काल की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना 1857 का विद्रोह था।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ लंदन विश्वविद्यालय की तर्ज पर 1857 में कलकत्ता, मद्रास और बम्बई विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई।

Ø  1857 के विद्रोह के पश्चात पुनः भारत पर अधिकार करके मुग़ल सम्राट बहादुर शाह को रंगून निर्वासित कर दिया गया।

Ø  लार्ड कैनिंग के कार्यकाल मेँ भारतीय इतिहास प्रसिद्ध नील विद्रोह हुआ।

Ø  1861 का भारतीय परिषद अधिनियम इसी के कार्यकाल मेँ पारित हुआ।

 

लॉर्ड एल्गिन (1864 ई. से 1869 ई.)

Ø  लॉर्ड एल्गिन एक वर्ष की अल्पावधि के लिए वायसरॉय बना। इसने वहाबी आंदोलन को समाप्त किया तथा पश्चिमोत्तर प्रांत मेँ हो रहे कबायलियोँ के विद्रोहों का दमन किया।

 

सर जॉन लारेंस (1864 ई. से 1869 ई.)

Ø  इसने अफगानिस्तान मेँ हस्तक्षेप न करने की नीति का पालन किया।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ यूरोप के साथ दूरसंचार व्यवस्था (1869 ई. से 1870 ई.) कायम की गई।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ कलकत्ता, बंबई और मद्रास मेँ उच्च न्यायालयोँ की स्थापना की गई।

Ø  अपने महान अभियान के लिए भी इसे जाना जाता है।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ पंजाब का काश्तकारी अधिनियम पारित किया गया।

 

लॉर्ड मेयो (1869 ई. से 1872 ई.)

Ø  इसके कार्यकाल मेँ भारतीय सांख्यिकी बोर्ड का गठन किया गया।

Ø  इसके कार्य काल मेँ सर्वप्रथम 1871 मेँ भारत मेँ जनगणना की शुरुआत हुई।

Ø  इसने कृषि और वाणिज्य के लिए एक पृथक विभाग की स्थापना की।

Ø  लॉर्ड मेयो की हत्या के 1872 मेँ अंडमान मेँ एक कैदी द्वारा कर दी गई थी।

Ø  इसने राजस्थान के अजमेर मेँ मेयो कॉलेज की स्थापना की।

लॉर्ड नाथ ब्रुक (1872 ई. से 1876 ई.)

Ø  नार्थब्रुक ने 1875 में बड़ौदा के शासक गायकवाड़ को पदच्युत कर दिया।

Ø  इसके कार्यकाल प्रिंस ऑफ वेल्स एडवर्ड तृतीय की भारत यात्रा 1875 में संपन्न हुई।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ पंजाब मेँ कूका आंदोलन हुआ।

लार्ड लिटन (1876 ई. से 1880 ई.)

Ø  इसके कार्यकाल मेँ राज उपाधि-अधिनियम पारित करके 1877 मेँ ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया को कैसर-ए-हिंद की उपाधि से विभूषित किया गया।

Ø  1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट पारित किया गया जिसे एस. एन. बनर्जी ने आकाश से गिरे वज्रपात की संज्ञा दी थी।

Ø  लार्ड लिटन एक विख्यात कवि और लेखक था। विद्वानोँ के बीच इसे ओवन मेरेडिथ के नाम से जाना जाता था।

Ø  1878 मेँ स्ट्रेची महोदय के नेतृत्व मेँ एक अकाल आयोग का गठन किया गया।

Ø  लिटन ने सिविल सेवा मेँ प्रवेश की उम्र 21 वर्ष से घटाकर 19 वर्ष कर दी।

Ø  लार्ड रिपन (1880 ई. से 1884 ई.)

Ø  1881 में प्रथम कारखाना अधिनियम पारित हुआ।

Ø  इसने 1882 मे वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट को रद्द कर दिया। इसलिए इसे प्रेस का मुक्तिदाता कहा जाता है।

Ø  रिपन के कार्यकाल मेँ सर विलियम हंटर की अध्यक्षता मेँ एक शिक्षा आयोग, हंटर आयोग का गठन किया गया ।

Ø  1882 मेँ स्थानीय स्व-शासन प्रणाली की शुरुआत की।

Ø  1883 मेँ इलबर्ट बिल विवाद रिपन के ही कार्यकाल मेँ हुआ था।

Ø  लार्ड डफरिन (1884 ई. से 1888 ई.)

Ø  इसके कार्यकाल मेँ तृतीय-बर्मा युद्ध के द्वारा बर्मा को भारत मेँ मिला लिया गया।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की गई।

Ø  लॉर्ड डफरिन के कार्यकाल मेँ अफगानिस्तान के साथ उत्तरी सीमा का निर्धारण किया गया।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ बंगाल (1885), अवध (1886) और पंजाब (1887) किराया अधिनियम पारित किया गया।

लार्ड लेंसडाउन (1888 ई. से 1893 ई.)

Ø  इसके कार्यकाल मेँ भारत का तथा अफगानिस्तान के बीच सीमा रेखा का निर्धारण किया गया जिसे डूरंड रेखा के नाम से जाना जाता है।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ 1819 का कारखाना अधिनियम पारित हुआ।

Ø  ‘एज ऑफ़ कमेट’ बिल का पारित होना इसके कार्यकाल की महत्वपूर्ण घटना है।

Ø  इसने मणिपुर के टिकेंद्रजीत के नेतृत्व मेँ विद्रोह का दमन किया।

लार्ड एल्गिन द्वितीय (1894 ई. से 1899 ई.)

Ø  लॉर्ड एल्गिन के कार्यकाल मेँ भारत मेँ क्रांतिकारी आतंकवाद की घटनाएँ शुरु हो गई।

Ø  पूना के चापेकर बंधुओं द्वारा 1897 मेँ ब्रिटिश अधिकारियोँ की हत्या भारत मेँ प्रथम राजनीतिक हत्या थी।

Ø  इसने हिंदूकुश पर्वत के दक्षिण के एक राज्य की त्रिचाल के विद्रोह को दबाया।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ भारत मेँ देशव्यापी अकाल पड़ा।

लार्ड कर्जन (1899 ई. से 1905 ई.)

Ø  उसके कार्यकाल मेँ फ्रेजर की अध्यक्षता मेँ पुलिस आयोग का गठन किया गया। इस आयोग की अनुशंसा पर सी.आई.डी की स्थापना की गई।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ उत्तरी पश्चिमी सीमावर्ती प्रांत की स्थापना की गई।

Ø  शिक्षा के क्षेत्रत्र मेँ 1904 मेँ विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया गया।

Ø  1904 मेँ प्राचीन स्मारक अधिनियम परिरक्षण अधिनियम पारित करके भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण संस्थान की स्थापना की गई।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ बंगाल का विभाजन हुआ, जिससे भारत मे क्रांतिकारियो की गतिविधियो का सूत्रपात हो गया।

लार्ड मिंटो द्वितीय (1905 ई. से 1910 ई.)

Ø  1906 ई. मेँ मुस्लिम लीग की स्थापना हुई।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ कांग्रेस का सूरत अधिवेशन हुआ, जिसमेँ कांग्रेस का विभाजन हो गया।

Ø  मार्ले मिंटो सुधार अधिनियम 1909 मेँ पारित किया गया।

Ø  इसके काल काल मेँ 1908 का समाचार अधिनियम पारित हुआ।

Ø  इसके काल मेँ प्रसिद्ध क्रांतिकारी खुदीराम बोस को फांसी की सजा दे दी गई।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ अंग्रेजों ने भारत मेँ ‘बांटो और राज करो’ की नीति औपचारिक रुप से अपना ली।

Ø  वर्ष 1908 मेँ बाल गंगाधर तिलक को 6 वर्ष की सजा सुनाई गई।

लार्ड हार्डिंग द्वितीय (1910 ई. से 1916 ई.)

Ø  1911 मेँ जॉर्ज पंचम के आगमन के अवसर पर दिल्ली दरबार का आयोजन किया गया।

Ø  1911 मेँ ही बंगाल विभाजन को रद्द करके वापस ले लिया गया।

Ø  1911 मेँ बंगाल से अलग करके बिहार और उड़ीसा नए राज्य बनाए गए।

Ø  1912 मेँ भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित कर दिया गया।

Ø  प्रथम विश्व युद्ध में भारत का समर्थन प्राप्त करने में लार्ड हार्डिंग सफल रहा।

लार्ड चेम्सफोर्ड (1916 ई. से 1921 ई.)

Ø  इसके काल मेँ तिलक और एनी बेसेंट ने होम रुल लीग आंदोलन का सूत्रपात किया।

Ø  1916 मेँ कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच एक समझौता हुआ, जिसे लखनऊ पैक्ट के नाम से जाना जाता है।

Ø  पंडित मदन मोहन मालवीय ने बनारस मेँ काशी हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना 1916 मेँ की थी।

Ø  खिलाफत और असहयोग आंदोलन का प्रारंभ हुआ।

Ø  अलीगढ विश्वविद्यालय की स्थापना की गई।

Ø  महात्मा गांधी ने रौलेट एक्ट के विरोध मेँ आंदोलन शुरु किया।

Ø  1919 मेँ जलियाँ वाला बाग हत्याकांड इसी के कार्यकाल मेँ हुआ।

Ø  1921 मेँ प्रिंस ऑफ वेल्स का भारत आगमन हुआ।

लार्ड रीडिंग (1921 ई. से 1926 ई.)

Ø  इसके कार्यकाल मेँ 1919 का रौलेट एक्ट वापस ले लिया गया।

Ø  इस के कार्यकाल मेँ केरल मेँ मोपला विद्रोह हुआ।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ 5 फरवरी, 1922 मेँ चौरी चौरा की घटना हुई, जिससे गांधी जी ने अपना असहयोग आंदोलन वापस ले लिया।

Ø  1923 मेँ इसके कार्यकाल मेँ भारतीय सिविल सेवा की परीक्षाएँ इंग्लैण्ड और भारत दोनोँ स्थानोँ मेँ आयोजित की गई।

Ø  किसके कार्यकाल मेँ सी. आर. दास और मोती लाल नेहरु ने 1922 मेँ स्वराज पार्टी का गठन किया।

Ø  दिल्ली और नागपुर में विश्वविद्यालयों की स्थापना हुई।

लार्ड इरविन (1926 ई. से 1931 ई.)

Ø  लॉर्ड इरविन के कार्यकाल मेँ साइमन आयोग भारत आया।

Ø  1928 मेँ मोतीलाल नेहरु ने नेहरु रिपोर्ट प्रस्तुत की।

Ø  गांधीजी ने 1930 मेँ नमक आंदोलन का आरंभ करते हुए दांडी मार्च किया।

Ø  कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन मेँ संपूर्ण स्वराज्य का संकल्प लिया गया।

Ø  प्रथम गोलमेज सम्मेलन 1930 मेँ लंदन मेँ हुआ।

Ø  इसके कार्यकाल मेँ 5 मार्च 1931 को गांधी-इरविन समझौता हुआ।

Ø  लार्ड इरविन के कार्यकाल मेँ पब्लिक सेफ्टी के विरोध मेँ भगत सिंह और उसके साथियों ने एसेंबली मेँ बम फेंका।

   लार्ड विलिंगटन (1931 ई. से 1936 ई.)

Ø  लार्ड विलिंगटन के कार्यकाल मेँ द्वितीय और तृतीय गोलमेज सम्मेलन हुए।

Ø  1932 मेँ देहरादून मेँ भारतीय सेना अकादमी (इंडियन मिलिट्री अकादमी) की स्थापना की गई।

Ø  1934 मेँ गांधी जी ने सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरु किया।

Ø  1935 मेँ गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट पारित किया गया।

Ø  1935 मेँ ही बर्मा को भारत से अलग कर दिया गया।

Ø  लार्ड विलिंगटन के कार्यकाल मेँ भारतीय किसान सभा की स्थापना की गई।

Ø  लार्ड लिनलिथगो (1938 ई. से 1943 ई.)

Ø  1939 ई. मेँ सुभाष चंद्र बोस ने कांग्रेस छोड़कर फॉरवर्ड ब्लॉक नामक एक अलग पार्टी का गठन किया।

Ø  1939 मेँ द्वितीय विश्व युद्ध मेँ शुरु होने पर प्रांतो की कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने त्याग पत्र दे दिया।

Ø  1940 के लाहौर अधिवेशन मेँ मुस्लिम लीग के मुसलमानोँ के लिए अलग राज्य की मांग करते हुए पाकिस्तान का प्रस्ताव पारित किया गया।

Ø  1940 मेँ ही कांग्रेस द्वारा व्यक्तिगत असहयोग आंदोलन का प्रारंभ किया गया।

Ø  1942 मेँ गांधी जी ने करो या मरो का नारा देकर भारत छोड़ो आंदोलन शुरु किया।

लार्ड वेवेल (1943 ई. से 1947 ई.)

Ø  लार्ड वेवेल ने शिमला मेँ एक सम्मेलन का आयोजन किया जिसे, वेवेल प्लान के रुप मेँ जाना जाता है।

Ø  1946 मेँ नौसेना का विद्रोह हुआ।

Ø  1946 मेँ अंतरिम सरकार का गठन किया गया।

Ø  ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने 20 फरवरी 1947 को भारत को स्वतंत्र करने की घोषणा की।

लार्ड माउंटबेटेन (1947 ई. से 1948 ई.)

Ø  लार्ड माउंटबेटेन भारत के अंतिम वायसरॉय थे।

Ø  लार्ड माउंटबेटेन ने 3 जून 1947 को भारत के विभाजन की घोषणा की।

Ø  4 जुलाई, 1947 को ब्रिटिश संसद में भारतीय स्वंत्रता अधिनियम प्रस्तुत किया गया, जिसे 18 जुलाई, 1947 को पारित करके भारत की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी गयी।

Ø  भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम द्वारा भारत के दो टुकड़े करके इसे भारत और पाकिस्तान दो राज्यों में बांट दिया गया।
15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हो गया।

चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (1948 ई. से 1950 ई.)

Ø  भारत की स्वतंत्रता के बाद 1948 में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी को स्वतंत्र भारत का प्रथम गवर्नर जनरल बनाया गया।

 

 

साइमन कमीशन

साइमन कमीशन को वर्तमान सरकारी व्यवस्था, शिक्षा के प्रसार तथा प्रतिनिधि संस्थानों के अध्यनोपरांत यह रिपोर्ट देनी थी कि भारत में उत्तरदायी सरकार की स्थापना कहां तक लाजिमी है तथा भारत इसके लिये कहां तक तैयार है। भारतीयों को कोई प्रतिनिधित्व न दिये जाने के कारण भारतीयों ने इसका बहिष्कार किया।

 

नेहरू रिपोर्ट

  • भारतीय संविधान का मसविदा तैयार करने की दिशा में भारतीयों का प्रथम प्रयास।
  • भारत की औपनिवेशिक स्वराज्य का दर्जा दिये जाने की मांग।
  • पृथक निर्वाचन व्यवस्था का विरोध, अल्पसंख्यकों हेतु पृथक स्थान आरक्षित किये जाने का विरोध करते हुये संयुक्त निर्वाचन पद्धति की मांग।
  • भाषायी आधार पर प्रांतों के गठन की मांग।
  • 19 मौलिक अधिकारों की मांग।
  • केंद्र एवं प्रांतों में उत्तरदायी सरकार की स्थापना की मांग।

 

कांग्रेस का कलकत्ता अधिवेशन- दिसम्बर 1928

  • सरकार को डोमिनियन स्टेट्स की मांग को स्वीकार करने का एक वर्ष का अल्टीमेटम, मांग स्वीकार न किये जाने पर सविनय अवज्ञा आदोलन प्रारंभ करने की घोषणा।

 

कांग्रेस का लाहौर अधिवेशन दिसम्बर- 1929

  • पूर्ण स्वराज्य को कांग्रेस ने अपना मुख्य लक्ष्य घोषित किया।
  • कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आदोलन प्रारंभ करने का निर्णय लिया।
  • 26 जनवरी 1930 को पूरे राष्ट्र में प्रथम स्वतंत्रता दिवस मनाया गया।
  • दांडी मार्च – 12 मार्च-6 अप्रैल, 1930
  • बंगाल में नमक सत्याग्रह प्रारंभ

 

आंदोलन का प्रसार

  • पश्चिमोत्तर प्रांत में खुदाई खिदमतगार द्वारा सक्रिय आंदोलन।
  • शोलापुर में कपड़ा मजदूरों की सक्रियता।
  • धारासाणा में नमक सत्याग्रह।
  • बिहार में चौकीदारी कर-ना अदा करने का अभियान।
  • बंगाल में चौकीदारी कर एवं यूनियन बोर्ड कर के विरुद्ध अभियान।
  • गुजरात में कर-ना अदायगी अभियान।
  • कर्नाटक, महाराष्ट्र एवं मध्य प्रांत में वन कानूनों का उल्लंघन।
  • असम में ‘कनिंघम सरकुलर’ के विरुद्ध प्रदर्शन।
  • उत्तर प्रदेश में कर-ना अदायगी अभियान।
  • महिलाओं, छात्रों, मुसलमानों के कुछ वर्ग, व्यापारी-एवं छोटे व्यवसायियों दलितों, मजदूरों एवं किसानों की आंदोलन में सक्रिय भागेदारी।

 

प्रथम गोलमेज सम्मेलन नवंबर 1930-जनवरी 1931

  • कांग्रेस ने भाग नहीं लिया।
  • गांधी-इरविन समझौता- मार्च 1931
  • कांग्रेस, सविनय अवज्ञा आदोलन वापस लेने तथा द्वितीय गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने हेतु सहमत।

 

कांग्रेस का कराची अधिवेशन -मार्च 1931

  • गांधीजी और इरविन के मध्य हुये दिल्ली समझौते का अनुमोदन, अल्पसंख्यकों के मुद्दे पर अधिवेशन में गतिरोध पैदा हो गया।
  • द्वितीय गोलमेज सम्मेलन -दिसम्बर 1931
  • ब्रिटेन के दक्षिणपंथी गुट द्वारा भारत को किसी तरह की रियासतें दिये जाने का विरोध।
  • अल्पसंख्यकों को संरक्षण दिये जाने के प्रावधानों पर सम्मेलन में गतिरोधान दिसम्बर 1931 से अप्रैल 1934 तक सविनय अवज्ञा आदोलन का द्वितीय चरण।

 

साम्प्रदायिक निर्णय

  • दलित वर्ग के लोगों को प्रथक प्रतिनिधित्व।
  • राष्ट्रवादियों ने महसूस किया कि यह व्यवस्था राष्ट्रीय एकता के लिये गंभीर खतरा है।
  • गांधीजी का आमरण अनशन (सितम्बर 1932) तथा पूना समझौता।

 

भारत सरकार अधिनियम, 1935

  • प्रस्तावित- एक अखिल भारतीय संघ, केंद्र में द्विसदनीय व्यवस्थापिका, प्रांतीय स्वायत्तता, विधान हेतु 3 सूचियाँ- केन्द्रीय, प्रांतीय एवं, समवर्ती।
  • केंद्र में प्रशासन हेतु विषयों का सुरक्षित एवं हस्तांतरित वर्ग में विभाजन।
  • प्रांतीय व्यवस्थापिका के सदस्यों का प्रत्यक्ष निर्वाचन।
  • 1937 के प्रारंभ में प्रांतीय व्यवस्थापिकाओं हेतु चुनाव संपन्न। कांग्रेस द्वारा बंबई, मद्रास, संयुक्त प्रांत, मध्यभारत, बिहार, उड़ीसा एवं पश्चिमोत्तर प्रांत में मंत्रिमंडलों का गठन।
  • अक्टूबर-1939 द्वितीय विश्व युद्ध से उत्पन्न परिस्थितियों के कारण कांग्रेस मत्रिमंडलों ने त्यागपत्र दिये।
  • भारत के इतिहास में 1942 की अगस्त क्रान्ति (August Revolution) एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान रखती है. इस क्रांति का नारा था “अंग्रेजों भारत छोड़ो (Quit India)“और सचमुच ही एक क्षण तो ऐसा लगने लगा कि अब अंग्रेजों को भारत से जाना ही पड़ेगा. द्वितीय विश्वयुद्ध (Second Word War) में जगह-जगह मित्रराष्ट्रों की पराजय से अंग्रेजों के हौसले पहले से ही चूर हो गए थे और उस पर यह 1942 की क्रांति. ऐसा लगने लगा कि अंग्रेजी साम्राज्य अब टूट कर बिखरने ही वाला है. अंग्रेजों ने भारतीयों से सहायता पाने के लिए यह प्रचार किया कि भारतीय स्वयं ही अपने देश के मालिक हैं और उन्हें आगे बढ़कर अपने देश की रक्षा करनी चाहिए क्योंकि भारत पर भी जापानी आक्रमण का खतरा बढ़ गया था. 1942 ई. में जब जापान प्रशांत महासागर को पार करता हुआ मलाया और बर्मा तक आ गया तो ब्रिटेन ने भारत के साथ समझौता कर लेने की बात पर विचार किया. अंग्रेजों को डर था कि कहीं जापान भारत पर भी आक्रमण न कर दे.
  • लेकिन गाँधीजी का विचार था कि अंग्रेजों की उपस्थिति के कारण ही जापान भारत पर आक्रमण करना चाहता है, इसलिए उन्होंने अंग्रेजों को भारत छोड़ने तथा भारतीयों के हाथ में सत्ता सौंपने की माँग की.यदि ब्रिटिश सरकार भारतीयों के हाथ में सत्ता सौंपने के लिए तैयार हो जाती तो भारत युद्ध में सहायता दे सकता था.
  • अंग्रेज इसके लिए तैयार नहीं थे. अतः आन्दोलनकारियों ने अंग्रेजों को भारत छोड़ने की धमकी दी. कई कांग्रेसी नेताओं का विचार था कि जापानी खतरे को देखते हुए इस आन्दोलन का यह सही समय नहीं था. मौलाना आजाद भी गाँधीजी से सहमत नहीं थे. 1942 ई. में वर्धा में कांग्रेस की बैठक हुई और गांधीजी तथा सरदार पटेल के प्रयास से “अहिंसक विद्रोह (Nonviolent protest)” का कार्यक्रम पारित हुआ. पुनः 18 अगस्त, 1942 ई. कोअबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में बम्बई कांग्रेस महासमिति की बैठक हुई जिसमें भारत छोड़ो प्रस्ताव को स्वीकृति दी गई.
  • बहुत बड़े पैमाने पर सामूहिक संघर्ष शुरू करने की बात प्रस्ताव में घोषित की गई थी. सरकार ने जन-संघर्ष के शुरू होने की प्रतीक्षा नहीं की. रातों-रात गाँधीजी और देश के अन्य नेताओं को भी गिरफ्तार कर लिया गया. गाँधीजी को पूना के आगा खां महल में भेज दिया गया. महादेव भाई, कस्तूरबा, श्रीमती नायडू और मीराबेन को भी बंद कर दिया गया. लेकिन नेताओं के जेल चले जाने से भारत चुप नहीं हो गया. “करो या मरो (Do or Die)” का नारा लोगों ने अपना लिया था. हर जगह प्रदर्शन किये जा रहे थे. सारे देश में हिंसक कार्यवाही फूट पड़ी थी. लोगों ने सरकारी इमारतें जला दीं. सारे देश में हड़तालें हो रही थीं और उपद्रव फ़ैल गए थे.वायसराय लिनलिथगो (Viceroy Linlithgow) ने इसका सारा दोष गाँधीजी पर मढ़ दिया. उसने कहा कि गाँधीजी ने हिंसा को निमंत्रण दिया है.
  • इसी दौरान कस्तूरबा की मौत हो गयी और गाँधीजी को भी मलेरिया हो गया. वह गंभीर रूप से बीमार हो गए. भारतीय जनता ने कहा कि उन्हें तत्काल रिहा कर दिया जाए. अधिकारियों ने यह सोचकर कि वह मृत्यु-शैया पर  हैं, उन्हें और उनके साथियों को रिहा कर दिया.
  • हालाँकि अगस्त आन्दोलन/Quit India Movement सफल नहीं हो सका और भारत को स्वतंत्रता नहीं दिला सका. लेकिन फिर भी भारत के अन्य आन्दोलनों की तुलना में यह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण साबित हुआ. इस आन्दोलन ने जन-अन्सतोष को चरम बिंदु पर पहुँचा दिया. यह क्रान्ति अत्याचार और दमन के विरुद्ध भारतीय जनता का विद्रोह था जिसकी तुलना हम वास्तिल के पतन (fall of Bastille) या रूस की अक्टूबर क्रान्ति से कर सकते हैं. अब औपनिवेशिक स्वराज्य की बात बिल्कुल ख़त्म हो गई तथा अंग्रेजों का भारत छोड़कर जाना निश्चित हो गया और हमें पाँच वर्षों के अन्दर ही आजादी मिल गई.

 

 

Pre Questions

 

  1. किसने कहा था कि ‘कांग्रेस केवल सूक्ष्मदर्शी अल्पसंख्या का प्रतिनिधित्व करती है
  • डफरिन
  • कर्जन
  • वेवेल
  • हेस्टिंग्स

 

  1. बंगाल के विभाजन की घोषणा कब और किसने की
  • ’डफरिन
  • कर्जन
  • वेवेल
  • हेस्टिंग्स

 

  1. कांग्रेस अपने पतन की ओर लड़खड़ाती हुई जा रही है’ ये कथन किसका है ?
  • ’डफरिन
  • कर्जन
  • वेवेल
  • हेस्टिंग्स
    1. सुखदेव, भगत सिंह व राजगुरू को फाँसी कब दी गई
  • 11अप्रैल 1931
  • 23 मार्च, 1931 ई.
  • मई 1931
  • जुलाई 1931

 

  1. ‘सीधी कार्रवाई दिवस’ कब मनाया गया—
  • 16 अगस्त, 1946 ई.
  • 10 अगस्त 1945
  • 8 जुलाई 1941
  • 1 अक्टूबर 1946

 

  1. हंटर आयोग की नियुक्ति किस कांड के बाद की गई—
  • जलियांवाला बाग कांड के बाद
  • भारत छोड़ो आन्दोलन के बाद
  • सविनय अवज्ञा आन्दोलन
  • चंपारण आन्दोलन

 

 

 

 

 

 

  1. अर्द्धनग्न फकीर’ महात्मा गाँधी को किसने कहा था—
  • मैकडोनाल्ड
  • आइन्स्टीन
  • रूसवेल्ट
  • चर्चिल ने

 

  1. पाकिस्तान की माँग 1940 ई. को किस अधिवेशन में की गई—
  • लाहौर अधिवेशन,
  • कराची अधिवेसन
  • ढाका अधिवेसन
  • कोलकाता अधिवेसन

 

  1. ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा किसने दिया—
  • चंद्रशेखर आजाद
  • सूर्यसेन
  • एम्.एन राय
  • भगत सिंह ने

 

  1. फीनीक्स फार्म’ की स्थापना किसने की—
  • टॉलस्टॉय
  • टैगोर
  • विवेकानंद
  • महात्मा गाँधी ने

 

 

 

मुख्य परीक्षा प्रश्न

 

  1. स्वतंत्रता आन्दोलन में महात्मा गाँधी के योगदान का परीक्षण करे

2. स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान दलित जातियों की मुक्ति के लिए किये गए रयासों का वर्णन करे