Torts

PAHUJA LAW ACADEMY

Lecture – 1

अपकृत्य का अर्थ एवं परिभाषा

MAINS QUESTIONS

 
  1. अपकृत्य क्या है? इसके आवश्यक तत्व बताइये।
 
  1. दुष्कृति की परिभाषा दीजिये। एवं अपकृत्य का संविदा एवं अपराध से अन्तर स्पष्ट कीजिए।
 
  1. दुष्कृति विधि के उद्भव एवं विकास की संक्षिप्त चर्चा कीजिये। भारत में वह अपनी वर्तमान स्थिति को कैसे पहुँचा।
 
  1. अपकृत्य विधि की निम्नांकित उक्तियों को निर्णीत वादों की सहायता से समझाइयेः-

I. बिना हानि के क्षति

II. बिना क्षति के हानि

 
  1. “कार्य महत्वपूर्ण है, कार्य का हेतु नही”। निर्णय विधि के आधार पर इस कथन की विवेचना कीजिए। इस सिद्धान्त के अपवादों का उल्लेख कीजियो।

 

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Lecture – 1

अपकृत्य का अर्थ एवं परिभाषा

 

विधि के अन्तर्गत व्यक्ति को कई विधिक अधिकार प्रदान किये गये है। साथ ही इन अधिकारों के संरण के लिए उपचार भई उपलब्ध कराये गये है। उपचार विहीन अधिकार अर्थहीन होते है। इसीलिये कहा जाता है कि “जहाँ अधिकार है वहाँ उचार है” (Ubi jus ibi remedium)। जब किसी व्यक्ति के अधिकारों का उल्लंघन होता है तब उपचार के रुप में या तो सक्षम सिविल न्यायालय में वाद लाया जाता है या फिर दाण्डिक कार्यवाही की जाती है। इसी श्रृंख्ला में एक और अनुतोष है अपकृत्य विधि के अन्तर्गत क्षतिपूर्ति का। ऐसे मामलों में व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन अथवा अतिलंघन होता है। यही अपकृत्य विधि की विषय-वस्तु है।

‘अपकृत्य’ शब्द का उद्भव—अपकृत्य को दुष्कृति भी कहा जाता है। वह अंग्रेजी के शब्द “Tort’ का हिन्दी रूपान्तरण है। वस्तुत: यह शब्द फ्रेंच भाषा का है। आग्ल भाषा में इसे ‘Wrong’ तथा रोमन में ‘Delict’ कहा जाता है। शब्द “Tort’ लेटिन शब्द ‘Torts’ से बना है जिसका अर्थ है- अपराधमूलक आचरण ।

परिभाषा— अपकृत्य की विभिन्न विधिवेत्ताओं द्वारा भिन्न-भिन्न परिभाषायें दी गई है। विनफील्ड का कहना है कि अपकृत्य की कोई सारवान, सार्वभौम अथवा संतोषप्रद परिभाषा दिया जाना कठिन है। रतनालाल धीरजलाल का भी यही मत है कि अपकृत्य की परिभाषा देने के अनेक प्रयास किये गये है लेकिन आज तक कोई सार्वभौम परिभाषा नहीं दी जा सकी है।

विनफील्ड के अनुसार– “अपकृत्य का दायित्व एक ऐसे कर्तव्य के उल्लंघन से उद्भूत होता है जिसे प्राथमिक रूप से विधि द्वारा सुनिश्चत किया जाता है और जो जनसाधारण के प्रति होता है तथा इस उल्लंघन का निवारण अधिनिर्धारित नुकसानी के लिए कार्यवाही द्वारा किया जाता है।”

फ्रेजर के अनुसार—

”अपकृत्य किसी व्यक्ति के वैयक्तिक अधिकार का सामान्य रूप से उल्लंघन है। जिससे उसे क्षतिपूर्ति का वाद लाने का अधिकार मिलता है।”

(A tort is an infringement of right of a private individual giving a right of compensation at the suit of the injured party. Fraser)

अण्डरहिल के अनुसार—”अपकृत्य संविदा से भिन्न एक ऐसा कार्य है जो या तो किसी व्यक्ति के पूर्ण अधिकार को अतिक्रमण करता है या किसी व्यक्ति के सापेक्ष अधिकार का अतिक्रमण करता है और उसे क्षति पहुंचाता है या किसी लोक अधिकार की इस प्रकार अवहेलना करता है जिससे किसी व्यक्ति को सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा अधिक हानि पहुंचती है और जिसके परिणामस्वरूप वह क्षतिकर्ता के विरुद्ध क्षतिपूर्ति के लिए वाद लाने का हक़दार हो जाता है।”

रतनलाल धीरजलाल के अनुसार– “यह एक ऐसा सिविल अपकार है जो संविदा से भिन्न होता है तथा जिसका उपचार सिविल न्यायालय में क्षतिपूर्ति का वाद संस्थित करके किया जाता है।”

(Tort is a civil wrong different from contract and remedy for which lies in filing of suit for compensation in a civil court. Ratan Lal Dhiraj Lal]

क्लार्क एवं लिण्डोल के अनुसारः- “अपकृत्य (दुष्कृति) एक ऐसा अपकार है वो संविदा से स्वतंत्र होता है और जिसता संमुचित उचार सामान्य विधि के अन्तर्गत कारवाई करना है”।

अपकृत्य की अपेक्षा परिभाषाओं से उसके निम्नाकिंत तत्व स्पष्ट होते हैः-

I. अपकृत्य एक सिविल बौध (Civil Wrong) है,

II. वह संविदा भंग, व्यास – भंग एवं साम्यिक दायित्वों से भिन्न है,

III. अपकृत्यजनक दायित्व का उद्भव विधि द्वारा पूर्व-निश्चित कर्तव्य भंग से होता है।

IV. विधिक कर्त्तव्य एवं दायित्व सभी व्यक्तियों के प्रति होती है

V. इशका उपचार अधिनिर्धरित क्षतिपूर्ण (Unliquidated damages) के लिए वाद लाना होता है,

तथा

VI. ऐसे विधिक कर्त्तव्यों एवं दायित्वों के उल्लंघन से नुकसानी अर्थात् क्षतिपूर्ति का वाद संश्थित करने का अधिकार मिल जाता है।

 

अपकृत्य के आवश्यक तत्व

a) दोषपूर्ण कार्य किया जाना

b) विधिक क्षति

c) नुकसानी का वाद लाने का अधिकार

1. दोषपूर्ण कार्य किया जाना—अपकृत्य का पहला अनिवार्य तत्व है— कोई दोषपूर्ण कार्य किया जाना अर्थात् किसी व्यक्ति द्वारा अपने पूर्व—निर्धारित कर्तव्यों का भंग किया जाना। जब कोई व्यक्ति अपने पूर्व—निधरित कर्त्तव्यों को भंग करता है तो उससे किसी व्यक्ति के अधिकारों का अतिलंघन अथवा अतिक्रमण होता है। अधिकारों का अतिक्रमण ही दोषपूर्ण कार्य है और यही “अपकृत्य” है।

यहाँ अह उल्लेखनीय है कि ऐसे अधिकारों का “विधिक अधिकार” होना आवश्यक है। विधिक अधिकारों का उल्लन ही अपकृत्य के संदर्भ में दोषपूर्ण कार्य माना जाता है। ऑस्टिन के अनुसार—विधिक अधिकार से अभिप्राय ऐसे अधिकारों से है जो किसी व्यक्ति को विधि द्वारा प्रदत्त होते है और ऐसे अधिकार सम्पूर्ण विश्व के विरुद्ध उपलब्ध रहते है।

2. विधिक क्षति- अपकृत्य का दूसरा आवश्यक तत्व ‘‘विधिक क्षति” है। किसी व्यक्ति का कोई कार्य तभी अपकृत्य माना जाता है जब ऐसे कार्य से किसी अन्य व्यक्ति को कोई विधिक क्षति कारित हुई हो। यह न तो आर्थिक क्षति होती है और न ही वास्तविक क्षेति।

विधिक क्षति से अभिप्राय है किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का अतिलंघन अधवा अतिक्रमण। यह आवश्यक नहीं है कि ऐसे व्यक्ति को कोई आर्थिक या वास्तविक क्षति कारित हो। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का अतिलंघन होना ही विधिक क्षति है। यह “बिना हानि के क्षति” (injuria sine damnum) के सूत्र पर आधारित है।

इस सम्बन्ध में ‘एशबी बनाम व्हाइट’ (1703)2 एल.आर.938 का एक भत्ता प्रकरण है। इसमें वादी को मत देने का अधिकार था लेकिन उसे इस अधिकार से वंचित कर दिया गया था। निर्वाचन में यद्यपि वादी का प्रत्याशी विजयी रहा था, फिर भी इसे वादी के अधिकारों का अतिलंघन मानते हुए विधिक क्षति घोषित किया गया।

3. नुकसानी का वाद लाने का अधिकार — अपकृत्य का तीसरा आवश्यक तत्व है— नुकसानी का वाद लाने का अधिकार। यह तत्व जहाँ अधिकार है वहाँ उपचार है के सूत्र का आधारित है, एशत्री बनाम व्हाइट (1703)2 एल.आर. 938 के मामले में मुख्य न्यायधीश हाल्ट द्वारा इस तत्व की पुष्टि करते हुए यह कहा गया है कि “यदि किसी व्यक्ति को अधिकार दिये गये है तो ऐसे अधिकारोंके संरक्षण के लिए उसे उपचार भी उपलब्ध होने चाहिये। अधिकार एवं उपचार दोनों एक-दूसरे के पर्बाब है। उपचारो के अभाव में अधिकार अर्धहीन है”।

इस सम्बन्ध में नूर मोहम्मद बनाम जियाउद्दीन (ए.आई.आर. 1992 मध्यप्रदेश 244) का एक महत्वपूर्ण मामला है। इसमें लडके की बारात में लडके के पिता एक नर्तकी को साथ ले गया था। लडके के पिता ने लडकी के पिता से नर्तकी के खर्ते की मांग की औऱ यह धमकी दी कि यदि खर्चा नही दिया गया तो बारात लडकी (दुल्हन) को छोडकर लौट जायेगी। ऐसा ही हुआ। बारात दुल्हन को वही छोडकर चली गई। लडकी के पिता ने लडके के पिता के विरुद्ध विवाह के खर्चो, प्रतिष्ठा की हानि आदि के लिए नुकसानी का वाद दायर किया। मध्यप्रदेश उच्च न्यायासय ने वादी के वाद की पुष्टि करते हुए कहा कि नर्तकी के खर्चे की मांग करना, धमकी देना, खर्चा नही मिलने पर दुल्हन को छोडकर चले जाना आदि अपकृत्यपूर्ण कार्य है।

सूबा सिह बनाम दविन्दर कौर (ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 3163) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि उपेक्षा एवं लापरवाही के मामलों में मृत्यु हो जाने पर आपराधिक कार्यवाही के साथ-साथ नुकसानी का सिविल वाद लाया जा सकता है। अपकृत्य विधि में अपकृत्य को सिविल दोष माना गया है। इसमें अपराधिक कार्यवाही के चलते नुकसानी का वाद लाने पर कोई रोक नहीं है।

न्यायालय ने यह भी कहा कि अपकृत्य के मामलों में नुकसानी की कार्यवाही किये जाने की परम्परा लगभग 150 वर्ष पुरानी है।

अपकृत्य एवं संविदा — भंग में

अपकृत्य एवं संविदा-भंग में अन्तर—अपकृत्य संविदा-भंग से भिन्न है। इन दोनों में निम्नांकित अन्तर पाया जाता है

(1) अपकृत्य में किसी व्यक्ति द्वारा उन कर्तव्यों का उल्लंघन किया जाता है जो विधि द्वारा पूर्व-निर्धारित होते है; जबकि संविदा-भंग में किसी पक्ष द्वारा उन शतों का उल्लंघन किया जाता है जो दोनों पक्षकारों में करार द्वारा तय की जाती है।

(2) अपकृत्य में किसी व्यक्ति के ‘लोक लक्षी अधिकारों’ (right in rem) का अतिक्रमण होता है जबकि संविदा-भंग में व्यक्तिलक्षी अधिकारों (right in personam) का अतिक्रमण किया जाता है।

(3) अपकृत्य में अभिनिर्धारित क्षतिपूर्ति (liquidated damages) के लिए वाद लाया जाता है जबकि संविदा-भंग में निर्धारित नुकसानी के लिए।

(4) अपकृत्य में ‘आशय’ अथवा ‘हेतुक (intention or motive) का महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। यदि कोई कार्य दुराशय से नहीं किया जाकर सद्भावनापूर्वक किया जाता है तो वह अपकृत्य की कोटि में नहीं आता; जबकि संविदा-भंग में आशय अथवा हेतुक अर्थहीन होता है।

(5) अपत्य में नुकसानी का उद्देश्य दण्डात्मक होता है जबकि संविदा-भंग में ‘प्रतिकारात्मक’।

अपकृत्य एवं अपराध में अन्तर

अपकृत्य एवं अपराध में अन्तर —अपकृत्य एव अपराध यद्यपि एक जैसे लगते है लेकिन इन दोनों में भी अन्तर है। यह अन्तर निम्नलिखित है।

(1) अपकृत्य एक “वैयक्तिक दोष” होता है। इसमें किसी व्यक्ति को हानि अथवा क्षति होती है और वह ऐसी क्षति की पूर्ति के लिए वाद ला सकता है। जबकि अपराध सम्पूर्ण समाज के विरुद्ध अपराध माना जाता है और इसमें कार्यवाही राज्य द्वारा की जाती है।

(2) अपकृत्य एक “सिविल दोष” (civil wrong) होता है। इसके लिए सिविल न्यायालय में नुकसानी का वादं लाया जाता है जबकि अपराध एक दण्डनीय कृत्य होता है। इसमें अभियुक्त को कारावास के दण्ड से दण्डित किया जाता है।

(3) अपकृत्य के लिए कार्यवाही सिविल न्यायालय में की जाती है जबकि अपराध के लिए दाण्डिक न्यायालय में अभियोजन चलाया जाता है।

(4) अपकृत्य का मुख्य उद्देश्य पीडित पक्षकार को दोपी पक्षकार से क्षतिपूर्ति दिलाना है जबकि अपराध विपयक मामलों में मुख्य उद्देश्य अभियुक्त को दण्डित कर समाज में अपराधों की रोकथाम के लिए भय व्याप्त करना है।

‘केशव बनाम मनीउद्दीन’ (1908)13 सी.डब्ल्यू.एन.50 के मामले में यह कहा गया है कि आक्रमण, प्रहार, मान-हानि, न्यसेन्स, उपेक्षा, अनवधानता आदि अपकृत्य एवं अपराध दोनों कोटि में आते है। इनमें दोनों प्रकार की कार्यवाही की जा सकती है।

अपकृव्य विधि क उक्तिया:Maxims of Law of Torts

I. बिना हानि के क्षति (injuria Sine damnum)

II. बिना क्षति के हानि (damnum sine injuria)

(1) बिना हानि के क्षति (Injuria sine damnum) अपकृत्य विधि में इस सूत्र का बड़ा महत्व है। वस्तुतः यही सूत्र अपकृत्य का आधार एवं वाद-योग्य है। अपकृत्य विधि का यह सामान्य सिद्धान्त हैं कि किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन अधवा अतिलंघन वाद योग्य होता है। जिस व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन होता है वह व्यक्ति उस व्यक्ति के विरुद्ध नुकसानी अर्थात् क्षतिपूर्ति का वाद ला सकता है जिसके द्वारा अधिकारों का उल्लंघन किया गया है; चाहे ऐसे उल्लंघन से कोई आर्थिक क्षति हुई हो या नहीं। यही ‘बिना हानि के क्षति’ (injuria sine damnum) के सत्र का सार है। सरलत्तम शब्दों में यह कहा जा सकता है कि यह सूत्र ऐसे व्यक्ति को नुकसानी का वाद लाने का अधिकार प्रदान करता है जिसके विधिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है। इसमें आर्थिक क्षति का होना आवश्यक नहीं है।

यह सूत्र तीन शब्दों से मिलकर बना है

I. injuria अर्थात् क्षति या विधिक अधिकारों का उल्लंघन;

II. sino अधति बिना; एवं

III. Annum अर्थात हानि

इस प्रकार इन तीनों शब्दों का मिलाजुला अनी क्षति बिना हानि के भी अनुयोज्य (actionable) अर्था हुआ — ‘बाद हानि के क्षति’। ऐसी क्षति बिना हानि के भी अनुयोज्य (actionable) अर्थात् बाद योग्य है। इसके लिए आवश्यक मात्र किसी व्यक्ति विधिक अधिकारों का उल्लंघन होना है। इसमें आर्थिक हानि का होना आवश्यक नही है।

इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। ‘ख’, ‘क’ के उधान में ‘क’ की अनुमति के बिना प्रवेश करता है और जलाशय का आनन्द उठाता है। यद्यपि ‘ख’ के इस कृत्य से ‘क’ को कोई आर्थिक वास्तविक हानि नही होती है फिर भी क, ख के विरुद्ध नुकसानी का वाद ला सकता है क्योंकि ‘ख’ के इस कृत्य से ‘क’ के विधिक अधिकारों का उल्लंघन हुआ है।

इस सम्बन्ध में ‘एश बी बनाम व्हाइट’ (1703)2 एल.आर.938) का एक महत्त्वपर्ण मामला है। इसमें वादी आइलेसवरी निगम का निवासी था तथा प्रतिवादी निर्वाचन अधिकारी । सन् 1701 में हुए संसदीय चुनावों में वादी को मत देने का अधिकारी था लेकिन प्रतिवादी ने वादी को मत देने से वंचित कर दिया। यद्यपि इस चुनाव में वादी का प्रत्याशी विजयी रहा था तथा वादी के मत नहीं देने से उसे कोई नुकसान नहीं हुआ था फिर भी वादी द्वारा प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद दायर किया गया। वादी का यह तर्क था कि उसे मताधिकार से वंचित कर देने से उसके विधिक अधिकार का उल्लंघन हुआ है अतः वह क्षतिपूर्ति पाने का हक़दार है। जबकि प्रतिवादी की ओर से यह कहा गया कि वादी के मत नहीं देने से उसे कोई हानि नहीं हुई है इसलिये वह नुकसानी पाने का हकदार नहीं है। न्यायालय ने प्रतिवादी के तर्क को नकारते हुए वादी का वाद डिक्री कर दिया मुख्य न्यायाधीश लार्ड हॉल्ट द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि -“प्रत्येक विधिक अधिकार के अतिक्रमण मे हानि होती है चाहे उससे किसी को एक पेनी को भी नुकसान न हो। हानि केवल धन की ही नहीं होती है। किसी व्यक्ति के विधिक अधिकार में व्यवधान उत्पन्न होना स्वयं में एक हानि है। ऐसी हानि अपने आपमें अनुयोज्य अर्थात् वाद योग्य है।”

ऐसा ही एक और मामला आगरा म्युनिसिपल बोर्ड बनाम अशर्फीलाल [(1921)1 आई.एल.आर. 44 इलाहाबाद 202] का है। इसमें वादी मतदाता सूची में अपना नाम दर्ज कराने का हक़दार था लेकिन लापरवाही के कारण मतदाता सूची में उसका नाम अंकित नहीं किया जा सका जिससे वह मतदान करने से वंचित रह गया। न्यायालय ने इसे वादी के विधिक अधिकारों का अतिलंघन मानते हुए उसे क्षतिपूर्ति पाने का हकदार ठहराया। न्यायालय ने कहा- यदि कोई व्यक्ति निर्वाचक नामावली (Voterlist)में अपना नाम सम्मिलत कराने का हक़दार है किन्तु लापरवाही के कारण उसका नाम निर्वाचक नामावली में सम्मिलित किये जाने से रह जाता है जिसके परिणामस्वरूप वह मतदान नहीं कर पाता है तो ऐसा व्यक्ति नुकसानी के लिए वाद ला सकता है चाहे उसे किसी प्रकार की हानि नहीं हुई हो।

एक और अन्य मामला पुरुषोत्तमदास प्रभुदास बनाम बाई दही’ (ए.आई.आर. 1940 बम्बई 205) का है। इसमें प्रतिवादी ने एक ही क्षेत्र में वादी के मन्दिर के नाम का नया मन्दिर बनाकर भेंट व बलि स्वीकार करना प्रारम्भ कर दिया था। न्यायालय ने इसे वादी के विधिक अधिकारों का अतिक्रमण माना और उसे क्षतिपूकर्ति पाने का हक़दार ठहराया।

जहाँ तक नुकसानी की मात्रा का प्रश्न है, उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि नुकसानी की मात्रा का निर्धारण करते समय क्षतिग्रस्त पक्षकार की सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखा जाना चाहिए। (धरणीधर पण्डा बनाम स्टेट ऑफ उडीसा, ए.आई.आर. 2005 उड़ीसा 36)

ठीक ऐसा ही मत ‘बिन्द्रा देवी चौहान बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश (ए.आई.आर. 2006 हिमाचल प्रदेश 91) के मामले में अभिव्यक्त किया गया है। इसमें नुकमानी की मात्रा का निर्धारण करते समय बादी की मानसिक पीड़ा, असुविधा व अन्य क्षति को ध्यान में रखे जाने की अनुशंसा की गई है।

(2) बिना क्षति के हानि (damnum sine injuria)— “बिना क्षति के हानि” (damnum sine injuria) का सूत्र बिना हानि के क्षति (injuria sine damnum) से बिल्कुल विपरीत है। इसमें बिना क्षति के हानि के अनुयोज्य (actionable) अर्थात वाद योग्य नहीं माना गया है। इसका मुख्य कारण है कि ऐसे मामलों में किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होता है। जब तक किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का अतिक्रमण नहीं होता है तब तक वह अपकृत्य विधि के अधीन नुकसानी का बाद नही ला सकता है। ऐसे मामलों में हानि महत्त्वपूर्ण नहीं होती है। किसी व्यक्ति को कितनी ही आर्थिक हानि होने पर भी यदि उसके किसी विधिक अधिकार का अतिक्रमण नहीं होता है। तो वह नुकसानी का वाद नहीं ला सकता। यही इस सूत्र का सार एवं अर्थ है।

उदाहरणार्थ—जयपुर के जौहरी बाजार में ‘क’ कपडे का व्यवसाय करता है और उसका व्यवसाय अच्छै चलता है। उसी बाजार में ‘ख’ भी ऐसे ही कपडों का व्यवसाय प्रारंभ करता है जिससे ‘क’ की ग्राहकी कम हो जाती है और उसे आर्थिक नुकसान होता है। ‘क”ख’ के विरुद्ध नुकसानी का वाद नही ला सकता क्योंकि उसके किसी विधिक अधिकार का अतिक्रमण नहीं हुआ है; यद्यपि उसे आर्थिक हानि अवश्य हुई है।

इस सम्बन्ध में ‘ग्लूसेस्टर ग्रामर स्कूल’ [(1410)वाई.बी.एच.11एच.4 एफ 471] का एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें वादी एक स्थान पर अपना स्कूल चला रहा था। प्रतिवादी ने भी उसी स्कूल के पास अपना एक स्कूल प्रारम्भ कर दिया जिससे वादी-स्कूल के कई विद्यार्थी प्रतिवादी के स्कूल में आ गये। इस पर वादी को अपना स्कूल चलाने के लिए शुल्के में काफी कमी करनी पड़ी जिससे उसको भारी आर्थिक हानि हुई। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद दायर किया। न्यायालय ने वादी का वाद खारिज करते हुए कहा कि प्रतिवादी को भी स्कूल खोलने का अधिकार था। उसके स्कूल खोलने से वादी के किसी भी विधिक अधिकार का अतिक्रमण नहीं होता है।

‘चेसमोर बनाम रिचर्ड्स’ (1859 एन एच एल सी 349) का ऐसा ही एक अन्य प्रकरण है। इसमें वादी एक मिल का मालिक था तथा पिछले छः वर्षों से अपनी मिल के लिए एक जलधारा से पानी ले रहा था। प्रतिवादी ने वादी के पड़ौस की अपनी भूमि पर एक गहरा कुआ खुदवाया जिससे वादी को जलधारा से पानी मिलना बन्द हो गया। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद सांस्थित किया जो न्यायालय द्वारा यह कहते हुए खारिज कर दिया कि इससे वादी के किसी विधिक अधिकारी का अतिक्रमण नहीं होता है। क्योंकि प्रतिवादी को अपनी जमीन पर कुआ खुदवाने का अधिकार था।

 

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Lecture – 1

अपकृत्य का अर्थ एवं परिभाषा

PREE QUESTIONS

 
  1. अवकृत्य का अर्थ है

(a) एक दोष

(b) एक विधिक सिविल दोष

(c) एक विधिक दोष

(d) ये सभी

 
  1. दुष्कृति स्थापित करने के लिये आवश्यक नही है?

(a) दोषपूर्ण कार्य/कृत्य

(b) विधिक नुकसानी

(c) विधिक उपचार

(d) दण्ड

 
  1. जब तक किसी के अधिकारों का उल्लंघन न हो, अपकृत्य विधि में वाद नही लाया जा सकता चाहे भले ही हानि कारित हुयी हो यह किसके द्वारा अभियुक्त किया जाता है?

(a) डैमनम साइन इन्जुरिया

(b) इन्जुरिया साइन डैमनों

(c) इन्जुरिया नलियस परसोना

(d) इन्जूरिया डैमनम नलियस

 
  1. अपकृत घटित होने पर उपचार है?

(a) निरोधात्मक दण्ड अपकारकर्त्ता को देना

(b) अपकारकर्त्ता को सुधार

(c) मुद्रा मं क्षतिपूर्ति करना

(d) उपरोक्त में से कोई नही

 
  1. “जहां अधिकार है वहा उपचार भी है” का अर्थ है?

(a) कोई ऐसा दोष नही है जिसका उपचार न हो

(b) प्रत्येक विधि में उपचार की व्यवस्था है

(c) उपचार सदैव होता है चाहे भले कोई दोष न हुआ हो

(d) प्रत्येक दोष के लिये सदैव उपचार उपलब्ध है

 
  1. वैगन माउण्ड का वाद सम्बन्धित है?

(a) युक्तियुक्त पूर्वानुमान के मापदण्ड से

(b) प्रतयक्षता के मापदण्ड से

(c) उपेक्षा से

(d) उपताप से

 
  1. सामान्यतः दुष्कृति के अन्तर्गत की गयी कार्यवाही में यह बचाव नही है?

(a) सहमति

(b) अंशदायी उपेक्षा

(c) तथ्य की भूल

(d) अपरिहार्य दुर्घटना

 
  1. अपकृत्यकारी षडयन्त्रपूर्ण घटना होती है जहाँ

(a) दो या दो से अधिक व्यक्ति विधिक साधनों से किसी तीसरे व्यक्ति को तकलीफ पहुंचाते है

(b) दो या दो से अधिक व्यक्ति विधि – विरुद्ध साधनों से किसी तीसरे व्यक्ति को तकलीफ पंहुचाते है

(c) दो या दो से अधिक व्यक्ति विधिपूर्ण प्रकार तीसरे व्यकित की करते है।

(a) दो या दो से अधिक व्यक्ति विधिपूर्ण साधनों से व्यक्ति को नुकसान नही पहुँचाते है।

 
  1. अपकृत्य का अर्थ है — “एक सिविल दोष जो केवल संविदा भंग अथवा न्यास भंग नही है। यह परिभाषा दी गयी है।

(a) सामण्ड द्वारा

(b) फ्रेजर द्वारा

(c) बिनफील्ड द्वारा

(d) अण्डरहिल द्वारा

 
  1. अपकृत्य विधि की एक विशिष्ट शाखा है जिसका उद्रव हुआ है

(a) अमेरिका में

(b) फ्रान्स में

(c) भारत में

(d) इग्लैण्ड में

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Lecture – 2

अपकृत्य विधि का उदभव स्वं विकास

 

भारत में अपकृत्य विधि के उद्भव का इतिहास सन् 1726 के चार्टर से जुडा हुआ है। सन् 1726 के चार्टर के अन्तर्गत कलकत्ता, बम्बई एवं मद्रास के प्रेसीडेन्सी नगरों में आंग्ल न्यायालयों की स्थापना की गई थी जिन्हे ‘मेयर कोर्ट्स’ के नाम से जाना जाता था। ये न्यायालय “कॉमन लॉ” के अधीन कार्य करते थे। भारत में भी कॉमन लॉ को ही लागू किया गया था लेकिन न्यायालयों को वह निदेश थे कि भारत की परिस्थितियों के अनुकूल ही कॉमल लॉ (Common law) को लागू किया जाये। कॉमन लॉ को लागू करने में साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्त-करण (equity, justice and good conscious) के सिद्धान्तों का अनुसरण किया जाता था।

अपकृपया विधि भी कॉमन लॉ का एक अभिन्न अंग मानी जाती रही है। भारत में भी इसे इसी संदर्भ में लागू किया गया था लेकिन इतना अवश्य ध्यान रखा जाता था कि यह भारतीय परिवेश में अर्थात् भारत की परिस्थितियों, रीति-रिवाजों एवं परम्पराओं के अनुरुप लागू हो।

‘बाघेला बनाम मोदीन’ (1887)1बिम्बई 551 के मामले यह अभिनिर्धारित किया गया था कि- ”साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्त:करण के सिद्धान्तों का अर्थ इंग्लैण्ड की सामान्य विधि के नियमों के अनुसार लगाया जाये; किन्त भारत की परिस्थितियों एवं रीति-रिवाजों के अनुरूप”।

आगे चलकर “नवल किशोर बनाम रामेश्वर” (ए.आई.आर.1955 इलाहाबाद 591) के मामले में यह कहा गया कि- इंग्लैण्ड की अपकृत्य विधि के नियमों को भारतीय परिवेश में अर्थात यहाँ की परम्पराओं, रीतिरिवाओं एवं परम्पराओं के अनुरूप लागू किया जाना चाहिये।

इस प्रकार भारत में अपकृत्य विधि की प्रयोज्यता आंग्ल विधि की देन है। सन् 1726 से आज तक भारतीय न्यायालयों में यह विधि प्रयोज्य होती रही है। लेकिन इसके विकास की गति अत्यन्त धीमी है। इसके निम्नांकित कारण हैः-

(1) विधि का संहिताबद्ध (codified) नहीं होना;

(2) विधि की अनभिज्ञता (ignorance of law);

(3) निर्धनता (poverty);

(4) राजनैतिक इच्छा शक्ति का अभाव; तथा

(5) व्ययसाध्य एवं विलम्बकारी न्याय व्यवस्था।

विधि का संहिताबद्ध नहीं होना— भारत में अपकृत्य विधि के विकास की धीमी गति का मुख्य कारण इसका संहिताबद्ध नहीं होना है। संहिताबद्ध विधि नहीं होने से न्यायालयों के समक्ष सदैव अनिश्चितता की स्थिति बनी रहती है। यह सुनिश्चित नही है कि कौन सा कार्य अपकृत्य की परिभाषा में आता है और कौन सा नहीं। इसका विनिश्चय या तो पूर्व दृष्टान्तों (precedents) के आधार पर किया जाता है या फिर प्रत्येक मामले की परिस्थितियों के आधार पर। भारत में आज भी यह कॉमन लॉ के परिप्रेक्ष्य में देखी जाती है।

‘ईस्टर्न एम.सी.लि. बनाम प्रीमियम ऑटो लि.'[1962)65 बम्बई एल,आर, 183] के मामले में यह कहा गया है कि—”भारतीय न्यायालयों में अपकृत्य विधि को अभी भी साम्य, न्याय एवं शुद्ध अन्त:करण के सिद्धान्तों के आधार पर लागू किया जाता है।”

लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि अब भारत में भी यह विधि धीरे-धीरे प्रचलन में आने लगी है। खास तौर से चिकित्सीय लापरवाही (Medical negligence) के अनेक मामलों में अपकृत्य विधि को लागू किया गया है।

“आर.पी.शर्मा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान’ (ए.आई.आर.2002 राजस्थान 101); ‘शिशिर रंजन बनाम स्टेट ऑफ त्रिपुरा’ (ए.आई.आर.2002 गुवाहाटी 102), ‘श्रीमति भोली देवी बनाम स्टेट ऑफ जम्मू एण्ड कश्मीर’ (ए.आई.आर.2002 जम्मू एण्ड कश्मीर65) तथा मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग बनाम स्टेट ऑफ मध्यपदेश’ (एआई आर 2001 मध्यप्रदेश 17) आदि मामलों में अपकृत्य विधि के अन्तर्गत ही चिकित्सीय लापरवाही के कारण प्रतिकर के आदेश दिये गये है।

इस प्रकार ‘मांगीलाल बनाम माणकचन्द्र’ (ए.आई.आर. 2002 एन ओ सी 215 मध्यप्रदेश) के मामले में विद्वेषपूर्ण अभियोजन के लिए तथाएस.एन.एम.अब्दी बनाम प्रफुल्ल कुमार महन्ता’ (ए.आई.आर 2002 उडीसा 75) के मामले में मानहानिकारक प्रकाशन के लिए प्रतिकर के आदेश अपकृत्य विधि के अधीन ही पारित किये गये है।

विधि एवं अधिकारों की अनभिज्ञता— अपकृत्य विधि के विकास के मार्ग की दूसरी बाधा जन साधारण की विधि एवं अधिकारों की अनभिज्ञता है। यहाँ के अधिकांश लोग अशिक्षित एवं निरक्षर है। उन्हें न तो देश की विधियों का ज्ञान है और न ही अपने अधिकारों का। यही कारण है कि अपने अधिकारों का अतिक्रमण होने पर भी वे न्यायालय में दस्तक नही दे पाते है।

नोटः- संविधान के अनुच्छेद 39क में निर्धन व्यक्तियों के लिए निःशुल्क विधिक सहायता की व्यवस्था की गई है

‘लोक हित वाद’ (Public Interest litigation) की अवधारणा ने भी अब अपकृत्य विधि की प्रयोजत्यता को आगे बढाने में काफी सहयोग किया है।

अपकृटय विधि के अन्तर्गत किसी मामले में कार्य का ‘हेतु’ नही बल्कि कार्य महत्वपुर्ण है

अपकृत्य विधि के अन्तर्गत कार्य को महत्व प्रदान किया गया है, हेतु को नही यदि किसी कार्य से किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन होता है तो ऐसे कार्य को अनुयोज्य (actionable) अर्थात वाद योग्य जायेगा, चाहे उसका हेतु (motion) कुछ भी रहा हो। अपकृत्य विधि में हेतु का महत्वपूर्ण स्थान नही है। किसी कार्य को करने का हेतु अच्छा होने पर भी यदि उससे किसी व्यक्ति के विधिक अधिकारी का अतिक्रमण होता है तो वह अपकृत्य विधि के अन्तर्गत अनुयोज्य होगा।

हेतु, आशय अथवा उद्देश्य का महत्त्व आपराधिक अर्थात् दाण्डिक विधि में है। आपराधिक विधि का यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त अथवा सूत्र है कि— अपराध के गठन के लिए दूषित मन होना आवश्यक है अर्थात् स्वयं किसी कृत्य से अपराध का गठन नही होता है, इसके लिए आपराधिक मनःस्थिति का होना आवश्यक है। (Actus non facit reum nisi men sir rea) इस सूत्र से स्पष्ट है कि मानसिक तत्व अर्थात् हेतु, दुराशय, आशय, उद्देश्य, लक्ष्य, प्रेरणा आदि केवल अपराध के गठन के लिए सारभूत है, अपकृत्य के लिए नही। अपकृत्य के लिए जो कुछ आवश्यक है वह है विधिक अधिकारों का उल्लंघन। इसे हम एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर सकते है।

एक फार्म में ‘ख’, ‘क’ की अनुमति के बिना प्रवेश करता है और उस फार्म में बने जलाशय का आनन्द उठाता है जिससे ‘क’ को कोई हानि नहीं होती है। ‘ख का वह कृत्य अपकृत्य विधि के अन्तर्गत अनुयोज्य होगा क्योंकि ‘ख’ के इस कृत्य से ‘क’ के विधिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ है। यहाँ ‘ख’ का आशय अथवा हेतु नहीं देखा जायेगा। लेकिन यदि ‘ख’ के विरुद्ध आपराधिक अभियोजन चलाना है तो निश्चित ही ‘ख’ के हेतु अर्थात आशय को देखना होगा। यदि ‘ख’ का आशय ‘क’ के फार्म में कोई अपराध कारित करने का रहा है तो वह आपराधिक अतिचार (criminal trespass) के लिए अभियोजित किया जायेगा, अन्यथा नहीं।

इस सम्बन्ध में ‘मेयर ऑफ ब्रेडफोर्ड कॉरपोरेशन बनाम पिकिल्स’ (1895) ए.सी. 587 का एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इस मामले में प्रतिवादी किसी बात को लेकर वादी से नाराज था। प्रतिवादी ने अपनी भूमि में नलकूप बनाया ताकि वादी के कुए को पानी सूख जाये। इस पर वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद संस्थित किया जो न्यायालय द्वारा यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि इससे वादी के किसी विधिक अधिकार का अतिक्रमण नहीं हुआ है। प्रतिवादी को अपनी भूमि में नलकूप बनाने का अधिकार है चाहे उसका दुराशय ही क्यों न हो। लार्ड एशबर्न ने यह कहा कि— “हेतु का महत्त्व केवल अपराध के गठन में है, अपकृत्य में नहीं। यदि कोई व्यक्ति अच्छे हेत से ही किसी अन्य व्यक्ति के विधिक अधिकारों का अतिलंघन करता है तो अपकृत्य विधि के अन्तर्गत उसके लिए। नुकसानी का वाद लाया जा सकेगा। इसके विपरीत यदि कोई व्यक्ति बुरे हेतु से ऐसा कोई कार्य करता है जिससे किसी के विधिक अधिकारों का अतिलंघन नहीं होता है तो उसके विरुद्ध नुकसानी का वाद नहीं लाया जा सकेगा।”

ऐसा ही एक और मामला ‘विल्किसन बनाम डाउन्टन’ (1897 क्यू.बी. 57) का है। इसमें प्रतिवादी ने वादिया से मजाक करने की दृष्टि से उसे यह मिथ्या सूचना दी कि उसका पति दुर्घटनाग्रस्त हो गया है और वह अस्पताल में है। इस सूचना से वादिया को गहरी मानसिक वेदना हुई जिसके परिणामस्वरूप वह बीमार पड़ गई और उसके बाल सफेद हो गये। वादिया ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद संस्थित किया। प्रतिवादी की ओर से बचाव में यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि उसने तो केवल मजाक किया था, उसका आशय वादिया को क्षति पहुँचाने का नहीं था। न्यायालय ने प्रतिवादी के तर्क को नहीं माना और कहा कि प्रतिवादी अपने मजाक के स्वाभाविक परिणाम को जानता था और उसी के कारण वादिया। को क्षति कारित हुई है इसलिये वह नुकसानी के लिए उत्तरदायी है। न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया कि अपकृत्य के मामलों में आशय अथवा हेतु का कोई महत्व नहीं है।

‘गुइले बनाम स्वान’ (1882)19 जॉन्स 3811 का एक और अच्छा प्रकरण है। इसमें प्रतिवादी ने एक गुब्बारे में बैठकर उड़ान भरी थी लेकिन किन्ही अपरिहार्य कारणों से उसे वादी के उद्यान में उतरना पड़ा। प्रतिवादी को देखने के लिए कई लोग वादी के उद्यान में घुस आये जिससे वादी के उद्यान को काफी क्षति पहुंची। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद संस्थित किया। प्रतिवादी की ओर से यह तर्क दिया गया। कि उसका आशय वादी को क्षति पहुंचाने का नहीं था, उसे तो संयोगवश अथवा अपरिहार्य कारणों से वादी के उद्यान में उतरना पड़ गया था। न्यायालय ने इस तर्क को नहीं माना। और इसे प्रतिवादी के कार्य का स्वाभाविक परिणाम मानते हुए उसे नुकसानी के लिए उत्तरदायी ठहराया। न्यायालय ने यह भी कहा कि अपकृत्य विधि में आशय या हेतु का कोई विशेप स्थान नहीं है।

एक अन्य प्रकरण ‘साउथ वेल्स माइनर्स फेडरेशन बनाम ग्लोमोर्गन कोल कं.'(1950 ए.सी.239) का है। इसमें वादी कोयले की खान का स्वामी था तथा प्रतिवादी श्रमिकों की एक यूनियन। प्रतिवादी यूनियन ने वादी के खानकर्मियों को छुट्टी के अधिकार की मांग करने के लिए उत्प्रेरित किया जिसे वादी ने अपने व कर्मचारियों के बीच निष्पादित संविदा का भंग माना और प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद दायर किया। प्रतिवादी की ओर से यह तर्क दिया गया कि उसका उद्देश्य मजदूरी नियत कर कोयले की कीमतों को नियंत्रित करने का होने से अच्छा था। लेकिन न्यायालय ने प्रतिवादी का तर्क नहीं माना और कहा कि प्रतिवादी वैध संविदा को भंग कराने के अपकृत्य के लिए उत्तरदायी है चाहे उसका उद्देश्य कितना ही अच्छा क्यों न रहा हो।

‘एलन बनाम फ्लड’ [(1998) ए.सी.1] के मामले में यह कहा गया है कि—“अपकृत्य विधि में हेतु का कोई स्थान नहीं है। हेतु असंगत है क्योंकि कोई भी कार्य केवल इसलिये अपकृत्य नहीं हो जाता कि वह दुराशय अथवा विद्वैष—भाव से किया गया था। न्यायालय कार्य देखता है, उसके हेतु को नहीं”।

उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट है कि अपकृत्य विधि में ‘कार्य’ महत्त्वपूर्ण है; हेतु नहीं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अपकृत्य विधि में ‘कार्य'(act) अनयोज्य है; हेतु’ (moive) नहीं।

अपवाद—अपकृत्य विधि के उपरोक्त नियम के कुछ अपवाद भी है अर्थात निम्नांकित मामलों में कार्य के साथ हेतु को भी ध्यान में रखा जाता है

(i) विद्वैपपूर्ण अभियोजन (Malicious prosecution)

(ii) मान हानि (Defamation);

(iii) पड्यंत्र (Conspiracy);

(iv) क्षतिकारक मिथ्याव्यपदेशन (Injurious mis-representation)।

(v) न्यूसेन्स (Nuisance) आदि।

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Lecture – 3

कठोर, दायित्व का सिद्धान

Doctrine of strict liability

MAINS QUESTIONS

 
  1. रिलेण्ड बनाम फ्लेचर के मामले में निर्धारित कठोर था सम्पूर्ण दायित्व के सिद्धान्त की व्याख्या कीजिये। इस सिद्धान्त के अपवाद भी बताइये।
 
  1. कठोर दायित्व के सिद्धान्त को लागू होने के लिए कौन सी आवश्यक शर्ते है? कठोर दायित्व के मामले में बचाव के क्या आधार हो सकते है?
 
  1. क्षति की दूरस्थता आपने के लिए परीक्षण ‘वेगन माउण्ड’ औऱ ‘रि पेलिमिस’ मामलों मंं स्थापित किये गये थे। आपकी दृष्टि में कौन सा परीक्षण अधिक उपय़ुक्त है?
 
  1. विधि में किसी घटना के तात्कालिक कारणों पर विचार किया जाता है, दूरवर्ती कारणों पर नही (In Jurenon remota causa sed proxima spectator) इस सूत्र की व्याख्या करे।
 
  1. क्षति की दूरस्थता के सिद्धान्त को समझाइये तथा इस सम्बन्ध में निर्णय विधि सहित प्रत्यक्ष कारण की कसौटी तथा पूर्वानुमान कसौटी की पूरी तरह विवेचना कीजिये।
 

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Lecture – 3

कठोर, दायित्व का सिद्धान

Doctrine of strict liability

 

अपकृत्य विधि के अन्तर्गत दायित्व मुख्य रूप से दो प्रकार के माने गये हैं सामान्य अथवा साधारण दायित्व तथा कठोर अथवा पूर्ण दायित्व। सामान्य दायित्व के अधीन साधारणतया वादी को दो बातें साबित करनी होती हैं

(1) क्षति अथवा नुकसानी, एवं

(2) प्रतिवादी की उपेक्षा।

सामान्य दायित्व के अधीन प्रतिवादी की उपेक्षा साबित किये बिना नुकसानी का वाद नहीं लाया जा सकता। लेकिन कई मामले ऐसे होते हैं जिनमें वादी को क्षति अथवा नुकसान तो कारित होता है लेकिन उनमें प्रतिवादी की उपेक्षा को साबित कर पाना अत्यन्त कठिन होता है। ऐसे मामलों में प्रतिवादी सामान्यतया अपने आशय एवं उपेक्षा के अभाव का बचाव लेता है। यही कठोर दायित्व का सिद्धान्त उद्भूत हो जाता है अर्थात् प्रभाव में आ जाता है। यह सिद्धान्त प्रतिवादी के आशय एवं उपेक्षा के बचाव को निष्प्रभावी कर देता है।

कठोर दायित्व का सिद्धान्त यह कहता है कि— “आशय एवं उपेक्षा के अभाव में भी किसी व्यक्ति को अपकृत्य के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है।” कठोर दायित्व के सिद्धान्त की पृष्ठभूमि में मूल भाव यह निहित है कि संकटापन्न अथवा खतरनाक अथवा जोखिमभरी वस्तुओं का साबन्ध व्यक्ति पर विशेष सावधानी बरतने का दायित्व अथवा भार होता है। आग, गैस, विस्फोटक पदार्थ, पेट्रोल, विप, जलनशील पदार्थ, पातक आया ऐसा ही संकटापन्न अथवा जोखिम भरी बस्तुये है जिनका उपभोग करने वाले अधिभोगी को विशेष सावधानी बरतनी होती है। इस प्रकार कठोर दायित्व का सिद्धान्त वाओं में निहित लत। अथवा जोखिम में सन्निहित रहता है। ‘रिलैण्डस बनाम फ्लेचर’ भोपाल’ गैस रिसाव आदि। के मामले इस विषय पर विख्यात मामले माने जाते है।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि कठोर दायित्व के सिद्धान्त का आधार आशय अथवा उपेक्षा नहीं है, अपितु इनके अभाव में भी दोषी व्यक्ति का दायित्व निर्धारण है। कठोर। दायित्व के सिद्धान्त की प्रयोज्यता के लिए यह भी आवश्यक नहीं है कि दोषी व्यक्ति को कार्य की प्रकृति एवं परिणामों की जानकारी रही हो। उदाहरणार्थ-गक घनी आबादी में संकटापन्न गैस का कारखाना लगाया जाता है और गैस के रिसाव से किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। यहाँ गैस कम्पनी इसके लिए कठोर दायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत उत्तरदायी। होगी चाहे उसका ऐसा कोई आशय नहीं रहा हो।

‘एम.सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ (ए.आई.आर. 1986 एस.सी. 1086) के मामले में कठोर दायित्व के सिद्धान्त को स्पष्ट करते हुए उच्चतम न्यायालय द्वारा। यह कहा गया है कि, “जहाँ कोई व्यक्ति संकटापन प्रकति का कोई उद्योग आदि स्थापित करता है, वहाँ उससे उद्भूत होने वाली जोखिम के लिए बह पूर्ण रूप से उत्तरदायी होता है। वह किसी प्रतिवाद का सहारा लेकर बच नहीं सकता।”

इस विषय पर ‘इंडियन कॉसिल फार एन्वायरो लीगल एक्शन बनाम नियन ऑफ इंडिया’ (ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1446) का एक और महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें राजस्थान के बिछड़ी गाँव में हिन्दुस्तान एग्रो केमिकल्स, सिल्वर केमिकल्स, राजस्थान मल्टी फर्टिलाइजर्स, फास्फेट्स इंडिया तथा ज्योति केमिकल्स उद्योगों से कारित प्रदूषण का प्रश्न अन्तर्ग्रस्त था। इन रासायनिक कारखानों से गाँव की भूमि, हवा, जल आदि प्रदूषित हो गये थे। खेतिहर भूमि बेकार हो गई थी। न्यायालय ने प्रदूषण के लिए। इन उद्योगों को उत्तरदायी ठहराया यद्यपि उनका गाँव के लोगों को नुकसान पहुँचाने का कोई आशय नहीं था।

एक विख्यात मामला ‘यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन बनाम युनियन ऑफ इडिया’ (1990) 1 एस.सी.सी. 613] का है जिसे भोपाल गैस त्रासदी के नाम से भी जाना जाता है। दिसम्बर 1984 की रात्रि में यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन की भोपाल स्थित युनिट से गैस रिसाव के कारण लगभग 2500 व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी तथा लगभग दो लाख व्यक्ति किसी न किसी रूप में क्षतिग्रस्त हो गये थे। उच्चतम न्यायालय ने कठोर दायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत कॉरपोरेशन को उत्तरदायी ठहराया औऱ समझौते के माध्यम से 470 करोड़ डॉलर की राशि नुकसानी के रूप में तय की। ऐसे और भी अनेक मामले है।

‘सुरजाय दास बनाम असम इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड’ (ए.आई.आर, 2006 गुवाहाटी 9) के मामले में गुवाहाटी उच्च न्यायालय ने सड़क पर बिजली का करन्ट युक्त जीवित तार के सम्पर्क में आने से पिटिश्नर की पत्नी की मृत्यु हो जाने पर न्यायालय ने इस मामले कठोर दायित्व के सिद्धान्त को लागू करते हुए इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड को क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी ठहराया।

रिलैण्डस बनाम फ्लेचर का मामला

कठोर दायित्व के सिद्धान्त पर ‘रिलैण्डस बनाम फ्लेचर’ (1868 एल.आर.3 एच.एल. 330) का एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें थॉमस फ्लेचर रेड हाउस कोलयरी से कोयला निकालने का कार्य करता था। कोयले की यह खान अर्ल ऑफ विल्टन से पट्टे पर ले रखी थी। साथ ही दो अन्य व्यक्तियों से भी कुछ भूमि पट्टे पर ले रखी थी। खान के दक्षिण की ओर एक मिल तथा एक पुराना जलकुण्ड था। सन् 1860 में जॉन रिलैण्ड्स और जेहू हाराक्स ने, जो इस मिल के स्वामी थे, एक नया जलकुण्ड बनवाया जिसका पानी फ्लेचर की खान की तरफ से होकर रिलैण्ड्स की मिल में जाता था।

फ्लेचर की खानों की खुदाई के समय उसकी भूमि में कुछ पुराने कुएं एवं सुरंगें निकली। ये कुएँ एवं सुरंगें उन खानों से जुड़ी हुई थीं। उधर रिलैण्ड्स जब अपने अनुभवी एवं योग्य इंजीनियरों तथा ठेकेदारों से जलकुण्ड के तल की खुदाई करा रहा था तब पुराने कुएं उसके संपर्क में आ गये। जब नये जलकुण्ड में थोड़ा पानी भरा गया तो वह किसी प्रकार उन कुओं से बहकर नीचे की ओर चला गया। परिणामस्वरूप फ्लेचर की कोयले की खानों में पानी भर गया और खानों का काम बंद हो गया। इस पर फलेचर ने रिलैण्ड्स के विरुद्ध नुकसानी का वाद दायर किया।

लार्ड सभा ने अपीलार्थी (प्रतिवादी) रिलैण्ड्स को नुकसानी के लिए उत्तरदायी ठहराते हुए अपकृत्य विधि का यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि, “यदि कोई व्यक्ति अपने काम के लिए ऐसी वस्तु अपनी भूमि पर लाता है या रखता है जिसके वहाँ से पलायन करने पर अन्य व्यक्तियों को क्षतिकारित होने की सम्भावना है तो वह ऐसे पलायन से कारित क्षति के लिए प्रथम दृष्टया उत्तरदायी होगा चाहे उसने उसे रखने में कोई उपेक्षा नहीं बरती हो और न ही उसका ऐसा आशय रहा हो।’

इस प्रकार इस मामले में प्रतिपादित सिद्धान्त का सार यह है कि कोई भी व्यक्ति बचाव में यह नहीं कह सकता है कि परिवादित कार्य उसने आशयपूर्वक या जानबूझकर नहीं किया है अथवा उसका कार्य दोषपूर्ण नहीं रहा है।

इस सम्बन्ध में ‘स्टेट ऑफ जम्मू एएए कश्मीर बनाम भीमद इकबाल’ (ए.आई. आर. 2007 जम्मू एण्ड कश्मीर 1) का एक उद्धरणीय मामला है। इसमें बिजली के ट्रांसफोरमर के पास इलेक्ट्रिक पोल लगे हुए थे। ट्रासफोरम व खम्भे के तार खुले हुए थे। वहाँ खतरे का कोई संकेत भी नहीं लगा था। उन विद्युत पोल को छू जाने से दो बच्चो की मृत्यु हो गई। इस मामले में न्यायालय ने कठोर दायित्त (Strict Liability) को सिद्धान्त लागू करते हुए राज्य सरकार पर 7 लाख रुपये का प्रतिकर अधिरोपित किया। न्यायालय ने कहा कि राज्य की ओर से कोई रक्षोपाय नहीं किये गये थे, अतः राज्य अपने दायित्व से कोई भी अहाना बनाकर बच नहीं सकता।

जोगिन्दर सिंह बनाम स्टेट ऑफ जाम् एण्ड कश्मीर (ए.आई.आर 2011 जम्मू एण्ड कश्मीर 130) के मामले में कठोर दायित्व के सिद्धान्त को लागू किया। गया। इसमें एक खेत में 7-8 दिनों से खले पडे विद्यत तारों के सम्पर्क में आने से एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। बचाव में यह कहा गया कि यह दुर्घटना दैवी कृत्य का परिणाम थी। भारी वर्षा होने से विद्युत पोल को हटाया जा रहा था तभी मृतक जल्दबाजी में होने से इन तारों के सम्पर्क में आ गया। लेकिन न्यायालय ने इस बचाव को नकारते हुए कहा कि 7-8 दिनों तक विद्युत तारों को खुले पड़े रहना। विद्युत विभाग के कर्मचारियों की लापरवाही थी। फिर पोल हटाते समय उस क्षेत्र में प्रवेश निषेध का कोई संकेत भी नहीं लगाया गया। विभाग एवं राज्य को प्रतिकर के लिए उत्तरदारी ठहराया गया।

अनिवार्य शर्ते

उपरोक्त विवेचन एवं न्यायिक-निर्णयों से कठोर दायित्व के सिद्धान्त की निम्नांकित आवश्यक शर्ते परिलक्षित होती हैं

(1) किसी व्यक्ति (प्रतिवादी) द्वारा अपनी भूमि पर ऐसी कोई वस्तु लाना या रखना जिसके पलायन करने पर रिष्टि कारित होने की सम्भावना हो।

(i) ऐसी वस्तु का पलायन कर जाना; एवं

(ii) अपनी भूमि का अप्राकृतिक उपयोग किया जाना।

किसी वस्तु के भूमि पर लाने और उसके पलायन कर जाने पर रिष्टि कारित होने की संभावना कठोर दायित्व के सिद्धान्त की प्रयोज्यता की प्रथम शर्त है। रिलैण्ड्स बनाम फ्लेचर के मामले मंक ऐसी वस्तु पानी थी जबकि भोपाल गैस त्रासदी के मामले में गैस इनके अलावा तेल, धुआँ, बिजली, स्पन्दन, विपैली वनस्पित आदि ऐसी वस्तुयें हो सकती है। जिनके पलायन से रिष्टि (mischief) कारित होने की संभावना रहती हैं।

बचाव एवं अपवाद—रिलैण्ड्स बनाम पलेचर के मामले में प्रतिपादित कठोर दायित्व के सिद्धान्त के निम्नांकित बचाव अथवा अपवाद है अर्थात निम्नांकित परिस्थितियों में कठोर दायित्व का सिद्धान्त प्रयोज्य नहीं होता है—

I. देवा अथवा ईश्वरीय कृत्य— देवी अथवा ईश्वरीय कृत्य इस सिद्धान्त का पहला अपवाद एवं बचाव है। देवी एवं ईश्वरीय कृत्य में ऐसी घटनायें आती है जिनका न तो पूर्वानुमान किया जा सकता है और न ही जिनसे बचा जा सकता है। ‘निकोल्स बनाम मार्शलेण्ड (1875 एल.आर.10 एक्स. 255) का इस विषय पर एक अच्छा प्रकरण है जिसमें भीषण वर्षा जलाशय फूट जाने पर कारित क्षति के लिए प्रतिवादी को उत्तरदायी नही माना गया क्योकि यह ईश्वरीय कृत्य अथवा घटना का परिणाम थी।

II. अनजान व्यक्ति का कृत्य— यदि किसी अनजान, आगन्तुक अथवा पर व्यक्ति के विद्वेषपूर्ण अथवा असम्भाव्य कार्य के कारण वस्तु के पलायन कर जाने से क्षति कारित होती है तो उस पर कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू नही होता है। यहाँ तीसरे अथवा पर व्यक्ति से अभिप्राय अतिचारी से है जो प्रतिवादी की भूमि पर अतिक्रमण अथवा अतिचार कर बैठता है। बॉक्स बनाम जुप (1879) 4 एक्स. डी. 76 का एक महत्वपूर्ण मामला है जिसमें प्रतिवादी के तालाब का अधिक पानी निकलने के लिए एक नाली बनी हुई थी। किसी पर व्यक्ति द्वारा नाली को अवरुद्ध कर दिये जाने से पानी नाली से बाहर निकलने लगा जिसमें वादी को क्षति कारित हुई। इसके लिए प्रतिवादी को उत्तदायी वनही ठहराया गया क्योकि यह क्षति पर व्यक्ति के कृत्य का परिणाम थी।

III. भूमि का स्वाभाविक उपयोग– जहाँ कोई व्यक्ति अपनी भूमि का स्वाभाविक अथवा प्राकृतिक तौर पर उपयोग करता है अथवा उस पर किसी वस्तु को प्राकृतिक/स्वाभाविक तौर पर रखता है; वहाँ उससे कारित क्षति पर कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू नहीं होता है। ‘सोचाकी बनाम सेस’ (1947)1 ऑल ई.रि. 344] के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि कोई व्यक्ति अपने घर में अपने प्रयोग के लिए आग का उपयोग करता है और किसी असावधानी के बिना वह आग पलायन कर जाती है जिससे किसी अन्य व्यक्ति की सम्पत्ति को क्षति कारित होती है तब यह कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू नहीं होगा क्योंकि घरेलू कार्यों में आग का उपयोग प्राकृतिक एवं स्वाभाविक है।

IV. वादी की सहमति– जहाँ किसी संकटापन्न अथवा खतरनाक वस्तु को रखने अथवा पलायन करने में वादी की प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष सहमति रही हो और उसमें प्रतिवादी की कोई उपेक्षा या दोष नहीं रहा हो; वहाँ कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू नहीं होगा अर्थात क्षति के लिए प्रतिवादी का उत्तरदायित्व नहीं माना जायेगा। [थॉमस बनाम लेविस, (1937) ऑल ई.रि. 137)

V. स्वयं वादी की गलती अथवा दोष– जहाँ किसी कार्य में स्वयं वादी की गलती, दोष अथवा असावधानी रही हो, वहाँ ऐसे कार्य से कारित क्षति के लिए वादी प्रतिवादी से नुकसानी पाने का हक़दार नहीं होगा। पोंटिक बनाम नोकेश’ (1894)2 क्य.बी.281] के मामले में वादी के घोड़े ने प्रतिवादी की दीवार के पास लगी हुई कुछ विपैली पत्तियों को खा लिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद संस्थित किया लेकिन उसे सफलता नहीं मिली क्योंकि—

(क) स्वयं वादी के घोड़े ने प्रतिवादी की भूमि पर अतिक्रमण किया था तथा

(ख) प्रतिवादी की जमीन पर लगी पत्तियों द्वारा पलायन नहीं किया गया ।

VI. सामान्य लाभ— जहाँ कोई संकटापन्न वस्तु प्रतिवादी की भूमि पर वा। एवं प्रतिवादी दोनों के लाभ के लिए लाई गई या रखी गई हो तथा उसका संचयन दोनों के लाभ के लिए रहा हो, वहाँ ऐसी वस्तु के पलायन पर कारित क्षति के लिए प्रतिवादी उतादाद नहीं होगा अर्थात उस पर कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू नहीं होगा। कारटेयर्स बनाम टेलर’ (1871 एल.आर.6एक्स 217) के मामले में वादी मकान के नीचे वाले हिस्से में हता था तथा प्रतिवादी ऊपर वाले हिस्से में। छत से पानी एक पाइप के जरिये नीचे का टैंक में इकट्ठा होता था और वहाँ से एक दूसरे पाइप के जरिये नाली से बाहर निकल जाता था। कुछ चूहों द्वारा पानी के टैंक में छेद कर दिया गया जिससे पानी टपकने लगा और वढी के सामान को क्षति पहुँचाई। इस मामले में कठोर दायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत प्रतिवादी को उत्तरदायी नहीं ठहराया गया; क्योंकि

(क) चूहों पर प्रतिवादी का नियंत्रण नहीं था; तथा

(ख) पाइप वादी एवं प्रतिवादी दोनों की सहमति से एवं दोनों के लाभ के लिए लगाया गया था।

VII. विधि द्वारा प्राधिकृत कार्य डयून्ने बनाम नार्थ वेस्टर्न गैस बोर्ड। (1963)3ऑल ई.रि.916] के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि कोई कार्य किसी अधिनियम या संविधि के अधीन प्राधिकृत है तब ऐसे कार्य से कारित क्षति पर कठोर दायित्व का सिद्धान्त लागू नहीं होगा; यदि ऐसे कार्य में वस्तु का पलायन बिना किसी उपेक्षा अथवा असावधानी के हुआ हो। ‘ग्रीन बनाम चेलसिया वाटर वर्ल्स कं.’ के मामले में विधि द्वारा प्राधिकृत तौर पर रखे गये पाइप के फट जाने से वादी के अहाते में पानी भर गया था। जिससे वादी को नुकसान कारित हुआ। इसके लिए प्रतिवादी को उत्तरदायी नहीं माना गया । क्योंकि

(क) पाइप विधि द्वारा प्राधिकृत तौर पर रखा गया था; तथा

(ख) प्रतिवादी की ओर से कोई उपेक्षा नहीं बरती गई थी।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि भारत में रिलैण्ड्स बनाम फ्लेचर’ के मामले में। प्रतिपादित सिद्धान्त को लागू किया गया है लेकिन अपवादों को मान्यता नहीं दी गई है।

क्षति की दूरस्थता (Doctrine of Remoteness of Damages)

विधि का यह सुस्थापित सिद्धान्त है कि किसी भी व्यक्ति को उसके लापरवाहीपूर्वक कृत्यों से उद्भूत होने वाली प्रत्येक हानि के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है; क्योंकि किसी भी कृत्य के परिणामों की सीमा नहीं होती। वह केवल उन्हीं परिणामों के लिए उत्तरदायी हो सकता है जो उसके कृत्य से सीधे सम्बन्धित हो। अभिप्राय यह हुआ कि अपकृत्य विधि के अन्तर्गत कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के विरुद्ध नुकसानी का वाद केवल तभी ला सकता है जब ऐसे कृत्य से कारित क्षति उस कृत्य का सीधा (प्रत्यक्ष) परिणाम हो। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अपकृत्य से कारित क्षति का उस अपकृत्य से सीधा सम्बन्ध हो। यदि कृत्य एवं क्षति में सीधा सम्बन्ध नहीं है तो ऐसे कृत्य के लिए नुकसानी का वाद नहीं लाया जा सकता है। इसे ही ‘क्षति की दूरस्थता का सिद्धान्त’ (Doctrine of remoteness of damages) कहते हैं।

यह सिद्धान्त इस सूत्र पर आधारित है– “In jurenon remota causa sed proxima spectatur अर्थात विधि में किसी घटना के तात्कालिक कारणों पर विचार किया जाता है, दूरवर्ती कारणों पर नहीं।

इस सिद्धान्त को एक उदाहरण से और अधिक स्पष्ट किया जा सकता है। यह उदाहरण ‘हॉब्स बनाम एल एण्ड एस डब्ल्यू रेलवे कं.’ (1875 एल.आर.107 क्यू. वी. 111) के मामले से जुड़ा हुआ है। इसमें वादी ने एक स्थान विशेष पर जाने के लिए अपने व अपने परिजनों के लिए रेल टिकिट खरीदे। कुलियों (रेलकर्मियों) की गलती से वे एक गलत गाड़ी में चढ़ गये जिससे वे गन्तव्य स्थान पर नहीं पहुंच सके और उन्हें किसी अन्य। स्थान पर उतरना पड़ा। उस स्थान पर उन्हें न तो ठहरने की सुविधा मिली और न ही वाहन सुविधा। परिणामस्वरूप उन्हें करीब चार मील पैदल चलकर अपने गन्तव्य स्थान पर आना पड़ा। इससे वादी की पत्नी बीमार हो गई जिसकी चिकित्सा पर कुछ धन व्यय करना पड़ा। वादी ने प्रतिवादों के विरुद्ध नुकसानी का वाद दायर किया। यह वाद वादी व परिजनो को हुई असुविधा चछा वादी की पत्नी की बीमारी पर आधारित था। न्यायालय ने असुविधा के तर्क को तो स्वीकार कर लिया लेकिन बीमारीं के तर्क को नकार दिया। न्यायालय ने कहा कि वादी व उसके परिजनों को हुई असुविधा प्रतिवादी के कृत्य का सीधा (प्रत्यक्ष) परिणाम थी। लेकिन बीमारी नही। बीमारी प्रतिवादी के कृत्य का दूरस्थ परिणाम थी क्योकि पैदल चलने से कोई व्यक्ति बीमार पड जाये यह आवश्यक नही है। फिर इस बात का पूर्वानुमान भी नही किया जा सकता कि कोई व्यक्ति पैदल चलने से बीमार ही पड जायेगा।

ऐसा ही एक और मामला ‘म्युनिसिपल बोर्ड, खेडी बनाम रामभरोसे’ (ए.आई.आर. 1961 इलाहाः 430) का है। इसमें रामभरोसे ने म्युनिसिपल बोर्ड पर आरोप लगाया कि उसके द्वारा सरदार तेजसिंह को उसके (रामभरोसे के) मकान के पास चक्की लगाने की अनुज्ञप्ति दिये जाने से उसके मकान को भारी क्षति पहुँची है इसलिये वह बोर्ड से क्षतिपूर्व पाने का हकदार है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए वादी को नुकसानी पान का हकदार नही माना कि वादी के मकान को कारित क्षति म्युनिसिपल बोर्ड द्वारा प्रदत्त अनुज्ञप्ति का सीधा परिणाम नही थी क्योकि चक्की तेजसिंह चलाता था, बोर्ड नही।

इस प्रकार इन दोनों मामलों से क्षति की दूरस्थता का सिद्धान्त स्पष्ट हो जाता है। इनसे यह भी स्पष्ट होता है कि कोई भी व्यक्ति अपने कृत्य के तात्कालिक परिणामों की परिकल्पना तो कर सकता है लेकिन दूरस्थ (दूरवर्ती) परिणामों की नहीं। यही कारण है कि किसी व्यक्ति का दायित्व केवल उसी कृत्य के लिए होता है जिसका क्षति से सीधा (प्रत्यक्ष) सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध में भी दो महत्त्वपूर्ण सूत्र हैः

(i) क्षति का वास्तविक कारण (Causa Causans) तथा

(ii) क्षति का परिकल्पित अर्थात् दूरस्थ कारण (Causa sine qua)

किसी भी व्यक्ति को उसके कृत्य के लिए केवल तभी उत्तरदायी ठहराया जा सकता है जब वह कृत्य क्षति का वास्तविक कारण (Causa Causans) रहा हो। किसी व्यक्ति को उसके ऐसे कृत्य के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है जो यदि नहीं किया जाता तो घटना घटित नही होती (Causa sine qua non)।

इसे हम एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर सकते हैं। ‘क’, ‘ख’ को एक ऐसे गड्ढे में धक्का देता है जिसमें ‘ग’ द्वारा कभी पत्थर डाला गया था। ‘ख’ को गड्ढे में गिरने से चोटें आ जाती हैं। ‘ख’, ‘क’ एवं ‘ग’ के विरुद्ध नुकसानी के वाद लाता है। ‘ख’ का नुकसानों के वाद क के विरुद्ध तो संधारण योग्य होगा लेकिन ‘ग’ के विरुद्ध नहीं, क्योंकि क’ के कृत्य का ‘ख’ की चोटों से सीधा सम्बन्ध हैं लेकिन ‘ग’ के गड्ढे में पत्थर डालने में नही। ‘ग’ ने गड्ढे में पत्थर डालते समय कभी यह सोचा भी नहीं होगा कि इसमें कभी किसी व्यक्ति को धक्का दिया जा सकता है।

दूरस्थता की कसौटी (Test of Remoteness)

दूरस्थता अर्थात् दूरवर्तिता (remoteness) की कसौटी के दो मुख्य सिद्धान्त है—

(1) सीधे या प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी (Test of direct consequences),

तथा

(2) युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी (Test of reasonable foresight)

सीधे या प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी (Test of direct consequences)

दूरस्थता के सिद्धान्त की पहली कसौटी ‘सीधे या प्रत्यक्ष परिणाम’ की कसौटी है। इसके अनुसार क्षति किसी अपकृत्य का सीधा या प्रत्यक्ष परिणाम होती है। इसमें प्रतिवादी उन समस्त क्षतियों के लिए नुकसानी का संदाय करने हेतु उत्तरदायी होता है। जो उसके अपकृत्य का प्रत्यक्ष या सीधा परिणाम होती है। इसमें युक्तियुक्त पूर्वानुमान का कोई महत्व मन नहीं है।

रि पेलमिस का मामला

इस कसौटी के सम्बन्ध में ‘रि पेलमिस बनाम फरनेस विथी एण्ड कम्पनी [(1921) 3 के.बी.560] का एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इस मामले में प्रतिवादी ने वादी के जहाज को पेट्रोल टिन ढोने के लिए किराये पर लिया था। परिवहन के दौरान पेट्रोल के कुछ टीनों में से पेट्रोल निकलने लगा और जहाज के कमरे में पेट्रोल की भाप भर गई। एक बंदरगाह पर जब प्रतिवादी के सेवक जहाज पर कुछ सामान लाद रहे थे तब उनकी असावधानी के कारण एक लकड़ी का तख्त जहाज के उस कमरे में जा गिरा जिससे चिन्गारी पैदा हुई और पेट्रोल ने आग पकड़ ली। आग से पूरा जहाज जलकर नष्ट हो गया। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध क्षतिपूर्ति का वाद संस्थित किया। न्यायालय ने वादी का वाद स्वीकार करते हुए कहा कि वादी को कारित क्षति प्रतिवादी के सेवकों की असावधानी (लापरवाही)। का सीधा परिणाम थी। यदि प्रतिवादी के सेवक सावधानी बरतते तो जहाज नष्ट होने से बच सकता था। न्यायालय ने युक्तियुक्त पूर्वानुमान की इस कसौटी को स्वीकार नहीं किया कि प्रतिवादी के सेवकों के कृत्य से एक सामान्य प्रज्ञावान व्यक्ति यह अनुमान नहीं लगा सकता था कि वादी को इस प्रकार की क्षति भी हो सकती है।

स्मिथ बनाम लन्दन एण्ड साउथ वेस्टर्न रेलवे कम्पनी का मामला

स्मिथ बनाम लन्दन एण्ड साउथ वेस्टर्न रेलवे कम्पनी ((1870) एल.आर.6 सी.पी. 14) का एक और महत्त्वपूर्ण मामला है जो क्षति के प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी का समर्थन करता है। इसे प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी का प्रतिपादन करने वाला पहला मामला माना जाता है। इसमें प्रतिवादी कम्पनी के सेवकों ने रेलवे लाइन के किनारे की घास को काटकर लाइन के किनारे ही छोड़ दिया था। परिणामस्वरूप रेल के इंजिन से आग की चिंगारियाँ गिरने से उस घास में आग लग गई और वह 200 गज की दूरी पर

अवस्थित वादी के काटज तक फैल गई। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद दायर किय। न्यायालय ने प्रतिवादी रेलवे कम्पनी के सेवकों की उपेक्षा मानते हुए उसे नुकसानी के लिए उत्तरदायी ठहराया। न्यायालय ने कहा कि यद्यपि इस कृत्य से वादी के फंटिज में आग लग जाने का पूर्वानुमान नही किया जा सकता था, लेकिन वह क्षति उस कृत्य का प्रत्यक्ष परिणाम थी।

लिसबोच्स ड्रेजर बनाम एडिसन का मामला

लिसबोच्स ड्रेजर बनाम एडिसन (1933 ए.सी. 149) के मामले में एडियन के उपेक्षापूर्ण कृत्य से लिसबोच्स ड्रेजर डूब गया था। लिसबोच्स के मालिको ने अगले दावे में ड्रेजर के मूल्य और उसके डूबने के दिन से नये ड्रेजर खरीदने के दिन तक के भाई की राशि का क्लेम किया। लार्ड सभा ने अपने निर्णय में पहले अनुतोष को तो स्वीकार किया लेकिन दूसरे को अस्वीकार। न्यायालय ने कहा कि वादी एक लम्बे समय तक नया ड्रेजर नहीं खरीद पाया इसका कारण उसकी निर्धनता थी जो क्षति का अत्यन्त दूरस्थ परिणाम है। लेकिन के ड्रेजर जाने से वादी का उत्पादन एकदम रुक गया था जो क्षति का प्रत्यक्ष एवं निकटतम परिणाम है।

इस प्रकार उपरोक्त सभी मामलों में सीधे या प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी का समर्थन किया गया है।

युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी (Test of reasonable foresight)

दूरस्थता के सिद्धान्त की दूसरी कसौटी युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी है।। इसके अनुसार यदि किसी अपकृत्यपूर्ण कार्य से कारित क्षति इस प्रकार की है कि एक सामान्य प्रज्ञावान अर्थात् विवेकशील व्यक्ति उसका पूर्वानुमान कर सकता था तो ऐसी क्षति को दूरस्थ नहीं माना जायेगा और प्रतिवादी ऐसी क्षति के लिए नुकसानी का संदाय करने हेतु उत्तरदायी होगा। लेकिन यदि कोई क्षति ऐसी है जिसका पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता था तो उसके लिए प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं होगा।

वेगन माउण्ड का मामला

वेगन माउण्ड का मामला अर्थात् ‘ओवरसीज टैंकशिप (यू.के.) लि. बनाम मोटर्स डॉक एण्ड इंजीनियरिंग के.लि.’ (1961 ए.सी. 388) का मामला युक्तियुक्त पूर्वानुमान के सिद्धान्त का समर्थन करने वाला एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इस मामले में रि पेलमिस के मामले में प्रतिपादित प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी के सिद्धान्त को नकार दिया गया। इसमें अपीलार्थी द्वारा तेल से चलने वाला पोत वैगन माउण्ड चार्टर किया गया था और वह सिडनी पोर्ट पर ईंधन ले रहा था। वहाँ से लगभग 600 फीट की दूरी पर प्रत्यर्थियों (respondants) का एक घाट था जहाँ पर एक पोत की मरम्मत हो रही थी और कुछ वेल्डिंग का काम भी चल रहा था। अपीलार्थी के सेवकों की उपेक्षा के कारण अत्यधिक मात्रा में तेल पानी पर बिखर गया। इसके लगभग 70 घंटे वाद प्रत्यार्थियों के घाट से गला हुआ धातु तैरती हुई बेकार रुई पर पड गया जिससे तेल ने आग पकड ली और इससे घाट तथा उसके उपस्कारों को गम्भीर क्षति कारित हुई। प्रिवी कौसिल द्वारा वह अभिनिर्धारित किया गया कि इस मामले में अपीलार्थियों दवारा यह पूर्वानुमान नही किया जा सकता था कि बिखरे हुए तेल में आग लग जायेगी अतः वे इसके लिए उत्तरदायी नही है यद्यपि क्षति का प्रत्यक्ष कारण अपीलार्थियों के सेवकों का उपेक्षापूर्ण कृत्य था।

इस प्रकार सन् 1960 तक चला आ रहा दूरस्थता के प्रत्यक्ष परिणाम की कसौटी का सिद्धान्त सन् 1961 में वैगन माउण्ड के मामले में अस्वीकार कर दिया गया जिसका अनुसरण आज तक किया जा रहा है।

एस.सी.एस. (यू.के.) लि. बनाम डब्ल्यू जे.व्हिटल एण्ड सन्स लि. का मामला

एस.सी.एम. (यु.के.) लि. ([(1971)। क्यू.मी. 337] का मामला दूरस्थता के युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी का एक और महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें प्रतिवादी के सेवकों ने लापरवाही (उपेक्षा) से विद्युत परिषद् के एक विद्युत केवल को क्षति कारित का दी थी जिसके कारण वादी की फैक्ट्री में विद्युत सप्लाई कुछ समय के लिए बन्द हो गई। विद्युत सप्लाई न मिलने के कारण पिघलाया जाता हुआ धातु मशीन पर ही जम गया जिसे टुकडा-टुकड़ा कर निकाला गया। इन सबसे वादी को काफी क्षति हुई। उसका उत्पादन कार्य भी रुक गया। न्यायालय ने कहा कि विद्युत सप्लाई बन्द हो जाने से वादी की मशीनों को कारित क्षति एवं उत्पादन में आई रुकावट से कारित क्षति के लिए प्रतिवादी उत्तरदायी है लेकिन विद्यत सप्लाई न होने से मशीन न चलने के कारण कारित क्षति के लिए प्रतिवादी उत्तरदायी नहीं हैं क्योंकि उसका पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता था।

वीरन बनाम कृष्णामूर्ति का मामला

‘वीरन बनाम कृष्णामूर्ति’ (ए.आई.आर. 1966 केरल 172) के एक भारतीय मामले में भी युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी के सिद्धान्त को मान लिया गया है। इसमें एक विद्यालय के कुछ बच्चे सड़क पार करने के लिए इकट्ठे हुए थे। वहाँ एक बस आ रही थी। और उसी बस के पीछे प्रतिवादी की एक लॉरी थी। बस के गुजरने के तुरन्त बाद बच्चे सड़क पार करने लगे, तभी एक बच्चा लॉरी से टकराकर दुर्घटनाग्रस्त हो गया। न्यायालय ने प्रतिवादी को उत्तरदायी ठहराते हुए कहा कि इस कृत्य से क्षति का पूर्वानुमान भली भाँति किया जा सकता था।

आलोक बनाम गुरुप्रसाद का मामला

‘आलोक बनाम गुरुप्रसाद’ (ए.आई.आर. 1963 उड़ीसा 21) के मामले में वादी एवं प्रतिवादी की भूमि एक-दूसरे से लगी हुई थी। मानसून के समय प्रतिवादी ने अपनी भूमि में बिना किसी बांध के एक तालाब बनाया और उसकी मिट्टी को चारों ओर जमा कर दिया। उन दिनों अत्यधिक वर्षा होने से वह मिट्टी वादी की भूमि में फैल गई जिसमे वानी की फसलो को भारी क्षति कारित हुई

नोटः- यहाँ न्यायालय ने प्रतिवादी को दोषी नही माना

 

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Lecture – 3

कठोर, दायित्व का सिद्धान

Doctrine of strict liability

pree – questions

 
  1. “आश्य एवं उपेक्षा के अभाव में भी किसी व्यक्ति को अपकृत्य के लिए उत्तरदायी ठहराया जा सकता है” यह कौ सा सिद्धान्त कहता है?

(a) कठोर दायित्व का सिद्धान्त

(b) अवबोधन का सिद्धान्त

(c) वक्रोक्ति

(d) उपयुक्त सभी

 
  1. कठोर दायित्व का सिद्धान्त वस्तुओं में निहित खतरे अथवा जोखिम में सन्नहित रहता है इससे विख्यात मामले है-

(a) रिलैण्डस बनाम फ्लेचर

(b) भोपाल गैस रिसाव

(c) (a) और (b) दोनों

(d) केवल (b)

 
  1. वैगन माउण्ड का वाद सम्बन्धित है

(a) युक्तियुक्त पूर्वानुमान के मापदण्ड से

(b) प्रत्यक्षता के मापदण्ड से

(c) उपेक्षा से

(d) उपताप से

 
  1. अपकृत्य घटित होने पर उपचार है?

(a) निरोधात्मक दण्ड अपकारकर्ता को देना

(b) अपकारकर्ता को सुधार

(c) मुद्रा में क्षतिपूर्ति करना

(d) उपरोक्त में कोई भी नही

 
  1. कठोर दायित्व का नियम वहां लागू होता है जहाँ क्षति कारित होती है

अपरिचित के कृत्य से

(b) दैवी कृत्य से

(c) भूमि के प्राकृतिक उपयोग से

(d) खतरनाक वस्तुओं के पलायन से

 
  1. जब कोई कृत्य अपराध और अपकृत्य दोनों होता है, वहाँ

(a) एक विशेष प्रकार की कार्यवाही की जा सकती है जो स्वाभत में शुद्ध रुप से न तो सिविल ओर न ही आपराधिक

(b) आपराधिक औऱ सिविल दोनों प्रकार की कार्यवाहिया की जा सकती है

(c) केवल सिविल कार्यवाही की जा सकती है

(d) केवल आपराधिक कार्यवाही की जा सकती है

 
  1. “In jurenon remota causa sed proxima spectator” यह सिद्धान्त किस सूत्र पर आधारित है?

(a) विधि में किसी घटना के तात्कालिक कारणों पर विचार किया जाता है

(b) विधि में किसी निश्चित घटना या अनिश्चित घटना के तात्कालिक कारणों पर विचार किया जाता है

(c) विधि में किसी घटना के तात्कालिक कारणों पर विचार किया जाता है, दूरवर्ती कारणों पर नही

(d) (a) और (b) दोनों

 
  1. “रि पेलमिस बनाम फरनेस विधी एण्ड कम्पनी” के मामल में न्यायालय ने –

(b) युक्तियुक्त पूर्वानुमान की कसौटी को स्वीकार किया

(c) युक्तियुक्त पूर्वानुमान की इस कसौटी को स्वीकार नही किया कि प्रतिवादी के सेक्को के कृत्य से एक सामान्य प्रज्ञावान व्यक्ति यह अनुमान नही लगा सकता था कि वादी को इस प्रकार की क्षति भी हो सकती है,

(d) उपरोक्त में कोई नही

 
  1. नॉन-फीजैन्स का अर्थ है-

(a) किसी विधि विरुद्ध कार्य को करना।

(b) एक आबद्धकर कार्य को करने में असफल रहना

(c) किसी विधिजल्य कार्य का अनुचित व्यक्ति

(d) अपरिहार्य दुर्घटना

 
  1. कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती है जिनमें व्यक्ति अपने कार्यों द्वारा होने वाली क्षति के प्रति उत्तरदायी ठहराये जाते है। चाहे वह क्षति उनकी असावधानी के कारण न भुई हो और उसने वे कार्य किसी को क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से न भी किये है। इसे _________का सिद्धान्त कहा जाता है

(a) सम्पूर्ण उत्तरदायित्व (Absolule liability)

(b) दूरस्थता की कसौटी

(c) प्रतिनिधिक दायित्व (Vicarious liability)

(d) उपरोक्त में कोई नही

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Lecture – 4

स्वेच्छा से उठाई लाई क्षति

[Volenti non fit Injuria]

MAINS QUESTIONS

 
  1. स्वेच्छा से उठाई गई हानि की उक्ति को समझाईये। इसकी क्या परिसीमायें है? निर्णीत वादों की सहायता से अपने उत्तर की पुष्टि कीजिये।
 
  1. स्वच्छा से खतरा मोल लेना अपकृत्य की कार्यवाही में एक अच्छा बचाव है उदाहरणों की सहायता से समझाइये।
 
  1. व्यक्ति कार्यवाही व्यक्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है। इस वाक्य सूत्र की व्याख्या कीजिये।
 
  1. भारतीय तथा आंग्ल विधि द्वारा मान्य इस वाक्य सूत्र के अपवादों का वर्णन कीजिये।
 
  1. “हेयंस बनाम हाखुड एण्ड संस” के वाद को स्वेच्छा से उठाई गई हो उक्ति की ध्यान में रखते हो समझाइये।
 

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Lecture – 4

स्वेच्छा से उठाई लाई क्षति

[Volenti non fit Injuria]

 

स्वेच्छा से उठाई गई हानि अथवा स्वेच्छा में मोल लिया गया खतरा अपकृत्य का एक अच्छा बचाव माना जाता है। जहाँ कोई कार्य किसी व्यक्ति की सहमति से किया जाता है तब ऐसे कार्य से कारित क्षति अथवा हानि अभियोज्य (actionable) नही होती है। इसे “Volenti non fit injuria” का सिद्धान्त कहते है। दूसरे शब्दों में जब कोई व्यक्ति अपनी सहमति अथवा सम्मति से स्वयं को हानि पहुंचाता है तो अपकृत्य विधि के अन्तर्गत उसके लिए कोई उपचार उपलब्ध नहीं है अर्थात ऐसा व्यक्ति अन्य व्यक्ति से नुकसानी पाने का हक़दार नहीं होता है।

सूत्र Volenti non fit injuria तीन शब्दों से मिलकर बना है; अर्थात

(i) Volenti (Voluntarily) अर्थात स्वेच्छापूर्वक;

(ii) non fit अर्थात योग्य नहीं; एवं

(iii) injuria अर्थात विधिक क्षति अथवा हानि

इन तीनों का मिला जुला अर्थ है- स्वेच्छापूर्वक किये गये कार्य से कारित क्षति अभियोज्य अर्थात वाद योग्य नहीं होती है।

‘स्मिथ बनाम बेकर एण्ड सन्स’ (1891 ए.सी. 329) के मामले में लार्ड हरशेल द्वारा इस सिद्धान्त की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि- “यह नियम (सिद्धान्त) सत् बोध तथा न्याय पर आधारित है। वह व्यक्ति जो किसी कृत्य को आमंत्रित करता है या अपने प्रति किये जाने के लिए सम्मति देता है तो ऐसे कर से कारित क्षति के लिए वह दोप के रूप में परिवाद (शिकायत) नही कर सकता है।”

सम्मति अभिव्यक्त (express), विवक्षित (implied) अथवा आचरण द्वारा (by conduct) हो सकती है। सामान्यतया सभी प्रकार के खेलों जैसे- क्रिकेट, मुक्केबाजी, घुडदौड, आदि में विवक्षित सम्मति निहित रहती है। “हाल बनाम ब्रूकलैण्ड्स ऑटो रेसिंग क्लब” (1932 ऑल ई.रि. 208) का इस विषय पर एक अच्छा मामला है। इसमें वादी प्रतिवादी के क्लब में बैठा वाहनों की दौड देख रहा था तभी दो वाहनों में टक्कर हो जाने से एक वाहन दर्शकों के बीच आ गिरता है और वादी क्षतिग्रस्त हो जाता है। वादी प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद लाता है। न्यायालय द्वारा वादी का वाद यह कहते हुए खारिज कर दिया जाता है कि उस जोखिम में लिए वादी की विवक्षित सम्मति थी।

ऐसा ही एक और मामला “हेयंस बनाम हारवुड एण्ड संस” (1934 ऑल.रि… 103) का है। इसमें प्रतिवादी की दो घोडो वाली एक गाड़ी को उसके सेवक बिना किसी देखरेख में पैराडाइज स्ट्रीट, रोथराइट में छोडकर कही चले गई। एक बालक ने उन घोडो पर पत्थर मारा जिससे भड़कर वे भागलने लगे। सडक पर काफी भीड थी अतः उसमें केई लोगों के जीवन का संकट उत्पन्न हो गया था। एक महिला व कुछ बच्चों के उस गाडी के नीचे आ जाने की संभावना पुलिस के एक सिपाडी को हो गई थी। उसने अपने प्राणों की परवाह किये बिना उन घोडों को पकडने का प्रयास किया जिससे वह जख्मी हो गया। उसने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद दायर किया। प्रतिवादी की ओर से यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि इस घटना में उसकी ओर से कोई उपेक्षा नही बरती गई थी तथा वादी ने यह कार्य स्वेच्छा से किया था, अतः वह नुकसानी पाने का हकदार नही है। लेकिन न्यायालय ने इस तर्क को नही माना ओर कहा कि ऐसे मामलों में “ससम्मत क्षति अपकृत्य नही होती” का नियम लागू नही होता है। लार्ड ग्रीयर ने कहा कि— “जब वादी स्वेच्छा से किसी व्यक्ति को प्रतिवादी द्वारा कारित संकट से बचाने के लिए कोई जोखिम उठाता है और उससे उनकों क्षति कारित होती है तो प्रतिवादी उक्त नियम का सहारा नही ले सकता।”

थोमस बनाम क्वाटरमेन 1887018 क्यू बी.डी. 6851 के मामले में वादी प्रतिवादी की शराब की भट्टी में नियोजित था। इस नियोजन के दौरान वह जलती हुई भट्टी में गिरकर क्षतिग्रस्त हो गया। न्यायालय ने इसके लिए प्रतिवादी को उत्तरदायी नहीं माना और कहा कि खतरा स्पष्ट था तथा वादी ने स्वेच्छा से नियोजन स्वीकार किया था।

‘इम्पीरियल केमिकल इण्डस्ट्रीज लि. बनाम शाटबेल’ 196472 ऑल.रि… 999) के मामले में यह कहा गया है कि— यदि कोई कर्मकार अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में नियोजक द्वारा दी गई विधिक चेतावनी या हिदायतों की उपेक्षा करता है और इससे उसको क्षति पहुंचती है तो इसे कर्मकार की सम्मति से कारित क्षति माना जायेगा।

‘इलोट बनाम विक्स’ (130 ऑल ई.रि…911) के एक और मामले में इस विषय पर सुन्दर प्रकाश डाला गया है। इसमें प्रतिवादी की भूमि में मशीनगने लगी हुई थी जो बिजली के तारों से सम्बन्धित थी। इस बात का ज्ञान वादी को था लेकिन उसे यह मालूम नहीं था। कि मशीनगन किस जगह है। वादी उस भूमि में प्रवेश करता है और क्षतिग्रस्त हो जाता है। न्यायालय ने इसके लिए प्रतिवादी को उत्तरदायी नहीं माना और कहा कि इससे वादी का आशय स्पष्ट होता है।

‘पदमावती बनाम दानायका’ (1975 ए सी 222) के मामले में एक वाहन चालक जब पेट्रोल लेने के लिए जीप ले जा रहा था तब दो अजनबी-व्यक्ति उसमें स्वेच्छा से बैठ गये। रास्ते में अचानक एक्सल में लगा बोल्ट निकल जाने से जीप पलट गई। परिणामस्वरूप वे दोनों व्यक्ति जीप से बाहर आ गिरे जिससे एक की मृत्यु हो गई दूसरा घायल हो गया। उच्च न्यायालय ने इस घटना के लिए न तो जीप के चालक को दोषी माना और न जीप के स्वामी को, क्योंकि-प्रथमत: यह एक दुर्घटना थी और दूसरा वे व्यक्ति स्वेच्छा से जीप में बैठे थे।

आवश्यक शर्ते— उपरोक्त विवेचन से उक्त नियम अथवा सूत्र की प्रयोज्यता के लिए निम्नांकित शर्ते परिलक्षित होती है—

(i) किसी कार्य को करने के लिए सम्मति होनी चाहिये।

(ii) सम्मति स्वैच्छिक होनी चाहिये।

(iii) सम्मति वैध कार्यों के प्रति होनी चाहिये;

(iv) जोखिम अथवा खतरे के ज्ञान मात्र से सम्मति की उपधारणा नहीं की जानी चाहिये

(v) प्रतिवादी द्वारा किया गया कार्य वहीं होना चाहिये जिसकी सहमति दी गई थी; तथा

(vi) कृत्य उसी सीमा तक किया जाना चाहिये जिस सीमा तक उस कृत्य को करने की सहमति दी गई थी।

उपरोक्त शर्तों से जुड़े अनेक न्यायिक-निर्णय है। ‘आर.बनाम डानोवेल [(1934)2 के.बी.493] के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि बॉक्सिंग के खेल के लिए यह आवश्यक है और नियम भी है कि दस्ताने पहनकर खेला जाये। यदि कोई व्यक्ति इस नियम का उल्लंघन कर नंगे हाथ मुक्केबाजी करता है या तेज धार वाले हथियारों का प्रयोग करता। है तो यह अवैध कार्य होगा और ऐसे मामलो में सम्मति का लाभ नहीं मिल सकेगा।

‘लेन बनाम होलोव’ [(1968)1 क्यू.बी.379] के मामले में वादी एवं प्रतिवादी के बीच साधारण झगडा हो जाता है। वादी प्रतिवादी को हल्का सा धक्का मार देता है जिससे उत्तेजित होकर प्रतिवादी वादी की आँख में मुक्का मार देता है। जब मामला न्यायालय में जाता है तो यह अभिनिर्धारित किया जाता है कि साधारण झगड़े के बारे में तो दोनों की सम्मति मानी जा सकती है; लेकिन मुक्का मारने वाले संकटापन्न कृत्य के लिए सम्मति नहीं मानी जा सकती है।

‘स्लेटर बनाम क्ले क्रास क. लि.’ [(1956)2 ऑल ई.रि.665] के मामले में यह कहा गया है कि इस नियम की प्रयोज्यता के लिए यह आवश्यक है कि किया गया कार्य वही ही जिसके लिए वादी द्वारा सम्मति प्रदान की गई थी।

स्वैच्छिक सम्मति पर ‘आर. बनाम विलियम्स’ [(1942)1क्यू.बी.340] का एक अच्छा प्रकरण है। इसमें एक संगीत शिक्षक ने अपनी 16 वर्षीय शिष्या के साथ यह कहते हुए संभोग किया कि ऐसा किया जाना उसकी आवाज सुधारने के लिए आवश्यक है। न्यायालय ने इसमें बालिका की सम्मति नहीं मानते हुए इसे बलात्कार माना कयोंकि वह बालिका यह नहीं जानती थी कि उसके साथ बलात्कार किया जायेगा; वह कार्य की प्रकृति को भी नहीं जानती थी तथा वह इस भ्रम में रही कि संगीत शिक्षक आवाज सुधारने के लिए कोई शल्य क्रिया करना चाहता है।

परिसीमायें (Limitations)– ‘ससम्मत कार्य से क्षति नहीं होती’ (volenti nonfinjuria) नामक सूत्र की कतिपय परिसीमायें है। अर्थात वह सूत्र निम्नांकित मामलों में लागू नही होता है—

(1) यह मूत्र विधिक कर्तव्य भंग के मामलों में लागू नहीं होता है। यदि कोई व्यक्ति अथवा संस्था ऐसे किसी कर्तव्य का उल्लंघन करती है जो विधि द्वारा उस पर अधिरोपित किया गया है, वहाँ से उससे कारित क्षति पर सहमति का सूत्र लागू नहीं होगा।

उदाहरणार्थ– श्रम विधि के अन्तर्गत बदि यह नियम अथवा कानूनी व्यवस्था है कि किसी कारखाने में रात्रि में महिलाओ को नियोजन पर नहीं रखा जायेगा, तब इस नियम का उल्लंघन करते हूए यदि किसी महिला को नियोजन पर रखा जाता है और उससे उस महिला को क्षति कारित हो जाती है तो नियोजन यह बचाव नहीं ले सकेगा कि महिला स्वयं रात्रि नियोजन पर आने के लिए सहमत हो गई थी।

(2) बचाव (defence) के मामलों में यह नियम अथवा सूत्र लागू नहीं होता है। इसके अनुसार यदि कोई व्यक्ति प्रतिवादी के गलत कार्य से उत्पन्न खतरे से किसी को बचाने के लिए स्वेच्छा से कोई जोखिम उठाता है तो वहाँ ये सूत्र लागू नहीं होगा। [देखे- हेन्स बनाम डारवुड का मामला (1935) के.बी.46: 1934 ऑल ई.रि.103]

इस विषय पर ‘ब्रांडन बनाम ऑसबर्न’ [(1924)1के.बी.548] का एक और अच्छा मामला है। इसमें वादी एवं उसकी पत्नी एक दुकान में सामान खरीद रहे थे। प्रतिवादी अपनी दुकान पर छत की मरम्मत करा रहा था। सेवकों की गलती से शीशे के कुछ टुकडे निर कर वादी को लग गये। वादी को संकटापन स्थिति में जानकर उसकी पत्नी ने उसे वहाँ से हटने का प्रयास किया जिससे उसके पैर में चोट आ गई। न्यायालय ने कहा-वादी की पत्नी अशदायी असावधानी की दोषी नहीं है और उसने वही किया जो ऐसी परिस्थितियों में एक विवेकशीत अथवा सामान्य प्रज्ञावान व्यक्ति करता है। यहाँ यह सूत्र लागू नहीं होगा।

(3) उपेक्ष अथवा असावधानी के मामलों में भी यह सूत्र प्रयोज्य नहीं होता है। इसे हम एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर सकते है। ‘क’ स्वेच्छा से ‘ख’ चिकित्सक से अपनी शल्य किया कराता है। शल्य क्रिया की असफलता के लिए ख उत्तरदायी नहीं होगा। लेकिन यदि शल्यक्रिया ख की असावधानी अथवा उपेक्षा से असफल हो जाती है तो ख इसके लिए उत्तरदायी होगा क्योंकि वहाँ ‘क’ की सहमति ‘ख’ के असावधानीपूर्ण कार्य के लिए नहीं थी। वहाँ सहमति वाला नियम लागू नहीं होगा।

इस विषय पर स्लेटर बनाम क्ले क्रास कं.लि. [(1956)2 ऑल इ.रि.6251] का एक महत्वपूर्ण मामला है। इसमें वादी एक महिला प्रतिवादी की एक संकरी रेल सरंग पार कर रही थी। उसी समय वह प्रतिवादी कम्पनी सेवकों द्वारा चालित रेल से टकराकर क्षतिक्रस्त हो गई। कम्पनी को इस बात का ज्ञान था कि आम जनता उस रास्ते से आती जाती है और उसने चालको को यह निदेश दे रखा था कि सुरंग पार करते समय वे निरन्तर सीटी बजाते रहे और गाड़ी की गति को धीमा रखे। लेकिन चालाकों ने इन निदेशों पर कोई ध्यान नहीं दिया। वादी द्वारा प्रतिवादी कम्पनी के विरुद्ध क्षतिपूर्ति का वाद संस्थिति किया गया। प्रतिवादी ने Volenti non fit injuria के नियम का बचाव लिया। न्यायालय ने प्रतिवादी के तर्क नहीं मानते हुए उसे अपकृत्य के लिए उत्तरदायी ठहराया यद्यपि वादी को सुरंग पार करते समय आसन्न खतरे का ज्ञान था। लेकिन ऐसा ज्ञान मात्र रेल के सामान्य अवस्था में चलने के सम्बन्ध में था; न कि असावधानी से चलाये जाने के सम्बन्ध में।

इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से ‘वालेन्टी नान फिट इन्जूरिया’ की तीन परिसीमायें (limitation) स्पष्ट होती है

(क) विधिक कर्त्तव्य भंग के मामले;

(ख) बचाव के मामले; तथा

(ग) उपेक्षा या असावधानी के मामले।

इनमें यह सूत्र (नियम) लागू नहीं होता है।

 

व्यक्तिगत कार्यवाही व्यक्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है

[“Actio personalis moritur cum persona”]

सामान्य विधि का यह सुस्थापित सिद्धान्त है कि “व्यक्ति की मृत्यु के साथ ही उसका वाद संस्थिति करने का अधिकार समाप्त हो जाता है” अथवा खाँ कह सकते। है कि “अपकृत्यकर्ता अथवा पीडीत व्यक्ति दोनों में से किसी की भी मृत्यु हो जाने पर अपकृत्यपूर्ण दायित्व से मुक्ति मिल जाती है।” विस्तृत भाव में यह कहा जा सकता है कि “व्यक्तिगत कार्यवाही व्यक्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है।” (Actio personalis moritur cum persona)

यह सिद्धान्त अत्यन्त प्राचीन है। आरम्भ से ही वाद लाने के अधिकार को एक व्यक्तिगत (वैयक्तिक) अधिकार माना जाता रहा है। अत: यह स्वाभाविक है कि जब वाद लाने वाले व्यक्ति या जिसके विरुद्ध वाद लाया गया है, उसकी ही मृत्यु हो जाती है तो वाद को चालू रखने या वाद लाने का कोई औचित्य नहीं रह जाता है। इस आधार पर यह सूत्र (सिद्धान्त) बना है कि व्यक्तिगत कार्यवाही व्यक्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है।

लेकिन धीरे-धीरे यह अवधारणा बदलने लगी। जैसे-जैसे उत्तराधिकार एवं प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त विकसित होता गया वैसे-वैसे यह सिद्धान्त अथवा सूत्र भी शिथिल होने लगा। आज यह सिद्धान्त मृत प्रायः सा हो गया है। लॉ रिफार्म्स (मिसलेनियम प्रोविजन्स) एक्ट, 1934 द्वारा तो इसे समाप्त ही कर दिया गया है।

आज स्थिति यह है कि यदि पक्षकारों के जीवन काल कोई बाद हेतुक (cause of action) उत्पन्न हो जाता है तो उसमें किसी एक की या सब की मृत्यु हो जाने पर भी वाद हेतुक पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता है अर्थात एक बार वाद हेतुक के अस्तित्व में आ जाने पर वह पक्षकारों की मृत्यु हो जाने पर भी बचा रहता है।

अपवाद– इस सूत्र के कतिपय अपवाद है अर्थात कतिपय मामलों में पक्षकार या पक्षकारों की मृत्यु हो जाने पर भी अपकृत्यपूर्ण दायित्व का उन्मोचन नहीं होता है। ऐसे मामलों में मृतक के उत्तराधिकार वाद लाने का अथवा वाद को निरन्तर रखने का अधिकार रखते है।

आंग्ल विधि द्वारा मान्य अपवाद– सर्वप्रथम हम आंग्ल विधि द्वारा मान्य अपवादों पर विचार करते है। यह अपवाद निम्नलिखित है

(1) संविदा भंग के मामले-संविदा भंग के मामलों पर यह सिद्धान्त लागू नहीं होता है। जब संविदा करने वाले पक्षकारों की या उनमें से किसी की मृत्यु हो जाती है तो उनके विधिक उत्तराधिकारी संविदा भंग के लिए क्षतिपूर्ति का वाद ला सकते है एवं संविदा भंग के लिए दोपी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर ऐसे व्यक्ति विधिक उत्तराधिकारियों के विरुद्ध वाद लाया जा सकता है। इसका यदि कोई अपवाद है तो केवल वैयक्तिक योग्यता अथवा क्षमता पर आधारित संविदा है जिसमें पक्षकार की मत्यु हो जाने पर तथाकथित वाद नहीं लाया जा सकता है। ऐसी संविदाये गायन, नृत्य, लेखन, चित्रकारी आदि को हो सकती है।

(2) घातक दुर्घटना अधिनियम, 1846– इस अधिनियम के अन्तर्गत यदि किसी व्यक्ति के अपकृतय से किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो मृतक के उत्तराधिकारी अर्थात मृतक की विधवा, पति, बच्चे, आदि दोपी व्यक्ति के विरुद्ध नुकसानी का वाद ला सकते है।

इस सम्बन्ध में ‘हैफवेल रेलवे क. बनाम जेकिन्स’ (1931 एस.सी.1) का एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें एक 17 वर्षीय लड़की की मृत्यु हो गई थी जो सिलाई प्रशिक्षण प्राप्त कर रही थी तथा अपने पिता के पास रह रही थी। पिता द्वारा इस आधार पर नुकसानी का वाद लाया गया कि निकट भविष्य में मृतक द्वारा धन अर्जित करने की पूर्ण संभावना थी। न्यायालय ने पिता को नुकसानी पाने का हक़दार माना।

(3) नियोजन का दायित्व अधिनियम, 1880– इस अधिनियम के अन्तर्गत किसी मृतक श्रमिक के उत्तराधिकारी को उसके नियोजक (स्वामी) के विरुद्ध क्षतिपूर्ति का वाद लाने का अधिकार है।

(4) कर्मकार प्रतिकर अधिनियम, 1925– इस अधिनियम के अन्तर्गत मृतक श्रमिक का आश्रित उन सभी हानियों के लिए नुकसानी का वाद ला सकता है जिनके लिए। वह जीवित होने की दशा में ला सकता था। इस अधिनियम की धारा 3 में यह प्रावधान किया या कि किसी श्रमिक को अपने नियोजन में अथवा उसके अनुक्रम में उदभत दुर्घटना के कारण शारीरिक क्षति होने की दशा में उनका नियोजक प्रतिकर देने के लिए दायित्व है। प्रतिकर का दावा क्षतिग्रस्त श्रमिक अथवा मृत्यु होने पर उसके आश्रितों द्वारा किया जा सकता है।

(5) लॉ रिफार्म्स (मिसलेनियस प्रोविजन्स) एक्ट, 1934– जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है- “व्यक्ति की मृत्यु के साथ ही उसका वाद लाने का अधिकार समाप्त हो जाता है” नामक सिद्धान्त (सूत्र) को लॉ रिफार्म्स (मिसलेनियस प्रोविजन्स) एक्ट, 1934 द्वारा समाप्त कर दिया गया है। इस अधिनियम की धारा 1(1) में यह कहा गया है कि” किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर समस्त वाद हेतुक यथास्थिति जो उसमें निहित है अथवा उसके विरुद्ध है, उसके विरुद्ध अथवा उसकी सम्पति के लाभ के लिए अस्तित्व में रहेगे। वे समाप्त नहीं समझे जायेंगे।”

इसके अतिरिक्त कोल माइनिंग (सब्सीडेन्स) एक्ट, कैरिज बाई एयर एक्ट आदि में भी इसी प्रकार के प्रावधान किये गये है।

इन अपवादों के सम्बन्ध में अनेक न्यायिक-निर्णय भी हो चुके है। ‘रोज बनाम फोर्ड’ (1937 ए.सी.826) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जीवन प्रत्याशा में कमी हो जाने के लिए अपकृत द्वारा प्रतिवादी के विरुद्ध इसलिये वाद नहीं लाया जा सका हो कि प्रतिवादी के विरुद्ध वाद लाने से पूर्व ही अपकृत की मृत्यु हो गई थी तब ऐसी स्थिति में अपकृत के वैध प्रतिनिधियों द्वारा वाद लाया जा सकता है।

प्रयोज्यता– लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि यह अपवाद भी निरपेक्ष अर्थात अबाध (absolute) नहीं है इन अपवादों के भी अपवाद है अर्थात कतिपय मामलों में यह सूत्र (सिद्धान्त) अब भी लागू होता है। निम्नांकित मामलों में व्यक्ति की मृत्यु के साथ ही उसका वाद लाने का अधिकार समाप्त हो जाता है—

(i) मान हानि;

(ii) शील भंग;

(iii) जारकर्म;

(iv) दम्पति को एक-दूसरे का परित्याग करने अथवा अलग रहने के लिए उत्प्रेरित करना, आदि।

भारतीय विधि द्वारा मान्य अपवाद– पहले तो भारत में भी यह सूत्र लागू होता था कि व्यक्तिगत कार्यवाही व्यक्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है। (Actio personalis moritur cum persona) लेकिन कालान्तर में कुछ विधियाँ बन जाने से यह अपवादस्वरूप रह गया, अर्थात अब भारत में यह सूत्र प्रयोज्य नहीं होता है। अपवादस्वरूप बनी विधियाँ निम्नांकित है—

(1) विधिक प्रतिनिधित्व वाद अधिनियम, 1885– इस सूत्र के अपवादस्वरूप बनी यह पहली विधि है। इस अधिनियम में यह व्यवस्था की गई कि- यदि मृतक द्वारा अपने जीवन काल में ऐसा कोई अपकृत्य किया गया है जिससे किसी व्यक्ति की सम्पत्ति को क्षति कारित हुई हो तो ऐसे मृतक व्यक्ति की सम्पदा के प्रबन्धकों, निष्पादकों या वैध प्रतिनिधियों के विरूद्ध नुकसानी का वाद लाया जा सकेगा। आवश्यक यह है कि ऐसा अपकृत्य मृतक द्वारा मृत्यु के एक वर्ष के भीतर किया गया हो।

यह व्यवस्था केवल सम्पत्ति विषयक अपकृत्यों के लिए थी; शरीर के विरुद्ध कारित अपकृत्यों के लिए नहीं। (मेहताब सिंह बनाम हुब्बलाल, ए.आई.आर. 1926 इलाहाबाद 610)। इसी अधिनियम की धारा 2 में यह प्रावधान किया गया कि किसी पक्षकार की मृत्यु से दावे की कार्यवाही समाप्त नहीं होगी। वह मृतक के निष्पादक, प्रशासक अथवा उत्तराधिकारी द्वारा या उनके विरुद्ध चालू रखी जा सकेगी।

(2) घातक दुर्घटना अधिनियम, 1955– इस अधिनियम की धारा 1 में वह प्रावधान किया गया है कि यदि किसी व्यक्ति की उपेक्षा, चूक या अपकृत्यपूर्ण कार्य से किसी अन्य व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो मृतक की सम्पदा के निष्पादक और प्रशासक मृतक की विधवा, पति, माता-पिता, बच्चों आदि की ओर से प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद ला सकते है। आश्रितों को भी कतिपय परिस्थितियों में यह अधिकार प्रयास किया गया है।

(3) कर्मकार प्रतिकर अधिनियम, 1923– इस अधिनियम के अन्तर्गत यह प्रावधान किया गया है कि यदि किसी कर्मकार को नियोजन के दौरान मृत्यु हो जाती है तो मृतक के आश्रितों द्वारा प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद लाया जा सकता है।

(4) भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925-इस अधिनियम के अनुसार किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाने पर मृत्यु से पूर्व मृतक को प्राप्त कार्यवाही करने के सारे अधिकार मृतक की सम्पदा के निष्पादकों एवं प्रबन्धका में निहित हो जाते है।

(5) कैरिज बाई एयर एक्ट, 1972– इस अधिनियम में भी इंग्लैण्ड के अधिनियम की भांति मृतक के वारिसों को नुकसानी का वाद लाने का अधिकार प्रदान किया गया है।

इस प्रकार उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि भारत में भी अब यह सूत्र प्रयोजय नहीं रह गया है कि- “व्यक्तिगत कार्यवाही व्यक्ति की मृत्य के साथ ही समाप्त हो जाता है”।

कई न्यायिक-निर्णयों में भी इस बात की पुष्टि की गई है। जी.वेंकटेशम बनाम जनरल मैनेजर, आन्ध्रप्रदेश स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन’ (ए.आई.आर. 1978 आन्ध्रप्रदेश 285) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि अवयस्क बच्चों की मृत्यु हो जाने पर उनके माता-पिता को नुकसानी का वाद लाने का अधिकार है।

‘सुप्रीम बैंक बनाम पी.ए.तेन्दुलकर’ (ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 1104) के मामले में भी उच्चत्तम न्यायालय द्वारा यह कहा गया है कि-जहाँ किसी विधि द्वारा अधिरोपित कर्तव्य का भंग होता हो, वहाँ अपकृत्यकर्ता की मृत्यु पर उसके विरुद्ध कार्यवाही की जा सकती है। इस मामले में कम्पनी के संचालक द्वारा अपने वैश्वासिक कर्तव्यों का उल्लंघन किया गया था।

‘एम.वीरप्पा बनाम इविलीन सिक्यरिया’ (ए.आई.आर.1988 एम.सी.506) के मामले में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि- “वादी की मृत्यु के साथ ही वाद लाने के अधिकार की समाप्ति” का सूत्र वर्तमान समय में उचित नहीं लगता है। आधुनिक विधिशास्त्र इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं है कि वाद के किसी पक्षकार की मत्य हो जाने से वाद लाने का अधिकार समाप्त हो जाता है।

भारत में यह सूत्र आलोचना का विषय रहा है। इसे बर्बर एवं अन्यायपूर्ण बताया गया है। विधिवेत्ताओं का यह कहना है कि अपकृत्य विधि का स्त्रोत निश्चित विधि के अभाव में न्याय, साम्य एवं शुद्ध अन्त:करण के सिद्धान्त है; अतः इस सूत्र को भारत में कठोरता के साथ लागू नहीं किया जा सकता है।

 

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Lecture – 4

स्वेच्छा से उठाई लाई क्षति

[Volenti non fit Injuria]

pre-questions

 

    जहाँ कोई कार्य किसी व्यक्ति की सहमति से किया जाता है तब ऐसे कार्य से कारित क्षति अथवा हानि अभियोज्य नही है। ये सिद्धान्त

(a) Volenti non fit injuria

(b) Non fit injuria

(c) Remota causa

(d) कोई नही

 

    समान्यतता सभी प्रकार के खेलो जैसे – क्रिकेट, मुक्केबाजी, घुडदौड आदि में ______ सम्मति निहित रहती है।

(a) अभिव्यक्त

(b) विवक्षित

(c) अभिव्यक्त वि विवक्षित

(d) अर्ध — सम्मति

 

    जब वादी स्वेच्छा से किसी व्यक्ति को प्रतिवादी द्वारा कारित संकट से बचाने के लिए कोई जोखिम उठाता है औऱ उससे उनको क्षति कारित होती है तो प्रतिवादी उक्त नियम का सहारा नही ले सकता—

(a) लार्ड ग्रीयर

(b) थोमस बनाम क्वाटरमेन

(c) स्मिथ बनाम बेकर एण्ड सन्स

(d) कोई नही

 

    बौक्सिंग के खेल के लिए यह आवश्यक है और नियम भी है कि दस्ताने पहनकर खेला जाये

(a) आर बनाम डानोवेल

(b) लेन बनाम होलोव

(c) इलोट बनाम विक्स

(d) कोई नही

 

    किया गया कार्य वही हो जिसके लिए वादी द्वारा सम्मति प्रदान की गई थी

(a) लेन बनाम होलोव

(b) स्लेटर बनाम क्ले क्रास क.लि.

(c) आर बनाम डानोवेल

(d) पदमावती बनाम दुग्गनायका

 

    वालेन्टी ना फिर इन्जूरिया की परिसीमाये हैः-

(a) विधिक कर्त्तव्य भंग के मामले

(b) बचाव के मामले

(c) उपेक्षा या आसवधानी के मामले

(d) उपरोक्त सभी

 

    व्यक्तिगत कार्यवाही व्यक्ति के साथ ही समाप्त हो जाती है।

(a) Actio perdonslis moritur cum persona

(b) Actio personalis moritur persona

(c) Actio personalis persona

(d) कोई नही

 

    उत्तराधिकार एवं प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त के विकास के साथ-साथ वाद लाने का व्यक्तिगत या वैयक्तिक अधिकार शिघिप्त होने लगा। _____ एक्ट द्वारा तो इसे समाप्त ही कर दिया गया

(a) लॉ रिफार्म्स (मिसलेनियम प्रेविजन्स)

(b) एक्ट 1934

(c) लॉ रिफार्म्स एक्ट 1933

(d) लॉ रिफार्म्स एक्ट 1931

 

    इस अधिनियम के अर्न्तगत यह प्रावधान दिया गया है कि यदि किसी कर्मकार की नियोजिन के दौरान मृत्यु हो जाती है तो मृत्यु हो जाती है। तो मृतक के आश्रितों द्वारा प्रतिवादों के विरुद्ध नुकसानी का वाद लाया जा सकता है।

(a) कर्मकार प्रतिकर अधिनियम, 1923

(b) भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925

(c) कैरिज बाई व एयर एक्ट, 1972

(d) कोई नही

 

    अवयस्क बच्चो की मृत्यु हो जाने पर उनके माता – पिता को नुकसानी का वाद लाने का अधिकार है।

(a) जी. वेंकटेशम बनाम जनरल मैनेजर,

(b) आन्ध्रप्रदेश स्टेट रोड ट्रॉसपोर्ट कॉपफेटेशन, एम. वीरप्पा बनाम इविलीन सिक्यरिया

(c) रोज बनाम फोर्ड

(d) कोई नही

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Lecture – 5

प्रतिनिध दायित्व [Vicarious liability]

MAINS QUESTIONS

 
  1. “प्रतिनिधिक दायित्व” से आप क्या समझते है?
 
  1. क्या भारत सरकार अपने कर्मचारियों के द्वारा कार्य निष्पादन के दौरान किये गये अपकृत्यपूर्ण कार्य के लिए उत्तरदायी है? निर्णीत वादो की सहायता से स्पष्ट कीजिये।
 
  1. “परिस्थितियाँ स्वयं बोलती है” के नियम के समझाइये। (Explain the Rule of Res ipsa loquitor)
 
  1. “चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर बनाम प्रभाती साहू” के मामले में Res ipsa loquituo के सिद्धान्त को समझाये
 
  1. Res ipsa loquitur के सिद्धान्त का मूल अभिप्राय समझाये।
 

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Lecture – 5

प्रतिनिध दायित्व [Vicarious liability]

 

सामान्यवतया किसी भी कार्य के लिए वही व्यक्ति उत्तरदायी होता है। जिसके द्वारा वह कार्य किया जाता है। कोई अन्य व्यक्ति ऐसे कार्य के लिए उत्तरदायी नही ठहराया जा सकता। लेकिन वह कोई अवाध अथवा निरपेक्ष नियम नही है। कई बार एक व्यक्ति के कार्य के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को भी उत्तरदायी ठहराया जा सकता है ऐसी स्थिति में वह माना जाता है कि जैसे वह कार्य उसी के द्वारा किया गया है। वही प्रतिनिधित्क दायित्व'(Vicarious liability) का सिद्धान्त है। साधारणतया स्वामी एवं सेवक के संबंध इस श्रेणी में आते है।

सॉमण्ड (salmond) ने प्रतिनिधिक दायित्व की परिभाषा देते हुए जाता है “साधारण नियम तो यह है कि अपने कार्यों के लिए कोई व्यक्ति स्वयं ही उत्तरदायी होती है किन्तु कुछ अपवाद ऐसे है जिनमें एक व्यक्ति दूसरे के कार्यो के लिए उत्तरादी ठहरा दिया जाता है। चाहे वह स्वयं कितना ही निर्दोष हो।

फ्रेडरिक पोलक ने भी एक जगह कहा है कि “मैं अपने सेवक या अधिकर्ता द्वारा कारित दोषपूर्ण कार्य के लिए उत्तरदायी हूँ क्योंकि वह मेरा कर्ताकर्ता है वह देखना मेंरा कर्ताव्य है कि दूसरे व्यक्ति की सुरक्षा का ध्यान रखते हुए करें।

प्रतिनिधिक दायित्व के सिद्धान्त को हम एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर सकते है क एक वाहन का स्वामी है और ‘ख उसका चालक. क ख को वहन को किसी अमुख स्थान पर ले जाने का निदेश देता है। रास्ते में चालक ग नाम के व्यक्ति को टकर मारकर क्षतिग्रस्त कर देता है। यहाँ ‘ख’ के साथ-साथ ‘क’ भी दुर्यटना के लिए उत्तरदायी होगा।

यह सिद्धान्त इस सूत्र पर आधारित है कि “Qui facit per alium facit per se” अर्थात् जब कोई व्यक्ति कोई कार्य किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से करता है तो विधिक दृष्टि में यह माना जाता है कि यह कार्य स्वयं उसके द्वारा किया गया है।

‘बक्सी अमरीक सिंह बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया’ [11973973 पी.एल.आर.1] के मामले में भी यही कहा गया है कि-“जो कोई व्यक्ति किसी कार्य को किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से करता है तो उसके बारे में यह समझा जाता है कि यह काम मानों उसी के द्वारा किया गया है।”

[He who does an act through another is deemed in law to do it himself.]

कई बार इस नियम अथवा सिद्धान्त को “Respodent Superior” अर्थात “प्रतिवादी उत्कृष्ट” के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है जिसका अर्थ है— “प्रमुख का उत्तरदायी हाने दो” (Let the principal be liable) सामान्यतः ऐसा स्वामी एव सेवक के सम्बन्धों में होता है। यही प्रतिनिधिक दायित्व का सिद्धान्त है।

भारत सरकार का उत्तरदायित्व– अब हम इस बिन्दु पर विचार करते है कि “क्या भारत सरकार अपने कर्मचारी द्वारा निष्पादन के दौरान किये गये अपकृत्यपूर्ण कार्य के लिए उत्तरदायी है”?

इस सम्बन्ध में इंग्लैण्ड में स्थिति कुछ भिन्न थी। वहाँ अपने कर्मचारियों के अपकृत्य के लिए राजा अथवा सम्राट को उत्तरदायी नहीं माना जाता था, क्योंकि इंग्लैण्ड में यह कहावत प्रचलित थी कि- “राजा काई गलती नहीं कर सकता”(king can do no wrong) लेकिन बीसवीं सदी में स्थिति में कुछ परिवर्तन हुआ और “क्राउन प्रोसिडिग्स एक्ट, 1947” (Crown Proceeding Act, 1947) पारित हो जाने से अब राजा (सम्राट) को भी अपने कर्मचारियों के अपकृत्य के लिए उत्तरदायी ठहराया जाने लगा। यद्यपि इसके कुछ अपवाद भी रहे है।

जहाँ तक भारत का प्रश्न है; भारत में अब सरकार को अपने कर्मचारियों के अपकृत्य के लिए उत्तरदायी ठहराया जाने लगा है। संविधान के अनुच्छेद 300 में यह प्रावधान किया गया है कि केन्द्र एवं राज्य सरकार अपकृत्य के मामलों में वाद ला सकती। है तथा उनके विरुद्ध भी वाद लाया जा सकता है। इससे पूर्व भारत सरकार अधिनियम 1858 से 1935 तक में भी इस सम्बन्ध में काफी व्यवस्थायें की गई थी जिनमें सेक्रेटरी ऑफ। स्टेट को राज्य कर्मचारियों के अपकयों के लिए उत्तरदायी ठहराया गया था।

इस विषय पर ‘पेनिनसलर एण्ड ओरियन्टल स्टीम नेविगेशन कम्पनी बनाम सेक्रेटरी ऑफ स्टेट फॉर इण्डिया’ (1868)5 बी.एच.सी.आर.1] का एक अच्छा। प्रकरण है। इसमें हुगली के बन्दरगाह पर सरकारी कर्मचारियों के असवाधानीपूर्ण कार्य से बादी को चोटे कारित भी। न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि इस कृत्य के लिए सरकार उत्तरदानासोकि सरकार के समय का स्वरमापारिक जिसे कोई अन्य नागरिक भी कर सकता है।

ऐसा ही एक और मामला ‘सेक्रेटरी ऑफ स्टेट बनाम शिवरामजी’ (आई.एल.आर. 1940 नागपुर 875) का है जिसमें नागपुर उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि- वन विभाग के अधिकारी द्वारा बादी को अपनी क्रय की। हुई लकड़ी को जंगल सेनले जाने देने के लिए सरकार उत्तरदायी है।

इसके बाद तो ऐसे अनेक निर्णय आ चुके है जिनसे यह सुस्थापित हो गया है कि अपने कर्मचारियों द्वारा किये गये अपकृत्यों के लिए राज्य उसी रूप में और उसी सीमा तक उत्तरदायी है जिस सीमा तक कोई अन्य व्यक्ति उत्तरदायी होता है। दूसरे शब्दों में वह कहा जा सकता है कि यदि परिस्थितियों के अनुसार एवं लोक हित के लिए यह न्यायसम्मत माना जाता है कि किसी स्वामी को उसके सेवकों द्वारा किये गये अपकृत्यों के लिए उत्तरदायी माना जाना चाहिये तो उन्हीं परिस्थितियों में और उन्हीं आधारों पर राज्य को भी अपने कर्मचारियों के अपकृत्य के लिए उत्तरदायी माना जाना चाहिये।

इससे यह बात स्पष्ट होती हैं कि राज्य एवं उसके कर्मचारियों के बीच स्वामी एवं सेवक के सम्बन्ध होते है। इसीलिये अपने सेवकों के अपकृत्य के लिए स्वामी की भांति राज्य उत्तरदायी हो जाता है। इसके लिए निम्नांकित बातें आवश्यक मानी गई है—

I. अपकृत्य करने वाला व्यक्ति राज्य का सेवक अर्थात कर्मचारी होना चाहिये:

II. अपकृत्य नियोजन के दौरान किया गया होना चाहिये; तथा

III. अपकृत्य स्वामी (राज्य) के प्राधिकार के अन्तर्गत किया गया होना चाहिये।

रूप राम बनाम स्टेट ऑफ पंजाब’ (ए.आई.आर. 1981 पंजाब 336) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि सड़क निर्माण के लिए सामान लाने का कार्य राज्य कार्य की परिभाषा में नहीं आता है अतः ऐसे वाहन से कारित चोटी के लिए राज्य उत्तरदायी है। इसमें यह माना गया है कि इस कार्य का स्वरूप एक सामान्य नागरिक के कार्य जैसा ही है।

‘मुस. बिद्यावती बनाम लोकूमल’ (ए.आई.आर.1957 राजस्थान 305) का एक और महत्त्वपूर्ण प्रकरण है जिसमें यह कहा गया कि— अन्य साधारण नागरिक की भाँति राज्य भी अपने कर्मचारियों के अपकृत्यों के लिए उत्तरदायी है। राज्य अब केवल पुलिस राज्य नहीं है अपितु एक लोक कल्याणकारी राज्य है। दिन प्रतिदिन राज्य अपनी कार्य विधि उन क्षेत्रों में बढ़ा रही है जिन्हें अन्य सामान्य नागरिक कर सकता है। अत: ऐसा कोई आधार नहीं है कि जिन अपकृत्यों के लिए एक सामान्य नागरिक उत्तरदायी माना जाता है; उनके। लिए राज्य को उत्तरदायी न माना जाये। अपील में ‘स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम विद्यावती’

(ए.आई.आर.1962 एस.सी.) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा राजस्थान उच्च न्यायालय के मत की पुष्टि की गई।

लेकिन ‘कस्तूरी लाल रलियाराम बनाम स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश’ (ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 1039) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा स्थिति का भिन्न रीति से विवेचन करते हुए कर्मचारी के अपकृत्य के लिए राज्य को उत्तरदायी नही माना गया है। इसमें उच्चत्तम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि यदि कर्मचारी द्वारा किया गया अपकृत्य राज्य के प्रभुता सम्बन्धी क्षेत्र में आता है तो अपकृत्य द्वारा कारित हानि के लिए राज्य को उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है।

लेकिन धीरे-धीरे स्थिति एवं विचारधारा में परिवर्तन आया। ‘सत्यवती देवी बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया’ (ए.आई.आर.1967 दिल्ली 98) के मामले में वायुसेना की एक गाड़ी नई दिल्ली में सेना के खिलाड़ियों को मैदान में ले जा रही थी तभी चालक की असावधानी से एक दुर्घटना घटी जिसके लिए न्यायालय द्वारा राज्य को उत्तरदायी ठहराया गया। न्यायालय ने इसे राज्य का प्रभुतासम्पन्न कार्य नहीं माना।

इसी प्रकार ‘यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम सुगा बाई’ (ए.आई.आर.1969 मुम्बई 13) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि फौजी काम में लगे वाहन से साईकिल सवार को कारित क्षति के लिए राज्य उत्तरदायी है।

‘राजस्थान स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन बनाम के.एन.कोठारी.’ (ए.आई.आर. 1997 एस.सी.3444) के मामले में भी चालक के कृत्य के लिए निगम को उत्तरदायी ठहराया गया है।

‘जी.गौरीशंकर बनाम स्टेट ऑफ उड़ीसा’ (ए.आई.आर. 2007 उड़ीसा 74) के मामले में एक विद्यालय की दीवार गिरने से एक छात्र की मत्य हो गई। यह विद्यालय सरकारी था तथा दीवार सार्वजनिक निर्माण विभाग द्वारा बनाई गई थी। न्यायालय ने इस दुर्घटना के लिए राज्य का प्रतिनिधिक दायित्व माना।

इसी प्रकार ‘धरणीधर पण्डा बनाम स्टेट ऑफ उड़ीसा (ए.आई.आर. 2005 उड़ीसा 36) के मामले में विद्यालय की दीवार व खम्भा ढह जाने से दो छात्रों की मृत्यु हो। गई थी। विद्यालय का संचालन गाँव की एक शिक्षा समिति के जिम्मे था। इसमें विद्यालय। के प्राधिकारियों की भी लापरवाही रही। न्यायालय ने इस दुर्घटना के लिए राज्य का प्रतिनिधिक दायित्व भी माना। शिक्षा समिति का दायित्व तो था ही।

चिकित्सीय मामलों में राज्य का दायित्व– चिकित्सकों की लापरवाही से कारित क्षति के लिए भी अब अनेक मामलों में राज्य का प्रतिनिधिक उत्तरदायित्व माना जाने लगा है।।

‘आर.पी.शर्मा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (ए.आई.आर.2002 राजस्थान104) के मामले में चिकित्सीय लापरवाही से गलत ग्रुप का रक्त दे देने से कारित मृत्यु के लिए राज्य का प्रतिनिधिक उत्तरदायित्व (Vicarious liability) माना गया है।

इसी प्रकार ‘डा.लीला बाई बनाम सेवसटाइन’ (ए.आ.आर.2002 केरल 262) के मामले में राजकीय चिकित्सालय में पर्याप्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध नहीं होने से कारित क्षति के लिए राज्य को उत्तरदायी माना गया है।

ऐसे और भी अनेक मामले है जिनमें राज्य को अन्य सामान्य नागरिकों की भाँति अपकृत्यों के लिए उत्तरदायी ठहराया गया है। राज्य को उत्तरदायी ठहराये जाने के मुख्यतया निम्नांकित आधार है—

(1) राज्य का स्वरूप अब केवल पुलिस राज्य न होकर लोक कल्याणकारी राज्य है जो कि सभी प्रकार के लोकोपयोगी कार्यों (जैसे- उद्योग, परिवहन, व्यापार आदि) के संलग्न है। अतः राज्य भी अन्य स्वामियों की भांति उत्तरदायी है।

(2) “राजा कोई गलती नहीं कर सकता” (king can do no wrong) का सूत्र सामन्तवादी परम्परा का द्योतक है जिसे भारत में मान्यता नहीं दी जा सकती।

(3) इंग्लैण्ड में भी संविधान के लागू होने के पश्चात् यह सूत्र अब महत्त्वपूर्ण नहीं रह गया है।

प्रतिनिधिक दायित्व के कुछ महत्त्वपूर्ण मामले

प्रतिनिधिक दायित्व (Vicarious liability) के कुछ महत्त्वपूर्ण मामले निम्नलिखित हैं—

‘गुजरात इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड बनाम प्रवीण नानजी नाथबाबा’ (ए.आई.आर. 2005 गुजरात 178) के मामले में बिजली के खुले तारों से छू जाने के कारण एक व्यक्ति को स्थायी क्षतियाँ कारित हो गईं। न्यायालय ने इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड को इसके लिए उत्तरदायी ठहराया। इसी प्रकार ‘आन्ध्र प्रदेश इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड बनाम वाई.वेणुकुमार’ (ए.आई.आर. 2006 एन.ओ.सी. 949 आंध्रप्रदेश) के मामले में एक खेत में खुले पड़े बिजली के तारों को छू जाने से एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। न्यायालय ने इसके लिए स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड। को उत्तरदायी माना।

‘सेक्रेटरी, हिमाचल प्रदेश स्टेट इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड बनाम रिचर्ड’ (ए.आई.आर. 2006 हिमाचल प्रदेश 37) के मामले में इलेक्ट्रिसिटी बोर्ड के वाहन चालक ने वाहन को अनधिकृत रूप से चलाकर दुर्घटना कारित कर दी जिसमें एक कर्मचारी की मृत्यु हो गई। न्यायालय ने बोर्ड का प्रतिनिधिक दायित्व माना।

‘स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश बनाम हरभजन सिंह (ए.आई.आर. 2006 एन.ओ.सी. 310 मध्यप्रदेश) के मामले में राज्य के कानून एवं व्यवस्था बनाये रखने में असफल रहने से वादी की सम्पति को क्षति कारित हुई। न्यायालय ने राज्य का प्रतिनिधिक दायित्व मानते हुए वादी को प्रतिकर दिलाया।

 

परिस्थितियाँ स्वयं बोलती है

(Res ipsa loquitor)

उपेक्षा अथवा असावधानी के सम्बन्ध में यह एक महत्वपूर्ण नियम या सिद्धान्त है। इसे “घटना स्वयं प्रमाण है” अथवा “चीज स्वयं बोलती है” का नियम या सिद्धान्त भी कहा जाता है। “रेस इप्सा लोक्यूटर’ (Res ipsa loquitr) का सिद्धान्त घटना को साबित अथवा प्रमाणित करने से सम्बन्ध रखता है।

सामान्य नियम यह है कि उपेक्षा के लिए नुकसानी के मामलों में प्रतिवादी की उपेक्षा को साबित करने का भार वादी पर होता है। ऐसे मामलों में प्रतिवादी को यह सावित। करना होता है कि उसके द्वारा कोई उपेक्षा नहीं बरती गई थी। लेकिन यह कोई निरपेक्ष नियम। नहीं है अर्थात प्रत्येक मामले में वादी के लिए यह सम्भव नहीं होता है कि वह प्रतिवादी की। उपेक्षा को साबित कर सकें। कई बार पटनाये ऐसी होती है जिसके बारे में वादी यह तो। सावित कर सकता है कि घटना कारित हई लेकिन यह साबित नहीं कर सकता कि वह कैसे। कारित हई अथवा किसकी उपेक्षा या असावधानी से कारित हुई।

उदाहरणार्थ, बादी एक सड़क पर जा रहा था और जब वह प्रतिवादी की दुकान के निकट पहंचा तो ऊपर की मंजिल की खिड़की से एक आटे का कनस्तर उसके सिर पर। गिरा और वह घायल हो गया। वादी यह नहीं बता सकता था कि घटना किस प्रकार घटी। या किसकी उपेक्षा से घटी लेकिन यह अवश्य बना सकता था कि जब वह प्रतिवादी की दुकान के निकट पहुँचा तभी ऊपर से एक कनस्तर उसके ऊपर गिरा जिससे वह गिरकर बेहोश हो गया। ऐसे मामलों में शेष सारी बातें अर्थात् घटना कैसे घटी, यह परिस्थितियाँ स्वयं बता देती है। परिस्थितियाँ इस बात का प्रमाण है कि कनस्तर किसी की असावधानी से खिड़की से बाहर निकलकर वादी के सिर पर आ गिरा। कनस्तर स्वयं अपने आप खिड़की से बाहर आकर नहीं गिर सकता था। यही Res ipsa loquitr का अर्थात ‘परिस्थितियाँ स्वयं बोलती है’ का सिद्धान्त है। बाइरन बनाम बोडल, 1(1963)2एच.एण्ड सी.722)

इस सम्बन्ध में ‘पोलक’ के विचार उद्धरणीय है। उनका कहना है कि ऐसे मामलों में यदि वादी से यह अपेक्षा की जाये कि वह कनस्तर कैसे गिरा, किसने गिराया, को साबित करें तो यह एक मूर्खतापूर्ण बात होगी। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि इससे अधिक मूर्खतापूर्ण बात और नहीं हो सकती है कि वादी से यह कहा जाये कि वह खिड़की से कनस्तर गिराने वाले को साक्षी के तौर पर बुला कर उससे उसकी उपेक्षा को साबित करें। वस्तुतः ऐसे मामलों में प्रतिवादी की लापरवाही स्वयं सिद्ध हो जाती है। ।

‘पुष्पा बाई पुरुषोत्तम उडेसी बनाम मे रणजीत जीनिंग एण्ड प्रेसिंग क.प्रा.लि. (ए.आई.आर.1977 एस.सी.1735) के मामले में उच्चत्तम न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि उपेक्षा एवं उतावलेपन से वाहन चलाये जाने के मामले में प्रतिवादी को यह साबित करना होता है कि उसके द्वारा वाहन को उपेक्षा एवं उलावलेपन से नहीं चलाया गया था। ऐसे मामलों में ‘परिस्थितियाँ स्वयं बोलती हैं’ (Res ipsa ioquitur) का सिद्धान्त लागू होता है। इस मामले में प्रतिवादी के वाहन में यात्रा करते समय पुरुषोत्तम की मृत्यु हो गई थी। वाहन प्रतिवादी कम्पनी का मैनेजर चला रहा था। वाहन अत्यन्त तेज गति, उपेक्षा एवं उतावलेपन से चलाया जा रहा था। न्यायालय ने Res ipsa loquitur के सिद्धान्त को लागू करते हुए प्रतिवादी को उपेक्षा का दोषी ठहराया।

‘परिस्थितियाँ स्वयं बोलती है’ (Res ipsa loquitur) के सिद्धान्त को ‘बिहार स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन बनाम मंजू’ (ए.आई.आर.1992 पटना109) के मामले में स्पष्ट किया गया है। इसमें पटना उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है। कि Res ipsa loquitur के मामलों में प्रतिवादी को यह साबित करना होता है कि घटना। उसकी उपेक्षा एवं लापरवाही से कारित नहीं हुई है क्योंकि ऐसे मामलों में घटना स्वयं अपना वृतान्त सुना देती है। =वादी को केवल यह साबित करना होता है कि घटना कारित हुई। है। इस मामले में वादी एक रिक्शे में बैठकर जा रहा था। पीछे से बिहार स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट। कॉरपोरेशन की बस ने उस रिक्शे के इतनी जोर से टक्कर मारी कि वादी रिक्शे से गिरकर 10 फीट की दूरी पर जा गिरा। न्यायालय ने इसमें Res ipsa loquitur के सिद्धान्त को लागू। करते हुए प्रतिवादी को उपेक्षा का दोषी माना।

ऐसा ही एक और मामला ‘वी.के.साहेब बनाम मैसूर स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन’ (ए.आई.आर.1991 ए.सी.487) का है। इसमें वादी (अपीलार्थी) प्रतिवादी (प्रत्यर्थी) की बस में यात्रा कर रहा था तब दुर्घटनाग्रस्त हो गया। दुर्घटना के समय सड़क पर न तो भीड़ थी और न ही वाहन में कोई यांत्रिक त्रुटि आ गई थी। न्यायालय ने इसमें Res ipsa loquitur के सिद्धान्त को लागू करते हुए कहा पटना के औचित्य को साबित करने का भार प्रतिवादी पर है।

“श्याम सुन्दर बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान’ (ए.आई.आर 1974 एस सी 890) का मामला इस सिद्धान्त पर और अच्छा प्रकाश डालता है। इसमें वाटी राजस्थान के अधीन सार्वजनिक निर्माण विभाग (P.W.D) में स्टोर कीपर के पद पर कार्यरत दिन वह सूखा पीड़ित लोगों के लिए राहत सामग्री लेकर एक ट्रक से जा रहा था। ट्रक का रेडियेटर बार-बार गरम हो जाता था तथा हर 6-7 मील के बाद चालक को उसमें पानी डालना पड़ता था। अन्ततः उसमें आग लग गई। इस पर जब वादी आग से बचने के लिए वाहन से कूदा तो एक पत्थर से जा टकराया जिससे परिणामस्वरूप उसकी मृत्यु हो गई। वाटी की विधवा ने नुकसानी का वाद संस्थित किया। वादी का वाद स्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि घटना चालक की उपेक्षा के कारण कारित हुई थी। जब रेडियेटा बार-बार गरम हो रहा था तो चालक को विशेष सावधानी बरतनी चाहिये थी और विशेष उपाय करने थे लेकिन नहीं किये गये। ऐसे मामलों में Res ipsa loquitur का सिद्धान्त लागू होता। है। वादी के लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह प्रतिवादी की उपेक्षा को साबित करें।

एक अन्य मामला ‘पदमबिहारीलाल बनाम उड़ीसा इलेक्टिक बोर्ड (ए.आइ.आर.1992 उड़ीसा68) का है। इसमें याचिकादाता का पुत्र साईकिल से बाजार में जाते हए बिजली के लटके हुए तारों के सम्पर्क में आ गया और उसकी मृत्यु हो गई। न्यायालय ने कहा- बिजली के खंभो से नंगे तार लटकना Res ipsa loquitur के सिद्धान्त को लागू करने के लिए पर्याप्त है। ऐसे मामलों में प्रतिवादी को यह साबित करना होता है। कि वह उपेक्षा का दोषी नहीं है।

इसी प्रकार के तथ्यों से मिलता-जलता एक और मामला ‘मध्यप्रदेश विद्यत बोर्ड। रामपुर बनाम भजन गोन्डा’ (ए.आई.आर.1999 मध्यप्रदेश17) का है। इसमें बिजली के कुछ तार खम्भे से टूटकर खेत में गिर गये थे जिससे एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई। इसमें न्यायालय ने Res ipsa loquitur के सिद्धान्त को लागू करते हए कहा कि बिजली के तारों का टूटकर खेत में गिर जाना स्वयं प्रतिवादी की उपेक्षा को दर्शाता है। ऐसे मामला में यह आवश्यक नहीं है कि वादी प्रतिवादी की उपेक्षा को साबित करें। अपनी उपेक्षा नहीं होन। के तथ्य को साबित करने का भार प्रतिवादी पर होता है।

‘चीफ एक्जीक्यूटिव ऑफिसर बनाम प्रभाती साहू’ (ए.आई.आर. 2012 एन.ओ.सी. 83 उडीसा) के मामले में Res ipsa loquitur के सिद्धान्त को लागू किया गया। इसमें कुछ ही ऊंचाई पर लटकते हुए बिजली के तारों के सम्पर्क में आने से मृतक की मृत्यु हो गई। घटनास्थल पर ऐसा कोई संकेत नहीं था जो यह बता सके कि बिजली का सप्लाई बन्द है। यह उपेक्षा थी। यदि ऐसी उपेक्षा नहीं बरती जाती तो घटना टल सकती थी। इसे विद्युत प्राधिकारी की लापरवाही एवं उपेक्षा मानते हुए मृतक के वारिसों को प्रतिकर पाने का हकदार माना गया।

ऐसे और भी अनेक मामले है जिनमें न्यायालयों द्वारा Res ipsa loquitur के सिद्धान्त को लागू किया गया है। इस सिद्धान्त का मूल अभिप्राय यह है कि—

(i) घटना अथवा परिस्थितियाँ स्वयं बोलती अर्थात् वे स्वयं यह स्पष्ट कर देती है कि घटना कैसे कारित हुई;

(ii) ऐसे मामलो में वादी के लिए यह आवश्यक नहीं होता है कि वह प्रतिवादी की उपेक्षा को साबित करे; तथा

(iii) यह साबित करने का भार कि घटना कारित होने में प्रतिवादी की कोई उपेक्षा नहीं रही है; स्वयं प्रतिवादी पर होता है।

‘श्रीमती मधुबाला बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, दिल्ली’ (ए.आई.आर. 2005 एन.ओ.सी. 339 दिल्ली) के मामले में एक महिला की शल्य चिकित्सा कराई गई ताकि उसके आगे और कोई सन्तान नहीं हो। शल्य चिकित्सा करते समय चिकित्सकों द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया था कि शल्य चिकित्सा के बाद भी बच्चे का जन्म हो सकता है। महिला को भी यह हिदायत दी गई थी कि मासिक धर्म नियमित नहीं होने पर वह समयसमय पर अपनी जाँच कराती रहे। लेकिन महिला ने कोई ध्यान नहीं दिया। शल्य चिकित्सा। के बाद भी महिला ने बच्चे को जन्म दे दिया। उसके द्वारा चिकित्सकों के विरुद्ध चिकित्सीय। लापरवाही का वाद दायर किया गया। महिला ने सबूत में परिस्थितियाँ स्वयं बोलती हैं। (Res ipsa locutur) के सूत्र का सहारा लिया, लेकिन न्यायालय ने इस मामले में इस सूत्र को लागू नहीं माना, क्योंकि महिला स्वयं लापरवाही की दोषी थी। 

 

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Lecture 5

प्रतिनिध दायित्व [Vicarious liability]

P.T. QUESTIONS

 

    कई बार एक व्यक्ति के कार्य के लिए किसी दूसरे व्यक्ति को भी उत्तरदायी ठहराया जा सकता है। यह सिद्धान्त______

(a) प्रतिनिधिक दायित्व

(b) अवबोधन का सिद्धान्त

(c) वक्रोक्ति

(d) अतिचार

 

    Respondent Superior “प्रतिवादी उत्कृष्ट” का अर्थ है।

(a) प्रमुख को उत्तरदायी होने दे

(b) सम्राट की जिम्मेदारी होती है

(c) राजा उत्तरदायी होता है

(d) (a) & (c) दोनों

 

    राजा कोई गलती नही कर सकता यह कहावत प्रचलित रही थी

(a) इग्लैण्ड

(b) भूटान

(c) अमेरिका

(d) इण्डिया

 

    इग्लैण्ड में राजा अथवा सम्राट को अपने कर्मचारियों के अपकृत्य के लिए उत्तरदायी नही माना जाता था। परन्तु बीसवी सदी में किए एक्ट के पारित होने के बाद अब राजा को अपने कर्मचारियों के अपकृत्य के लिए दायी माना जाने लगा।

(a) क्राउन प्रोसिडिग्स एक्ट 1947

(b) क्राउन एक्ट 1947

(c) प्रोसिडिग्स एक्ट 1947

(d) क्राउन प्रोसिडिग्स एक्ट 1948

 

    फौजी काम में लगे वाहन से साईकिल सवार को कारित क्षति के लिए राज्य उत्तरदायी है

(a) यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम सुगा बाई

(b) विघ्यावती बनाम लौश्मल

(c) डॉ. लीला बाई बनाम सेबसटाइन

(d) कोई नही

 

    चालक के कृत्य के लिए निगम को उत्तरदायी ठहराया गया है

(a) राजस्थान स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेश बनाम के.एन.कोठारी

(b) गोरीशंकर बनाम स्टेट ऑफ उडीसा

(c) स्टेट ऑफ आंध्रप्रदेश बनाम रंगल्न

(d) कोई नही

 

    रेस इप्सा लोक्यूटर का सिद्धान्त

(a) घटना को साबित अथवा प्रमाणित करने से सम्बन्ध रखता है

(b) घटना को साबित न करने से सम्बन्ध रखता है

(c) (a) & (b) दोनों

(d) कोई नही

 

    घटना स्वयं बोलती है का सिद्धान्त ऐसे मामलों में लागू नही होता है, जिनमें लापरवाही नही पाई गई

(a) श्रीमती रुम्मविदास बनाम स्टेट ऑफ ओडिसा

(b) पदमबिहारीलाल बनाम उडीसा इलेक्ट्रिक बोर्ड

(c) श्याम सुन्दर बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान

(d) कोई नही

 

    चिकित्सीय लापरवाही से गलत ग्रुप को रक्त दे देने से कारित मृत्यु के लिए राज्य का प्रतिनिधिक उत्तरदायित्व माना गया है

(a) आर पी शर्मा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान

(b) घरणीधर पण्डा बनाम स्टेट ऑफ उडीसा

(c) डॉ लीला बाई बनाम सेबसटाइन

(d) बिना देवी बनाम स्टेट ऑफ

 

    पुलिस द्वारा हवा में गोली चलाने से वादी से क्षति कारित हुई। पुलिस द्वारा हवा में गोली चलाने में असावधानी बरती गई। न्यायालय ने इसके लिए राज्य को उत्तरदायी ठहराया

(a) स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश बनाम श्रीमती शन्तिबाई

(b) स्टेट ऑफ आंध्रप्रदेश बनाम रंगन्ना

(c) दिल्ली जल बोर्ड बनाम राजकुमार

(d) कोई नही

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Lecture – 6

वैयक्तिक बचाव एवं आवश्यकत के बचाव

MAINS QUESTIONS

 
  1. न्यायिक उपचार और न्यायेत्तर उपचार को विस्तार से समझाइये।
 
  1. नुकसानी के प्रकारों की व्याख्या कीजिये।
 
  1. अपकृत्यपूर्ण कार्यों के दायित्व से बचने के विभिन्न आधार है इस आधारों में वैयक्तिव बेचाव एवं आवश्यकता भी सम्मिलित है। विस्तार से समझाइये।
 

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Lecture – 6

वैयक्तिक बचाव एवं आवश्यकत के बचाव

 

अपकृत्यपूर्ण कार्यों के दायित्व से बचने के विभिन आधार है इस आधारों में “वैयक्तिक बचाव’ एवं ‘आवश्यकता’ भी सम्मिलित है। यहाँ हम इन दोनों का विस्तृत अध्ययन करेंगे।

(1) वैयक्तिक बचाव (Private defence)—वैयक्तिक बचाव को ‘आत्मरक्षा’ के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। यह अपकृत्यपूर्ण दायित्व का एक अच्छा बचाव (defence) है।

यह निर्विवाद है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपने शरीर एवं सम्पति की रक्षा एवं सुरक्षा का अधिकार है। ऐसी रक्षा एवं सुरक्षा के लिए यदि किसी अन्य व्यक्ति के प्रति बल प्रयोग करना पडे या क्षति भी कारित करनी पड़े तो वह अभियोज्य (actionable) नहीं है अर्थात् उसके विरुद्ध नुकसानी का वाद नहीं लाया जा सकता है।

उदाहरणार्थ– ‘क’, ‘ख’ के मकान में चोरी करने के आशय से प्रवेश करता है तथा ‘ख’ के कुछ आभूषण चुराकर भागने लगता है। ‘ख’, ‘क’ का पीछा करता है इस पर ‘क’, ‘ख’ पर लाठी से वार करता है। ‘ख’ अपने बचाव के में ‘क’ पर पत्थर फेंकता है जिससे ‘क’ की चोट कारित हो जाती है। ‘ख’ को न तो अभियोजित किया जा सकता है और न उसके विरुद्ध नुकसानी का वाद लाया जा सकता है क्योंकि ‘ख’ का कृत्य अपने वैयक्तिका बचाव या आत्मरक्षा की परिधि में आता है।

फ्रेडरिक पोलक का कहना है कि— “वैयक्तिक बचाव अथवा आत्मरक्षा का यह अधिकार अपनी पत्नी अथवा परिवार के अन्य लोगों की रक्षा के लिए भी उपलब्ध है। स्वामी एवं सेवक भी एक-दूसरे की रक्षा के लिए इस बचाव का सहारा ले सकते है।”

इसको भी उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है। ‘क’ को ‘ख’ की अवयस्क पुत्री ‘ग’ के साथ बलात्कार करते हुए ‘ख’ देख लेता है। ‘ग’ को बलात्कार से बचाने के लिए ‘ख’, ‘क’ को धक्का देता है जिससे ‘क’ को गंभीर चोटे कारित हो जाती है। ‘ख’ को इस कृत्य के लिए न तो अभियोजित किया जा सकता है और न ही उसके विरुद्ध नुकसानी का वाद लाया जा सकता है क्योंकि उसका यह कार्य अपनी पुत्री के वैयक्तिक बचाव के। लिए किया गया कार्य है।

इस बचाव की प्रयोज्यता के लिए दो बातें आवश्यक है।

(i) वैयक्तिक बचाव अथवा आत्मरक्षा का अधिकार केवल तभी उपलब्ध होता। है जब किसी व्यक्ति के शरीर या सम्पत्ति को संकट उत्पन्न हो जाये; तथा

(ii) आत्म रक्षा के लिए उतने ही बल के लिए उतने ही बल का प्रयोग किया जा सकता है जितना उन परिस्थितियों में आवश्यक हो अर्थात सम्भावित हानि से अधिक बल का प्रयोग नहीं किया जा सकता।।

इस सम्बन्ध में ‘मौरिस बनाम न्यजेन्ट’ (183697 सी एण्ड पी 572) का एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें प्रतिवादी जब वादी के मकान के सामने से गुजर रहा था तब वादी के कुत्ते ने प्रतिवादी की लड़की को काट लिया। प्रतिवादी ने वादी के कुत्ते पर योहि गोली चलाना चाहा, कुत्ता वहाँ से भाग गया। थोड़ी देर में जब कुत्ता उधर से वापस निकला तब प्रतिवादी ने उस पर गोली चला दी। न्यायालय ने इसमें आत्मरक्षा के बचाव को नहीं माना। क्योंकि जब गोली चलाई गई तब कुत्ता हमला नहीं कर रहा था अर्थात् तब प्रतिवादी के शरीर या सम्पत्ति को कोई खतरा नहीं था।

भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 96 से 106 तक में भी आत्मरक्षा के बारे में प्रावधान किया गया है।

‘यशवन्त बनाम स्टेट ऑफ मध्यप्रदेश’ (ए.आई.आर.1992 एस.सी.1683) के मामले में एक व्यक्ति अभियुक्त की लड़की के साथ बलात्कार कर रहा था। अभियुक्त को अपनी लड़की की बलात्कार से रक्षा करने के लिए उस व्यक्ति को गंभीर चोट करनी पड़ी। अभियुक्त के इस कृत्य को वैयिक्तक बचाव अर्थात् आत्मरक्षा की परिधि में माना गया।

इसी प्रकार ‘राधवन बनाम स्टेट ऑफ केरल’ (ए.आई.आर.1993 एस.सी.203) के मामले में अभियुक्त ने मृतक को अपनी पत्नी के साथ संभोग करते हुए। देख लिया था। मृतक ने अभियुक्त को कई चोंटे कारित की। इस पर अभियुक्त ने प्रतिरक्षार्थ मृतक पर वार किया जिससे उसकी मृत्यु हो गई। अभियुक्त के इस कृत्य को आत्मरक्षा की कोटि में आने वाला कृत्य माना गया।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आत्मरक्षा के बचाव का प्रयोग उसी सीमा तक किया जा सकता है जितना आवश्यक हो अर्थात् आवश्यकता से अधिक बल प्रयोग नहीं किया जा सकता।

‘कुक बनाम बील’ (1697 एल.आर.176) के मामले में यह कहा गया है कि आत्मरक्षार्थ बल प्रयोग सम्भावित हानि से अधिक मात्रा में नहीं किया जाना चाहिये, जैसे थप्पड़ मारने के एवज में आत्मरक्षार्थ बन्दूक या तलवार का प्रयोग नहीं किया जा सकता।

‘महावीर चौधरी बनाम स्टेट ऑफ बिहार’ (ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1998) के मामले में उच्चत्तम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि सम्पत्ति पर अतिक्रमण के मामले में अतिक्रमणकर्ताओं की मृत्यु कारित करने का निजी सुरक्षा का अधिकार तब तक नहीं मिलता है जब तक अतिक्रमणकर्ताओं से मृत्यु अथवा गंभीर चोट की आशंका न हो।

फिर आत्मरक्षा के बचाव का उपयोग केवल निजी सुरक्षा के लिए ही किया जा सकता है: बदला लेने की भावना से नहीं। (राजेश कुमार बनाम धर्मवीर, ए.आई.आर.1997 एस.सी.3769)

यह अधिकार ऐसे व्यक्ति को भी उपलब्ध नहीं है जो स्वयं आक्रमणकर्ता है अर्थात इसका उपयोग केवल बाल के रूप में किया जा सकता है; तलवार के रूप में नहीं।

जयपाल बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा’ (ए.आई.आर.2000 एम.सी.1271) मामले में भी उच्चत्तम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि आत्मरक्षाका अधिकार ऐसे व्यक्ति को नहीं मिलता है जो स्वयं आक्रमणकर्ता हो।

इस प्रकार कतिपय परिसीमाओं के साथ आत्मरक्षा अथवा वैयक्तिक बचाव अपकृत्यपूर्ण दायित्व से बचने का एक अच्छा आधार है।

(2) आवश्यकता के कार्य (Act of necessity)— आवश्यकता (necessity) भी अपकृत्य दायित्व का भी अपकृत्य दायित्व का एक अच्छा बचाव है। इसके अनुसार—जहाँ आवश्यकता हो वहा क्षतिपूर्ण कार्य करने पर भी वह अपकृत्य के लिए अभियोज्य (actionable) नहीं होता। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि जहाँ अधिकतम निवारण के लिए कोई क्षतिपूर्ण कार्य भी करना पड़े तो वह क्षम्य है।

उदाहरणार्थ- एक मकान में आग लग जाती है और वह इतनी फैल जाती है कि आसपास के मकानों को संकट उत्पन्न हो जाता है। आग बुझाने के लिए ‘क’ मकान में पानी फेंकता है जिससे गृहस्वामी का सामान भीगकर नष्ट हो जाता है। ‘क’ के विरुद्ध नुकसानी का वाद नहीं लाया जा सकता क्योंकि आग बुझाने के लिए पानी फेंकना आवश्यक हो गया था तथा आग फैलने से रोकने के लिए भी यह आवश्यक था।

आवश्यकता का बचाव इस सिद्धान्त पर आधारित है कि- “अधिकतम व्यक्तियों का अधिकतम लाभ ही सर्वोच्च विधि है।” शेक्सपियर ने भी एक जगह कहा है कि “आवश्यकता किसी काननू को नहीं मानती।”

वस्तुतः हमारे दैनिक जीवन में ऐसे अनेक अवसर आते हैं जब किसी व्यक्ति या सम्पति को हानि या क्षति से बचाने के लिए ऐसा कार्य करना पड़ता है जो स्वयं क्षतिकारक होता है, जैसे—

(i) जहाज के या नाव के डूबने का खतरा होने पर उसमें बैठे व्यक्तियों को बचाने के लिए उसमें भरे माल को फैंक देना;

(i) किसी रोगी के जीवन को बचाने के लिए उसकी शल्य क्रिया करना;

(ii) मकान में आग लग जाने पर उसे बुझाने के लिए या उसके फैलाव को रोकने के लिए पानी फेंकना आदि।

लेकिन यहां यह उल्लेखनीय है कि ऐसा कार्य केवल तभी किया जा सकता है जब वह युक्तियुक्त रूप से आवश्यक हो। इस सम्बन्ध में ‘किर्क बनाम गरा [(1876) एक्स.डी.55] का महत्वपर्ण मामला है। इसमें ‘क’ नामक एक व्यक्ति का मृत्यु हो जाने पर उसकी साली ने सरक्षा की दृष्टि से उसके गहने उस कमरे से हटाकर किसी अन्य कमरे में रख दिये। वहाँ से गहने चोरी चले गये। ‘क’ के वारिसों ने ‘क’ की साली के विरुद्ध नुकसानी का वाद संस्थित किया। न्यायालय ने ‘क’ की साली को उत्तरदायी मानते हुए कहा कि जिन परिस्थितियों में ‘क’ की साली ने यह काम किया था वह आवश्यक एवं न्यायसंगत नहीं था।

भारतीय दण्ड सहिंता, 1860 की धारा में भी इसी प्रकार की व्यवस्था की गई। इसमें यह कहा गया है कि “कोई बात केवल इस कारण अपराधी नही है कि वह यह जानते हुए की की गई है कि उससे अपहानि कारित होना सम्भाव्य है, यदि वह अपहानि कारित करने के किसी आपराधिक आशय के बिना और व्यक्ति या सम्पत्ति को अन्य अपहानि का निवारण करने के प्रयोजन से सद्भावपूर्वक की गई हो।”

यहाँ ‘डडली बनाम स्टीफेन्स’ [(1884)4क्यू.बी.डी.273] के मामले को उद्त किया जा सकता है। इसमें ‘द’ एवं ‘स’ दो नाविक तथा एक 17 वर्षीय बालक था। वे बीच में तूफानी समुंद्र में फंस गये और विवश होकर एक छोटी नाव में शरण के लिए जाना पड़ा। वह नाव समुद्र के तट से 1000 मील दूर समुद्र में बहकर चली गई। बीसवें दिन जबकि पिछले 10 दिन भोजन के और सात दिन बिना पानी के बीते, ‘द’ ने ‘स’ की सम्मति से बालक को मार दिया और उन दोनों ने उसके मांस से अपनी भूख मिटाई। ‘द’ और ‘स’ को हत्या के लिए अभियोजित किया गया। ‘स’ एवं ‘द’ की ओर से बचाव में यह कहा गया कि अपना जीवन बचाने के लिए बालक की हत्या किया जाना आवश्यक हो गया था। लेकिन न्यायालय ने इस तर्क को नहीं माना और ‘स’ एवं ‘द’ को हत्या का दोषी मानते हुए कहा कि यह ऐसी आवश्यकता नहीं थी जिससे बालक की हत्या करनी पड़े चाहे ‘स’ और ‘द’ के लिए उस समय आत्म संरक्षण का और कोई उपाय नहीं रह गया हो। कुल मिलाकर आशय यह है कि आवश्यकता युक्तियुक्त हो। अयुक्तियुक्त आवश्यकता बचाव का आधार नहीं हो सकती।

अन्तर— यद्यपि यह दोनों ही बचाव एक जैसे लगते हैं; लेकिन इनमें कुछ महत्त्वपूर्ण अन्तर है; यथा

(i) वैयक्तिक बचाव का प्रयोग स्वयं या परिजनों के शरीर या सम्पति को अपकृत्य से बचाने के लिए किया जाता है जबकि आवश्यकता के बचाव का प्रयोग किसी बड़ी अपहानि के निवारण के लिए किया जाता है।

(ii) वैयक्तिक बचाव में बल प्रयोग सम्भावित संकट के अनुपात में किया जाता है या करना होता है जबकि आवश्यकता के बचाव में ऐसा कोई मापदण्ड नहीं होता। केवल उसका युक्तियुक्त होना अपेक्षित है।

अपकृत्य के उपचार

जहाँ अधिकार हैं, वहाँ उपचार है’ विधि का यह एक सुस्थापित सिद्धान्त है। विधि के अन्तर्गत प्रत्येक व्यक्ति को विभिन्न प्रकार के अधिकार प्रदान किये गये है। कोई भी व्यक्ति अनावश्यक अथवा अवैध रूप से न तो इन अधिकारों में हस्तक्षेप कर सकता है और न ही उनका उल्लंघन यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के विधिक अधिकारों का अतिलंघन अथवा उल्लंघन करता है तो उसके विरूद्ध विधिक कार्यवाही की जा सकती है। अपकृत्य पर भी यही बात लागू होती है। इस विधिक कार्यवाही को ही ‘उपचार’ कहा जाता है।

सॉमण्ड (Salmond) के अनुसार यह उपचार दो प्रकार के हैं- न्यायिक उपचार एवं न्यायेत्तर उपचार। न्यायिक उपचार से अभिप्राय ऐसे उपचारों से है जिनका प्रवर्तन न्यायालयों के माध्यम से कराया जाता है अर्थात जिनके लिए न्यायालय में वाद संस्थिति करना। पड़ता है। न्यायेत्तर उपचारों से अभिप्राय ऐसे उपचारों से है जिन्हे व्यक्ति स्वयं अपने प्रयासो से प्राप्त करता है। इनके लिए न्यायालय में जाने की आवश्यकता नहीं होती।

न्यायिक उपचार भी तीन तरह के है—

(i) नुकसानी

(ii) व्यादेश; एवं

(iii) सम्पत्ति की पुनप्ति

नुकसानी भी छः प्रकार की मानी गई है—

(i) नाम मात्र की नुकसानी अर्थात प्रतीकात्मक नुकसानी

(ii) वास्तविक नुकसानी;

(iii) अवमानात्मक नुकसानी

(iv) उदाहरणात्मक नुकसानी;

(v) सामान्य एवं विशिष्ट नुकसानी; एवं

(vi) प्रत्याशित नुकसानी।

व्यादेश भी चार तरह के हैं- —

(i) अस्थायी व्यादेश;

(ii) स्थायी अर्थात शाश्वत व्यादेश;

(iii) निषेधात्मक व्यादेश;

(iv) आदेशात्मक अर्थात आज्ञापक व्यादेश।

न्यायेत्तर उपचारों को भी छ: भागों में वर्गीकृत किया गया है

(i) आत्म रक्षा;

(ii) अतिचारी का निष्कासन;

(iii) भूमि पर पुनः प्रवेश;

(iv) सम्पत्ति की पुनप्ति;

(v) न्यूसेन्स का उपशमन; तथा

(vi) करस्थम क्षति एवं अनुचित कार्य।

इन उपचारों का एक चार्ट द्वारा भली भांति समझा जा सकता है

न्यायिक उपचार

(1) नुकसानी

अपकृत्य के मामलों में ‘नुकसानी’ सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण उपचार है। यह धन के रूप में दिया जाने वाला ऐसा प्रतिकर है जो क्षतिग्रस्त व्यक्ति को उसके विधिक अधिकारों के अतिक्रमण से कारित क्षति के एवज में दिया जाता है। अपकृत्य के मामलों में नुकसानी सदैव निर्धारित होती है। नुकसानी को छ: भागों में वर्गीकृत किया गया है—

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(क) प्रतीकात्मक नुकसानी- इसे नाममात्र की नुकसानी भी कहा जाता है। इसमें नुकसानी की राशि नाममात्र की होती है। इसका उद्देश्य वास्तविक क्षतिपूर्ति करना नहीं, अपितु व्यथित व्यक्ति के विधिक अधिकारों को मान्यता प्रदान करना है।

‘ऐशबी बनाम व्हाइट’ [117032 एल.आर.938] का इस विषय पर एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें वादी को निर्वाचन अधिकारी द्वारा मतदान के विधिक अधिकार से वंचित कर दिया गया था। चुनाव में यद्यपि वादी का प्रत्याशी विजयी रहा था तथा वादी को कोई क्षति कारित नहीं हुई थी, फिर भी न्यायालय द्वारा उसे नुकसानी दिलाई गई क्योंकि उसके विधिक अधिकारों का अतिक्रमण हुआ था।

(ख) वास्तविक नुकसानी—यह एक ऐसी नुकसानी होती है जो क्षतिग्रस्त व्यक्ति की पूर्ण अर्थात वास्तविक प्रतिपूर्ति करती है। इसे प्रतिकरात्मक नुकसानी (compensatory damages) भी कहा जाता है।

‘जीतकुमारी पोद्दार बनाम चिटगांव इंजीनियरिंग एण्ड इलेक्ट्रिक सप्लाई क.लि.’ (आई.एल.आर.1946 कलकत्ता433) के मामले में यह कहा गया है कि प्रतिकरात्मक नुकसानी में वादी को कारित वास्तविक क्षति के लिए पर्याप्त नुकसानी दिलाई जाती है; ताकि वादी ऐसी धनराशि प्राप्त कर पुनः अपनी मूल अवस्था में आ सके।

(ग) उदाहरणात्मक नुकसानी— इसे ‘दण्डात्मक नकसानी’ भी कहा जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य वादी के सम्मान को पहँची ठेस के लिए सान्त्वना प्रदान करना है तथा साथ ही समाज के सामने एक उदाहरण प्रस्तुत करना है ताकि अन्य व्यक्ति ऐसे अपकृतया को पुनरावृति न करें। ऐसी नुकसानी विद्वैपपूर्ण असावधानी अथवा वादी जानबूझकर को क्षति कारित करने के मामलों में दिलाई जाती है। (रुका बनाम वर्नोर्ड 1964ए.सी. 1129)

(घ) सामान्य एवं विशिष्ट नुकसानी— सामान्य नुकसानी अभिप्राय ऐसी नुकसानी से है जिसका विधि द्वारा पूर्वानुमान कर लिया जाता है और जिसका वादपत्र में उल्लेख किया जाना आवश्यक नहीं होता जबकि विशिष्ट नुकसानी का वादपत्र में उल्लेख करना आवश्यक होता है और उसका पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता है।

‘बालाराम बनाम सम्पतलाल’ (ए.आई.आर. 1975 राजस्थान 40) के मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि विशेष नुकसानी के मामलों में ऐसी नुकसानी का वादपत्र में उल्लेख किया जाना तथा उसे साक्ष्य द्वारा साबित किया जाना आवश्यक है।

‘सी.बी. सिंह बनाम केन्टोनमेन्ट बोर्ड, आगरा,’ (ए.आई.आर. 1974 इलाहाबाद 147) के मामले में यह कहा गया है कि सामान्य नुकसानी का आक्कलन विधि द्वारा कर लिया जाता है और उसका वादपत्र में उल्लेख किया जाना आवश्यक नहीं है जबकि विशिष्ट नुकसानी का आक्कलन नहीं किया जा सकता इसलिये उसका वादपत्र में उल्लेख किया जाना आवश्यक होता है।

(ङ) प्रत्याशित नुकसानी— इसे भावी एवं निरन्तर नुकसानी भी कहा जाता है। इससे अभिप्राय ऐसी नुकसानी से है जो प्रतिवादी के किसी अपकृत्यपूर्ण कार्य का सम्भावित परिणाम हो सकती है। ऐसी नुकसानी विशेष तौर पर दुर्घटना के मामलों में दिलाई जाती है। जिसमें दुर्घटना तथा भविष्य की कार्यक्षमता में कमी आ जाने से कारित क्षति सम्मिलित रहती है।

‘सुभाषचन्द्र बनाम रामसिंह’ (ए.आई.आर. 1972 दिल्ली 189) का इस सम्बन्ध में एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें पंजाब राज्य परिवहन की बस से एक सात वर्षीय बालक दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। उसके स्थायी रूप से विकलांग हो जाने से वह आजीविका कमाने में भी असमर्थ हो गया। दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा उसे प्रतिकरस्वरूप 7500/- रुपये दिलाये गये।

(च) अवमानात्मक नुकसानी— अवमानात्मक नुकसानी अत्यन्त कमजोर प्रकृति के मामलों में देय होती है और नकसानी की धनराशि भी अत्यन्त कम होती है। सामान्यतः अवमानात्मक नुकसानी के मामलों में वादी नैतिक रूप से नुकसानी पाने का हकदार होता है; विधिक दृष्टि से नहीं।

उदाहरणस्वरूप ‘क’, ‘ख’ के लिए मानहानिकारक शब्दों का प्रयोग करता है। जिसके परिणामस्वरूप ‘ख’, ‘क’ के थप्पड मार देता है। ‘क’ नुकसानी का बाद लाता है। क का वाद अत्यन्त कमजोर प्रकति का होगा क्योंकि उस मारी गई थप्पड का कारण उसके स्वयं के अपमानजनक शब्द है।

नुकसानी का परिमाप

किसी मामले में नुकसानी का निर्धारण करना अतयन्त दुरुह कार्य है। इसके लिए न्यायालय को अनेक बातों पर ध्यान देना होता है। जैसे—

(i) शारीरिक क्षति के साथ-साथ मानसिक संताप एवं जीवन प्रत्याशा में कमी आ जाना; [आलिवर बनाम आशमेन, (1961)3 ऑल.R.3201]

(ii) वर्तमान क्षति के साथ-साथ भावी क्षति; (म्युनिसिपल कॉरपोरेशन दिल्ली बनाम सुभागवन्ती, एल.आई.आर. 1966 एस.सी.1750)

(iii) चिकित्सीय व्यय;

(iv) कष्ट एवं यातना;

(v) सुख-सुविधा की हानि,

(vi) नियोजन की हानि

(vii) साहचर्य से वंचित हो जाना; आदि।

अपकृत्य के मामलों में दूसरा महत्वपूर्ण उपचार ‘व्यादेश’ (injuncition) है। हेल्सबरी के अनुसार- व्यादेश एक ऐसी न्यायिक कार्यवाही है जिसके द्वारा किसी पक्षकार को कोई कार्य विशेष करने या न करने का आदेश दिया जाता है।

‘स्टेट ऑफ राजस्थान बनाम रणधीर’ (ए.आई.आर.1972 राजस्थान 241) के मामले में व्यादेश की निम्नांकित परिभाषा दी गई है— “व्यादेश एक ऐसा विशिष्ट आदेश है जो न्यायालय द्वारा ऐसे किसी दोषपूर्ण कार्य को जो प्रारम्भ किया जा चुका है जारी रखने से प्रतिवारित करने अथवा ऐसे कार्य को प्रारम्भ करने की धमकी को रोकने के लिए दिया जाता है।”

‘चैतन्य सिंह बनाम महर्षि दयानन्द सरस्वती विश्वविद्यालय’ (ए.आई.आर. 1998 राजस्थान 129) के मामले में व्यादेश को एक ऐसा न्यायिक उपचार बताया गया है जो न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है और यह तभी जारी किया जाता है जब इसके लिए उचित न्याय संगत एवं युक्तियुक्त कारण विद्यमान हो।

प्रचलित भापा में इसे ‘स्टे आर्डर’ कहा जाता है। यह चार प्रकार का होता है।

(i) अस्थायी व्यादेश अर्थात वाद के अन्तिम निर्णय तक प्रभावी रहने वाला व्यादेश

(ii) स्थायी व्यादेश अर्थात वाद के अन्तिम निर्णय के पश्चात् प्रभावी रहने वाला शाश्वत (perpetual) व्यादेश;

पड़यंत्र की परिभाषा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 120क में दी गई है। इसके अनुसार—

“जबकि दो या अधिक व्यक्ति-”

(2) कोई ऐसा कार्य जो अवैध नहीं है, अवैध साधनों द्वारा करने या करवाने को सहमत होते है, तब ऐसी सहमति ‘आपराधिक षड़यंत्र’ (criminial conspiracy) कहलाती है।

इसके विपरीत—

“जब दो या दो से अधिक व्यक्ति बिना किसी विधिपूर्ण न्यायानुमति के वादी को जानबूझकर क्षति कारित करने के प्रयोजन से संयुक्त होते है और उनके संयोजन के परिणामस्वरूप वादी को वास्तविक क्षति होती है, तब यह कहा जाता है कि वे षडयंत्र का अपकृत्य (tort of conspiracy) करते है।” (क्राफटर हैन्ड बोवन हैरिस ट्वीड कम्पनी बनाम बीच, 1942 ए.सी.435)

इस परिभाषा के अनुसार षडयंत्र रूपी अपकृत्य के लिए निम्नांकित बातों का होना आवश्यक है

(i) दो या दो से अधिक व्यक्तियों का संयुक्त होना;

(ii) बिना किसी विधिपूर्ण औचित्य के वादी को जानबूझकर क्षति कारित करने के प्रयोजन से संयुक्त होना अर्थात संयुक्त होने का उद्देश्य बिना किसी विधिपूर्ण औचित्य के वादी को जानबूझकर क्षति कारित करने का होना; तथा

(iii) ऐसे संयोजन से वादी को वास्तविक रूप से क्षति कारित होना।

इस प्रकार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के जुड़ाव द्वारा कोई अवैध कार्य किया। जाना पड़यंत्र रूपी अपकृत्य है। इसके लिए दो बातें आवश्यक है

(क) व्यक्तियों का जुड़ाव अर्थात संयोजन; एवं

(ख) अविधि पूर्ण अर्थात अवैध कार्य।

फिर ऐसे अवैध कार्य का उद्देश्य वादी को वास्तविक क्षति कारित करने का होना भी अपेक्षित है।

इस सम्बन्ध में ‘हल्टले बनाम थार्नटन’ [(1957)1ऑल ई.रि. 234] का एक अच्छा प्रकरण है। इसमें वादी एक संघ का सदस्य था। उसने संघ द्वारा की जाने वाली। हड़ताल के आह्वान को मानने से इन्कार कर दिया था। प्रतिवादीगण जो संघ के सचिव एवं अन्य पदाधिकारीगण थे, वादी को संघ से निष्कासित कर देना चाहते थे परन्तु संघ की। कार्यकारिणी ने ऐसा करना उचित नहीं समझा। प्रतिवादीगणों ने वादी के प्रति विद्वैप की भावना से इस बात का प्रयत्न किया कि वादी को कार्य से बाहर रखा जाये। इसके लिए प्रतिवादीगणों को षडयंत्र रूपी अपकृत्य के लिए उत्तरदायी ठहराया गया क्योंकि संघ की कार्यकारिणी अर्थात कार्यकारी परिषद के निर्णय के बावजूद उनका कार्य संघ के किसी भी हित के रावधर्म में नहीं था अपितु यह विद्वेप एवं वैरभाव से संप्रेरित था। इस मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि- “यदि संयोजन का प्रयोजन वादीको क्षति पंहुचाना है न कि अपने वैयक्तिक हितों का संवर्धन करना तो यह अभियोज्य (actionable) है।”

ऐसा ही एक और मामला ‘क्वित्र बनाम लीयेन’ (1901 ए.सी.495) का इसमें वादी एक कसाई था। वह थोक में मांस की आपूर्ति करता था। प्रतिवादीगणों ने द्वारा संघ से बाहर श्रमिकों के नियोजन पर आपत्ति की। प्रतिवादीगण ने उससे यह आग्रह किया कि वह उन श्रमिकों के स्थान पर जो संघ के सदस्य नहीं थे, उन श्रमिकों को नियोज्य दें जो उसके संघ के सदस्य थे। लेकिन वादी ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। इसके वाद प्रतिवादीगणों ने वादी के एक नियमित एवं बड़े ग्राहक से सम्पर्क किया और उसे धमकी दी कि यदि वह इसके बाद वादी से मांस खरीदेगा तो वे उसके विपरीत बल का प्रयोग इस पर ग्राहक ने वादी से मांस खरीदना बन्द कर दिया जिससे वादी को क्षति कारित हुई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि वादी प्रतिवादीगण के विरुद्ध नुकसानी का बाद लाने का हकदार है। न्यायालय का यह मत था कि प्रतिवादीगण का कृत्य संघ के हितों के संवर्धन के लिए नहीं अपितु विद्वैप भाव से वादी को क्षति पहुंचाने के लिए था।

इस प्रकार इन दोनों मामलों एवं उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि यदि व्यक्तियो के जुड़ाव अर्थात संयोजन द्वारा वादी को क्षति कारित करने के प्रयोजन से कोई कार्य किया जाता है तो वह षड़यंत्र रूपी अपकृत्य होने से अभियोज्य है।

लेकिन कोई वैध कार्य व्यक्तियों के जुड़ाव मात्र से अवैध अथवा अपकत्य नहीं हो जाता है लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि- “कोई भी कार्य जो अन्यथा वैध है, मात्र व्यक्तियों के जुड़ाव के कारण अवैध अथवा अपकृत्य नहीं हो जाता है।” एक तरह से यह पड़यंत्र रूपी अपकृत्य का अपवाद है। इसके अनुसार- ऐसा कोई भी कार्य मात्र दो या दो से अधिक व्यक्तियों के जुड़ाव अथवा संयोजन के कारण अवैध (अपकृत्य) नहीं हो जाता है—

(i) जो अन्यथा वैध है;

(ii) जिसका उद्देश्य वादी को क्षति कारित करने का नहीं है।

(iii) जिसका उद्देश्य स्वयं के हितों का संरक्षण अथवा संवर्धन करना है।

ऐसे कार्य से यदि वादी को क्षति कारित हो जाती है तो भी वह अभियोज्य (actionable) नहीं है।

इस सम्बन्ध में ‘मुगल स्टीमशिप कम्पनी बनाम मैक ग्रेगर’ (1892 ए.सी.25) का महत्वपूर्ण मामला है। इसमें प्रतिवादी पोत स्वामियों की कुछ कर्मे थी। उन्होंने चीन और यूरोप के बीच चाय के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए किराया-भाड़े में काफी कमी कर दी जिसके परिणामस्वरूप वादी को जो इस व्यापार में एक प्रतिद्वन्दी व्यापारा था; अपना व्यापार बन्द कर देना पड़ा। वादी ने प्रतिवादीगण के विरुद्ध षडंयत्र की कार्यवाही प्रारम्भ की। लेकिन लार्ड सभा ने यह अभिनिर्धारित किया कि प्रतिवादीगण इसके लिए उत्तरदायी नहीं ठहराये जा सकते है क्योंकि—

(i) उनका उद्देश्य विधिपूर्ण था;

(ii) वे अपने स्वयं के व्यापारिक हितों का संरक्षण एवं संवर्धन करना चाहते थे

(iii) उनका उद्देश्य वादी को क्षति कारित करने का नहीं था।

(iv) अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उनके द्वारा विधि विरुद्ध साधनों का प्रयोग नहीं किया गया था।

दूसरा प्रकरण ‘क्राफ्टर हैन्ड बोबेन हैरिस ट्वीड क.लि. बनाम बीच’ (1942 एस.सी. 435) का है। इसमें प्रतिवादीगण एक व्यापारी संघ था। उसने संघ के सदस्य गोदी मजदूरों को एक अनुदेश जारी किया कि वे वादी के माल को न ढोये। गोदी मजदूरों द्वारा वादी के माल को नहीं ढोना संविदा भंग की परिधि में नहीं आता था। इसका उद्देश्य सूत के व्यापार में प्रतिस्पर्धा का निवारण करना था और ऐसा करके इस उद्योग की आर्थिक स्थिति को सुदृढ़ करना था तथा साथ ही संघ के सदस्यों के वेतन एवं सेवा शर्तों को बेहतर बनाना था। न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रतिवादीगण का यह कार्य संघ एवं संघ के सदस्यों के हितों में संवर्धन करने वाला होने से पड़यंत्ररूपी अपकृत्य की परिधि में नहीं आता है।

ऐसा ही एक और मामला ‘स्काला बालरूम (वोल्वर हेम्पटन) लि. बनाम रेडक्लिफ’ (1958) डब्ल्यू.एल.आर. 1057] का है। इसमें वादी ने अपनी नृत्यशाला में काले व्यक्तियों को प्रवेश देने से इन्कार कर दिया था। प्रतिवादीगणों ने, जो संगीतज्ञों के संघ के अधिकारी थे, ने इस दृष्टिकोण से कि वादी को इस बात के लिए विवश किया जाये कि वह काले और गोरों के बीच भेदभाव करना छोड़ दे, वादी को इस आशय का नोटिस दिया कि यदि उसके द्वारा काले लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध को नहीं हटाया गया तो उसके सदस्य (जिनमें अनेक काले लोग भी सम्मिलत थे) नृत्यशाला में वाद्ययंत्र (orchestra) का प्रदर्शन करने की अनुमति प्राप्त नहीं कर सकेंगे। न्यायालय ने प्रतिवादीगणों पर अपने सदस्यों को नृत्यशाला में वाद्ययंत्र के निमित्त जाने से रोकने को विरत रखने के लिए व्यादेश जारी करने से इन्कार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादीगणों का यह कृत्य संघ के सदस्या एव काले लोगो के हितों का संरक्षण एवं संवर्धन करने वाला था।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कोई भी ऐसा कार्य जो अन्यवा वैध हो।

 

PAHUJA LAW ACADEMY

Lecture – 6

वैयक्तिक बचाव एवं आवश्यकत के बचाव

Pre Questions

 
  1. सामान्यतः नुकसानी उस क्षति के समकक्ष होती है जो वादी को कारित हुई। जब वादी के विधिक अधिकार का अतिलंघन होता है, परन्तु उससे उसको कोई हानि नही परन्तु उससे उसको कोई हानि नही होती है तब विधि उसके अधिकार की मान्यता में ____

(a) नाममात्र नुकसानी

(b) तिरस्कारपूर्ण नुकसानी

(c) भावी नुकसानी

(d) कोई नही

 
  1. जब अधिनिर्णीत नुकसानी वादी द्वारा सहन की गई तात्विक हानि से अधिक होती है ताकि उस तरह के आचरण को भविष्य में पुनः घटित होने से निवारित किया जा सके तब इस तरह की नुकसानी को ____

(a) दृष्टान्तिक

(b) दण्डात्मक

(c) प्रतिशोधात्मक

(d) उरोक्त सभी

 
  1. एक व्यक्ति किसी दुर्घटना में लंगडा हो जाता है तो उसे जो नुकसानी प्रदान की जायेगी उसमें न केवल वह क्षति सम्मिलित रहेगी जो उसने कार्यवाही की तिथि तक सहन की है वरन् उसमें भविष्य की वह सम्मावित क्षति भी सम्मिलित रहेगी जिसको अपनी विकलंगता के कारण वादी के सहन करना पडेगा।

(a) भावी नुकसानी

(b) सम्पूरक नुकसानी

(c) पृवर्तित नुकसानी

(d) कोई नही

 
  1. उपचार दो प्रकार के है
  2. न्यायिक उपचार और न्यायेत्तर उपचार

(a) सॉमण्ड

(b) क्राफटर

(c) हल्टले

(d) हेल्सवरी

 
  1. इसे नाममात्र की नुकसानी भी कहा जाता है

(a) प्रतीकात्मक नुकसानी

(b) वास्तविक नुकसानी

(c) प्रत्याशित नुकसानी

(d) अवमानात्मक नुकसानी

 
  1. प्रतिकरात्मक नुकसानी में वादी को कारित वास्तविक क्षति के लिए पर्याप्त नुकसानी दिलाई जाती है, ताकि वादी ऐसी धनराशि प्राप्त कर पुनः अपनी मूल अवस्था में आ सके।

(a) जीतकुमारी पोद्दार बनाम चिटगांव इंजीनियरिंग एण्ड इलेक्ट्रिक एप्लाई

(b) सुभाषचन्द्र बनाम रामसिंह

(c) हल्टले बनाम थार्नटन

(d) कोई भी नही

 
  1. व्यादेश एक ऐसी न्यायिक कार्यवाही है जिसके द्वारा किसी पक्षकार को कोई कार्य विशेष करने था न करने का आदेश दिया जाता है

(a) हेल्सवरी

(b) चैतन्य सिंह

(c) क्राफटर

(d) हल्टले

 
  1. जब दो या दो से अधिक व्यक्ति बिना किसी विधिपूर्ण न्यायनुमति के वादी को जानबूझकर क्षति कारित करने के प्रयोजन से संयुक्त होते है औऱ उनके संयोजन के परिणामस्वरुप वादी को वास्तविक क्षति होती है। तब यह कहा जाता है कि वे षडंयत्र का अपकृत्य करते है

(a) क्राफटर हैन्ड बातेन हैरिस ट्वीड कम्पनी बनाम बीच

(b) हान्टले बनाम थार्नटन

(c) मुगल स्टीमशिप कम्पनी बनाम मैक ग्रेगर

(d) कोई नही

 
  1. एक ही वाद हेतुक के लिये चूकि एक से अधिक वाद नही हो सकते। अतः हर नुकसानी का निर्धारण एक ही कार्यवाही में किया जाता है।

(a) फिटर बनाम वील

(b) ब्रन्सडेन बनाम हम्फ्रे

(c) जेवियर बनाम स्टेट ऑफ तमिलनाडु

(d) कोई भी नही

 
  1. जहाँ एक ही दोषपूर्ण कार्य से दो मित्र अधिकारों का अतिक्रमण होता है

(a) ब्रन्सडेन बनाम हम्फ्रे

(b) फीटर बनाम वील

(c) ऐशवी बनाम हाइट

(d) कोई नही

PAHUJA LAW ACADEMY

Lecture – 7

असावधानी (उपेक्षा)

Negligence

MAINS QUESTIONS

 

असावधानी अर्थात् उपेक्षा को अनवधानता एवं लापरवाही के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। हमारे दैनिक जीवन में ऐसे अनेक कार्य होते है जो उपेक्षा अथवा असावधानी से किये जाते हैं और ऐसे कार्यों से अन्य व्यक्तियों को क्षति कारित होती है। यही कारण है कि अपकृत्य विधि में ऐसे कार्यों को अपकृत्य माना गया है।

परिभाषा—असावधानी (उपेक्षा) को कई तरह से परिभाषित किया गया है।

विनफील्ड के अनुसार—“उपेक्षा एक अपकृत्य के रूप में सावधानी बरतने के विधिक कर्त्तव्य का उल्लंघन है जिसके परिणामस्वरूप प्रतिवादी के न चाहने पर भी वादी को क्षति कारित होती है।”

सॉमण्ड (Salmond) के अनुसार—“उपेक्षा में जहाँ सावधानी बरतना विधि द्वारा अपेक्षित होता है, सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन किया जाता है।”

लार्ड राइट के अनुसार—“उपेक्षा किसी कार्य को करने या करने से प्रतिविरत रहने वाला एक लापरवाही युक्त आचरण है जो किसी कर्त्तव्य का भंग करता है और जिससे अन्य व्यक्ति को क्षति कारित होती है।” (एल.आई. एण्ड सी.क. बनाम एम.मूलन,1934 ए.सी.1)

लार्ड बी. एल्डरसन के अनुसार—”उपेक्षा से अभिप्राय है—ऐसे कार्य से प्रतिविरत रहना या उसका लोप करना जिसे युक्तियुक्त व्यक्ति मानवीय कृत्यों को जो विचार सामान्यतया नियंत्रित करते है से मार्ग दर्शित होकर करता है अथवा ऐसा कोई कार्य करना है जिसे कोई प्रश्नवान या युक्तियुक्त व्यक्ति नही करता है” [ब्लिथ बनाम बिरमिंघम वाटर वर्क्स कं. (1856) 11 एक्स. 781]

सरलतम शब्दों में हम कह सकते हैं कि- “जब एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति के प्रति सावधानी बरतने के विधिक कर्तव्य का उल्लंघन करता है जिसके परिणामस्वरूप उस दूसरे व्यक्ति को क्षति कारित होती है तो, उसे उपेक्षा कहा जाता है एवं ऐसा व्यक्ति उपेक्षा के अपकृत्य के अधीन दायी होता है”।

“Negligence as a tort, is the breach of legal duty to take care which results in damage undesired by the defendant to the plaintiff.”

उपेक्षा के आवश्यक तत्व

उपरोक्त परिभाषाओं से उपेक्षा के निम्नांकित तत्व स्पष्ट होते है—

(i) वादी के प्रति प्रतिवादी का प्रति प्रतिवादी का सावधानी बरतने का विधिक कर्त्तव्य होना;

(ii) प्रतिवादी द्वारा ऐसे कर्त्तव्य का उल्लंघन किया जाना; एवं

(iii) ऐसे से उल्लंघन से वादी को क्षति कारित होना।

जेकब मेथ्यू बनाम स्टेट ऑफ पंजाब’ (ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 3180) के मामले में न्यायालय द्वारा असावधानी (Negligence) के तीन आवश्यक तत्व बताये गये है— (क) कर्त्तव्य, (ख) कर्तव्य का भंग किया जाना, तथा (ग) ऐसे कर्त्तव्यभंग से क्षति कारित होना। व्यावसायिक मामलों में सामान्य भिन्नता आ जाना असावधानी नही है। चिकित्सा अधिकारी यदि चिकित्सा में एक पद्धति को अपनाता है तो उसे इस आधार नहीं माना जा सकता कि उसे कोई अन्य पद्धति अपनानी चाहिये थी।

1. वादी के प्रति प्रतिवादी का सावधानी बरतने का विधिक कर्त्तव्य होना—

उपेक्षा अर्थात असावधानी का पहला आवश्यक तत्व है- प्रतिवादी का वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्तव्य होना। पोलक का कहना है कि -यदि सावधानी बातने का कोई विधिक कर्त्तव्य नहीं है तो उपेक्षा के लिए कार्यवाही नहीं की जा सकती है। उपेक्षा तब तक अनुयोज्य नहीं होती जब तक सावधानी बरतने का विधिक कर्त्तव्य नहीं है।

“मध्यप्रदेश रोड़ ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन बनाम बसन्ती बाई” (1971 स.पी.एल.जे. 706) के मामले में भी यह कहा गया है कि किसी व्यक्ति को उपेक्षा के लिए उत्तरदायी ठहराने हेतु सावधानी बरतने के किसी विधिक कर्तव्य का अस्तित्व में होना आवश्यक है।

प्रतिवादी का वादी के प्रति सावधानी बरतने का कोई विधिक कर्त्तव्य है या नहीं, इसका विनिश्चय वादी को कारित होने वाली क्षति के यक्तियुक्त पूर्वानुमान के आधार पर किया जाता है। यदि कोई कार्य करते समय प्रतिवादी यह पूर्वानुमान कर सकता था कि वादी के प्रति प्रतिवादी का सावधानी बरतने का कर्त्तव्य था। प्रतिवादी से यह अपेक्षै की जाती है कि वह वादा को ऐसी क्षति से बचाने का प्रयास करें। यदि वह ऐसा करने में असफल रहता है तो उसे वादी के प्रति उत्तरदायी माना जायेगा।

‘डोनोघ बनाम स्टीवेन्सन’ का मामला

इसी विषय पर ‘डोनोघ बनाम स्टीवेन्सन’ (1932 ए.सी.562) का एक विख्यात मामला है। इस मामले में 26 अगस्त 1928 को वादी ने प्रतिवादी द्वारा निर्मित झिंझर बीयर की एर बोतल का सेवन किया था वादी को यह बोतल उसके एक मित्र द्वारा दी गई थी। उस मित्र ने यह बोतल एक खुदरा व्यापारी से खरीदी थी। बोतल पारदर्शी नही था तथा धातु के ढक्कन से बंद थी। वादी उस बोतल में भरी बीयर में से कुछ बीयर पी चुकी था। जब शेष बीयर उसके मित्र द्वारा गिलास में डाली गई तो उसमें एक विकृत पौधा तैरने लगा वादी उस बीयर को पीने के बाद बीमार पड़ गई। उसने बीयर निर्माता के विरुद्ध उपेक्षा के लिए नुकसानी का वाद दायर किया। न्यायालय ने प्रतिवादी को उपेक्षा का दोषी हुए उसे नुकसानी के लिए उत्तरदायी ठहराया।

निर्णय सुनाते हुए लार्ड एटकिन ने कहा— प्रतिवादी का यह विधिक कर्तव्य था कि वह यह देखे कि बोतल में विषैले पदार्थ न जाने पाये। यदि वह अपने इस विधिक कर्त्तव्य का उल्लंघन करता है तो वह उसके लिए उत्तरदायी होगा। खाद्य एवं पेय पदार्थो, औषधियों तथा इसी प्रकार की अन्य वस्तुओं को ऐसी खराबीयों से मुक्त रखे जिनसे ग्राहकों के स्वास्थ्य को हानि कारित होने की संभावना हो। यह कर्त्तव्य उस समय और अधिक प्रबल हो जाता है जब वस्तुयें ऐसी अवस्था में बेची जाती है जिनमें क्रेताओं को परीक्षण द्वारा उनमें निहित खराबियों का पता लगाने का अवसर नहीं मिलता है।

‘जौनपुर नगर निगम बनाम ब्रह्मकिशोर’ (ए.आई.आर.1978 इलाहाबाद168) के मामले में वादी सांयकाल के समय साइकिल से अपने घर जा रहा था। रास्ते में सड़क पर गढ्ढा होने से वह उसमें गिर कर क्षतिग्रस्त हो गया। वह गढ्ढा सड़क की मरम्मत कर रहे नगर निगम के कर्मचारियों द्वारा खोदा गया था। गड्ढे के पास न तो कोई चेतावनी संकेत था और न ही जनसाधारण को इसकी सूचना दी गई थी। न्यायालय ने नगर निगम को नुकसानी के लिए उत्तरदायी ठहराया क्योंकि उसके द्वारा वादी के प्रति अपने विधिक कर्त्तव्यों का उल्लंघन किया गया था।

चिकित्सीय लापरवाही (Medical negligency) के ऐसे अनेक मामले आजकल प्रकाश में आने लगे है। आर.पी.शर्मा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान’ (ए.आई.आर.20017 राजस्थान 104) के मामले में रोगी को गलत ग्रुप का रक्त चढ़ा देने से रोगी की मृत्यु हो गई थी। इसे चिकित्सकों की लापरवाही माना गया क्योंकि उनके द्वारा रोगी के प्रति अपेक्षित सावधानी नहीं बरती गई थी।

ऐसा ही एक और मामला ‘श्रीमति भोली देवी बनाम स्टेट ऑफ जम्मू एण्ड कश्मीर’ (ए.आई.आर.2002 जम्मू एण्ड कश्मीर 65) का है जिसमें मांसपेशियों में लगाये जाने वाले इंजेक्शन को नाड़ी में लगा देने से रोगी की मृत्यु हो गई थी। न्यायालय ने इसे सावधानी बरतने के विधिक कर्त्तव्य के उल्लंघन का मामला माना और चिकित्सकों को इसके लिए उत्तरदायी ठहराया।

‘महावीर हॉस्पीटल एण्ड रिसर्च सेन्टर बनाम अल्लादि सुवर्नाम्माँ’ (ए.आई. आर. 2005 एन.ओ.सी. 556 आध्रप्रदेश) के मामले में एक शल्य चिकित्सा में चिकित्सक की लापरवाही नहीं मानकर हॉस्पीटल की लापरवाही मानी गई जिसके द्वारा घटिया उपकरणों का उपयोग किया गया जिससे वादी को क्षति कारित हुई। हॉस्पीटल द्वारा समुचित सावधानी नहीं बरती गई।

‘सौभागमल जैन बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान’ (ए.आई.आर. 2006 राजस्थान 66) के मामले में बालक के जन्म के बाद महिला को पीड़ा हुई और उसकी मृत्यु हो गई। यह पाया गया कि प्रसव के बाद महिला पर ध्यान नहीं दिया गया तथा चिकित्सकों की लापरवाही से महिला का काफी खून बहा। न्यायालय ने असावधानी के लिए चिकित्सका और राज्य दोनों को उत्तरदायी माना।

‘श्रीमती सोनिया बाई रामस्वरूप मोर्य बनाम डॉ. प्रमोद शर्मा’ (ए.आई. आर. 2012 मध्यप्रदेश 21) के मामले में रोगी को पेट दर्द की शिकायत थी। उसे हॉस्पीटल में भर्ती करके अपेन्डिक्स का ऑपरेशन कर दिया गया। उसे हॉस्पीटल से छुट्टी दे दी गई। दूसरे दिन उसकी हालत गम्भीर हो गई। उसे पीलिया भी था। जांच पर यह पाया गया कि चिकित्सकों की लापरवाही से रोगी की मृत्यु हो गई थी। मृतक के आश्रितों को प्रतिकर पाने का हकदार माना गया।

स्टेट ऑफ छत्तीसगढ़ बनाम गजेन्द्र सिंह (ए.आई.आर. 2015 छत्तीसगढ़ रहा था। रास्ते में सड़क पर 132) के मामले में मृतक का ट्यूबेक्टोमी ऑपरेशन किया गया था। दवाईयों की प्रतिक्रिया से उसकी मृत्यु हो गई। यह ऑपरेशन राज्य द्वारा आयोजित शिविर में किया गया था। जाँच में चिकित्सकों की लापरवाही पाई गई। राज्य को भी उत्तरदायी ठहराया गया।

ऐसे और भी अनेक मामले है जिनमें यह अभिनिर्धारित किया गया है कि उपेक्षा के मामलों में यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी का वादी के प्रति सावधानी बरतने का विधिक कर्त्तव्य था। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि सावधानी बरतने का नैतिक कर्त्तव्य उपेक्षा के दायित्व का उद्भव नहीं करता। कर्तव्य का विधिक होना आवश्यक है।

2. प्रतिवादी द्वारा ऐसे कर्त्तव्य का उल्लंघन किया जाना

उपेक्षा का दूसरा आवश्यक तत्व प्रतिवादी द्वारा अपने विधिक कर्त्तव्य का उल्लंघन किया जाना है।

कर्तव्य के उल्लंघन अथवा कर्त्तव्य भंग (Breach of duty) से अभिप्राय है, सम्यक् सावधानी का अनुपालन न करना जो किसी परिस्थिति विशेष में बरतनी आवश्यक है। कर्त्तव्य भंग की कसौटी क्या है। इस प्रश्न का विनिश्चय प्रत्येक मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है। सामान्यतयाः इसकी कसौटी किसी विवेकशील अथवा प्रज्ञावान व्यक्ति द्वारा बरती जाने वाली सावधानी है अर्थात् सावधानी का स्तर वहीं है जो एक प्रज्ञावान अथवा विवेकशील व्यक्ति परिस्थिति-विशेष में बरतता है। [ब्लिथ बनाम बिरसिंघम वाटर वर्क्स क. (1856) 11 एक्स 781]

उदाहरणस्वरूप हम ‘विश्वनाथ गुप्त बनाम मुन्ना’ (निर्णय पत्रिका 197 मध्य प्रदेश 365) का मामला ले सकते है। इस मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि वाहन चालक का यह कर्त्तव्य है कि वह सड़क पर पैदल चलने वाले व्यक्तियों के प्रति पूर्ण सावधानी एवं सर्तकता बरते। उसका यह कर्त्तव्य उस समय और अधिक बढ़ जाता है जब सडक पर चलने वाले व्यक्ति बच्चे हो। ऐसी स्थिति में चालक को वाहन ऐसी गति से चलाना चाहिये कि आवश्यकता पड़ने पर उसे रोका जा सकें।

‘चम्पालाल बनाम वेंकटरमन’ (ए.आई.आर.1966 मद्रास466) के मामले में भी यही अभिनिर्धारित किया गया है।

‘ग्लास्गो कॉरपोरेशन बनाम टेलर’ [(1922)1 ए सी 44] का मामला इस विषय पर और अच्छा प्रकाश डालता है। इसमें निगम के नियंत्रण वाले एक उद्यान में विषैले फल उगे हुए थे। वे फल चैरी जैसे दीखते थे जिससे बच्चे उनकी ओर आकर्षित हो जाते थे। एक बार एक सात वर्षीय बालक ने उस फल को खा लिया जिससे उसकी मृत्यु हो गई। इसके लिए प्रतिवादी को उपेक्षा का दोषी ठहराया गया क्योंकि वहाँ न तो फल के चारों ओर बाड़ लगाई गई थी और न ही यह चेतावनी संकेत था कि फल विषैले है। यह प्रतिवादी का कर्तव्य-भंग था।

लेकिन ‘बोल्टन बनाम स्टोन’ (1951 ए.सी.850) का मामला एक ऐसा मामला है जिसमें क्षति की सम्भाव्यता उत्यन्त कम होने से प्रतिवादी को उपेक्षा का दोषी नहीं माना गया। इसमें वादी एक क्रिकेट स्थल के निकट राजमार्ग पर खड़ा था। एक बल्लेबाज ने गेंद में ऐसी ठोकर मारी की वह क्रिकेट स्थल की बाड़ से 7 फीट और पिच से 17 फीट ऊंची उठकर 110 गज दूर खड़े वादी को जा लगी जिससे वह क्षतिग्रस्त हो गया। यह स्थल लगभग 90 वर्षो से क्रिकेट के लिए प्रयुक्त हो रहा था लेकिन किसी व्यक्ति को कभी कोई क्षति कारित नहीं हुई। लार्ड सभा द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि सड़क पर व्यक्तियों की क्षति की सम्भाव्यता इतनी कम थी कि इसके लिए क्रिकेट क्लब को उपेक्षा का दोषी नहीं ठहराया जा सकता।

3. वादी को क्षति कारित होना

उपेक्षा की तीसरा आवश्यक तत्व प्रतिवादी के कर्तव्य-भंग से वादी को क्षति कारित होना है। ऐसी क्षति प्रतिवादी के कार्य प्रत्यक्ष परिणाम होनी चाहिये, दूरवर्ती नहीं।

हेतलबेन जितेन्द्रकुमाः व्यास बनाम पुलिस इन्सपेक्टर साबरमती पुलिस स्टेशन’ (ए.आई.आर. 2006 गुजरात 97) के मामले में एक वैवाहिक जुलूस निकल रहा था। उसमें की जा रही आतिशबाजी से एक ढाई वर्षीय बच्चे की आँख क्षतिग्रस्त हो गई। न्यायालय ने वर-वधू के अभिभावकों को असावधानी का दोषी ठहराते हुए उन्हें प्रतिकर का संदाय करने का आदेश दिया।

फिर प्रतिवादी की उपेक्षा के कारण कारित क्षति को साबित करने का भार वादी पर होता है वादी को मात्र यह साबित करना होता है कि क्षति में प्रतिवादी के कार्य की सारवान् भागीदारी रही है। अभिप्राय यह हुआ है कि वादी के लिए यह साबित किया जाना आवश्यक नही है कि क्षति का सम्पूर्ण कारण प्रतिवादी का कार्य रहा है।

इस सम्बन्ध में ‘मकघी बनाम नेशनल कोल बोर्ड’ [(1972)3 ऑल ई.रि.1008] का एक अच्छा प्रकरण है। इसमें अपीलार्थी प्रत्यर्थी के यहाँ ईटों के निर्माण का कार्य करता था। वह एक साधारण श्रमिक था। 30 मार्च 1967 को उसे ईटों के बक्सों को खाली करने का कार्य सौंपा गया। जहाँ वह काम करता था वहाँ भयंकर गर्मी व धूल थी। कुछ दिनों बाद उसे अपनी त्वचा में जलन का आभास हुआ। वह चिकित्सक के पास गया। चिकित्सक ने त्वचा की जलन के दो कारण बताये- (i) वादी का कार्य ही रोग का

कारण हो सकता है: अथवा (ii) कार्य के बाद बिना स्नान किये साईकिल पर जाना इसका कारण हो सकता है। जब यह मामला न्यायालय में गया तो यह अभिनिर्धारित किया गया कि हो सकता है कि वादी के रोग का कारण पहला नहीं रहकर दूसरा रहा हो लेकिन यह पता लगाने का कार्य प्रतिवादी का था। प्रतिवादी ने अपने कर्त्तव्य का उल्लंघन किया है।

इस प्रकार असावधानी (उपेक्षा) के मामले में वादी को उपरोक्त तीनों बातों को साबित करना होता है और वस्तुतः यही उपेक्षा के आवश्यक तत्व है।

अंशदायी असावधानी के सिद्धान्त की विवेचना कीजिये। क्या बाज ने गेंद इसके कोई अपवाद है? समझाइये।

Discuss the principle of Contributory negligence. Are ere any exceptions to this rule? Explain.

अथवा

अशदायी उपेक्षा क्या है ? इसके विभिन्न सिद्धान्तों का विवेचन कीजिये।

What is Contributory negligence? Discuss the various principle governing this doctrine.

अथवा

अंशदायी प्रमाद के सिद्धान्त को समझाइये तथा उसके विभिन्न विशद विवेचन कीजिये। प्रमुख निर्णयों की सहायता से उत्तर दीजिये।

Explain the doctrine of contributory negligence and a in detail the various principles governing this doctrine. Answer with the help of leading cases.

सामान्यतः दुर्धटनायें किसी एक व्यक्ति की उपेक्षा या असावधानी में घटती हैं और इसके लिए उसे दोषी ठहराया जाता है। लेकिन कई बार दुर्घटना में वादी प्रतिवादी अर्थात् दोनों पक्षों की उपेक्षा निहित्त रहती है। ऐसी घटनाओं के कारित होने ने दोनों का हाथ रहता है अर्थात् दोनों संयुक्त रूप से उत्तरदायी होते है। जब भी ऐसी घी घटना है तब प्रतिवादी यही बचाव लेता है कि उसमें वादी का भी हाथ रहा है अर्थात् ऐसी घटना के लिए वादी भी उत्तरदायी है। ऐसी उपेक्षा को ‘अंशदायी उपेक्षा’ अथवा ‘योगदायी उपेक्षा’ (Contributory negligence) कहा जाता है।

‘यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम हिन्दुस्तान लीवर लि.’ (ए.आई.आर.1975 पंजाब एण्ड हरियाणा 259) के मामले में अंशदायी उपेक्षा की परिभाषा देते हुए कहा गया है कि- “अंशदायी उपेक्षा से अभिप्राय ऐसी उपेक्षा से है जिसमें जिस व्यक्ति को क्षति कारित होती है वह भी उपेक्षा का दोषी होता है और क्षति में उसका कुछ योगदान निहित रहता है”।

अंशदायी असावधानी अथवा उपेक्षा सिद्धान्त निम्नांकित सूत्र पर आधारित है—“यदि हानि में स्वयंवादी की उपेक्षा का योगदान रहता है तो ऐसी हानि के लिए वह प्रतिवादी के विरुद्ध र्कावाही नहीं कर सकता है।” ऐसे मामलों में वादी किसी कर्तव्य का उल्लंघन नहीं करता है अपितु उसकी ओर से सावधानी बरतने का अभाव रहता है।

कॉमन लॉ (Common law) में यह व्यवस्था थी कि यदि किसी घटना में वादी का थोडा सा भी अंशदान होता था तो उसे वाद में सफलता नहीं मिलती थी चाहे उसमें प्रतिवादी का कितना ही दोष क्यों न रहा हो। लेकिन कालान्तर में ‘विधि सधार (अंशदायी उपेक्षा) अधिनियम,1945’ [Law Reforms (contributory negligence) Act,1945] द्वारा उक्त नियम को समाप्त कर दिया गया तथा यह व्यवस्था की गई कि यदि किसी घटना में वादी एवं प्रतिवादी दोनों की उपेक्षा रहती है तो नुकसानी की मात्रा उस सीमा तक कम हो जाती है जिस सीमा तक वादी की अशंदायी उपेक्षा रही है। इस अधिनियम की धारा 1 इस प्रकार है—

“जहाँ एक व्यक्ति को कुछ अपनी असावधानी तथा कुछ दूसरे पक्षकार की असावधानी के कारण कोई क्षति कारित होती है वहाँ उसका वाद केवल उसकी अपनी असावधानी के आधार पर ही अस्वीकृत (खारिज) नहीं कर दिया जायेगा, अपितु प्रातिवादी की अंशदायी उपेक्षा को ध्यान में रखते हुए नुकसानी की मात्रा कम कर दी जायेगी।

इस प्रकार अब नुकसानी का अनुमान इस आधार पर किया जाता है कि प्रश्नगत दुर्घटना में दोनों पक्षकारों की उपेक्षा अर्थात् दायित्व कितना रहा है। अंशदायी अपेक्षा इस बात में नही है कि प्रतिवादी के पास साधन एवं अवसर होते हुए भी उसने दुर्घटना को रोकने का प्रयास नही किया। यह वादी की ओर से की गई अपेक्षा है। यह ठीक है कि प्रतिवादी असावधानी का दोषी है, किन्तु वादी द्वारा साधारण सावधानी, बुद्धि एवं कुशलता का प्रयोग करने से वह दुर्घटना टल सकती थी या उसकी गम्भीरता कम की जा सकती थी। अंशदायी उपेक्षा में विधि उस असावधानी पर ध्यान देती है जो स्वयं वादी की ओर से बरती गई हो। इसका अर्थ यह हुआ कि “वादी स्वयं अपने कष्ट का जन्मदाता है”

अंशदायी उपेक्षा के सिद्धान्त

अंशदायी उपेक्षा के मुख्यतया निम्नांकित सिद्धान्त प्रतिपादित किये गये है—

(1) जहाँ नुकसान का निकटस्थ, निश्चित एवं अधिकतम कारण वादी की स्वयं की उपेक्षा या असावधानी हो अर्थात् प्रतिवादी की साधारण सावधानी एवं कुशलता से यदि उसे नहीं रोका जा सकता था तो वादी नुकसानी प्राप्त करने का अधिकारी नहीं है।

(2) वादी पूर्ण रूप से नुकसानी प्राप्त करने से केवल दो दशाओं में वंचित किया जा सकता है

(क) जहाँ प्रतिवादी की असावधानी से होने वाली दुर्घटना को वह अपनी साधारण बुद्धिमता अथवा कुशलता से रोक सकता था; अथवा

(ख) जहाँ प्रतिवादी अपनी कुशलता एवं बुद्धिमता से भी वादी की असावधानी के कारण दुर्घटना को नहीं रोक सकता था। कसौटी यह है कि दोनों ओर से असावधानी बरती जाने पर भी दुर्घटना रोकने का अन्तिम अवसर किसके हाथ में था।

(3) जहाँ दोनों पक्षकारों की असावधानी से दुर्घटनाकारित होती है, वहाँ नुकसानी का निर्धारण उनके दोष की मात्रा के आधार पर किया जायेगा।

(4) जहाँ वादी एवं प्रतिवादी दोनों ही समान रूप से उपेक्षा के दोषी हैं, वहाँ वादी की ओर से वाद नहीं चल सकता।

इस सम्बन्ध में ‘बटरफील्ड बनाम फोरेस्टर’ [(1809) 11 ईस्ट 60] का एक महत्वपूर्ण मामला है। इसमें प्रतिवादी ने एक लम्बा बांस लगाकर एक सार्वजनिक मार्ग का अनुचित तौर पर अवरुद्ध कर दिया था। वादी अपने घोडे पर सवार होकर तेज रफ्तार से आ रहा था। वह बांस से टकराया और क्षतिग्रस्त हो गया। इसमें वादी की गलती यह थी कि सौ गज की दूरी से बांस का अवरोध देखते हुए भी उसने घोड़े की रफ्तार को कम नही किया। न्यायालय ने प्रतिवादी को नुकसानी के लिए उत्तरदायी नही माना (लेकिन अब यह नियम समाप्त हो चुका है अब नुकसानी की मात्रा उपेक्षा का मात्रा के आधार पर निर्धारित की जाती है।)

‘यूनियन ऑफ इण्डिया बनाम युनाईटेड इण्डिया इन्श्योरेन्स कं.लि. (ए.आई.आर. 1998 एस.सी.640) का एक और महत्वपूर्ण मामला इस विषय पर है। इसमें एक रेलवे क्रासिंग फाटक पर किसी व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी। फाटक पर रेलवे का कोई कर्मचारी नियुक्त नहीं था। उच्चतम न्यायालय ने इसे रेलवे की उपेक्षा मानते हुए कहा कि रेलवे ऐसे मामलों में यात्रियो या राहगीरों की अंशदायी उपेक्षा का बचाव नही ले सकती।

‘विद्यादेवी बनाम मध्यप्रदेश स्टेट रोड ट्रांसपोर्ट कॉरपोरेशन’ (ए.आई 1975 मध्यप्रदेश 80) का मामला भी इस विषय पर अच्छा प्रकाश डालता है। इस मामले में मुख्य विचारणीय बिन्दु यह था कि क्या ऐसे व्यक्ति को नुकसानी पाने का अधिक है जो स्वयं उपेक्षा का दोषी रहा हो और यदि हाँ तो किस सीमा तक? न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि ऐसे मामलो में नुकसानी की मात्रा दूसरे पक्षकार की उपेक्षा अनुपात में तय की जायेगी। इस मामले में मोटर साइकिल चालक की उपेक्षा 2/3 तथा बस चालक की उपेक्षा 1/3 मानी गई और इसी अनुपात में नुकसानी का आदेश दिया गया।

लेकिन ‘लक्ष्मीदेवी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया’ (ए.आई.आर. 2005 एन.ओ.सी. 260 दिल्ली) के मामले में नसबन्दी के ऑपरेशन प्रकरण में महिला की अंशदायी असावधानी के कारण उसे कम प्रतिकर दिलाया गया। महिला की अंशदायी असावधानी के तीन कारण माने गये—(क) शिक्षा का अभाव, (ख) आर्थिक स्थिति एवं (ग) चेतना की कमी।

अपवाद

अंशदायी असावधानी के कुछ अपवाद भी हैं, अर्थात् निम्नांकित दशाओं में वादी के सम्बन्ध में अंशदायी असावधानी का सिद्धान्त लागू नहीं होता है—

(i) जहाँ उचित कार्यों की कल्पना की जा सकती है;

(ii) जहाँ दुर्घटना को रोकने का अन्तिम अवसर प्रतिवादी के हाथ में हो, तथा

(iii) जहाँ वादी संकट से बचने के लिए किसी दूसरे संकटपूर्ण मार्ग का आश्रय लेता है।

(1) जहाँ उचित कार्यों की कल्पना की जा सकती है

जहाँ वादी द्वारा उचित कार्य की कल्पना की जा सकती है, वहाँ अंशदायी असावधानी का बचाव लागू नही होता। किन्ही परिस्थितियों में वादी अपनी ओर से अधिक मात्रा में सावधानी बरतने के लिए आबद्ध नही है। वह अपने द्वारा किये गये कार्य के उचित होने का विश्वास कर सकता है।

“गी बनाम मेट्रोपोलिटन रेलवे कम्पनी” [एल. आर. (1873 8 क्यू.बी. 161] के मामले में इस अपवाद को कर सरहा था। यात्रा के दौरान के मामले में इसे अपवाद को स्पष्ट किया गया है इसमें वादी अपने भाई के साथ ट्रेन में यात्रा कर रहा था। यात्रा का दौरान वादी ने अपने भाई को कोई वस्तु दिखाने के लिए खिड़की में लगे लोहे के सरियों पर हाथ रखा। खिड़की की चिटकनी बंद नहीं होने से वह खिडकी खुल गई औऱ वादी गिर पड़ा। वादी की ओर से प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद संस्थित किया गया। न्यायालय द्वारा वादी के पास यह विश्वास करने का उचित कारण था कि रेलवे कर्मचारियों द्वारा गाडी चलाने से पूर्व सभी खिड़कियाँ एवं दरवाजे ठीक से बंद कर दिये होंगे। वादी से खिडकियों एवं दरवाजों का परीक्षण करने की अपेक्षा नहीं की जा सकती थी।

जबकि ‘बटरफील्ड बनाम प्रोरेस्टर’ [(1809) 11 ईस्ट 60] के मामले में अंशदायी असावधानी के बचाव को लागू किया गया अर्थात् उसमें वादी को अंशदायी असावधानी का दोषी माना गया। इसमें प्रतिवादी ने सार्वजनिक मार्ग में बांस लगाकर रास्ते को अवरोधित कर दिया था। वादी एक घोड़े पर तेज रफ्तार से आ रहा था। उस समय कुछ धुंधलापन अवश्य था लेकिन बांसों (बल्लियों) को देखने योग्य प्रकाश था। वादी ने दर से ही बल्लियों को देख लिया था लेकिन उसने घोड़े की रफ्तार कम नहीं की, परिणामस्वरूप

वह बल्लियों से टकराकर क्षतिग्रस्त हो गया। न्यायालय ने इसे वादी को अंशदायी असावधानी मानते हुए उसका नुकसानी का वाद खारिज कर दिया। न्यायालय ने कहा कि यदि वादी थोड़ी सी सावधानी बरतता तो वह दुर्घटना टल सकती थी।

(2) जहाँ दुर्घटना रोकने का अंतिम अवसर प्रतिवादी के हाथ में हो

जहाँ दुर्घटना को बचाने का अन्तिम अवसर वादी के हाथ में नहीं होकर प्रतिवादी के हाथ में हो वहाँ भी अंशदायी असावधानी का बचाव लागू नहीं होता है।

‘डेविस बनाम मेन'[(1842)10 एम.एण्ड.डब्ल्यू.546] के मामले में इस बचाव पर प्रकाश डाला गया है। इसमें वादी ने अपने गधे की टाँगे बाँधकर उसे असावधानी से एक तंग गली में छोड़ दिया था। प्रतिवादी तेज रफ्तार से अपनी गाडी में आ रहा था जिससे गधा कुचल गया। वादी द्वारा प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद दायर किया गया। प्रतिवादी ने अपने बचाव में यह तर्क रखा कि वाटी की असावधानी से यह दुर्घटना कारित हुई थी।

PAHUJA LAW ACADEMY

Lecture – 8

उपताप

Nuisance

 

अपदूषण अथवा उपताप जिसे कंटक या न्यूसेन्स (Nuisance) भी कहा जाता है; एक सामान्य अपकृत्य है। हमारे दैनिक जीवन के ऐसे कई कार्य है जो कंटक, उपताप अथवा अपदूषण की परिभाषा में आते है।

अपदूषण आंग्ल शब्द “Nuisance” का हिन्दी रूपान्तरण है। Nuisance फ्रेंच शब्द “Nure” से बना है जिसका अर्थ है- क्षति पहुँचाना, क्षोभ कारित करना आदि। ब्लेकस्टोन ने इसे “Nocumentun” के रूप में सम्बोधित किया है जिसका अर्थ है- क्षति, असुविधा, नुकसान, क्षोभ आदि।

परिभाषा

अपदूषण की विभिन्न विधिवेत्ताओं द्वारा भिन्न-भिन्न परिभाषायें दी गई है। यहाँ कुछ महत्त्वपूर्ण परिभाषाओं पर विचार करते है।

ब्लेकस्टोन के अनुसार-“अपदूषण एक ऐसा कृत्य है जिससे किसी अन्य व्यकि को आघात, असुविधा या क्षति कारित होती है।”

स्टीफेन के अनुसार-“अपदूषण एक ऐसा कृत्य है जिससे किसी अन व्यक्ति की भूमि, भवन या दाययोग्य अधिकार को क्षति कारित की जाती है या उसमें किसी प्रकार का हस्तक्षेप किया जाता है लेकिन जो अतिक्रमण नहीं होता है।”

विनफील्ड के अनुसार-“अपदूषण किसी व्यक्ति भूमि के या उसके ऊपर या उससे सम्बन्धित किसी अधिकार के प्रयोग या उपयोग में अवैद्य हस्तक्षेप है।”

पोलक के अनुसार-“बिना किसी विधिक औचित्य के किसी भूमि पर उससे सम्बद्ध किसी अधिकार में हस्तक्षेप करना न्यसेन्स अथवा अपदूषण है।”

सॉमण्ड के अनुसार-“अपदूषण उसे कहते है जहाँ प्रतिवादी अपनी भूमि से किसी अन्य जगह से हानिकारक वस्तुओं को बिना किसी विधिक औचित्य के वादी की भूमि में जाने देता है। ऐसी वस्तुओं में पानी, धुआँ, गैस, दुर्गन्ध, शोरगुल, गर्मी, कम्पन, बिजला, बीमारी के कीड़े, जानवार आदि सम्मिलित हैं।”

रीड बनाम लियान्स’ (1945 के.बी.216) के मामले में न्यूसेन्स की परिभाषा इस प्रकार की गई है- “न्यसेन्स से अभिप्राय है- किसी व्यक्ति की भूमि के उपयोग या उस पर या उससे सम्बन्धित किसी अधिकार में हस्तक्षेप करना।”

इसी पारिभाषा का “भंवर लाल बनाम धनराज” (ए.आई.आर.1973 राजस्थान 21) के मामले में भी अंगीकृत किया गया है।

इस प्रकार उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि- “न्यूसेन्स एक ऐसा कृत्य है जो व्यक्ति के स्वास्थ्य या इन्द्रियों को कष्ट पहुँचाता है और जिसके द्वारा व्यक्ति को आघात, असुविधा अथवा क्षोभ कारित होता है”

Unlaw interference with a person’s use or enjoyment of land or of same right over or in connection with it, is called nuisance.

अपदूषण के प्रकार— अपदूषण मुख्यतया दो प्रकार के है

(1) लोक अपदूषण (Public nuisance); एवं

(2) प्राइवेट अपदूषण (Private nuisance)।

(1) लोक अपदूषण— इसे सार्वजनिक अथवा सामन्य अपदूषण भी कहा जाता है।

विनफील्ड के अनुसार-“लोक अपूदषण से अभिप्राय ऐसे अपदूषण से है जनसाधारण या लोगों के एक वर्ग की युक्तियुक्त सुविधा या आराम को प्रतिकूलतया प्रभावित करता है”

क्लार्क एवं लिण्डसेल के अनुसार-“लोक अपदूषण एक ऐसा अवैध कृत्य है जिससे जनसाधारण के जीवन, सुरक्षा, स्वास्थ्य, सम्पत्ति या सुविधा को संकट उत्पन्न हो जाया है या जिससे जनसाधारण के सामान्य अधिकारों के उपयोग-उपभोग में बाधा कारित होती है।”

भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 268 में शब्द “लोक न्यूसेन्स” की परिभाषा इस प्रकार की गई है—

“वह व्यक्ति लोक न्यूसेन्स का दोषी है जो कोई ऐसा कार्य करता है या किसी अवैध लोप का दोषी है जिससे लोक को या जन साधारण को जो आसपास में रहते हो या आसपास की सम्पत्ति पर अधिभोग रखते हों, कोई सामान्य क्षति, संकट या क्षोभ कारित हो या जिसमें उन व्यक्तियों का जिन्हें किसी लोक अधिकार को उपयोग में लाने का मौका पड़े, क्षति, बाधा, संकट या क्षोभ कारित होना अवश्यम्भावी है।”

उपरोक्त परिभाषाओं से स्पष्ट है कि ऐसे सभी कार्य लोक अपदूषण की परिधि में आते है जिनसे जनसाधारण को बाधा, क्षति, क्षोभ या संकट कारित होता हो या कारित होना अघिसम्भाव्य हो।

सार्वजनिक स्थानों या मार्गों में गड्ढे खोद देना, दीवार खड़ी कर देना, ज्वलनशील पदार्थ रखना, ध्वनि प्रदूषण फैलाना आदि इसके अच्छे उदाहरण है।

लोक अपदूषण के मामलों में सामान्यताया सार्वजनिक तौर पर कार्यवाही की जाती है। ऐसे मामलों में व्यक्तिगत वाद नहीं लाये जा सकते। व्यक्तिगत वाद केवल तभी लाये जा सकते है जब यह साबित कर दिया जाये कि ऐसे लोक अपदूषण से किसी व्यक्ति का विशेष क्षति कारित हुई है।

इस सम्बन्ध में “रोज बनाम माइल्स [(1815)4 एम.एण्ड.एस 101] का अच्छा मामला है। इसमें प्रतिवादी ने एक लोक जलमार्ग पर अपना जहाज खडा कर उसे अवरोधित कर दिया था। जब उधर से वादी का जहाज निकला तो उसे आगे का रास्ता नही मिलने से उसे अपने जहाज का माल अन्य भूमि यातायात द्वारा भेजना पडा जिस पर धन व्यय हआ। न्यायालय ने प्रतिवादी को लोक अपदूषण का दोषी मानते हुए उसेक विरुद्ध नुकसानी का आदेश पारित किया।

ऐसा ही एक मामला ‘रामदास एण्ड सन्स बनाम भुवनेश्वर प्रसाद सिंह (ए.आई.आर.1973 पटना294) का है। इसमें अपीलार्थी (प्रतिवादीगण) ने नल की लाइन बिछाने का एक ठेका लिया था और इसी अनुक्रम में एक सरकारी अस्पताल के सामने सड़क की ओर कुछ गढे खोदे। कुछ गढे बिना ढके छोड़ दिये जाने से एक बार सात्रि के समय प्रत्यर्थी (वादी) अस्पताल जाते समय गढे में गिरकर हताहत हो गया। न्यायालय ने अपीलार्थी (प्रतिवादी) को लोक अपदूषण का दोषी ठहराया क्योंकि उससे न तो गढे के चारो ओर बाड़ लगाई थी और न ही कोई चेतावनी संकेत अथवा रोशनी का प्रबन्ध किया था।

‘इडियन कौंसिल फॉर एन्वायरो लीगल एक्शन बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर.1996 एस.सी.1446) का मामला लोक अपदूषण का एक चर्चित एवं महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें राजस्थान के बिछड़ी गाँव में रासयनिक कारखानों से कारित वस्तु एवं जल प्रदूषण को उच्चत्तम न्यायालय द्वारा लोक अपदूषण माना गया और प्रभावित व्यक्तियों को विशेष नुकसानी दिलाई गई।

(2) प्राइवेट अथवा व्यक्तिगत अपदूषण-प्राईवेट अथवा व्यक्तिगत अपदूषण एक ऐसा अपदूषण है जो मूलतः व्यक्ति विशेष को प्रभावित करता है। इसमें किसी व्यक्ति विशेष की सम्पति, सुख या सुविधा में प्रत्यक्ष हस्तक्षेप किया जाता है। यह किसी व्यक्ति की भूमि या उसके ऊपर या उससे सम्बन्धित किसी प्रयोग या उपभोग में अवैध हस्तक्षप होता है। व्यक्तिगत अपदूषण के लिए यह आवश्यक नहीं है कि किसी व्यक्ति द्वारा अवैध कार्य किया जाये। कोई भी व्यक्ति अपनी भूमि पर विधिपूर्ण कार्य करके भी अपदूषण कारित कर सकता है; यदि वह उसे अनुचित या अयुक्तियुक्त तरीके से करें।

अन्तर

लोक अपदूषण तथा व्यक्तिगत अपदूषण में निम्नांकित अन्तर पाया जाता है—

1. लोक अपदूषण जन साधारण के विरुद्ध अपकृत्य एवं अपराध दोनों होता है जबकि व्यक्तिगत अपदूषण किसी व्यक्ति विशेष के विरुद्ध अपकृत्य होता है।

2. लोक अपदूषण अपराधी अपराध की कोटि में आता है जबकि व्यक्तिगत अपदूषण अपकृत्य होता है।

3. लोक अपदूषण विशेष क्षति या नुकसान साबित किये जाने पर अनुयोज्य (actionable) होता है; जकि व्यक्तिगत न्यूसेन्स में यह आवश्यक नही है।

4. लोक अपदूषण का उपशमन किसी व्यक्ति विशेष द्वारा नही किया जा सकता है जबकि व्यक्तिगत का उपशमन उससे प्रभावित व्यक्ति द्वारा किया जा सकता है।

5. लोक अपदूषण के मामलों में सिविल एवं आपराधिक (Civil and Criminal) दोनों प्रकार की कार्यवाहियाँ की जा सकती है जबकि व्यक्तिगत अपदूषण में केवल सिविल कार्यवाही की जा सकती है।

6. लोक अपदूषण जनसाधारण या जनता के एक वर्ग को प्रभावित करता है जबकि व्यक्तिगत अपदूषण केवल किसी व्यक्ति विशेष को प्रभावित करता है।

अपदूषण के आवश्यक तत्व

अपदूषण की परिभाषा के आधार पर अपदूषण के आवश्यक तत्वों का विवेचन किया जा सकता है। ये वे तत्व है जिन्हें नुकसानी के वाद में वादी द्वारा साबित किया जाना आवश्यक है। सामान्यतया ऐसे तत्वों को व्यक्तिगत अपदूषण के तत्व माना जाता है। लेकिन वस्तुतः यह तत्व दोनों प्रकार के अपदूषणों के लिए आवश्यक माने जाते है। यह तत्व निम्नलिखित है

(i) अवैध, अयुक्तियुक्त या दोषपूर्ण व्यवधान, बाधा अथवा हस्तक्षेप;

(ii) व्यवधान, बाधा या हस्तक्षेप का भूमि के प्रयोग या उपयोग के सम्बन्ध में होना; तथा

(iii) ऐसी बाधा, व्यवधान या हस्तक्षेप से वादी को क्षति कारित होना।

अपदूषण का पहला एवं दूसरा आवश्यक तत्व है किसी व्यक्ति की भूमि से सम्बद्ध किसी अधिकार के उपयोग-उपभोग में अवैध या अयुक्तियुक्त हस्तक्षेप करना। यहाँ शब्द अवैध एव अयुक्तियुक्त’ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि दैनिक जीवन का प्रत्येक कार्य अपकृत्य नहीं होता। वह अपकृत्य केवल तभी होता है जब उसे अवैध या अयुक्तियुक्त रूप से किया जाये।

कौन सा कार्य युक्तियक्त है और कौन सा नहीं; यह समय, स्थान और प्रत्येक मामले की परिस्थितियों मामले की परिस्थितियों पर निर्भर करता है ‘अब्दल हकीम बनाम अहमद खान (ए.आई.आर.1978 इलाहाबाद 86) के मामले में इसे स्पष्ट किया गया है। इस मामले में अपीलार्थी (प्रतिवादी) ने प्रत्यर्थी के रसोई घर से तीन फीट की दूरी पर एक टॉयलेट बनाई तथा गन्दे पानी के निकास के लिए एक नाली का निर्माण कराया। टॉयलेट का गंदा पानी इसी नाली से जाता था जिससे प्रत्यर्थी वादी के रसोई घर में दुर्गन्ध आती था क्योकि नाली की तरफ ही रसोई घर की खिड़की व दरवाजा था। न्यायालय ने इसे न्यूसेन्स कहा।

इसी प्रकार का एक और मामला ‘राधेश्याम बनाम गुर प्रसाद’ (1985 मध्यप्रदेश 197) का है। इसमें प्रतिवादी एक परिसर में आटा पीसने का मशीन लगाना चाहता था। वादी उसी परिसर में दूसरी मंजिल पर रहता था। उसका कथन था की आटा मशीन लग जाने से दिन रात शोर एवं कम्पन होगा जिससे उसका व उसके परिजनों का सुख—सुविधापूर्वक रहना कठिन हो जायेगा। न्यायालय ने इसे अपदूषण मानते हुए व्यादेश जारी किया।

हालीवुड सिलवर फॉक्स फार्म लि. बनाम ऐमेट’ [(1936)2 के. बी.468] का इस विषय पर एक अत्यन्त ही रोचक मामला है। इसमें वादी ने अपनी भूमि पर कुछ श्वेत लोमड़िया पाल रखी थी। लोमड़िया प्रजनन काल में अत्यन्त संवेदनशील होती है तथा शोरमूल के माहौल में बच्चा नहीं देती है और देती है तो वे मरे हुए होते है। प्रतिवादी ने विद्वैष भाव से प्रेरित होकर तथा वादी को क्षति कारित करने के आशय से अपनी भूमि में बंदूक चलाई जिससे लोमड़ियाँ भयभीत हो गई और उन्होंने या तो बच्चे नहीं दिये और यदि दिये भी तो मरे हुए। न्यायालय ने इसे अपदूषण माना और प्रतिवादी को नुकसानी के लिए उत्तरदारी ठहराया। न्यायालय ने कहा कि कोई भी व्यक्ति अपनी भूमि का इस तरह उपयोग नहीं का सकता है कि उससे पड़ौसी को क्षति कारित हो।

लेकिन ‘उषाबेन नवीनचन्द्र त्रिवेदी बनाम भाग्य लक्ष्मी चित्र मन्दिर’ (ए.आई.आर. 1978 गुजरात13) के मामले में न्यायालय ने यह कहते हुए व्यादेश जारी करने से इन्कार कर दिया कि फिल्म ‘जय संतोषी माँ’ के प्रदर्शन से वादी की धार्मिक भावनाओं को कोई ठेस नहीं पहुँचती है।

कुल मिलाकर अभिप्राय यह है कि अपदूषण के मामले में भूमि के उपयोग के सम्बन्ध में अवैध, अयुक्तियुक्त या दोषपूर्ण हस्तक्षेप, बाधा अथवा व्यवधान का होना आवश्यक है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ऐसी बाधा, व्यवधान अथवा हस्तक्षेप से

(i) स्वयं सम्पति को,

(ii) सम्पति के अधिभोगी की सुख-सुविधा को, या

(iii) स्वास्थ्य; को क्षति कारित हो सकती है।

अपदूषण का तीसरा आवश्यक तत्व है—’क्षति’।

प्रतिवादी के कृत्य अर्थात् हस्तक्षेप बाधा, या अवरोध से वादी को क्षति अथवा नुकसान कारित होना आवश्यक है। साथ ही ऐसी क्षति अथवा नुकसान को साबित किया जाना भी अपेक्षित है। व्यक्तिगत अपदूषण के मामलों में भी क्षति को साबित किया जाना आवश्यक है। कुछ मामले ऐसे भी है जिनमें क्षति को साबित किया जाना आवश्यक नही होता, क्योकि इनमें क्षति की उपधारणा (परिकल्पना) कर ली जाती है। जैसे- अपने पेड की पत्तियों को पडौसी की भूमि में लटकने देना अपना धुआँ पडौसी के परिसर में जाने देना, अपनी भूमि में निर्मिंत छत्त को पडौसी की भूमि में निकालना जिससे वर्षा का पानी पडौसी के परिसर में गिरे, आदि।

“फे बनाम प्रेन्टिस’ ((1845) सी.बी.828) का इस विषय पर एक अच्छा प्रकरण है। इसमें प्रतिवादी ने अपने परिसर में कार्निस का निर्माण इस तरह कराया कि उसका कुछ भाग वादी की भूमि में आता था जिससे वर्षा का सारा पानी वादी की भूमि पर गिरता था। न्यायालय ने इसे अपदूषण मानते हुए यह उपधारणा की कि इससे वादी को नुकसानी कारित होना सम्भाव्य है।

बचाव

अब हम अपदूषण के मामलों में प्रतिवादी द्वारा लिये जा सकने वाले बचावों (Defence) पर विचार करते है। प्रतिवादी अपने बचाव में निम्नांकित तर्क ले सकता है (i) स्वीकृति; (ii) चिरभोगाधिकार; एवं (iii) सांविधिक प्राधिकार

(1) स्वीकृति-स्वीकृति एक अच्छा बचाव माना गया है। यदि प्रतिवादी द्वारा किया गया कार्य वादी की सहमति से है तो वादी द्वारा प्रतिवादी के विरुद्ध अपदूषण के लिए नुकसानी का वाद नहीं लाया जा सकता है।

(2) चिरभोगाधिकार-चिरभोगाधिकार (prescriptive right) अपदूषण का दूसरा बचाव है। यदि कोई व्यक्ति किसी अधिकार को चिरभोगाधिकार के रूप में उपयोग में ला रहा है तो वह अपदूषण होते हुए भी अनुयोज्य (actionable) नहीं होगा। भारतीय सुखाधिकार अधिनियम की धारा 15 में इस सम्बन्ध में प्रावधान किया गया है। इसके अनुसार यदि कोई भी व्यक्ति निरन्तर 20 वर्षों से खुले तौर पर शान्तिपूर्वक किसी अधिकार का उपयोग कर रहा है तो वह उसका चिरभोगाधिकार बन जाता है और ऐसे कार्य के लिए नुकसानी का वाद नहीं लाया जा सकता।

इस सम्बन्ध में ‘स्टरजेज बनाम ब्रिजमेन’ [(1879)11 सीएच.डी.852] का एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण है। इसमें प्रतिवादी मिष्ठान का व्यवसाय करता था। मिठाईयों के निर्माण में काफी शोरगुल होता था। प्रतिवादी व्यवसाय 20 वर्षों से भी अधिक समय से कर रहा था लेकिन उससे किसी को अपक्षण कारित नहीं हो रहा था। कालान्तर में वहा पड़ौसी की भूमि पर एक चिकित्सक ने अपना परामर्श कक्ष बनाकर वहाँ रोगियों का परीक्षण करना प्रारम्भ कर दिया। प्रतिवादी के कार्य से कारित शोरगुल से चिकित्सक के कार्य में व्यवधान उत्पन्न होता था, अत: उसने प्रतिवादी के विरुद्ध व्यादेश जारी करने की मांग की। प्रतिवादी का बचाव लिया लेकिन न्यायालय ने इसे नहीं माना क्योंकि अपदूषण की दृष्टि से चिरभोगाधिकार का प्रारम्भ चिकित्सक के कार्य में बाधा उत्पन्न होने की तिथि से हुआ था।

(3) सांविधिक प्राधिकार-सांविधिक प्राधिकार (statutory authority) से किया गया कार्य भी अपदूषण का एक अच्छा बचाव है। ऐसे कार्यों से कारित क्षति अथवा नुकसान के लिए वाद नहीं लाया जा सकता।

इस सम्बन्ध में ‘वाघन बनाम टाफ्फवेल रेल कम्पनी’ [(1860)5एच एण्ड एन679] तथा ‘हैम्पर स्मिथ रेल कम्पनी बनाम ब्रान्ड’ [(1869)4एच एल171] के महत्त्वपूर्ण मामले है जिनमें यह कहा गया है कि यदि किसी रेल कम्पनी को किसी मार्ग पर रेलगाड़ियों को चलाने के लिए प्राधिकृत किया जाता है तब सम्यक् सावधानी के बावजूद भी इंजिन से निकली चिनगारियों से पड़ौस की सम्पति में आग लग जाने अथवा शोरगुल व धुयें के कारण पड़ौस की सम्पति का मूल्य कम हो जाने पर प्रतिवादी को नुकसानी के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।

विहाषपीर्ष अभियेजन

Malicious Prosecution

प्रत्येक व्यक्ति को अपने अधिकारों की रक्षा करने तथा विधि द्वारा प्रदत्त उपचारों को प्रयोग में लाने का अधिकार है। यदि किसी व्यक्ति के अधिकारों का अतिक्रमण अथवा उल्लंघन किया जाता है तो ऐसे व्यक्ति को दोषी व्यक्ति के विरुद्ध विधिक कार्यवाही करने का हक है। लेकिन साथ ही उसका यह कर्त्तव्य भी है कि वह ऐसी विधिक कार्यवाही सद्भावनापूर्वक करें। विधिक कार्यवाही करने में वह विद्वैष द्वारा प्रेरित न हों। यदि वह ऐसी कार्यवाही सद्भावना पूर्वक नहीं कर विद्वैष से प्रेरित होकर करता है तो उसे विद्वैषपूर्ण कार्यवाही (Malicious Prosecution) का दोषी माना जायेगा। यह एक सिविल दोष (civil wrong) है।

परिभाषा-विद्वेषपूर्ण अभियोजन की अनेक परिभाषायें दी गई है। प्रचलित शब्दों (अर्थों) में- “विद्वैषपूर्ण अभियोजन से अभिप्राय है किसी एक व्यक्ति द्वारा किसी दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध विद्वैष भाव से प्रेरित होकर बिना किसी युक्तियुक्त अथवा न्यायसम्मत आधार के असफल अभियोजन चलाना।”

‘सी. एम. अग्रवाल बनाम हलर साल्ट एण्ड केमिकल वर्क्स लि.’ (ए.आई.आर. 1977 कलकत्ता356) के मामले में यह कहा गया है कि- “विद्वेषपूर्ण अभियोजन के अपकृत्य का विधिक आधार दोषपूर्ण तरीके से विधिक आदेशिका को गति में लाना होता है।”

एक अन्य मामले में दी गई परिभाषा के अनुसार- “विद्वेषपूर्ण अभियोजन का तात्पर्य एक ऐसी दाण्डिक कार्यवाही है जो असफल हो गई है जो विद्वेषपूर्ण रीति से तथा बिना किसी युक्तियुक्त और सम्भाव्य कारण के संस्थित की गई थी। इस प्रकार का अभियोजन जब अभियोजित पक्षकार को वास्तविक क्षति कारित करता है तो यह एक अपकृत्य माना जाता है और उसके लिए क्षति पक्षकार विधिक कार्यवाही कर सकता है।” (क्वार्टज हिल गोल्ड माइनिंग क. बनाम आयर, (1833)11 क्यू.बी.डी.674]

इसे हम एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर सकते है। ‘क’ एवं ‘ख’ में व्यापारिक प्रतिस्पर्धा चलती है और ‘क’, ‘ख’ से इसी कारण व्यापारिक विद्वैष रखता है। ‘क’, ‘ख’ के व्यापार को गिराने तथा उसकी प्रतिष्ठा को हानि पहुँचाने के लिए ‘ख’ के विरुद्ध चोरी का एक मिथ्या अभियोजन चलाता है जिसमें ‘ख’ का काफी धन व्यय होता है और उसकी प्रतिष्ठा को भी ठेस पहुंचती है। ‘क’ का ‘ख’ के विरुद्ध यह अभियोजन अन्ततः खारिज हो जाता है। ‘ख’, ‘क’ के विरुद्ध विद्वैषपूर्ण अभियोजन के लिए क्षतिपूर्ति की कार्यवाही कर सकता है।

आवश्यक तत्व-विद्वैषपूर्ण अभियोजन के निम्नांकित आवश्यक तत्व है अर्थात् विद्वेषपूर्ण अभियोजन के मामले में वादी को निम्नांकित बातें साबित करनी होती है

(i) यह कि प्रतिवादी द्वारा वादी के विरुद्ध अभियोजन चलाया गया था।

(ii) यह कि ऐसा अभियोजन बिना किसी युक्तियुक्त एवं सम्भाव्यो कारण के चलाया गया था;

(iii) यह कि अभियोजन विद्वैषपूर्ण भाव से प्रेरित होकर चलाया गया था;

(iv) यह कि प्रतिवादी का अभियोजन अन्ततः असफल रहा; एवं

(v) यह कि ऐसे अभियोजन से वादी को क्षति कारित हुई।

इन्हीं सब तत्वों की पुष्टि ‘सूरतसिंह बनाम म्युनिसिपल कॉरपोरेशन, दिल्ली’ (ए.आई.आर. 1989 दिल्ली 51) तथा ‘टी.वी. कृष्णन बनाम पी.टी. गोविन्दन’ (ए.आई.आर.1989 केरल83) के मामलों में की गई है। इन दोनों मामलों में यह कहा गया है कि विद्वैषपूर्ण अभियोजन के मामलों में निम्नांकित बातों को साबित किया जाना आवश्यक है—

(i) वादी के विरुद्ध प्रतिवादी द्वारा आपराधिक अभियोजन चलाया जाना;

(ii) ऐसे अभियोजन के लिए युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य आधार नहीं होना;

(iii) अभियोजन का विद्वैष भाव से प्रेरित होना;

(iv) अभियोजन का असफल रहना; एवं

(v) ऐसे अभियोजन के परिणामस्वरूप वादी को क्षति कारित होना।

(1) प्रतिवादी द्वारा वादी के विरुद्ध अभियोजन चलाया जाना—विद्वैषपूर्ण अभियोजन के वाद में सफलता हेतु सर्वप्रथम यह साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी द्वारा वादी के विरुद्ध अभियोजन चलाया गया था। ऐसा अभियोजन दाण्डिक प्रकृति का घर तथा सक्षम न्यायालय में चलाया गया था। पुलिस के समक्ष कार्यवाही एवं सिविल मामलो में यह व्यवस्था लागू नही होती है।

इस सम्बन्ध में ‘नगेन्द्रनाथ राय बनाम बसन्त दास बैनर्जी [आई. एल. आर. (1930)57 कलकत्ता 35] का एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें प्रतिवादी के घर चोरी हो जाने पर उसने वादी पर सन्देह व्यक्त करते हुए पुलिस में सूचना दी। पुलिस द्वारा वादी को गिरफ्तार किया जाकर अन्वेषण किया गया। अन्वेषण में वादी के विरुद्ध अंतिम रिपोर्ट प्रस्तुत की गई न्यायालय ने अंतिम रिपोर्ट को स्वीकार करते हुए वादी को रिहा कर दिया। इस पर वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध विद्वेषपूर्ण अभियोजन का वाद संस्थित किया। न्यायालय वाद खारिज करते हुए कहा कि यह अभियोजन नहीं होकर केवल पुलिस के समक्ष की गई

डी.एन.बंधापाध्याय बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया’ (ए.आई.आर. 1976 राजस्थान 344) के मामले में राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा विभागीय जाँच को अभियोजन नही माना जाता है।

(2) अभियोजन का बिना किसी युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारण के चलाया जाना -विद्वैषपूर्ण अभियोजन का दूसरा महत्त्वपूर्ण तत्व युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारण का अभाव होना है।

‘हिक्स बनाम फाकनर’ [(1878)8 क्यू.बी.डी.167] के मामले में युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारण को स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि- “युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारण से अभिप्राय है ऐसा कोई स्पष्ट कारण या आधार जिससे इस बात का अनुमान लगाया जा सकता था कि वादी अभ्यारोपित अपराध को करना चाहता था।”

विद्वेषपूर्ण अभियोजन के मामलों में वादी को यह साबित करना होता है कि प्रतिवादी ने उसके विरुद्ध अभियोजन बिना किसी युक्तियुक्त अथवा सम्भाव्य कारण के चलाया था। (सचीन्द्र नाथ चौधरी बनाम लवंगलता, ए.आई.आर.1980 कलकत्ता 121]

ब्राउन बनाम हाक्स’ (1891)2क्यू.बी.718] के मामले में यह कहा गया है। कि युक्तियुक्त और सम्भाव्य कारण का अभाव विद्वैषपूर्ण अभियोजन का साक्ष्य माना जाता है यदि अभियोजन बिना किसी युक्तियुक्त वा सम्भाव्य कारण के अर्थात अकारण ही चलाया जाता है तो यह विद्वैषपूर्ण अभियोजन माना जायेगा क्योंकि उसका आधार दुर्भावना है।

इस सम्बन्ध में ‘मांगीलाल बनाम माणकचन्ट’ (ए.आई.आर.2002 एन ओ सी215मध्यप्रदेश) का एक महत्वपूर्ण मामला है। इसमें वादी एवं प्रतिवादी भागीदारी में व्यवसाय करते थे। दोनों में लेखों को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया। प्रतिवादी ने वादी के विरुद्ध आपराधिक न्यास भंग तथा लेखा बहियों की चोरी का परिवाद प्रस्तुत किया। के दौरान यह आरोप आधारहीन पाये गये। परिवाद के आधार पर वादी के मकान की तलाशी ली गई लेकिन उसमें कुछ नहीं मिला। इन सारी कार्यवाहियों एवं अभियोजन से वादी की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची। न्यायालय ने इस अभियोजन को बिना किसी युक्तियक्त एवं सम्भावत कारण (without any reasonable and probable cause) का माना।

‘हेतराम बनाम मदनगोपाल’ (ए.आई.आर. 2007 एन.ओ.सी 351 हिमाचल प्रदेश) के मामले में प्रतिवादी ने वादी पर यह मिथ्या आरोप लगाया कि उसके द्वारा प्रतिवादी के मकान में आग लगाकर उसे क्षतिग्रस्त कर दिया। लेकिन प्रतिवादी द्वारा इस सम्बन्ध में कोई सबूत पेश नहीं किया गया। प्रतिवादी का कथन युक्तियुक्त कारणों पर आधारित भी नहीं था। परिस्थितियाँ भी विपरीत लग रही थी। न्यायालय ने इसे विद्वैषपूर्ण अभियोजन का मामला मानते हुए वादी को कारित मानसिक पीड़ा व व्यापारिक क्षति के लिए प्रतिवादी पर 55,000/- रुपये का प्रतिकर (क्षतिपूर्ति) अधिरोपित किया। इसमें वाद व्यय भी सम्मिलित था।

‘हरीराम बनाम श्रीमती शकुन्तला देवी’ (ए.आई.आर. 2010 एन.ओ.सी 829) के मामले में हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि विद्वैषपूर्ण अभियोजन के लिए क्षतिपूर्ति के मामलों में प्रतिवादी के विरुद्ध मात्र यह आरोप लगा देना पर्याप्त नहीं है कि उसके द्वारा वादी के विरुद्ध मिथ्या परिवाद पेश किया गया था। उसे यह बताना होगा कि परिवाद किस प्रकार बिना किसी युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारणों (Without probable or justifiable cause) के था।

(3) अभियोजन क विद्वेषपूर्ण भाव से प्रेरित होना–विद्वैषपूर्ण अभियोजन के मामलों में वादी को यह भी साबित करना होता है कि प्रतिवादी द्वारा वादी के विरुद्ध अभियोजन विद्वैषपूर्ण आशय से संस्थित किया गया था। साथ ही यह भी साबित किया जाना आवश्यक है कि प्रतिवादी का आशय वादी को क्षति पहुँचाने का था। (कुटुम्बराव बनाम वेंकटरम्मैया, 1950 एम.एल.ले. 336)

विद्वैष से अभिप्राय है कि अनुचित अथवा सदोष हेतुक का होना अर्थात् प्रश्नगत विधिक प्रक्रिया का उसके विधिपूर्वक निश्चित या समुचित प्रयोजन से भिन्न प्रयोजन के आशय से प्रयोग करना।

इस सम्बन्ध में ‘फिल्मिस्तान डिस्ट्रीब्यूटर्स (इण्डिया) प्रा.लि. बम्बई बनाम। हंसाबेन बलदेवदास शिवलाल’ (ए.आई.आर.1986 गुजरात35) का एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण है इसमें वादी अपीलार्थी की प्रार्थना पर न्यायालय द्वारा प्रतिवादी प्रत्यर्थी के विरुद्ध इस आशय का व्यादेश जारी किया गया था कि अपीलार्थी द्वारा प्रदत्त फिल्मों के आलावा अन्य किसी फिल्म का अपने सिनेमा में प्रदर्शन नहीं करेगा। व्यादेश जारी करते समय वादी अपीलार्थी द्वारा यह आश्वासन दिया गया था कि वह प्रत्यर्थी को फिल्मों का प्रदाय निरन्तर करता रहेगा। लेकिन कालान्तर में बिना किसी औचित्य के अपीलार्थी ने प्रत्यर्थी को फिल्में देना बन्द कर दिया जिससे प्रतर्थी को काफी नुकसान हुआ। न्यायालय ने अपीलार्थी के इस कृत्य को

इसी प्रकरा का एक और मामला ‘अब्दुल मजीद बनाम हरबंश चौबे’ (ए.आई.आर. 1974 इलाहाबाद 129) का है इसमें वादी को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 412 के अन्तर्गत डकैती के मामले मे अभिप्राप्त हंसुली को अपने कब्जे में रखने के अपराध में अभियोजित किया गया था। पुलिस अधिकारी ने दो अन्य व्यक्तियों के साथ मिलकर वस्तुत: यह षड़यंत्र रचा कि हंसुली वादी के घर में मिली थी। अन्ततः न्यायालय द्वारा सन्देह का लाभ देते हुए वादी घोषमुक्त घोषित कर दिया गया। न्यायालय ने यह पाया कि प्रतिवादीगण द्वारा वादी को अभियोजित करने के लिए यह मिथ्या कहानी गढ़ी गई थी जो दोषपूर्ण एवं अप्रत्यक्ष प्रयोजन द्वारा प्रेरित थी। प्रतिवादीगण को विद्वैषपूर्ण अभियोजन के लिए उत्तरदायी ठहराया गया।

(4) अभियोजन का असफल रहना-विद्वैषपूर्ण अभियोजन के मामले में वादी को सफ्लता केवल तभी मिल सकती है जब अभियोजन उसके पक्ष में असफल रहा हो: अर्थात वादी को दोषमुक्त घोषित कर दिया गया हो। [केस्ट्रीक बनाम वेहरेन्स, (1861) ई. एण्ड की.709]

यदि अभियोजन में वादी को दोषसिद्धि किया जाता है तो वह विद्वैषपूर्ण अभियोजन की कार्यवाही नहीं कर सकता चाहे दोषारोपण कितना ही विद्वैषपूर्ण एवं निराधार ही क्यों न रहा हो। [विलिन्स बनाम फ्लेचर, (1611) बी.185]

वादी के पक्ष में अभियोजन के असफल रहने का अर्थ केवल वादी की दोषमुक्ति ही नहीं है; अपितु अभियोजन निम्नांकित कारणों से भी असफल माना जा सकता है

(i) वादी का दोषमुक्त हो जाना;

(ii) अभियोजन का रुक जाना;

(iii) वादी को उनमोचित (discharge) कर दिया जाना;

(iv) तकनीकी कारणों से दोषसिद्धि को अभिखण्डित कर दिया जाना,

(v) अपील में दोषसिद्धि के आदेश को अपास्त कर दिया जाना;

(vi) कार्यवाही के तंग या परेशान करने वाली होने के कारण उसे समाप्त कर दिया जाना, आदि।

“एवरस्ट बनाम रिबेन्ड्स’ (195212 क्य बी 108] के मामले में भी यही अभिनिर्धारित किया गया है कि विद्वैषपर्ण अभियोजन के मामले में सफलता हेतु यह आवश्यक है कि प्रतिवादी द्वारा चलाया गया अभियोजन असफल हो जाये अर्थात् वह वादी के पक्ष में निर्णीत हो जायें।

(5) अभियोजन से वादी को क्षति कारित होना-विद्वैषपूर्ण अभियोजना के मामले में वादी अन्तत: यह साबित करना होता है कि प्रतिवादी द्वारा चलाये गये अभियोजन से वादी को क्षति कारित हुई है। वस्तुतः क्षति ही विद्वेषपूर्ण अभियोजन के मामले का सार है।

क्षति तीन प्रकार की हो सकती है

(i) शारीरिक क्षति; (ii) सम्पत्ति की क्षति; या (iii) प्रतिष्ठा की क्षति ।

इस सम्बन्ध में ‘सी.एम. अग्रवाल बनाम हलर साल्ट एण्ड केमिकल वर्क्स’ (ए.आई.आर.1977 कलकत्ता356) का एक महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें वादी एक भागीदारी फर्म का भागीदार था। प्रतिवादी द्वारा उस पर विद्वेषपूर्ण अभियोजन चलाया गया। अभियोजन के दौरान वादी को लगभग 20 बार कलकत्ता जाना पड़ा, वहाँ उसे अभियुक्त के कटघरे में खड़ा रहना पड़ा जिससे उसे धन की क्षति के साथ-साथ मानसिक कष्ट भी हआ। न्यायालय ने उसे 5,000 रुपये सामान्य नुकसानी के साथ 15,000 रुपये विशेष नुकसानी के दिलाये।

‘श्रीराम बनाम बजरंगलाल’ (1949 एन एल जे57) के मामले में एक वकील के विरुद्ध मिथ्या आरोप लगाकर उसे अभियोजित किया गया था। न्यायालय ने ऐसे मामलों में पर्याप्त क्षतिपूर्ति दिये जाने के दिशा निर्देश जारी किये।

‘बदरीदास बनाम नाथूमल’ (1901 पी.आर.112) के मामले में यह कहा गया है कि विद्वेषपूर्ण अभियोजन के मामलों में नुकसानी का निर्धारण करते समय प्रतिवाद के आशय एवं आचरण तथा वादी को कारित क्षति को ध्यान में रखा जाना चाहिये।

इस प्रकार विद्वैषपूर्ण अभियोजन के मामले में उपरोक्त पाँचों बातों को साबित किया जाना आवश्यक है।

विद्वेषपूर्ण अभियोजन एवं मिथ्या कारावास में अन्तर

विद्वेषपूर्ण अभियोजन एवं मिथ्या कारावास यद्यपि एक जैसे लगते है तथा दोनों में कुछ साम्यता भी है; फिर भी इन दोनों में निम्नांकित अन्तर पाया जाता है

(1) विद्वैषपूर्ण अभियोजन में प्रतिवादी के विरुद्ध मिध्या अभियोजन चलाया जाता है जबकि मिथ्या कारावास में प्रतिवादी द्वारा वादी की वैयक्तिक स्वतंत्रता को अवैध रूप से अवरोधित किया जाता है।

(2) विद्वैषपूर्ण अभियोजन में अभियोजन की कार्यवाही न्यायालय में चलती है । जबकि मिथ्या कारावास में वादी की वैयक्तिक स्वतंत्रता को प्रतिवादी या उसके प्रतिनिधियों द्वारा अवरुद्ध किया जाता है।

(3) विद्वैषपूर्ण अभियोजन के मामलों में अभियोजन बिना किसी युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारण तथा विद्वेष भाव से प्रेरित होकर चलाया जाता है जबकि मिथ्या कारावास में दायित्व का उद्भव अवश्यम्भावी एवं सद्भावपूर्ण आशय से भी हो सकता है।

(4) विद्वैषपूर्ण अभियोजन के मामलों में वादी को युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारण का अभाव सिद्ध करना होता है जबकि मिथ्या कारावास में प्रतिवादी को यह साबित करना होता है कि वादी की वैयक्तिक स्वतंत्रता को अवरोधित करने का युक्तियुक्त कारण एवं औचित्य रहा है।

(5) विद्वैषपूर्ण अभियोजन के मामलों में प्रतिवादी का विद्वेष भाव साबित किया जाना आवश्यक है जबकि मिथ्या कारावास में यह आवश्यक नहीं है।

(6) विद्वैषपूर्ण अभियोजन अपने-आपमें अपकृत्य नहीं है जबकि मिथ्या करावास अपने आपमें एक अपकृत्य है। विद्वैषपूर्ण अभियोजन अपने आप में अपकृत्य तब होता है जब अभियोजन बिना किसी युक्तियुक्त एवं सम्भाव्य कारण (without any reasonable and probable cause) के चलाया गया हो।

(7) विद्वैषपूर्ण अभियोजन के मामलों में वादी को क्षति साबित करनी होती है। जबकि मिथ्या कारावास में क्षति को साबित किया जाना आवश्यक नहीं है।

PAHUJA LAW ACADEMY

Lecture – 9

मानहानि (Defamation)

 

प्रत्येक व्यक्ति को अपने शरीर एवं सम्पत्ति की तरह अपनी ख्याति अर्थात् प्रतिष्ठा की रक्षा करने का भी अधिकार है। वस्तुत: ख्याति की रक्षा का अधिकार शरीर एवं सम्पत्ति की रक्षा के अधिकार से भी अधिक महत्त्वपूर्ण है। व्यक्ति शरीर एवं सम्पत्तिक अपहानि को सहन कर सकता है लेकिन ख्याति की अपहानि को नहीं। यही कारण है। ख्याति की अपहानि अर्थात् ‘मानहानि’ (defamation) को आपराधिक कृत्य के साथ। साथ अपकृत्य विधि के अन्तर्गत वाद योग्य (actionable) माना गया है।

परिभाषा

मानहानि की विभिन्न विधिशास्त्रियों द्वारा भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी गई हैं—

अण्डरहिल के अनुसार, “मानहानि ख्याति अर्थात् प्रतिष्ठा को कलंकित करनो वाला ऐसा मिथ्या कथन है जिसका प्रकाशन किया जाता है। किसी की मानहानि शब्दों संकेतों अथवा दृश्यों द्वारा की जा सकती है। इसका उद्देश्य वादी को समाज के विचारशील व्यक्तियों की दृष्टि में गिराना होता है।”

सॉमण्ड (Salmond) के अनुसार, “किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में बिना किसी विश्कि औचित्य के असत्य एवं मानहानिकारक कथनों का प्रकाशन मानहानिजनक अपकृत्य है”।

विनफील्ड के शब्दों में, “मानहानि किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में प्रकाशित ऐसे कथन है जिससे समाज की दृष्टि में उस व्यक्ति की प्रतिष्ठा गिर जाती है एवं लोग उससे घृणा करने लगते हैं।”

‘डिक्सन बनाम होल्डन’ (1869) 7 एल.आर. 4881 के मामले में यह ठीक ही कहा गया है कि, “किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा उस व्यक्ति की अन्य सभी सम्पत्तियों से सर्वाधिक मूल्यवान सम्पति है।” (A man’s reputation is his most valuable property than other property)

भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 499 में भी शब्द ‘मानहानि’ की परिभाषा दी गई है। इसके अनुसार—

499. मानहानि—जो कोई या तो बोले गए या पढ़े जाने के लिए आशयित शब्दों द्वारा या संकेतों द्वारा, या दृश्य रूपों द्वारा किसी व्यक्ति के बारे में कोई लांछन इस आशय से लगता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति की अपहानि की जाए या यह जानते हुए या विश्वास करने का कारण रखते हुए लगाता या प्रकाशित करता है कि ऐसे लांछन से ऐसे व्यक्ति की ख्याति की अपहानि होगी, एतस्मिन्पश्चात् अपवादित दशाओं के सिवाय उसके बारे में कहा जाता है कि वह व्यक्ति की मानहानि करता है।

स्पष्टीकरण 1.— किसी मृत व्यक्ति को कोई लांछन लगाना मानहानि की कोटि पे आ सकेगा यदि वह लांछन उस व्यक्ति की ख्याति की, यदि वह जीवित होता, अपहानि करता और उसके परिवार या अन्य निकट सम्बन्धियों की भावनाओं को उपहत करने के लिए आशयित हो।

स्पष्टीकरण 2.-किसी कम्पनी या संगम या व्यक्तियों के समूह के सम्बन्ध में उसकी वैसी हैसियत में कोई लांछन लगाना मानहानि की कोटि में आ सकेगा।

स्पष्टीकरण 3.- अनुकल्प के रूप में, या व्यंग्योक्ति के रूप में अभिव्यक्त लांछन मानहानि की कोटि में आ सकेगा।

स्पष्टीकरण 4.– कोई लांछन किसी व्यक्ति की ख्याति की अपहानि करने वाला नही कहा जाता जब तक कि वह लांछन दूसरों की दृष्टि में प्रत्यक्षतः या अप्रत्यक्षतः उस व्यक्ति के सदाचारिक या बौद्धिक स्वरूप को हेय न करे या उस व्यक्ति की जाति के या उसकी आजीविका के सम्बन्ध में उसके शील को हेय न करे या उस व्यक्ति की साख को नीचे न गिराए या यह विश्वास न कराए कि उस व्यक्ति का शरीर घुणोत्पादक दशा में है या ऐसी दशा में है जो साधारण रूप से निकृष्ट समझी जाती है।

दृष्टांत

(क) क यह विश्वास कराने के आशय से कि य ने ख की घड़ी अवश्य चुराई है, कहता है, “य एक ईमानदार व्यक्ति है, उसने ख की घड़ी कभी नहीं चुराई।” जब तक कि यह अपवादों में से किसी के अन्तर्गत न आता हो यह मानहानि है।

(ख) क से पूछा जाता है कि ख की घड़ी किसने चुराई है। क यह विश्वास कराने के आशय से कि य ने ख की घड़ी चुराई है, य की ओर संकेत करता है। जब तक कि यह अपवादों में से किसी के अन्तर्गत न आता हो यह मानहानि है।

(ग) क यह विश्वास कराने के आशय से कि य ने ख की घड़ी चुराई है, य का एक चित्र खींचता है जिसमें वह ख की घडी लेकर भाग रहा है। जब तक कि यह अपवादों में से किसी के अन्तर्गत न आता हो यह मानहानि है।”

पहला अपवाद-सत्य बात का लांछन. जिसका लगाया जाना या प्रकाशित किया जाना लोक कल्याण के लिए अपेक्षित है-किसी ऐसी बात का लांछन लगाना, जो किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में सत्य हो, मानहानि नहीं है. यदि वह लोक कल्याण के लिए हो कि वह लांछन लगाया जाए या प्रकाशित किया जाए। वह लोक कल्याण के लिए है या नही यह तथ्य का प्रश्न है।

दूसरा अपवाद-लोक सेवकों का लोकाचरण-उसके लोक कयों के निर्वचन में लोक सेवक के आचरण के विषय में, या उसके शील के विषय में, जहाँ तक उसका शील उस आचरण से प्रकट होता हो, न कि उससे आगे, कोई राय, चाहे वह कुछ भी हो, सद्भावपूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है।

तीसरा अपवाद-किसी लोक प्रश्न के सम्बन्ध में, किसी व्यक्ति का आचरण— किसी लोक प्रश्न के सम्बन्ध में किसी व्यक्ति के आचरण के विषय में, और उसके शील के विषय में, जहाँ तक कि उसका शील उस आचरण से प्रकट होता हो, न कि उसके आगे कोई राय, चाहे वह कुछ भी हो, सद्भावपूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है।

दृष्टांत

किसी लोक प्रश्न पर सरकार को अर्जी देने में, किसी लोक प्रश्न के लिए सभा बुलाने के अपेक्षण पर हस्ताक्षर करने में, ऐसी सभा का सभापतित्व करने में या उसमें हाजिर होने में, किसी ऐसी समिति का गठन करने में या उसमें सम्मिलित होने में, जो लोक समर्थन आमंत्रित करती है, किसी ऐसे पद के किसी विशिष्ट अभ्यर्थी के लिए मत देने में या उसके पक्ष में प्रचार करने में, जिसके कर्त्तव्यों के दक्षतापूर्ण निर्वहन से लोकहितबद्ध है, य के आचरण के विषय में क द्वारा कोई राय, चाहे वह कुछ भी हो, सद्भावपूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है।

चौथा अपवाद-न्यायालयों की कार्यवाहियों की रिपोर्टों का प्रकाशन-किसी न्यायालय की कार्यवाहियों की या किन्हीं ऐसी कार्यवाहियों के परिणाम की सारतः सही रिपोर्ट को प्रकाशित करना मानहानि नहीं है।

स्पष्टीकरण– कोई जस्टिस ऑफ दि पीस या अन्य आफिसर, जो किसी न्यायालय में विचारण से पूर्व की प्रारम्भिक जाँच खुले न्यायालय में कर रहा हो. उपरोक्त धारा के अर्थ के अन्तर्गत न्यायालय है।

पाँचवाँ अपवाद— न्यायालय में विनिश्चित मामले में गुणागुण या साक्षियों तथा संपृक्त अन्य व्यक्तियों का आचरण—किसी ऐसे मामले के गुणागुण के विषय में, चाहे वह सिविल हो या दाण्डिक, जो किसी न्यायालय द्वारा विनिश्चित हो चुका हो या किसी ऐसे मामले के पक्षकार, साक्षी या अभिकर्ता के रूप में किसी व्यक्ति के आचरण के विषय में या ऐसे व्यक्ति के शील के विषय में, जहाँ तक कि उसका शील उस आचरण से प्रकट होता हो न कि उससे आगे, कोई राय, चाहे वह कुछ भी हो, सद्भापूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नही है।

दृष्टांत

(क) क करता है, “मैं समझता हूँ कि उस विचारण में य का साक्ष्य ऐसा परस्पर विरोधी है कि वह अवश्य ही मूर्ख या बेईमान होना चाहिए।” यदि क ऐसा सदभावपूर्वक कहता है तो वह इस अपवाद के अन्तर्गत आ जाता है, क्योंकि जो राय वह य के शील के सम्बन्ध में अभिव्यक्त करता है, वह ऐसी है जैसी कि साक्षी के रूप में य के आचरण से, न कि उसके आगे प्रकट होती है।

(ख) किन्तु यदि क कहता है, “जो कुछ य ने उस विचारण में दृढ़तापूर्वक कहा है, मैं उस पर विश्वास नहीं करता क्योंकि मैं जानता हूँ कि वह सत्यवादिता से रहित व्यक्ति हैं”, तो क इस अपवाद के अन्तर्गत नहीं आता है, क्योंकि वह राय जो वह य के शील के सम्बन्ध में अभिव्यक्त करता है, ऐसी राय है, जो साक्षी के रूप में य के आचरण पर आधारित नहीं है।

छठा अपवाद-लोक कृति के गुणागुण-किसी ऐसी कृति के गुणागुण के विषय में जिसको उसके कर्ता ने लोक के निर्णय के लिए रखा हो, या उसके कर्ता के शील के विषय में जहाँ तक कि उसका शील ऐसी कृति में प्रकट होता हो, न कि उससे आगे कोई राय सद्भावपूर्वक अभिव्यक्त करना मानहानि नहीं है।

स्पष्टीकरण-कोई कृति लोक के निर्णय के लिए अभिव्यक्त रूप से या कर्ता की ओर से किए गए ऐसे कार्यों द्वारा, जिनसे लोक के निर्णय के लिए ऐसा रखा जाना विवक्षित हो, रखी जा सकती है।

दृष्टांत

(क) जो व्यक्ति पुस्तक प्रकाशित करता है, वह उस पुस्तक को लोक के निर्णय के लिए रखता है।

(ख) वह व्यक्ति, जो लोक के समक्ष भाषण देता है, उस भाषण को लोक के निर्णय के लिए रखता है।

(ग) वह अभिनेता या गायक, जो किसी लोक रंगमंच पर आता है, अपने अभिनय या गायन को लोक के निर्णय के लिए रखता है।

(घ) क, य द्वारा प्रकाशित एक पस्तक के सम्बन्ध में कहता है, “य की पुस्तक मूर्खतापूर्ण है, य अवश्य कोई दुर्बल पुरुष होना चाहिए। य की पुस्तक आशष्टतापूर्ण है, य अवश्य ही अपवित्र विचारों का व्यक्ति होना चाहिए।” पादक ऐसा सद्भावपूर्वक कहता है, तो वह इस अपवाद के अन्तर्गत आता है, क्योकि वह राय जो वह य के विषय में अभिव्यक्त करता है, य के शील से वहीं तक, न कि उससे आगे, सम्बन्ध रखती है जहाँ तक कि य का शील उसकी पुस्तक से प्रकट होता है।

(ङ) किन्तु यदि क कहता है, “मुझे इस बात का आश्चर्य नहीं है कि य की पुस्तक मूर्खतापूर्ण तथा अशिष्टतापूर्ण है क्योंकि वह एक दुर्बल और लम्पट व्यक्ति है”। क इस अपवाद के अन्तर्गत नहीं आता क्योंकि वह राय, जो कि वह य के शील के विषय में अभिव्यक्त करता है, ऐसी राय है जो य की पुस्तक पर आधारित नहीं है।

सातवां अपवाद-किसी अन्य व्यक्ति के ऊपर विधिपूर्ण प्राधिकार रखने वाले व्यक्ति द्वारा सद्भावपूर्वक की गई परिनिन्दा-किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा, जो किसी अन्य व्यक्ति के ऊपर कोई ऐसा प्राधिकार रखता हो, जो या तो विधि द्वारा प्रदत्त हो या उस अन्य व्यक्ति के साथ की गई किसी विधिपूर्ण संविदा से उद्भत हो, ऐसे विषयों में, जिनसे कि ऐसा विधिपूर्ण प्राधिकार सम्बन्धित हो. उस अन्य व्यक्ति के आचरण की सद्भावपूर्वक की गई कोई परिनिन्दा मानहानि नहीं है।

दृष्टांत

किसी साक्षी के आचरण की या न्यायालय के किसी आफिसर के आचरण की ‘सद्भावनापूर्वक परिनिन्दा करने वाला कोई न्यायाधीश, उन व्यक्तियों की, जो उसके आदेशों के अधीन है, सद्भावपूर्वक परिनिन्दा करने वाला कोई विभागाध्यक्ष, अन्य शिशुओं की उपस्थिति में किसी शिशु की सद्भावपूर्वक परिनिन्दा करने वाला पिता या माता, अन्य विद्यार्थियों की उपस्थिति में किसी विद्यार्थी की सद्भावपूर्वक परिनिन्दा करने वाला शिक्षक, जिसे विद्यार्थी के माता-पिता से प्राधिकार प्राप्त है, सेवा में शिथिलता के लिए सेवक की सद्भावपूर्वक परिनिन्दा करने वाला स्वामी, अपने बैंक के रोकड़िए की, ऐसे रोकड़िए के रूप में ऐसे रोकड़िए के आचरण के लिए सद्भावपूर्वक परिनिन्दा करने वाला कोई बैंकर इस अपवाद के अन्तर्गत आते हैं।

आवठा अपवाद-प्राधिकृत व्यक्ति के समक्ष सद्भावपूर्वक अभियोग लगाना—किसी व्यक्ति के विरुद्ध कोई अभियोग ऐसे व्यक्तियों में से किसी व्यक्ति के समक्ष सद्भावपूर्वक लगाना, जो उस व्यक्ति के ऊपर अभियोग की विषयवस्तु के सम्बन्ध में विधिपूर्ण प्राधिका रखते हों, मानहानि नहीं है।

दृष्टांत

यदि क एक मजिस्ट्रेट के समक्ष य पर सदभावपूर्वक अभियोग लगाता है; यदि क एक सेवक य के आचरण के सम्बन्ध में य के मालिक से सद्भावपूर्वक शिकायत करता है यदि क एक शिशु य के सम्बन्ध में य के पिता से सद्भावपूर्वक शिकायत करता है; तो क इस अपवाद के अन्तर्गत आता है।

नवाँ अपवाद-अपने या अन्य के हितों की रक्षा के लिए किसी व्याक्ति द्वारा सद्भावपूर्वक लगाया गया लांछन-किसी अन्य के शील पर लांछन लगाना मानहानि नही है, परन्तु यह तब, जब कि उसे लगाने वाले व्यक्ति के या किसी अन्य व्यक्ति के हित की संरक्षा के लिए या लोक कल्याण के लिए, वह लांछन सद्भावपूर्वक लगाया गया हो।

दृष्टांत

(क) क एक दुकानदार है। वह ख से, जो उसके कारबार का प्रबन्ध करता है, कहता है, य को कुछ मत बेचना जब तक कि वह तुम्हें नकद दाम न दे दे, क्योंकि उसकी ईमानदारी के बारे में मेरी राय अच्छी नही है। यदि उसने य पर यह लांछन अपने हितों के संरक्षा के लिए सद्भावपूर्वक लगाया है, तो क इस अपवाद के अन्तर्गत आता है।

(ख) क एक मजिस्ट्रेट अपने वरिष्ठ आफिसर को रिपोर्ट देते हुए, य के शील पर लांछन लगाता है। यहाँ, यदि वह लांछन सद्भावपूर्वक और लोक कल्याण के लिए लगाया गया हो, तो क इस अपवाद के अन्तर्गत आता है।

दसवाँ अपवाद-सावधानी, जो उस व्यक्ति की भलाई के लिए, जिसे कि वह दी गई है या लोक कल्याण के लिए आशयित है-एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति के विरुद्ध सद्भावपूर्वक सावधान करना मानहानि नहीं है, परन्तु यह तब, जब कि ऐसी सावधानी उस व्यक्ति की भलाई के लिए, जिसे वह दी गई हो, या किसी ऐसे व्यक्ति की भलाई के लिए, जिससे वह व्यक्ति हितबद्ध हो, या लोक कल्याण के लिए आशयित हो।

उपरोक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में प्रकाशित ऐसे कथनों को मानहानिकारक माना जाता है जिससे—

(क) उस व्यक्ति की समाज में प्रतिष्ठा गिर जाती है;

(ख) लोग उससे घृणा करने लगते हैं; तथा

(ग) इससे उसके व्यापार, व्यवसाय, वृति या कारबार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

मानहानि को हम “योसोपाफ ब मेट्रोगोल्डविन मेयर पिक्चर्स लि.’ (1934)50टी एल आर 581] के मामले द्वारा स्पष्ट कर सकते है। इसमें एक फिल्म में वादी (एक ऐसी राजकुमारी नटाशा) को एक कुख्यात भिक्षु रासपूटीन के साथ बलात्संग की मुद्रा में दिखाया गया था। न्यायालय ने इसे मानहानिकारक माना क्योंकि यह मिथ्या अभ्यारोपण इसका उद्देश्य लोगों के मन में वादी के प्रति घृणा पैदा करना था तथा उसकी संगति से लोगों को निवारित करना था।

प्रकार

मानहानि दो प्रकार से की जा सकती है अर्थात् मानहानि के दो रूप है —

(क) अपलेख; एवं

(ख) अपवचन

(1) अपलेख (Libel)- अपलेख जिसे ‘अपमान लेख’ भी कहा जाता है लिखित रूप से कारित मानहानि का रूप है। इसमें लेखों, आलेखों, चित्रों छाया-चित्रों, सिनेमा, फिल्मों, कार्टूनों, व्यंग-चित्रों, संकेतों आदि के माध्यम से किसी व्यक्ति की मानहानि कारित की जाती है। मानहानि का यह एक स्थायी रूप है। विनफील्ड ने भी अपलेख को अपने स्थायी रूप से मानहानिकारक कथन माना है।

‘एस.एन.एम.अब्दी बनाम प्रफुल कुमार महन्ता’ (ए.आई.आर.200226.उडीसा 75) के मामले में वादी को अपमानित करने वाले समाचार पत्र में प्रकाशित एक लेख को उड़ीसा उच्च न्यायालय द्वारा अपलेख माना गया और यह कहा गया कि वादी प्रतिवादी से क्षतिपूर्ति पाने का हक़दार है।

अपलेख की दशा में तीन बातों का साबित किया जाना आवश्यक है—

(i) यह कि प्रतिवादी द्वारा प्रकाशित कथन असत्य था;

(ii) यह कि ऐसा कथन स्थायी था; एवं

(iii) यह कि वह अपमानजनक था।

(2) अपर्वचन (slander)– अपवचन से अभिप्राय है- बोले गये शब्दों द्वारा मानहानि। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति के लिए मानहानिकार शब्दों का प्रयोग या उच्चारण करना अपवचन है।

अपवचन स्वतः अनुयोज्य नहीं होता है। इसमें विशेष हानि को सिद्ध करना होता है।

अन्तर- अपलेख एवं अपवचन में निम्नांकित अन्तर पाया जाता है—

(1) अपलेख लिखित अथवा मुद्रित होता है जिसका सम्बन्ध नेत्रों से है अर्थात् जिसको पढ़ा एवं देखा जा सकता है जबकि अपवचन बोले गये शब्दों द्वारा होता है जिसका सम्बन्ध कानों से है और जिसे सुना जा सकता है।

(2) अपलेख स्थायी प्रकृति का मानहानिकार कथन होता है जबकि अपवचन अस्थायी प्रकृति का कथन होता है। (नूर मोहम्मद बनाम जियाउद्दीन, 1991एम.पी.एल.जे.503)

(3) अपलेख, अपकृत्य एवं अपराध दोनों श्रेणियों में आता है जबकि अपवचन कवल अपकृत्य माना जाता है, यद्यपि भारत में अपवचन को भी अपराध एवं अपकृत्य दोनों श्रेणियों में रखा गया है।

(4) अपलेख में मानहानि जानबूझकर विद्वैष भाव से की जाती है क्योंकि यह लिखित होता है जबकि अपवचन द्वारा मानहानि क्रोधवश अथवा भावावेश में भी हो सकती है।

(5) अपलेख स्वतः अनुयोज्य (per se actionable) होता है अर्थात् इसमें विशेष हानि को साबित किया जाना आवश्यक नहीं होता है जबकि कतिपय दशाओं को छोड़कर अपवचन स्वतः अनुयोज्य नहीं होता है। इससे विशेष हानि साबित करनी होती है यद्यपि भारत में ऐसी विशेष क्षति को साबित किया जाना आवश्यक नही हैय़

‘पार्वती बनाम मन्नार’ [आई.एल.आर.(1884)8मद्रास 175] के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि भारतीय विधि में अपवचन की कार्यवाही के लिए विशेष क्षति को साबित किया जाना आवश्यक नहीं है। रामधारा बनाम फलवती’ (1969 एम.पी.एल.जे. 483) के मामले में भी इस मत की पुष्टि की गई है।

आवश्यक तत्व- अब हम मानहानि के आवश्यक तत्वों पर विचार करते है। मानहानि के वाद में सफलता के लिए निम्नांकित बातों को साबित किया जाना आवश्यक है।

(1) कथनों का अपमानजनक (मानहानिकारक) होना- मानहानि का पहला आवश्यक तत्व शब्दों अथवा कथनों का अपमानजनक होना है। ऐसे शब्दों अथवा कथनों को अपमानजनक माना जा सकता है जिससे किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा समाज में गिर जाती है तथा लोग उससे घृणा करने लगते है। इससे व्यक्ति के व्यापार, व्यवसाय, वति या कारबार पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। सामान्यतया निम्नांकित शब्दों या कथनों को अपमानजनक माना जाता है—

(i) जिनसे वादी के प्रति अन्य लोगों के मन में घृणा या प्रतिकूल धारणा उत्पन्न हो जाये;

(ii) जिनसे लोग वादी का उपहास करने लगे तथा उसकी प्रतिष्ठा गिर जाये;

(iii) जो व्यक्ति के चरित्र या साख पर आक्रमण करें;

(iv) जो व्यक्ति के व्यापार, व्यवसाय वृति या कारबार पर प्रतिकूल प्रभाव डाले;

अथवा

(v) जो ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दें जिससे लोग ऐसे व्यक्ति से भयभीत रहें तथा उसके सम्पर्क में आना बन्द कर दें।

इस सम्बन्ध में केसिडी बनाम डेली मिरर न्यूज पेपर्स’ [(1929)2 के.बी.331] का एक मामला है। इसमें केसिडी को कारीगन के नाम से भी सम्बोधित किया जाता था। प्रतिवादी ने अपने समाचार पत्र में ‘कारीगन तथा कमारी एक्स’ के नाम से एक फोटो किया और नीचे यह लिखा कि कारीगन घुड़दौड़ के स्वामी है तथा कुमार एक्स उनकी मंगेत्तर है। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध सारदानका वाद प्रस्तुत किया और कहा कि उक्त फोटो से ऐसा प्रतीत होता है कि मानों कमारी एक्स उसकी विवाहिता पत्नी नहीं है और वह उसके साथ अनैतिक सहवास करती हैं। न्यायालय ने इसे मानहानिकारक मानते हुए कहा कि प्रतिवादी की अनभिज्ञता बचाव का आधार नही हो सकती।

ऐसा ही एक और मामला ‘मारीसन बनाम रिची एण्डक.’ (1902)4 एफ 645) का है। इसमें प्रतिवादी ने अज्ञानतावश यह समाचार प्रकाशित कर दिया था कि वादिया के दो जुड़वा बच्चे हुए है जबकि वादिया का विवाह अभी दो माह पूर्व ही हुआ था। वादिया ने प्रतिवादी के विरुद्ध मानहानि का वाद संस्थिति किया जिसे स्वीकार करते हुए न्यायालय द्वारा यह कहा गया कि तथ्यों की सत्यता का पता लगाये बिना प्रकाशित समाचार मानहानि की परिधि में आता है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि अज्ञानता अथवा अनभिज्ञता मानहानि में बचाव का आधार नहीं हो सकती तथा इसमें आशय का भी कोई महत्व नहीं होता।

‘मुस्ताक अहमद मीर बनाम आकाश अमीन भट्ट’ (ए.आई.आर. 2010 जम्मू एण्ड कश्मीर 11) के मामले में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि-ख्याति एवं सम्मान का धन से कोई सम्बन्ध नहीं। है। धन के आधार पर किसी व्यक्ति की ख्याति का आक्कलन करना उसकी भावना को ठेस पहुंचाना है।

(Respect and reputation of a person is not dependent on how much wealth he has accumulated. Such an assumption held to be unleasonable and offendable to ones conscience.)

गार्डनरीच शिपबिल्डर्स एण्ड इंजीनियर्स लिमिटेड बनाम अक्षत कॉमर्शियल प्रा. लि. (ए.आई.आर. 2015 कलकत्ता 103) के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मानहानि के मामलों में ख्याति अथवा गुडविल को क्षतिकारित होना आवश्यक है। इस मामले में कम्पनी द्वारा यह साबित नहीं किया जा सका कि मानहानिकारक कथनों से कम्पनी की ख्याति (reputation) या गुडविल की क्षतिकारित हुई है। इसे क्षतिपूर्ति योग्य मानहानि नहीं माना गया।

(2) कथनों का वादी के सम्बन्ध में होना- अपमानजनक कथनों का वादी के सम्बन्ध में होना अथवा वादी के प्रति किया जाना मानहानि का दूसरा आवश्यक तत्व है। ऐसे मामलों में वादी को यह साबित करना होता है कि प्रतिवादी के कथन वादी के प्रति किये। गये कथन है। ऐसा सम्पूर्ण नाम, संक्षिप्त नाम, मिथ्या नाम, कल्पित नाम आदि किसी भी प्रकार से सम्बोधित कर किया जा सकता है। आवश्यक मात्र यह है कि ऐसे शब्दों या कथना। से यह आभास हो जाये कि वे वादी के प्रति किये गये है।

इस सम्बन्ध में ‘हल्टन एण्ड क. बनाम जोन्स’ (1910 ए सी 20) का एक महत्वपूर्ण मामला है। इसमें प्रतिवादी ने अपने समाचार पत्र में ‘डिप्पी’ के मोटर उत्सव के सम्बन्ध में एक हास्य लेख प्रकाशित किया था। इसमें ‘आमीटस जोन्स’ नामक एक काल्पनिक व्यक्ति को चर्च का वार्डन बताते हुए उस पर फ्रांस में एक अध्यापिका के साथ

(3) कथनों का प्रकाशित होना-मानहानि का तीसरा आवश्यक तत्व ऐसे शब्दों का कथनों का प्रकाशित होना है। प्रकाशन से अभिप्राय यह है कि ऐसे कथन वादी के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों की जानकारी में आ जायें। यदि वे केवल वादी तक ही सीमित रह जाते है तो उन्हे प्रकाशित हुआ नही माना जा सकता।

इसे हम एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर सकते है। क, ख को एक मानहानिकारक पक्ष लिखता है। ख उसे पढकर फाड देता है या अपने सन्दूक में रख देता है। इसे प्रकाशन नही माना जायेगा क्योकि वह पत्र केवल वादी की जानकारी में ही था। लेकिन यदि क, ख को पत्र की बजाय तार भेजता है तो इसे प्रकाशन माना जायेगा क्योकि वह कई व्यक्तियो (तार बाबू, डाकिया) की जानकारी में आ जाता है।

इस सम्बन्ध में ‘क्वीन बनाम एडम्स’ [(1888) एल.आर.22 क्यू.बी.डी.66] का एक अच्छा प्रकरण है। इसमें प्रतिवादी ने अभद्र भावों को प्रदर्शित करते हुए एक पत्र लिखा तथा उसे एक लिफाफे में बन्द करके उस पर पता लिखकर एक महिला के पास भेज दिया। इसे प्रकाशन नहीं माना गया क्योंकि इस पत्र का ज्ञान किसी अन्य व्यक्ति को होना सम्भावित नहीं था।

‘एम.सी. वर्गीस बनाम टी.जे.पूनम’ (ए.आई.आर.1970 एम.सी.1879) का इस विषय पर एक भारतीय मामला है। इसमें पति द्वारा अपनी पत्नी को लिखे गये पत्र में पत्नी के पिता के प्रति अपवचनों का प्रयोग किया गया था। पत्नी ने वह पत्र पढ़कर अपने पिता को दे दिया। इसे प्रकाशन माना गया।

ऐसा ही एक और मामला ‘नेमचन्द बनाम खेमराज’ (ए.आई.आर.1973 रादस्थान 200) का है। इसमें राजस्थान उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया था कि ऐसा प्रकाशन मानहानि होगा यदि उसमें किसी व्यक्ति की अन्य व्यक्तियों की दृष्टि में ख्याति गिरती हो।

‘महेन्द्र राम बनाम हरनन्दन प्रसाद’ (ए.आई.आर.1958 पटना445) का एक और रोचक मामला है। इसमें प्रतिवादी द्वारा वादी को उर्दू भाषा में लिखा गया था। वादी उर्दू नही जानता था इसलिये उसने पत्र किसी अन्य व्यक्ति से पढ़ाया। पटना उच्च न्यायालय ने इसे प्रकाशन माना क्योंकि वादी उर्दू नहीं जानता था अतः वह पत्र किसी अन्य व्यक्ति से पढ़ने के लिए विवश था।

के.महानसिंह बनाम के.नाथासिंह (ए.आई.आर. 2016, पंजाब एण्ड हरियाणा 71) के मामले में न्यायिक कार्यवाही के दौरान किए गए कथनों को मानहानिकारक नहीं माना गया है क्योंकि वे न्यायालय के अभिलो का भाग होने से उनका जनसाधारण के लिए प्रकाशन नहीं किया जा सकता

(4) कथनों का असत्य होना-मानहानि के वाद में वादी को यह भी साबित करना होता है कि प्रकाशित कथन असत्य था। यदि ऐसा कथन सत्य है तो वह मानहानि की परिभाषा में नहीं आता है। वस्तुतः सत्य कथनों का प्रकाशन मानहानि का एक बचाव है।

(5) कथनों का प्रकाशन प्रतिवादी द्वारा किया जाना– अन्ततः ऐसे कथनों का प्रतिवादी द्वारा किया जाना आवश्यक है। यदि ऐसे कथन प्रतिवादी के नाम से किसी अन्य यक्ति द्वारा प्रकाशित किये जाते है तो वे मानहानि कारक नहीं माने जायेंगे।

‘रितनन्द बल्वेद ऐज्यूकेशन फाउण्डेशन बनाम आलोक कुमार’ (ए.आई.आर. 2007 दिल्ली 9) के मामले में प्रतिवादी द्वारा बोर्ड सदस्यों के बारे में मिथ्या एवं विद्वैषपूर्ण कथन किये गये तथा कुछ व्यक्तियों को उसके बारे में गुप्त सूचनाएँ दी गई। यह कथन वादी समिति के कार्यकारी बोर्ड के सदस्यों के सम्बन्ध में किये गये थे, न कि वादी समिति के बारे में। वादी का वाद खारिज कर दिया गया क्योंकि इन कथनों से वादी समिति को न तो कोई क्षति कारित हुई और न ही उसकी प्रतिष्ठा को आघात लगा।

‘विमल कुमार बनाम देशदिवाकर’ (ए.आई.आर. 2005 मध्यप्रदेश 37) के मामले में वादी एक मंत्री था। उस पर यह आरोप लगाया गया कि वह विद्यालय के शिक्षकों के वेतन में से कुछ हिस्सा लेता था तथा एक बार विद्यालय में न्यूसेन्स कारित करने पर उसे गिरफ्तार भी किया गया था। जाँच एवं विचारण के दौरान साक्ष्य द्वारा ये सारे आरोप सही पाये गये। न्यायालय ने प्रतिवादी को मानहानि का दोषी नहीं माना।

कथनों का प्रकाशन प्रतिवादी द्वारा किया जाना’दीपक कुमार बिस्वास बनाम नेशनल इन्श्योरेन्स कम्पनी प्रा.लि. (ए.आई.आर. 2006 गुवाहाटी 110) के मामले में अपीलार्थी एक विवाचन कार्यवाही मंम बीमा कम्पनी, प्रत्यर्थी का वकील था। बीमा कम्पनी के विरुद्ध पंचाट पारित हआ जिसका। सूचना अपीलार्थी द्वारा प्रत्यर्थी कम्पनी को नहीं दी गई जिससे समय पर अपील नहीं की जा सकी। विलम्ब से पेश की गई अपील में प्रत्यर्थी द्वारा अपीलार्थी पर लापरवाही का आरोप लगाया गया। न्यायालय न इसे मानहानिकारक नहीं माना क्योंकि न तो प्रत्यर्थी का मानहान। कारित करने का आशय था और न इससे अपीलार्थी की प्रतिष्ठा को आघात लगा।

बचाव (Defence)-मानहानि के कुछ बचाव अर्थात अपवाद भी है। निम्नांकित दशाओं में मानहानि का अपकृत्य कारित नहीं होता है—

(1) सत्य कथन का प्रकाशित करना- सत्य मानहानि का सबसे अच्छा टिप्रतिवादी द्वारा यह साबित कर दिया जाता है तो वह मानहानि के लिए दोषी नही होगा। भारतीय विधि में कथन के सत्य होने के साथ-साथ उसके लोकहित में होना भी आवश्यक है। (नेतिका अच्युतन बनाम देशभिमानी प्रिटिंग एण्ड पब्लिशिंग हाउस लि.ए.आई.आर. 1986 केरल41)

इस बचाव पर ‘अलेक्जेण्डर बनाम एन.ई.रेलवे’ [(1865)11जे एन एस 619] का एक अच्छा प्रकरण है। इसमें प्रतिवादी द्वारा वादी के विरुद्ध यह कथन प्रकाशित किया गया था कि उसे रेलगाडी में बिना टिकिट यात्रा करने के कारण एक पौण्ड के अर्थदण्ड से और इसमें व्यतिक्रम किये जाने पर तीन सप्ताह के कारावास से दण्डित किया गया है। यह कथन सत्य था; अत: इसे मानहानिकारक नहीं माना गया।

(2) निष्पक्ष एवं न्ययोचित समालोचना-मानहानि के मामले में दूसरा बचाव निष्पक्ष एवं न्यायोचित समालोचना है। यदि प्रतिवादी द्वारा यह साबित कर दिया जाता है कि उसके द्वारा जो कुछ प्रकाशित किया गया वह निष्पक्ष एवं न्यायोचित (उचित एवं भावनापर्ण) समालोचना मात्र है तो उसे मानहानि के लिए दोषी नहीं ठहराया जा सकेगा।

ऐसी समालोचना का

(i) लोकहित में होना;

v(ii) सद्भावनापूर्ण होना;

(iii) न्यायोचित एवं मर्यादित होना; तथा

(iv) मत की अभिव्यक्ति मात्र होना,

आवश्यक है।

उदाहरणार्थ- ‘क’, ‘ख’ द्वारा प्रकाशित पुस्तक के बारे यह कहता है कि ‘ख’ की पुस्तक मूर्खतापूर्ण है। ‘क’ का यह कथन यदि सद्भावपूर्ण है तो वह मानहानि के लिए दोषी नहीं माना जायेगा क्योंकि जो राय वह ‘ख’ के बारे में प्रकट करता है, ‘ख’ के चरित्र से वहीं तक सम्बन्ध रखती है जहाँ तक कि ‘ख’ का शील उसकी पुस्तक से परिलक्षित होती है। लेकिन यदि ‘क’ यह कहता है कि- “मुझे इस बात का आश्चर्य नही है कि ‘ख’ की पुस्तक मुर्खतापूर्ण तथा अशिष्ट है क्योंकि वह एक दुर्बल एवं लम्पट व्यक्ति है” तो उसका कथन अपवाद की परिधि में नहीं आयेगा क्योंकि उसकी यह राय पुस्तक पर आधारित नहीं है।

(3) विशेषाधिकृत कथन विशेषाधिकत कथन मानहानि का तीसरा अच्छा बचाव है। विशेषाधिकृत कथनों से अभिप्राय ऐसे कथनों से है जो किसी विशेषाधिकृत अवसर पर किये जाते है। ऐसे कथनों का किया जाना लोक हित में आवश्यक होता है। ऐसे विशेषाधिकार अथवा विशेषाधिकत अवसर दो प्रकार के होते है

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Lecture – 10

सामान्य अपवाद

 

यह एक सामान्य नियम अथवा सिद्धान्त है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने अपकृत्य अथवा दुष्कृतिजन्य कार्य के लिए उत्तरदायी होता है। यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के विधिक अधिकारों का उल्लंघन अथवा अतिक्रमण करता हैं तो वह नुकसानी के संदाय के लिए उत्तरदायी हो जाता है। सामान्यतया वह अपने दायित्व से बच नहीं सकता। लेकिन कुछ परिस्थितियाँ ऐसी है जिनमें किये गये कार्य अपकृत्य होते हुए भी अभियोज्य (actionable) नहीं होते। इन्हें सामान्य अपवाद, बचाव, प्रतिवाद या प्रतिरक्षा कहा जाता है। यह अपवाद अथवा बचाव निम्नलिखित है

(i) सहमति से किये गये कार्य;

(ii) दैवी कृत्य;

(iii) अवश्यम्भावी दुर्घटनायें;

(iv) वैयक्तिक बचाव अर्थात आत्म रक्षा;

(v) आवश्यकता के कार्य;

(vi) संविधिक प्राधिकार;

(vii) भूल के अधीन किये गये कार्य;

(viii) न्यायिक एवं न्यायिक-कल्प कार्य,

(ix) कार्य पालक कार्य

(x) पैतृक अथवा पै तृक-कल्प अधिकार,

(xi) सामान्य अधिकारों का प्रयोग;

(xii) तुच्छ प्रकृति के कार्य

(xiii) राज-कृत्य

(xiv) प्राधिकृत कृत्यों से कारित आनुषंगिक क्षति;

(xv) स्वयं वादी का अपकृत्य आदि।

अवश्यम्भावी दुर्घटनायें (Inevitable accidents)- अवश्यम्भावी दुर्घटनायें आपकत्यपूर्ण दायित्व का एक अच्छा बचाव है। अवश्यमभावी दुर्घटना से अभिप्राय ऐसी घटना से है जिसे एक साधारण प्रज्ञावान अथवा विवेकशील व्यक्ति उन परिस्थितियों में जिनमें वे घटी, आवश्यक अथवा अपेक्षित सावधानी या सतर्कता बरतने के पश्चात् भी नहीं रोके कि सकता अर्थात ऐसी घटना नियंत्रण से बाहर होती है। मनुष्य चाहते हुए भी उन्हें नहीं रोक सकता।

सर फ्रेडरिक पोलक के अनुसार– “अवश्यम्भावी घटनाओं से तात्पर्य ऐसी घटनाओं से है जिन्हे साधारण बुद्धि का व्यक्ति उन परिस्थितियों में आवश्यक सावधानी व सतर्कता बरतने के पश्चात् भी नहीं रोक सकता जिनमें वह घटित होती है।”

लार्ड इनेडिन ने ‘फरडन बनाम हरकोर्ट’ [(1932)146 एल.टी.391] के मामले में इसका विवेचन करते हुए कहा है कि- “मनुष्य को सम्भावित घटनाओं के प्रति सावधानी एवं सतर्कता बरतने के लिए सचेत अथवा सावधान रहना चाहिये; कल्पित घटनाओं के प्रति नहीं।”

इसे हम एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट कर सकते है।।

‘क’ द्वारा वाहन चलाते समय अचानक वाहन के ब्रेक फेल हो जाने से दुर्घटना कारित हो जाती है। ‘क’ के विरुद्ध नुकसानी का वाद नहीं लाया जा सकता क्योंकि यह एक अवश्यम्भावी दुर्घटना थी। इनमें ‘क’ का न तो कोई दोष था और न ही ‘क’ इस घटना को रोक सकता था।

‘ब्राउन बनाम केन्डल’ (1859)6cussing 2921 के मामले में अवश्यम्भावी दुर्घटना पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। इसमें वादी एवं प्रतिवादी के कुत्ते आपस में लड़ रहे थे। प्रतिवादी उनको छुड़ाने के लिए उन्हें एक छड़ी से पीट रहा था तथा सुरक्षा की दृष्टि से थोड़ा-थोड़ा पीछे हटता जा रहा था। पीछे कुछ दूर वादी खडा था। छडी वादी की आँखों में लग गई जिससे वह गंभीर रूप से घायल हो गया। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद संस्थित किया। न्यायालय ने वादी का वाद संघारणयोग्य नहीं माना क्योंकि—

मोटर वाहन अधिनियम एवं उपभोक्ता संरक्षण अधि. सहित)

(क) यह एक दुर्घटना थी;

(ख) अस्वैच्छिक थी;

(ग) अवश्यम्भावी थी; तथा

(घ) उसे टाला नहीं जा सकता था।

ऐसा ही एक और मामला ‘स्टेनले बनाम पावेल’ [(1891) क्यू.बी.861 का है। इसमें बादी एवं प्रतिवादी दोनों एक ही शिकारी दल के सदस्य थे तथा शिकार पर गये हुए थे प्रतिवादी ने पक्षियों पर गोली चलाई जो दुर्भाग्य से एक पेड से टकराकर वापस लौट गई तथा वादी या वादी के लग गई जिससे वह दुर्घटनाग्रस्त (घायल) हो गया। यायालय ने इसे एक – अवश्यम्भावी दुर्घटना मानते हुए कहा कि प्रतिवादी वादी से नुकसानी पाने का हक़दार नहीं है।

‘श्रीधर तिवारी बनाम उत्तरप्रदेश राज्य सड़क परिवहन निगम’ (19870 मी २०) का मामला इस विषय पर अच्छा प्रकाश डालता है। इससमें निगम की एक बम गांव के निकट पहुँची तो एक साईकिल सवार अचानक बस के सामने आ गया। बम ने साईकिल सवार को बचाने के लिए एकदम ब्रेक लगाया तो बस उछल गई तथा का पिछला भाग दूसरी दिशा में जाने वाली बस के अगले भाग से टकरा गया। यह पाया या कि वर्षा के कारण सड़कें गीली हो गई थी तथा दोनों चालक बसों को मध्यम गति से चला रहे थे। न्यायालय ने इसे एक अवश्यम्भावी दुर्घटना मानते हुए निगम को इस दर्घटना के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया।

‘फरडन बनाम हरकोर्ट’ [(1932)146 एल.टी.391] के मामले में प्रतिवादी तथा उसकी पत्नी अपनी कार को दुकान के सामने खड़ी करके दुकान में सामान खरीदने चले गये। उनके साथ उनका एक पालतू कुत्ता भी था। उन्होंने उस कुत्ते को कार में बन्द कर दिया तथा कार के दरवाजे को अच्छी तरह से बंद कर दिया था। वादी भड़कीले वस्त्र पहिने कार । के पास से गुजर रहा था तभी कुत्ता उसको देखकर बिगड़ गया तथा पंजे से कार की खिड़की के शीशे तोड़ दिये। शीशे का एक टुकड़ा वादी की आँख में लगा जिससे वह क्षतिग्रस्त हो । वादा ने प्रतिवादी के विरुद्ध नकसानी का वाद दायर किया लेकिन वह न्यायालय द्वारा यह मानते हुए खारिज कर दिया कि यह एक अवश्यम्भावी दुर्घटना थी। प्रतिवादी ने कभा यह सोचा भी नहीं था कि वादी की भडकीली डेस से कुत्ता बिगड जायेगा, वह शीशे को तोड़ देगा और शीशे का टुकडा वादी की आँख में जा गिरेगा।

देवी कृत्य (Act of God)– इसे ईश्वरीय कृत्य भी कहा जाता है। अपकृत्यपूर्ण दायित्व का एक अच्छा बचाव माना जाता है

दैवी कृत्य से अभिप्राय ऐसे कृत्य से है जो प्रत्यक्ष रूप से प्राकृतिक कारणों का हस्तक्षेप के बिना होता है तथा इतना अकस्मात् होता है कि मनुष्य उसका पूर्वानमान नहीं कर सकता।

सॉमण्ड (salmond) के अनुसार—“देवी कृत्य के अन्तर्गत ऐसी घटनायें की है जिन्हें मनुष्य युक्तियुक्त सावधानी बरत का भी नहीं रोक सकता है। ऐसी दुर्घटनाय़े प्राकृतिक क्रियाओं के परिणामस्वरूप होती है और मानव कृत्य से उनका कोई सम्बन्ध रहे। होता।”

सर फ्रेडरिक पोलक के अनुसार—”देवी कृत्य प्राकृतिक क्रियाओं के अप्रत्यापित परिचालन को कहते है जिनका मनुष्य असाधारण बुद्धि का प्रयोग करके भी पूर्वानुमान नहीं कर सकता है।”

इन परिभाषाओं से दैवी अर्थात ईश्वरीय कृत्य के दो तत्व स्पष्ट होते –

(i) यह प्राकृतिक क्रियाओं का परिणाम होते है; तथा

(ii) मनुष्य द्वारा इनका पूर्वानुमान नहीं किया जा सकता है अर्थात जो अप्रत्याशित होते है।

‘डिविजनल कन्ट्रोलर, कर्नाटक राज्य परिवहन निगम बनाम महादेवन रेड्डी (ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 3797) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि देवीय कृत्य पूर्णतया प्राकृतिक घटनाओं पर आधारित होते हैं जिनमें मानवीय हस्तक्षेप नहीं होता।

‘ ‘स्टेट ऑफ उत्तरप्रदेश बनाम एलाइड कन्स्ट्रक्शन्स’ (ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 586) के मामले में भूकम्प, अतिवृष्टि, ज्वालामुखी आदि को दैवी आपदायें माना गया है और इनसे यदि किसी पक्षकार को क्षति कारित होती है तो दूसरे पक्षकार को उसके लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता।

इस सम्बन्ध में ‘निकोलस बनाम मार्शलेण्ड’ (1875 एल.आर. 10एक्स 255) का एक महत्त्वपूर्ण प्रकरण है। इसमें अत्यधिक वर्षा के कारण प्रतिवादी की भूमि पानी इकट्ठा हो जाने से कृत्रिम झीलें बन गई थी। एक बार अत्यधिक वर्षा से झील भर जाने से पानी बाहर बहने लगा जिससे वादी की भूमि घर से पुल व पुल का सामान बह गये। बार ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद दायर किया। न्यायालय में प्रतिवादी को अपकृत का दोषी नहीं माना क्योंकि अत्यधिक वर्षा एक ईश्वरीय कृत्य था जिस पर मानव का कोई नियंत्रण हो सकता था। ‘रिलेण्ड्स बनाम फ्लेचर’ के मामले में भी इसी सिद्धान्त का अनुसरण किया गया।

‘कल्लूलाल बनाम हेमचन्द्र’ (ए.आई.आर.1958 मध्यप्रदेश48) का एक उल्लेखनीय मामला है। इसमें वर्षा के पानी से प्रतिवादी के मकान की दीवार गिर जाने के दो बच्चों की मृत्यु हो गई थी। वादी ने प्रतिवादी के विरुद्ध नुकसानी का वाद संस्थित किया। प्रतिवादी ने अपने बचाव में इसे दैवी कृत्य का परिणाम बताया। लेकिन ने प्रतिवादी का तर्क नहीं माना और उसे अपकृत्य का दोषी ठहराते हुए कहा कि—

(i) वर्षा साधारण थी; तथा

(ii) वर्षा का सभी को पूर्वानुमान था।

‘किरणबाला बनाम सेक्रेटरी, ग्रीड कॉरपोरशन ऑफ उडीसा’ (ए.आई.आर. ० उडीसा 159) के मामलों में एक व्यक्ति अपने खेत में फसलों की सिंचाई करने के लिए जा रहा था। वहाँ खेत में बिजली के कुछ तार टूटकर पड़े हुए थे जिससे वह व्यक्ति उन तारों के सम्पर्क में आ गया और उसकी मृत्यु हो गई। न्यायालय ने इसे दैवी कृत्य नहीं मानते हुए विधुत विभाग को उपेक्षा का दोषी माना।

ऐसा ही एक और मामला ‘ग्रीनाक कॉरपोरेशन बनाम केलोडियन रेलवे 11917 एस.सी. 556) का है। इसमें कॉरपोरेशन द्वारा एक सार्वजनिक उद्यान से गजरने वाले जलस्त्रोत को बीच में रोककर एक तालाब का निर्माण कराया गया। इससे जलस्रोत का मार्ग बदल गया तथा प्राकृतिक प्रवाह भी अवरुद्ध हो गया। एक बार अत्यधिक वर्षा के कारण पानी जलस्रोत के कगारों से ऊपर होकर बहने लगा जिससे पास की वादी की भूमि पर पानी इकट्ठा हो गया और उसे काफी नुकसान पहुंचा। वादी ने प्रतिवादी के विरुद नुकसानी का वाद संस्थित किया। न्यायालय ने इसे दैवी कृत्य नहीं मानते हुए मानव क्रिया का परिणाम माना और कॉरपोरेशन को इस अपकृत्य के लिए उत्तरदायी ठहराया। न्यायाल ने कहा कि यदि जलस्रोत के बीच तालाब बनाकर पानी के प्राकृतिक प्रवाह को नहीं रो गया होता तो यह दुर्घटना कारित नहीं होती।

अन्तर- वैसे तो उपरोक्त विवेचन से ‘अवश्यम्भावी दुर्घटना एवं दैवी कृत्य बाच अन्तर स्पष्ट हो जाता है।

फिर भी सार रूप में इन दोनों के बीच अन्तर को स्पष्ट का समीचीन होगा। ‘अवश्यम्भावी दुर्घटना’ तथा ‘दैवी कृत्य’ के बीच मुख्यतया निम्नंलिखित अन्तर पाया जाता है

(i) दैवी कृत्य (vis major) में घटनायें प्राकृतिक कारणों का परिणाम होती जबकि अवश्यम्भावी दुर्घटनायें प्राकृतिक कारणों का परिणाम नहीं होती

(ii) दैवी कृत्य के अधीन घटित घटनायें मानव नियंत्रण से परे होती है जब अवश्यम्भावी घटनायें मानव नियंत्रण से परे नहीं होती।

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LECTURE-11

षडय़त्र

“कोई अन्यथा वैध कार्य उसे करने में केवल मात्र व्यक्तियों के जुड़ाव के कारण अवैध नहीं हो जाता है” कथन षडयंत्र (conspiracy) से जुड़ा हुआ है। षड़यंत्र एक अपराध भी है और अपकृत्य भी। ऐसा षड़यत्र जो अपराध नहीं है; अपकृत्य कहलाता है।

षड़यंत्र की परिभाषा भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 120क में दी गई। है। इसके अनुसार—

“जबकि दो या अधिक व्यक्ति-”

(1) कोई अवैध कार्य, अथवा

(2) कोई ऐसा कार्य जो अवैध नहीं है, अवैध साधनों द्वारा; करने या करवाने को सहमत होते है, तब ऐसी सहमति ‘आपराधिक षड़यंत्र’ (criminal conspiracy) कहलाती है।

इसके विपरीत—

“जब दो या दो से अधिक व्यक्ति बिना किसी विधिपूर्ण न्यायानुमति के वादी को जानबूझकर क्षति कारित करने के प्रयोजन से संयुक्त होते है और उनके संयोजन के परिणामस्वरूप वादी को वास्तविक क्षति होती है, तब यह कहा जाता है कि वे षड़यंत्र का अपकृत्य (tort of conspiracy) करते है।” (क्राफटर हैन्ड बोवन हैरिस ट्वीड कम्पनी बनाम बीच, 1942 ए.सी.435)

इस परिभाषा के अनुसार षडयंत्र रूपी अपकृत्य के लिए निम्नांकित बातों का होना आवश्यक है

(i) दो या दो से अधिक व्यक्तियों का संयुक्त होना;

(ii) बिना किसी विधिपूर्ण औचित्य के वादी को जानबूझकर क्षति कारित करने के प्रयोजन से संयुक्त होना अर्थात संयुक्त होने का उद्देश्य बिना किसी विधिपूर्ण ऑचित्य के वादी को जानबूझकर क्षति कारित करने का होना; तथा

(iii) ऐसे संयोजन से वादी को वास्तविक रूप से क्षति कारित होना।

इस प्रकार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के जुड़ाव द्वारा कोई अवैध कार्य जाना षड़यंत्र रूपी अपकृत्य है। इसके लिए दो बातें आवश्यक है

(क) व्यक्तियों का जुड़ाव अर्थात संयोजन; एवं

(ख) अविधि पूर्ण अर्थात अवैध कार्य।

इस सम्बन्ध में ‘हल्टले बनाम थार्नटन’ (1957)ऑल ई.रि. 234J का पद अच्छा प्रकरण है। इसमें वादी एक संघ का सदस्य था। उसने संघ द्वारा की जाने वाली हड़ताल के आह्वान को मानने से इन्कार कर दिया था। प्रतिवादीगण जो संघ के सचिव एवं अन्य पदाधिकारीगण थे, वादी को संघ से निष्कासित कर देना चाहते थे परन्तु संघ की कार्यकारिणी ने ऐसा करना उचित नहीं समझा। प्रतिवादीगणों ने वादी के प्रति विद्वैष की। भावना से इस बात का प्रयत्न किया कि वादी को कार्य से बाहर रखा जाये। इसके लिए प्रतिवादीगणों को षड़यंत्र रूपी अपकृत्य के लिए उत्तरदायी ठहराया गया क्योंकि संघ की। कार्यकारिणी अर्थात कार्यकारी परिषद के निर्णय के बावजूद उनका कार्य संघ के किसी भी हित के संवधर्म में नहीं था अपितु वह विद्वैष एवं वैरभाव से संप्रेरित था। इस मामले में न्यायालय । द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि- “यदि संयोजन का प्रयोजन वादी को क्षति पहुंचाना । है न कि अपने वैयक्तिक हितों का संवर्धन करना तो वह अभियोज्य (actionable) है।”

ऐसा ही एक और मामला ‘क्वित्र बनाम लीयेन’ (1901 ए.सी.495) का है। इसमें वादी एक कसाई था। वह थोक में मांस की आपूर्ति करता था। प्रतिवादीगणों ने उसके द्वारा संघ से बाहर श्रमिकों के नियोजन पर आपत्ति की। प्रतिवादीगण ने उससे यह आग्रह किया कि वह उन श्रमिकों के स्थान पर जो संघ के सदस्य नहीं थे, उन श्रमिकों को नियोजन दें जो उसके संघ के सदस्य थे। लेकिन वादी ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। इसके बाद प्रतिवादीगणों ने वादी के एक नियमित एवं बड़े ग्राहक से सम्पर्क किया और उसे धमकी दी कि यदि वह इसके बाद वादी से मांस खरीदेगा तो वे उसके विपरीत बल का प्रयोग करेंगे। इस पर ग्राहक ने वादी से मास खरीदना बन्द कर दिया जिससे वादी को क्षति कारित हुई। यह अभिनिर्धारित किया गया कि वादी प्रतिवादीगण के विरुद्ध नुकसानी का वाद लाने का हक़दार है। न्यायालय का यह मत था कि प्रतिवादीगण का कृत्य संघ के हितों के सवर्धन के लिए नहीं अपितु विद्वेष भाव से वादी को क्षति पहुंचाने के लिए था।

इस प्रकार इन दोनों मामलों एवं उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि यदि व्यक्तिमा के जुड़ाव अर्थात संयोजन द्वारा बादी को क्षति कारित करने के प्रयोजन से कोई कार्य किया जाता है तो वह षड़यंत्र रूपी अपकृत्य होने से अभियोज्य है।

लेकिन कोई वैध कार्य व्यक्तियों के जुड़ाव मात्र से अवैध अथवा अपकृत्य नहीं जाता है लेकिन यहाँ यह उल्लेखनीय है कि- “कोई भी कार्य जो अन्यथा वैध है. मात्र व्यक्तियों के जुड़ाव के कारण अवैध अथवा

का अपवाद है। इसके अनुसार- ऐसा कोई भी कार्य मात्र दो कोसे अधिक व्यक्तियों के जुड़ाव अथवा संयोजन के कारण अवैध (अपकृत्य) नहीं हो जाता है—

(i) जो अन्यथा वैध है;

(i) जिसका उद्देश्य वादी को क्षति कारित करने का नहीं है।

(iii) जिसका उद्देश्य स्वयं के हितों का संरक्षण अथवा संवर्धन करना है।

ऐसे कार्य से यदि वादी को क्षति कारित हो जाती है तो भी वह अभियोज्य (actionable) नहीं है।

इस सम्बन्ध में ‘मुगल स्टीमशिप कम्पनी बनाम मैक ग्रेगर’ (1892 ए.सी.25) का महत्त्वपूर्ण मामला है। इसमें प्रतिवादी पोत स्वामियों की कुछ फर्मे थी। उन्होंने चीन और यूरोप के बीच चाय के व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करने के लिए किराया-भाड़े में काफी कमी कर दी जिसके परिणामस्वरूप वादी को जो इस व्यापार में एक प्रतिद्वन्दी व्यापारी था; अपना व्यापार बन्द कर देना पड़ा। वादी ने प्रतिवादीगण के विरुद्ध षडयंत्र की कार्यवाही प्रारम्भ की। लेकिन लार्ड सभा ने यह अभिनिर्धारित किया कि प्रतिवादीगण इसके लिए उत्तरदायी नहीं ठहराये जा सकते है क्योंकि—

(i) उनका उद्देश्य विधिपूर्ण था;

(ii) वे अपने स्वयं के व्यापारिक हितों का संरक्षण एवं संवर्धन करना चाहते थे;

(iii) उनका उद्देश्य वादी को क्षति कारित करने का नहीं था।

(iv) अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उनके द्वारा विधि विरुद्ध साधनों का प्रयोग नहीं किया गया था।

दूसरा प्रकरण ‘क्राफ्टर हैन्ड बोबेन हैरिस ट्वीड क.लि. बनाम बीच’ (1942 एस.सी. 435) का है। इसमें प्रतिवादीगण एक व्यापारी संघ था। उसने संघ के सदस्य गोदी मजदूरी को एक अनुदेश जारी किया कि वे वादी के माल को न ढोये। गोदी मजदूरो द्वारा वादा के माल को नहीं ढोना संविदा भंग की परिधि में नहीं आता था। इसका उद्देश्य सूत। व्यापार में प्रतिस्पर्धा का निवारण करना था और ऐसा करके इस उद्योग की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करना था तथा साथ ही संघ के सदस्यों के वेतन एवं सेवा शर्तों को बेहतर बनाना था। न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रतिवादीगण का यह कार्य संघ एवं लप के सदस्यों के हितों में संवर्धन करने वाला होने से षड़यंत्ररूपी अपकृत्य की परिधि में नहीं आता है।

ऐसा ही एक और मामला ‘स्काला बालरूम (वोल्वर हेम्पटन) लि. बनाम रडक्लिफ(1958)1डब्ल्यू.एल.आर. 1057] का है। इसमें वादी ने अपनी नृत्यशाला में। काले व्यक्तियों को प्रवेश देने से इन्कार कर दिया था। प्रतिवादीगणों ने, जो संगीतज्ञों के संघ के अधिकारी थे, ने इस दृष्टिकोण से कि वादी को इस बात के लिए विवश किया जाये कि वह काले और गोरों के बीच भेदभाव करना छोड़ दे, वादी को इस आशय का नोटिस दिया कि यदि उसके द्वारा काले लोगों के प्रवेश पर प्रतिबंध को नहीं हटाया गया तो उसके सदस्य (जिनमें अनेक काले लोग भी सम्मिलत थे) नृत्यशाला में वाद्ययंत्र (orchestra) का प्रदर्शन करने की अनुमति प्राप्त नहीं कर सकेंगे। न्यायालय ने प्रतिवादीगणों पर अपने सदस्यों को नृत्यशाला में वाद्य़ंत्र के निमित्त जाने से रोकने को विरत रखने के लिए व्यादेश जारी करने से इन्कार कर दिया। न्यायालय ने कहा कि प्रतिवादीगणों का यह कृत्य संघ के सदस्यों एवं काले लोगों के हितों का संरक्षण एवं संवर्धन करने वाला था।

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कोई भी ऐसा कार्य

(i) जो अन्यथा वैध हो;

(ii) अपने हितों का संरक्षण एवं संवर्धन करने वाला हो;

(jii) वादी को क्षति पहुँचाने का आशय रखने वाला नहीं हो; तथा

(iv) अवैध साधनों द्वारा सम्पन्न नहीं किया गया हो;

केवल व्यक्तियों के संयोजन या जुड़ाव मात्र से अवैध नहीं हो जाता है और न ऐसे कार्य को षड़यंत्ररूपी अपकृत्य कहा जा सकता है।