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LECTURE-1
MAINS QUESTIONS
- हिन्दू विधि के स्रोतों पर एक लेख लिखें|
- हिन्दू के प्राचीन स्त्रोत का उल्लेख करते हुए रुढ़ि पर प्रकाश डाले?
- हिन्दू विधि के आधुनिक स्त्रोत कौन – कौन सा है, विघायन के महत्व पर प्रकाश डालेI
- स्मृति की व्यख्या करें।
- रुढी के आवश्यक तत्व एवं प्रकार लिखे।
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HINDU?
हिन्दू विधि के स्त्रोत (Sources of Hindu Law)
संसार की ज्ञात विधि व्यवस्थाओं में हिन्दू विधि व्यवस्था सबसे प्राचीन हैI जिन स्त्रोतों से हिन्दू विधि का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है, उनका वर्णन हिन्दू विधिवेताओं द्वारा किया गया हैI
हिन्दू वोधी के स्त्रोतों को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:-
1. प्राचीन या प्रधान या मूल स्त्रोत
2. आधुनिक या गौण या द्वितीय स्त्रोत
प्राचीन प्रधान या मूल स्त्रोत:-
हिन्दू विधि के प्राचीन स्त्रोत के अन्तर्गत मूल रूप से चार स्त्रोतों के शामिल किया गया हैI ये निम्न है:
1. श्रुति
2. स्मृति
3. भाष्य (टीका) एवं निबंध
4. रुढ़ि/प्रया
(1) श्रुति:- श्रुति शब्द की उत्पत्ति “श्रु” धातु से हुआ है जिसका अर्थ होता है सुनना अर्थात् जो कुछ सुना गया होI इसे ईश्वर का वाक्य कहा जाता है जो श्रेष्ठ ऋणियों के समक्ष प्रकट किया गया है इसमें चारों वेद,
I. ऋग्वेद
II. यजुर्वेद
III. सामवेद
IV. अथर्वेद तथा छहो वेदांग :-
1. कल्प
2. व्याकरण
3. छन्द
4. शिक्षा
5. ज्योतिष और
6. निरुक्त शामिल है|
मेन के अनुसार श्रुतियों हिन्दू विधि की प्राथमिक और सर्वोच्च स्त्रोत हैI
हिन्दू विधि दैवी विधान कहलाती हैI यह मान्यता रही है कि हमारे ऋषि – मुनियों को आध्यात्मिक ज्ञान इस सीमा तक पहुँच हुआ था कि वे ईश्वर से सीधा संपर्क स्थापित कर सकते थेI धारणा यह है कि ऐसे किसी समय ईश्वर ने स्वयं हिन्दू विओधि का प्रक्टीकरण किया थाI इस भांति श्रवण किया गया हिन्दू हमारे ऋषि मुनियों ने हमे “श्रुति” या वेदों के रूप में दियाI
(2) स्मृति (The Smrities) :- स्मृति का अर्थ होता है जो याद रखा गया हो या जो स्मरण किया गया हो ऐसा विश्वास है कि स्म्रतियों वेदों के उस मूल पर आधारित है जिसका रूप अब लुप्त हो गया हैI स्मृतियां मानवीय कृतिया है और उन्ही ऋषियों द्वारा संकलित की गई थी जिन पर वेद प्रकट हुए थेI ऋषियों ने इन संकलनो को अपने परम्परा में आने वाले अन्य शिष्यों का स्मरण कराया थाI स्मृति को हिन्दू विधि का मेरुदण्ड माना जाता हैI
स्मृतियों को दो भागों में बांटा जा सकता हैI
1. धर्मसूत्र
2. धर्मशास्त्र
धर्मसूत्र :- धर्म सूत्र गध में है और सूत्रों में हैI इन सूत्रों की रचना इसलिए कि गई थी क्योंकि इन्हें स्मरण रखना सरल था I इसकी रचना काल के बारे में विहानो में मतभेद हैI कुछ विहान इनकी रचना काल ईसा पूर्व छठी शताब्दी से ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी माना है तो कुछ इसा पूर्व 8 वी शताब्दी से ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी मानते हैI गौतम, बौधायन, वशिष्ट एवं विष्णु आदि को मुख्य धर्म सुत्रकार माना जाता हैI
धर्मशास्त्र :- इसकी रचना श्लोकों में अर्थात् हिन्दू रूप में धर्म सूत्रों से पहले की गईI इनमें विधि के नियमों का उल्लेख पंक्तिवद्ध ढंग से किया गया हैI मनु, याज्ञवल्क्य, नारद, व्यास आदि प्रमुख धर्म शास्त्रकार माने जाते हैI
मनुस्मृति :- मनुस्मृति की रचनाकार मनु स्मृति कारों में सर्वोपरि है इसमें 12 अध्याय है 8 वे अध्याय में सिविल क्या आपराधिक विधियां दी गई हैI इसमें विधि में नियमों का इतने व्यवस्थित ढंग से संहिता बद्ध किया गया है कि जिसमें हर आदमी आसानी से समझ सकता हैI
याज्ञवल्क्य स्मृति :- मनुस्मृति के बाद याज्ञवल्क्य स्मृति का दूसरा स्थान आता हैI जो मनुस्मृति पर ही आधारित हैI मिताक्षरा एवं दायभाग का उल्लेख इसी स्मृति पर हैI
नारद स्मृति :- स्मृतियों में नारद स्मृति का तीसरा स्थान हैI इस स्मृति में नारद स्वयं रहते है कि उसकी स्मृति मनु द्वारा लिखित स्मृति का संक्षिप्त रूप हैI
बृहस्पति स्मृति :- यह प्राचीन भारत का महत्वपूर्ण विधि साहित्य था इसने स्मृतियों में जो कमिया थी उनको पुरा कर दियाI इसमें सिविल तथा आपराधिक न्याय में भेद किया गया हैI इसमें गवाहों की परीक्षा, प्रति परीक्षा और पुन: परीक्षा के बारे में पहली बार प्रावधान किया गयाI इस स्मृति में चार प्रकार के न्यायालयों का भी उल्लेख हैI
(3) भाष्य (टीका) तथा निबंध (Digest and Commentaries) :- स्मृतियों की व्याख्या टीका और निबन्धों में किया गया हैI भाष्य वे है जिनमें से किसी विशेष स्मृति की टीका की गई है और निबंध वे है जिसमें विशेष मामले पर अनेक स्मृतियों एवं भाष्यों के पाठ प्रस्तुत करके विधि की स्पष्ट किया गया हैI यघपि भाष्यों तथा निबन्धों का कार्य स्मृतियों की व्याख्या करना है किन्तु निबन्धों ने समय की माँग के अनुसार व्याख्या करके मूल विधि में कार्य परिवर्तन कर दिया हैI
आत्माराव V/S वाजीराव :- प्रस्तुत मामले में यह निर्णीत किया गया है कि स्मृति की विधि और भाष्य की विधि में विरोधाभाव होने की स्थिति में भाष्य की विधि हीI मान्य होगीI
भाष्यों में दायभाग, मिताक्षर आदि प्रमुख हैI अधिकांश टीकाओं एवं निबन्धों किम रचना 9 वे से 11 वर शताब्दी के मध्य की गई हैI यज्ञावल्क्य स्मृति पर विज्ञानेश्वर ने विशेष रूप से टीका लिखीI
(4) रुढियों/प्रयाएं (Customs) :- रुढियों प्राचीन काल में ही हिन्दू विधि की स्त्रोत मानी जाती हैI स्मृतिकारों, भाष्य – कारों और निबंधकारों सभी ने रुढियों की मान्यता को स्वीकार किया हैI जहाँ प्रथा समाप्त होती है वहां रुढ़ि आरम्भ होती हैI प्राथाओं को जब अभिन्न रूप से स्वीकार कर लिया जाता है तो वह रुढ़ि बन जाती हैI
(5) रुढ़ि :- की परिभाषा. रुढ़ि वे नियम है जो किसी परिवार वर्ग, अथवा स्थान विशेष में बहुत पहले से चले आने के कारण विधि द्वारा विधि बल प्राप्त कर लिया हैI
रुढिया तीन प्रकार की होती हैI
1. स्थानीय रूढिया (Local Custom) :- जो किसी विशेष स्थान पर लागू होती हैI
2. वर्गीय रूढिया (Caste Custom) :- जो किसी जाति या वर्ग विशेष पर लागू होती हैI
3. पारिवारिक रूढिया :- जो किसी परिवार या कुटुम्ब विशेष पर लागू होती हैI
रुढ़ि के आवश्यक तत्व :-
1. प्राचीनतम
2. निरंतरता / एकरूपता
3. निश्चियतता
4. युक्तियुक्तता
5. नैतिकता या लोकनिति के विरुद्ध न हो
6. स्पष्ट प्रमाण हो
7. विधान अथवा अधिनियम के विरुद्ध न होना
रुढ़ि को प्रमाणित करने का भार उस व्यक्ति पर है जो रुढ़ि का अभिवचन करता हैI रुढियों को निम्न दो प्रकार से प्रमाणित किया जाता हैI
1. कुछ रुढिया ऐसी होती है जो बार बार न्यायालय के समक्ष आयी है और साक्ष्य द्वारा प्रभाजित हो चुकी हैंI
2. अन्य सभी रुढियों को किसी भी तथ्य के समान ही साक्षी द्वारा प्रमाणित करना अनिवार्य होता हैI
गोकुलचन्द्र V/S प्रवीण कुमारी :- प्रस्तुत वाद में SC द्वारा यह निर्णीत किया गया है कि रूढिया इस बात से शक्ति प्राप्त करती है कि वह बहुत समय से प्रचलित है I
रुढ़ि का Cases :- कलेक्टर V/S मोटू रामलिंगम :-
प्रस्तुत वाद में कहा गया है कि प्रथाओं का स्पष्ट प्रमाण लिखित मूल से अधिक प्रमाणिक समझा जाता हैI जबकि आधुनिक समय में रुढियों को मान्यता तब प्रदान किया जाता है जब उसमें निरन्तर एवं निश्चित हो, व अनैतिक के विरुद्ध एवं आयुक्ति युक्त न होI
आधुनिक गौण या द्वितीय स्त्रोत :-
आधुनिक स्त्रोत के अन्तर्गत तीन स्त्रोत आते हैI कुछ अंश में ये स्त्रोत शास्त्रीय विधि में भी विघमान थे यघपि इसका स्वरूप भिन्न थाI आधुनिक स्त्रोत निम्न हैI
1. विघायन (Legislation)
2. न्यायिक निर्णय (Judicial Decision)
3. न्याय, साम्या एवं सद्विवेक
(1) विघायन :- विघायन हिन्दू विधि का आधुनिकतम एवम् महत्वपूर्ण स्त्रोत हैI संसद अथवा विधानमंडल द्वारा पारित अधिनियम को विघायन कहते हैI इन अधिनियमों ने हिन्दू विधि को बहुत सीमा तक संशोधित एवं परिवर्तित कर दिया हैI अंग्रेजी शासन काल से ही विघायन द्वारा विधि बाती रही और संशोधित होती रहीI इन अधिनियमों में से कुछ प्रमुख अधिनियम निम्न हैI
1. बाल विवाह निरोधक अधिनियम – 1929
2. हिन्दू विवाह पुनर्विवाह अधिनियम -1856
3. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम अधिनियम – 1928
4. विशेष विवाह अधिनियम – 1954
5. हिन्दू विवाह अधिनियम – 1955
6. हिन्दू भरण – पोषण एवं दत्तक ग्रहण अधिनियम – 1956
7. हिन्दू अवयस्कता एवं संरक्षता अधिनियम – 1956
न्यायिक निर्णय :- न्यायिक निर्णय हिन्दू विधि के आधुनिक स्त्रोत हैI चूकी भारत में इंग्लैंड की तरह निर्णयानुसारण (Stare deices) का सिद्धांत लागू है अर्थात् उच्चतर न्यायलयों के निर्णय निम्नतर न्यायालयों पर लागू होते हैI भारत में स्वतंत्रता के पूर्व प्रिवी कौंसिल का निर्णय देश के समस्त न्यायालयों पर लागू होता थाI अब सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय देश के समस्त न्यायालयों पर लागू होता हैI परन्तु एस HC का निर्णय दूसरे HC पर बाध्यकर्ता प्रभाव नहीं रखता हैI न्यायालय का कार्य विधि का निर्माण नहीं अपितु विधि की व्याख्या करना हैI प्रिवी कौंसिल ने न्यायिक निर्णयों के माध्यम से हिन्दू विधि में स्त्री धन, दत्तक ग्रहण, वसीयत सह्दायिकी सम्पत्ति आदि विधियों के बारे में परिवर्तित किये थेI संविधान के अनुच्छेद 141 के अनुसार उच्चतम न्यायालय के निर्णय जिसके सभी न्यायालयों पर नियम के रूप में लागू होता हैI
(3) न्याय साम्या एवं सद्विवेक :- कभी कभी न्यायालयों के समक्ष कोई ऐसा प्रश्न आ जाता है जिस पर न तो कोई कानूनी प्रावधान होता है और न ही किसी न्यायालय का निर्णयI ऐसी स्थिति में न्यायाधीश उस मामले का निर्णय न्याय, साम्या और सद्विवेक के आधार पर करना पड़ता हैI धीरे – धीरे यह नियम के रूप में स्थापित हो जाता हैI ब्रहस्पति, नारद कौटिल्य ने बहुत पहले ही न्याय साम्या सद्विवेक को हिन्दू विधि के रूप में स्वीकार किया थाI
गुरुनाथ V/S कमलाबाई :- प्रस्तुत मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह निर्णीत किया गया है कि हिन्दू विधि के किसी नियम के अभाव में न्यायालय न्याय, साम्या एवं सद्विवेक के आधार पर निर्णय कर सकता हैI ऐसा इसलिए भी आवश्यक था, क्योंकि ऐसा नहीं किया जाता है तो हिन्दू विधि के सिद्धांतों के प्रतिकूल होगाI
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Topic – 1
HINDU LAW
बहुवैकल्पिक प्रश्न
- हिन्दू विधि के प्राचीनता स्त्रोत में शामिल हैI
(a) श्रुति
(b) स्मृति
(c) भाष्य एवं निबंध
(d) उपर्युक्त सभी
- संसद अथवा विधानमंडल द्वारा बनायी गई विधि कही जाती हैI
(a) विघायन
(b) न्यायिक निर्णय
(c) रुढ़ि
(d) उपर्युक्त सभी
- मनुस्मृति के रचनाकार कौन हैI
(a) नारद
(b) मनु
(c) विज्ञानेश्वर
(d) वशिष्ट
- वेदो की संख्या किनती हैI
(a) 3
(b) 6
(c) 4
(d) 5
- निम्न में से कौन वेद नहीं हैI
(a) ऋग्वेद
(b) सामवेद
(c) अर्यववेद
(d) रुद्रवेद
- हिन्दू विधि के आधुनिक स्त्रोत कौन कौन से हैI
(a) विघायन
(b) न्यायिक निर्णय
(c) न्याय, साम्या सद्विवेक
(d) उपर्युक्त सभी
- हिन्दू विधि हैI
(a) सिविल विधि
(b) आपराधिक विधि
(c) व्यक्तिगत विधि
(d) स्थानीय विधि
- किसे हिन्दू विधि का मेरुदण्ड कहा जाता हैI
(a) स्मृति
(b) श्रुति
(c) प्रथा
(d) निबन्ध एवं टीका
- धर्मशास्त्र की रचना मुख्यता: किया गया हैI
(a) श्लोक
(b) छन्द
(c) उपर्युक्त दोनों
(d) गघो
- किस ग्रन्थ को विधिज्ञ की विधि (Lawyer’s Law) कहा जाता हैI
(a) प्रथा
(b) विघायन
(c) श्रुति
(d) स्मृति
- मनुस्मृति में कुल कितने अध्याय है ?
(a) 12
(b) 8
(c) 15
(d) 9
- किस स्मृति में गवाहों की परीक्षा, प्रति परीक्षा एवं पुन: परीक्षा का उल्लेख किया गया है I
(a) नारद स्मृति
(b) मनुस्मृति
(c) यज्ञावल्क्य स्मृति
(d) उपर्युक्त सभी
- किसने कहा था, श्रुतियों हिन्दू विधि की प्राथमिक और सर्वोच्च स्त्रोत है I
(a) मेन
(b) मनु
(c) नारद
(d) विज्ञानेश्वर
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LECTURE-2
हिन्दू विधि की शाखाएँ
MAINS QUESTIONS
- हिन्दी विधि की शाखा पर लेख लिखे।
- मिताक्षरा एवम् दायभाग में अन्तर करें।
- मिताक्षर कितने शाखा में बाटां हुआ है?
- दायभाग का विस्तार बताऐ।
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लेक्चर- 2, हिन्दू लॉ
हिन्दू विधि की शाखाएँ
हिन्दू विधि की शाखाएं (Schools of Hindu Law)
हिन्दू विधि की दो प्रमुख शाखाएँ है I
1. मिताक्षरा
2. दायभाग
मिताक्षरा :-
(1) मिताक्षरा आन्ध्र प्रदेश निवासी विज्ञानेश्वर द्वारा लिखित यज्ञावल्क्य स्मृति की एक टीका है I
(2) मिताक्षरा का अर्थ है सिमित अक्षरों वाला I
(3) मिताक्षरा भाष्य को बंगाल को छिड़कर शेष समस्त भारत में मान्यता दी गई है I
(4) मिताक्षरा की रचना काल दायभाग से पहले है I
(5) इसकी रचना 11 वी शताब्दी का उत्तरार्द है I
(6) मिताक्षरा की पांच उपशाखाएँ है I जो निम्नलिखित है I
1. बनारस शाखा
2. मिथिला शाखा
3. महाराष्ट्र शाखा / मुम्बई शाखा
4. मद्रास शाखा द्रविड़ शाखा
5. पंजाब शाखा
दायभाग :-
(1) यह जीमूतवाहन द्वारा लिखा गया भाष्य है I
(2) यह भी याज्ञवल्क्य स्मृति की टीका है|
(3) यह शाखा बंगाल तथा असम में कुछ हिस्सों में लागू होता है I
(4) दाय भाग का रचना काल मिताक्षरा के वाद से हैं I
(5) दाय भाग में उत्तराधिकारी एवं विभाजन से सम्बन्धित विधि का मुख्य रूप से विवेचना की गई है
शाखा परिवर्तन का प्रभाव :- यदि कोई व्यक्ति निवास परिवर्तन करके एक शाखा से दूसरे शाखा में रहने लगता है तो सामान्यता यह माना जाता है कि वह अपने साथ अपनी शाखा की विधि भी ले जाता है I तथा उस पर उस शाखा की विधि लागू होगी जिस शाखा से उसने निवास परिवर्तन किया है I पहले वाला है I

पाहुजा लॉ अकैडमी
लेक्चर- 2, हिन्दू लॉ
हिन्दू विधि की शाखाएँ
P.T.
- हिन्दू विधि में मुख्यतः कितनी शाखाएं हैं?
(क) 5
(ख) 3
(ग) 2
(घ) 4
- मिताक्षरा शाखा के लेखक कौन हैं
(क) श्रीमूतवाहन
(ख) विज्ञानेश्वर
(ग) दोनों
(घ) नारद
- कौन सा भाग रक्त संबन्ध पर आधारित है।
(क) दयाभाग
(ख) मिताक्षरा
(ग) दोनों
(घ) कोई नहीं
- कौन-सा भाग पिण्ड संबंध पर आधारित है।
(क) दायभाग
(ख) मिताक्षरा
(ग) दोनों
(घ) कोई नहीं
- मिताक्षरा एवं दाय भाग किस स्मृति पर आधारित है।
(क) नारद
(ख) मनुस्मृति
(ग) ब्रहस्पति
(घ) यज्ञावल्क्य स्मृति
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LECTURE-3
हिन्दू कौन है (Who is Hindu)
MAINS QUESTIONS
- हिन्दू विधि किन किन लोगों पर लागू होती है ? स्पष्ट करें ?
- हिन्दू धर्म से भी होता है और हिन्दू बनाया जाता है उपयुक्त कथन को वादों की सहायता से व्याख्या करें I
- हिन्दू कौन है? व्यख्या करें।
- अब्राहम बनाम अब्राहम वाद के नियमो को लिखे।
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लेक्चर- 3, हिन्दू लॉ
हिन्दू कौन है (Who is Hindu)
हिन्दू का अर्थ :- प्रारंभ में हिन्दू शब्द का प्रयोग इस देश के निवासियों के लिए किया जाता था I शब्द हिन्दुस्तान इसी बात धोतक का है I यह शब्द यहाँ के लोगों द्वारा दिया हुआ न होकर विदेशियों द्वारा दिया गया है I जिसकी उत्पत्ति सिन्दू शब्द हुई है I चूकी फारसी लोग ‘स’ को ‘ह’ कहते थे इसलिए सिन्दू के पूरब रहने वालों लोगों को सिन्दू के स्थान पर ‘हिन्दू’ तथा सिन्दू के पूरब के भू-भाग से हिन्दुस्तान कहने लगे I
हिन्दू कौन है :- प्रारंभ में यघपि एक भौगोलिक सिमा के अंदर रहने वाले लोगों को हिन्दू कहा जाता था I परन्तु धीरे – धीरे एक विशेष धर्म के लोगों के मानने वालो को हिन्दू और उनके धर्म को हिन्दू धर्म तथा जहाँ रहते थे उसे हिन्दुस्तान कहा जाने लगा I
आधुनिक समय में उन सभी व्यक्तियों को हिन्दू माना जाता है जो या तो जन्म से हिन्दू है या हिन्दू धर्म को मानते है या अपना मूल धर्म परिवर्तन कर हिन्दू बन गए है I
हिन्दू विधि जिन व्यक्तियों पर लागू होती है, उन्हें हम तीन मुख्य प्रवर्गों में बाट सकते है I
(1) ऐसे व्यक्ति जो हिन्दू, जैन, सिख, बौद्ध धर्म से ही अर्थात् हिन्दू धर्म द्वारा I
(2) ऐसी व्यक्ति जो हिन्दू माता – पिता की संताने ही अर्थात् हिन्दू जन्म द्वारा I
(3) ऐसे व्यक्ति जो न तो मुस्लिम, क्रिश्चियन, पारसी या यहूदी है और न ही किसी अन्य विधि द्वारा शासित होता है I
1. जन्म से :- निम्नलिखित व्यक्ति जन्म से हिन्दू माने जाते है I
(1) हिन्दु माँ बाप की संताने
(2) हिन्दू माँ अथवा हिन्दू पिता की संताने
जिनका पालन हिन्दू रीती से हुआ है I
राम प्रसाद V/S मुसम्मात दहिन बिबि प्रस्तुत वाद में नायक जाति की एक नर्तकी मुस्लमान बन गई परन्तु उसके बच्चों का पालन – पोषण बच्चों के नाना – नानी ने हिन्दू रीती से किया I निर्णीत हुआ कि बच्चे हिन्दू थे I
जन्म से हिदुओं में निम्न 4 वर्फ के लोग माने जाते है I
(1) ब्राहमण
(2) क्षत्रिय
(3) वैश्य
(4) शुद्र
2. धर्म परिवर्तन द्वारा हिन्दू :- वे व्यक्ति भी हिन्दू माने जाते है जिन्होंने अपना धर्म परिवर्तन कर हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया है I
3. प्रति – संपरिवर्तन :- यदि कोई व्यक्ति धर्म त्याग करके गैर हिन्दू बन जाए I इसके बाद पुन: धर्म परिवर्तन करके हिन्दू हो जाए तो वह व्यक्ति पुन: हिन्दू विधि, विधि द्वारा शासित होने लगेगा I
हिन्दू जन्म से होता है और बनाया जाता है I जैसा कि उपर बताया गया है कि वे सभी व्यक्ति हिन्दू होते है जिनका जन्म हिन्दू माँ – बाप से होता है I अर्थात् हिन्दू जन्म से होता है इसके अतिरिक्त उन व्यक्तियों में भी हिन्दू धर्म माना जाता है जिन्होंने अपने मूल धर्म छोडकर हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया है I या पहले हिन्दू थे परन्तु धर्म छोडकर किसी अन्य धर्म में शामिल हो गए परन्तु पुन: हिन्दू धर्म अंगीकार कर लिया है I जैसा की पेरूमल V/S श्रीमती मरथम्मा वाद I
यज्ञपुरुष दास जी V/S मुलदास :- प्रस्तुत वाद में हिन्दू शब्द की उपपत्ति के बारे में स्वीकार किया गया है कि आर्य भारत में आने के पश्चात् सिन्धु नहीं के मैदान में बीएस गये और फारस तथा वहां के लोग से के स्थान पर ‘ह’ का उच्चारण करते है इसलिए सिन्धु के इस पार वाले लोग हिन्दू रहने लगे I
अब्राहिम V/S अब्राहिम :- प्रस्तुत वाद में प्रिवी कौंसिल ने यह निर्णीत किया है कि ‘हिन्दू’ व्यक्ति जन्म से उत्पन्न हिदू हो तथा वे व्यक्ति जो धर्म परिवर्तन करके हिन्दू हो गया है दोनों हिन्दू है अर्थात् हिन्दू जन्म से होता है और बनाया भी जाता है I
सुदर्शन V/S पुनम मारिया :- प्रस्तुतु मामले में यह निर्णीत किया गया है कि मुस्लिम महिला द्वारा हिन्दू पति के साथ किया गया विवाह विधि मान्य है I ऐसी मुल्सिम महिला की पुत्री हिन्दू होगी और उसका विवाह हिन्दू विधि के अधीन मान्य होगा I
हिन्दू विधि निम्न व्यक्तियों पर लागू होता है :-
(1) जो जन्म या धर्म से हिन्दू है I
(2) जो हिन्दू माता – पिता की अवैध सन्तान है I
(3) ऐसी अवैध संतान जो हिन्दू माँ तथा इसाई पिता से ले परन्तु पालन – पोषण हिन्दुओं जैसा हुआ हो I
(4) बौद्ध, जैन या सिक्खों पर I
(5) जो धर्म से इसाई, मुस्लिम पारसी और यहूदी न हो I
(6) जो वीर शैव, लिंगायत, ब्राहा प्रार्थना या आर्य समन वाले शाखाओं से हो I
HMA – 1955 की धारा – 2 में हिन्दू में कौन कौन आता है इसका उल्लेख किया गया है I
ऐसे व्यक्ति जिन्हें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 366 खण्ड (25) के अन्तर्गत अनुसूचित जनजाति का सदस्य घोषित किया गया है हिन्दू नहीं माना जायेगा जब तक कि केन्द्रीय सरकार राजपत्र में उन्हें हिन्दू घोषित न कर दे धारा 2 (2)
यदि माता पिता दोनों ने धर्म का परिवर्तन कर लिया हो तब भी बालक हिन्दू रहेगा जब तक कि उसका भी धर्म परिवर्तन न कर दिये जाये I
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Lecture- 3
हिन्दू कौन है (Who is Hindu)
PRELIMINARY QUESTIONS
- हिन्दू विवाह अधिनियम किस वर्ष पारित किया गया ?
(a) 1956
(b) 1955
(c) 1957
(d) 1952
- हिन्दू में शामिल है ?
(a) जैन
(b) बौद्ध
(c) सिक्ख
(d) उपर्युक्त सभी
- हिन्दू विवाह अधिनियम किस दिन लागू किया गया ?
18 मई 1955
(b) 18 जुन 1955
(c) 3 मई 1955
(d) उपर्युक्त कोई नहीं
- मुस्लिम, इसाई, यहूदी, पारसी हिन्दू में शामिल है कथन सत्य है
(a) नहीं
(b) हाँ
(c) अशत: परिवर्तन
(d) उपर्युक्त सभी
- हिन्दू होते है ?
(a) जन्म
(b) परिवर्तन
(c) प्रति – परिवर्तन
(d) उपर्युक्त सभी
- सर्वप्रथम किस वाद में यह निर्धारित किया गया कि “हिन्दू जन्म से भी होता है तथा बनाया भी जाता है ?
(a) अब्राहम VS अब्राहम
(b) पार्वत VS जगदीश
(c) जवाला VS धरम
(d) कोई नहीं
- “हिस्ट्री ऑफ हिन्दू धर्मशास्त्र” नमक पुस्तक की रचना किसके द्वारा किया गया I
(a) पी.वी.पा काणो
(b) रावर्त लिंगत
(c) डा. राधा रमण
(d) प. मदन मोहन मालवीय
- किस वाद में यह निर्धारित किया गया कि हिन्दू विधि स्थानीय विधि नहीं वरन् व्यक्ति विधि है ?
(a) लक्षमण राज VS बम्बे राज्य
(b) पार्वती VS जगदीश
(c) बी. श्याम सुंदर VS शंकर
(d) उपर्युक्त सभी
- हिन्दू विधि किन व्यक्तियों पर लागू होगी HMA – 1955 किस धारा में उपबंधित है I
(a) Sec – 1
(b) Sec – 2
(c) Sec – 3
(d) Sec – 4
- एक मुस्लिम लडकी हिन्दू लडके से विवाह करती है उससे उत्पन्न बच्चे का पालन पोषण हिन्दू रीती रिवाज से होता है I
(a) मुस्लिम
(b) हिन्दू
(c) दोनों
(d) कोई नहीं
- एक हिन्दू माता – पिता दोनों ने अपनाधर्म परिवर्तित कर लिया है I तो उनके बच्चे किस धर्म से शामिल होंगे ?
(a) पिता के धर्म से
(b) माता के धर्म से
(c) हिन्दू
(d) दोनों के धर्म में
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LECTURE-4
हिन्दू विवाह का स्वरूप (Nature of HM)
विवाह वर के द्वारा कन्या को स्त्री के रूप में ग्रहण करने की स्वीकृति है – रघुनन्दन
मनुस्मृति में 16 संस्कार का वर्णन है जिसमें से विवाह भी एक संस्कार है और प्रत्येक हिन्दू के लिए विवाह एक अनिवार्य संस्कार माना गया है I
हिन्दू विवाह एक संस्कार है संविदा नहीं हिन्दू विधि विवाह को एक पवित्र एवं महत्वपूर्ण संस्कार मानती है I हिन्दू विधि में पुरुष पत्नी के बिना अधुरा समझा जाता है I पत्नी को पुरुष की अर्धागिनी समझा जाता है I जैसा की महाभारत के अदि पर्व के श्लोक संख्या 40-41 और 74 में तय गया है – वही व्यक्ति परिवारिक जीवन बिताते है जिनके पत्नियाँ होती है I
दुर्गा पी.त्रिपाठी बनाम अरुधंती त्रिपाठी – प्रस्तुत वाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह मत व्यक्त किया गया है कि विवाह स्वर्ग में तय होते है, हिन्दू विधि में विवाह को 16 संस्कारों में प्रमुख संस्कार माना गया है I निम्न कारणों से हिन्दू विधि में विवाह को एक संस्कार माना गया है I
(1) पितृ ऋण की मुक्ति के लिए विवाह I
(2) स्वर्ग की प्राप्ति के लिए विवाह I
(3) धार्मिक अनुष्ठानों को पूर्ण करने के लिए विवाह I
(4) वंश वृद्धि के लिए विवाह
(5) विवाह न टूटने वाला एक बंधन है I
मनुस्मृति के अनुसार :- पत्नी अर्धागिनी है, पुरुष अपूर्ण रहता है जब तक कि विवाह और संतान उत्पत्ति नहीं करता I विवाह संस्कार द्वारा वह पूर्वतय को प्राप्त करता है I
ज्योति शाह बनाम राजेश कुमार पाण्डेय :- प्रस्तुत वाद में यह बताया गया है कि हिन्दू विधि में विवाह अनुष्ठानों को सम्पन्न करके किया जाता है I जहाँ कोई पक्षकार अपना विवाह धार्मिक कृत्यों के अभाव में करता है I अर्थात् वह अपने विवाह में सप्तवदी और कन्यादान की रीती का पालन नहीं करता है I तो ऐसा विवाह, विवाह नहीं माना जायेगा I
विवाह का वर्तमान स्वरूप :- हिन्दू विवाह का वर्तमान स्वरूप प्राचीन जैसा नहीं रह गया है इसका मुख्य कारण है अधिनियमों का पारित होना है I सामाजिक आवश्यकतों को देखते हुए सरकार द्वारा समय – समय पर कई अधिनियम पारित किये गये है जैसे बल – विवाह विरोध ACT, 1929, हिन्दू विधवा पुन: विवाह अधिनियम, 1856, भरण – पोषण अधिनियम 1956
क्या आधुनिक विवाह का स्वरूप संविदात्मक है ?
सरकार द्वारा विभिन्न अधिनियमों को समय-समय पर पारित कर देने से हिन्दू विवाह के संस्कारिक प्रमाण में कमी आई है तथा वर्तमान समय में यह संविदात्मक प्रकृति की और जाती हुई प्रतित होती है I HMA 1955 के प्रभाव के साथ तालमेल बढ़ाने पर विवाह का संविदात्मक रूप प्रतित होता है I संविदात्मक स्वरूप होने का निम्न प्रमाण है I
(1) सहमति से विवाह – विच्छेद की सुविधा I
(2) न्यायिक पृथक्करण और विवाह – विच्छेद के आधारों का एकीकरण I
(3) यौन सम्बन्धी बिमारी एवं मस्तिष्क विकृतता के आधार पर विवाह – विच्छेद I
(4) जारता के आधार पर विवाह – विच्छेद I
(5) विवाह के पक्षकारों के आयु का निर्धारण I
निष्कर्ष :- उपर्युक्त व्याख्या से यह निष्कर्ष निकलता है कि हिन्दू विवाह न हो संस्कार रहा है और न ही संविदा I यह दोनों का मिश्रित रूप हो गया है I परन्तु यह मुस्लिम विवाह की तरह पूर्णत: संविदा नहीं है I
विवाह संस्कार का CASES :- कृष्णन बनाम वेंटेंक – प्रस्तुत वाद में न्यायालय द्वारा निर्णीत किया गया है कि विवाह के संस्कार का महत्व इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि विवाह हिन्दुओं के 16 संस्कारों में से एक महत्वपूर्ण संस्कार माना गया है I यह शरीर के वगानुगत दोषों से शुद्ध करता है I विवाह एक धार्मिक आवश्यकता है यह मात्र भौतिक वासना का साधन नहीं है I
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LECTURE-5
हिन्दू विधि
- हिन्दू विवाह के आवश्यक शर्तो का उल्लेख करे।
- सप्तपदी क्या है? सप्तपदी के अभाव में संपन्न विवाह की वैधता बताए।
- विवाह के पंजीयन पर एक टिप्पणी करें। क्या विवाह का पंजीयन कराना आवश्यक है?
- विवाह के कितने आवश्यक तत्व है?
- विवाह के आयु तथा उल्लंबन का परिणाम लिखे।
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Lecture- 5
हिन्दू विधि
1. हिन्दू विवाह अधिनियम – 1955
2. हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम – 1956
3. हिन्दू दत्तक एवम् भरण पोषण अधिनियम – 1956
4. हिन्दू अवयस्कता एवम् संरक्षण अधिनियम – 1956
• विशेष विवाह अधिनियम – 1954
यह विधि एक ऐसी विधि है जो हर जाति एव धर्म के व्यक्ति एक दूसरे से इस विधि के द्वारा विवाह कर सकते है और इस विधि को “भारतीय सविधान का अनुच्छेद 21 सुरक्षित करता है।“

धारा -1
सक्षिप्त नाम = हिन्दू विवाह अधिनियम 1955
क्षेत्र/विस्तार = जम्मू पर और कश्मीर के सिवाय सम्पूर्ण भारत
लागू की तिथि = 18 मई 1955
कुल अध्याय = 30
• इसे क्या कहा जाता है?
• हिन्दू विवाह अधिनियम को व्यक्तिगत विधि भी कहा जाता है
धारा -2 हिन्दू कौन है? इस बात का उल्लेख है।
धारा -3 परिभाषा/निवर्चन
1) धारा 3(क) (A) = रूढ़ि या प्रथा
2) धारा 3(ख) (B) = जिला न्यायालय
3) धारा 3(ग) (C) = सगा और सौतेला (full blood, half blood)
4) धारा 3(घ) (D) = सहोदर (Uterine blood)
5) धारा 3(ड) (F) = विहित
6) धारा 3(च) = सपिण्ड संबंध
7) धारा 3(छ) = प्रतिषिद्ध नातेदारी
धारा -4 इस अधिनियम का प्रभाव सवौपरि होगा-
धारा -5 हिन्दू विवाह के लिए शर्तेः
इस धारा मे पाँच शर्तों का उल्लेख किया गया है।
1) एकल विवाह
2) सक्षम पक्षकार
3) आयु
4) प्रतिषिद्ध नातेदारी मे वर्जित विवाह
5) सपिण्ड नातेदारी मे वर्जित विवाह
धारा-5(1) एकल विवाहः (i) विवाह के समय किसी भी पक्षकार के पति या पत्नी जीवित न हो।
(ii) प्रथम विवाह के होते हुये कोई पक्षकार (पति, पत्नी) यदि दूसरा विवाह करता है तो द्वितीय विवाह के लिए दण्डनीय होगा
(iii) दूसरा विवाह शून्य होता है।
(iv) दूसरा विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 17 के द्वारा दण्डनीय होगा।
धारा 5(2) सक्षम पक्षकारः a) मान्य सहमति देने के योग्य हो।
b) पागलपन का दौरा न पड़ता हो।
C) सन्तान उत्पन्न करने के योग हो।
प्रभावः धारा 5(2) के उल्लघंन मे किया गया विवाह शून्यकरणीय होता है इसमें पीड़ित पक्षकार चाहे तो विवाह को वैध रख सकता है या विवाह को शून्य कर सकता है।
• यदि विवाह के समय दोनों पक्षकार एक दूसरे की बिमारी के बारे मे जानते है और सहमति देते है तो विवाह वैध माना जायेगा। उसमें साक्ष्य अधिनियम की धारा 115 विबन्ध का सिद्धान्त लागू होगा।
• पीडित पक्षकार भरण-पोषण की माँग कर सकता है।
• बच्चा वैध होगा।
Case: आश कुरैसी बनाम असफाक कुरैसी
धारा 5(3) आयुः (i) विवाह के लिए वर की आयु 21 एवं वधु की आयु 18 वर्ष होनी चाहिए
(ii) 1978 से पूर्व विवाह के लिए आयु वर के लिए 18 और वधु की 15 वर्ष थी।
(iii) शर्त के उल्लघन पर विवाह बाल विवाह समझा जायेगा। ऐसा विवाह वैध एवं दण्डनीय होगा।
(iv) दण्ड का प्रावधान धारा 18(A) मे किया गया है
(V) दण्ड- 2 वर्ष की सजा या 1 लाख जूर्माना या दोनों
धारा 5(4) प्रतिषिद्ध नातेदारी मे सम्पन्न विवाहः
प्रभावः (i) विवाह शून्य होगा।
(ii) बच्चा वैध होगा।
(iii) दण्ड का प्रावधान धारा 18(b) मे दिया गया है
(iv) सजा-1 माह या 1 हजार जूर्माना या दोनों
धारा 5(5) सपिण्ड नातेदारी मे विवाहः यदि कोई व्यक्ति माता के पक्ष मे 3 पीढ़ी अथवा पिता के पक्ष में 5 पीढ़ी तक विवाह करता है तो ऐसा विवाह शून्य होगा। सपिण्ड सम्बन्ध मे होने के कारण विवाह शून्य होगा।
प्रभावः (i) विवाह शून्य होगा।
(ii) बच्चा वैध होगा।
(iii) धारा 18(b) के अनुसार- 1 माह की सजा या 1 हजार जुर्माना या दोनों
धारा 6 विवाह के सरक्षकः यह धारा 1978 मे हटा दी गई है। बाल विवाह के सरक्षक के विषय में बताता था
धारा 7 हिन्दू विवाह के लिए संस्कारः
1) हिन्दू विवाह उसके पक्षकारों मे से किसी के रूढ़िगत आचारों और संस्कारों के अनुरूप अनुष्ठित किया जा सकेगा।
2) विवाह के समय सात फेरे लेती ही विवाह पूरा हो जाता है।
– धारा 7 को विवाह के अवश्यक संस्कार माना जाता है।
– इसकी अनुउपस्थित मे किया गया विवाह शून्य माना जाता है।
सप्तपदीः- अग्नि के समक्ष वर एवम् वधु द्वारा संयुक्त रूप से साथ फेरे लेना।
धारा 8 पंजीयन विवाहः
1) विवाह का पंजीयन वैकल्पियक होता है।
2) राज्य सरकार विवाह का पंजीयन अनिवार्य कर देती है तब विवाह का पंजीयन आवश्यक होता है।
3) यदि पंजीयन आवश्यक है और नहीं करने पर 25 रू. का जूर्माना।
4) विवाह का पंजीयन नहीं कराने पर विवाह पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।
5) सामान्यतः विवाह सम्बन्धित कुरितियों को रोकने के लिए पंजीयन करा लेना चाहिए।
Case: श्रीमति सीमा v/s अश्वनी कुमार S.C
यदि विवाह का पक्षकार दूसरा विवाह करता है तो वह विवाह शून्य होगा तथा ऐसा करने वाला पक्षकार IPC की धारा 494 एवं 495 के अन्तर्गत दण्डनीय होगा। 5 वर्ष के लिए
प्रभावः i) दूसरा विवाह शून्य होता है।
ii) दूसरी पत्नी भरण-पोषण की माँग नही कर सकती है।
iii) यदि बच्चा हो तो बच्चा वैध समझा जायेगा।
Note: पहली पत्नी की सहमति से किया गया दूसरा विवाह भी शून्य होगा।
Case लिलि थोमस v/s भारत संघ प्रस्तुत वाद मे उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत किया गया है कि पति अपनी पत्नी के रहते हुये दूसरा विवाह दूसरे धर्म मे सम्पन्न करता है तो वह IPC की धारा 494 द्वारा दण्डनीय होगा जब तक उसने पहली पत्नी से तलाक न लिया हो।
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LECTURE – 5
P.T Questions
- HMA-1955 की धारा-5 मे वैध विवाह के लिए कितने आवश्यक शर्तों का उल्लेख है।
(a) 5
(b) 7
(c) 8
(d) 4
- सपिण्ड संबंध के मध्य संपन्न विवाह होता है।
(a) शून्यकरणीय
(b) अवैध
(c) दोनों
(d) शून्य
- एक नपुसंक की शादी की प्रकृति होती है।
(a) वैध
(b) शून्यकरणीय
(c) शून्य
(d) सभी
- जहाँ विवाह का पंजीया आवश्यक है वहाँ विवाह के पंजीयन न कराने पर कितना अधिक दण्ड का उपबध है।
(a) Rs 40
(b) Rs 50
(c) Rs 100
(d) Rs 25
- निम्न मे से कौन-सा तत्व हिन्दू विवाह के संविदात्मक प्रकृति को अस्वीकार करता है।
(a) सप्तपदी
(b) पारस्परिक तलाक
(c) विवाह विच्छेद
(d) विवाह की आयु
- सीमा अश्वनी कुमार वाद संबंधित है।
(a) तलाक
(b) सप्तपदी
(c) पंजीयन
(d) न्यायिक पृथकरण
- रूढ़ि की परिभाषा HMA-1955 के किस धारा मे है।
(a) धारा 3 a
(b) धारा 3 f
(c) धारा 3 a
(d) धारा 3 g
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LECTURE-6
हिन्दू विधि
MAINS – QUESTIONS
- हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत किन आधारों पर किसी सम्पन्न विवाह को समाप्त और शून्य किया जा सकता है? क्या ऐसे उल्लंघन के लिये कोई दण्ड भी निर्धारित किया गया है?
- न्यायिक पृथक्करण के विभिन्न आधारों का वर्णन कीजिए। आप इस मत से कहां तक सहमत है कि न्यायिक पृथक्करण तलाक की प्रथम सीढ़ी है?
- दाम्पत्य अधिकारों के पुनस्थार्पन की स्थिति कब उत्पन्न होती है? पीड़ित पक्ष को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 के अन्तर्गत दाम्पत्य अधिकारों के पुनर्स्थापन के लिए कौन से कदम उठाने चाहिये और न्यायालय उसका क्या उपचार प्रदान कर सकता है
- वे कौन सी शर्ते है जिनके उल्लंघन पर किसी हिन्दू विवाह को इस अधिनियम द्वारा शून्यकरणीय घोषित किया गया है?
- न्यायिक पृथकरण तथा विवाह-विच्छेद में अंतर करें।
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Lecture- 6
हिन्दू विधि
धारा-9 दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापना (RCR)
• दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापना स्थिति उस समय उत्पन्न होती है जब पति या पत्नी मे से कोई एक पक्षकार बिना किसी युक्तियुक्त (उचित) कारण के सहवास से अलग कर लिया है। तब पिड़ित पक्षकार RCR के लिए न्यायालय को आवेदन कर सकेगा। और न्यायालय तथा की सत्यता जाँच कर RCR की डिक्री पास कर सकेगा।
• RCR के लिए आवेदन जिला न्यायालय मे किया जायेगा।
• RCR की उत्पति विधि की उत्पत्ति यहूदी से हुई है।
• RCR के आवश्यक तत्वः
1) दोनों पक्षकारों के बीच वैध विवाह होना चाहिए
2) विवाह के एक पक्षकार दूसरे पक्षकार के साथ रहना छोड़ दिया है।
3) ऐसा अलग रहना बिना किसी युक्ति युक्त कारण के हो।
4) पीड़ित पक्षकार ने RCR के लिए न्यायालय मे आवेदन दिया हो
5) ऐसा आवेदन अस्वीकार किये जाने का वैध कारण न हो।
• RCR की आवश्यकता कब होती हैः
जब पति, पत्नी बिना किसी उचित कारण के एक-दूसरे से सहवास अलग कर लिया हो।
Note: धारा 9 को धारा 23 के साथ पढ़ा जाना चाहिए।
Case 1) टी.सरिथा बनाम बेकेंट सुब्बैया (A.P, H.C)
उच्च न्यायालय द्वारा धारा 9 को असवैधानिक घोषित किया गया क्योंकि यह धारा स्त्री को उसकी व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के खिलाफ एवं उसकी इच्छा के विरूद्ध पति से सहवास करने के लिए बाध्य करती है जो कि सविधान के अनुच्छेद 14 एंव अनु. 21 का उल्लघन करता है अतः धारा 9 असवैधानिक है।
Case 2) सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार S.C सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कहा गया कि भारत मे पति-पत्नी का एक साथ रहना कानून का ही देन नहीं है बल्कि विवाह जैसी अवधारणा मे निहित है।
अत: धारा-9 का प्रावधान सवैधानिक है और अनु. 14, 21 का उल्लंघन नहीं करता है।
धारा-10 न्यायिक प्रथृक्करण (Judical Sepreation)
– न्यायिक प्रथृक्करण का अर्थ होता है। सक्षम क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय द्वारा पति, पत्नी को साथ रहने के
अधिकार को समाप्त कर देना।
(i) न्यायालय का ऐसा आदेश न तो विवाह बन्धन को तोडती है और न ही पक्षकारों की हैसियत को प्रभावित करता है। यह बस एक सम्बन्ध विच्छेद होता है जो पति-पत्नी को एक-दूसरे से अलग रहने के लिए प्राधिकृत है।
(ii) न्यायिक प्रथृक्करण का अनुतोष पति और पत्नी दोनों को प्राप्त है।
(iii) धारा-10 का प्रावधान भूतलक्षी होता है। अतः न्यायिक प्रथृक्करण का अनुतोष HMA 1955 पारित किये जाने के पूर्व या पश्चात सम्पन्न विवाह के सम्बन्ध मे लागू होता है।
(iv) न्यायिक प्रथृक्करण का वही आधार है जो धारा 13(1) व धारा 13(2) मे दिया गया है।
(v) धारा 13(1) मे नौ आधार है जो पति-पत्नी को समान रूप से प्राप्त है।
(vi) धारा 13(2) मे चार अन्य आधार केवल पत्नी को प्राप्त है।
• धारा 13(1) दोनों को प्राप्त अधिकारः
1) जारता
2) क्रुरता
3) अभित्याग
4) धर्म परिवर्तन
5) विकृतचित्त
6) कोढ़
7) यौन रोग
8) सन्यासी
9) सात वर्ष से लापता हो
• धारा 13(2) मे 4 आधार स्त्री को प्राप्त है
1) पति द्वारा विवाह करने पर पत्नी चाहे तो तलाक ले सकती है
2) पति द्वारा बलात्कार, गुदा मैथून, पशु गमन
3) भरण-पोषण न देना
4) यौवन का विकल्प
• याथिक प्रथृक्करण का परिणामः
1) सहवास के दायित्व से मुक्ति
2) दूसरा विवाह करने पर प्रतिबन्ध
3) मूल विवाह अस्तित्वहिन नहीं होता है।
4) भरण-पोषण पाने का अधिकार
धारा-11 शून्य विवाहः
ऐसा विवाह जो विधि के अनुसार अस्तित्व मे नहीं है। शून्य विवाह कहलाता है।
– धारा-11 मे शून्य विवाह की परिभाषा न देकर वह आधार दिया गया है जिसके आधार पर कोई विवाह
शून्य होता है।
– जो निम्नलिखित हैः
(i) धारा 5(1) एक से अधिक विवाह करना।
(ii) धारा 5(4) प्रतिषिद्ध नातेदारी मे विवाह करना।
(iii) धारा 5(5) सपिण्ड सम्बन्ध मे विवाह करना।
• अतिरिक्त आधारः- धारा 7 मे वर्णित आवश्यक (कर्मकाड) सप्तपदी के अभाव में सम्पन्न विवाह भी शून्य होता है।
• प्रभावः-
1) शून्य विवाह प्रारम्भतः शून्य होता है।
2) पक्षकार पति-पत्नी का दर्ज नहीं मिलता है।
3) पत्नी CRPC की धारा 125 मे भरण-पोषण की माँग नही कर सकती है।
4) शून्य विवाह मे जन्म लेने वाला बच्चा वैध होता है।
5) पक्षकार दूसरी शादी करने के लिए स्वतन्त्र होते है।
धारा-12 शून्यकरणीय विवाहः
1) शून्यकरणीय विवाह वह विवाह होता है जो एक पक्षकार पर वैध होता है परन्तु दूसरे पक्षकार पर वैध नही होता है उसे शून्यकरणीय विवाह कहते है।
2) इसमें पीडित पक्षकार विवाह को वैध रख सकता है अथवा शून्य करा सकता है।
3) शून्यकरणीय विवाह शून्य एवं वैध विवाह के बीच की स्थिति है।
• शून्यकरणीय विवाह के आधार का उल्लेख धारा 5(2) मे दिया हैः
1) प्रत्यार्थी की नपुसंकता
2) विकृतचित्त स्थिति मे होना।
3) स्वतन्त्र सहमति मे प्रभाव [बल प्रयोग या कपटदार]
4) प्रत्यार्थी का गर्भवती होना।
Note: हिजदे के साथ विवाह – शून्यकरणीय होता है।
दो हिजडो का विवाह – शून्य होता है।
प्रभावः 1) इसका प्रभाव भूतलक्षी होता है।
2) इसमें पत्नी CRPC की धारा 125 मे भरण-पोषण ले सकती है।
3) पक्षकार दूसरा विवाह नहीं कर सकते है।
4) बच्चा वैध होता है।
5) ऐसा विवाह प्रारम्भतः शून्य नहीं होता है।
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LECTURE-6
हिन्दू विधि
P.T Questions
- दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापना की उत्पत्ति किस विधि से हुई है?
- निम्न मे से कौन सा दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापना का आवश्यक तत्व नहीं है ?
- निम्न मे से किस धारा मे दाम्पत्य अधिकारो की प्रत्यास्थापना के सम्बन्ध मे उपबन्ध किया गया है?
- निम्न मे से किस वाद मे कहा गया है कि धारा 9 का प्रावधान संवैधानिक है और अनु. 14 तथा 21 का उल्लघन नहीं करता है
- हिन्दू विवाह अधिनियम का प्रावधान लागू होता है
- न्यायालय द्वारा न्यायिक पृथक्करण की डिक्री निम्न मे से किन आधारों पर प्राप्त की जा सकती है
- न्यायिक पृथक्करण का क्या परिणाम होता है?
- हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 5(5) के उल्लंघन मे किया गया विवाह होगा
- क्या शून्य विवाह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 मे भरण-पोषण की मांग कर सकती है
- शून्यकरणीय विवाह की वैधता को कौन चुनौती दे सकता है
- दो नपुंसको के बीच विवाह होगा-
- शून्यकरणीय विवाह का प्रभाव होता है?
- दाम्पत्य अधिकारों की पुर्नस्थापना से सम्बन्धित याचिका के लिए आवेदन किस न्यायालय मे किया जायेगा
- धारा 9 के अन्तर्गत पारित डिक्री के निष्पादन की प्रक्रिया यदि आवेदक पत्नी है-
- हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 10 सम्बन्धित है-
(a) मुस्लिम विधि
(b) हिन्दू विधि
(c) यहूदी विधि
(d) उपर्युक्त मे से कोई नहीं
(a) दोनों पक्षकारो के बीच वैध विवाह होना चाहिए
(b) विवाह के एक पक्षकार ने दूसरे पक्षकार के साथ रहना छोड़ दिया हो
(c) ऐसा अलग रहना किसी युक्तियुक्त कारण के है।
(d) पीडित पक्षकार ने दाम्पत्य अधिकारों की प्रत्यास्थापना के लिए न्यायालय मे आवेदन दिया हो और इसे अस्वीकार करने का युक्तियुक्त कारण ना हो
(a) धारा 9
(b) धारा 10
(c) धारा 11
(d) धारा 12
(a) टी. सरिया बनाम वैकेट सुब्बैया
(b) सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार
(c) डॉ. सूरजमणि बनाम दुर्गाचरण
(d) उपर्युक्त मे से कोई नहीं
(a) हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 पारित किये जाने के पूर्व सम्पन्न विवाह के सम्बन्ध मे
(b) हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 पारित किये जाने के पश्चात सम्पन्न विवाह के सम्बन्ध मे
(c) उपरोक्त दोनों
(d) उपरोक्त मे से कोई नहीं
(a) जारता
(b) क्रूरता
(c) अभित्याग
(d) उपर्युक्त सभी
(a) सहवास के दायित्व से मुक्ति
(b) दूसरा विवाह करने पर प्रतिबन्ध
(c) भरण-पोषण पाने का अधिकार नहीं होता
(d) उपरोक्त सभी
(a) शून्य
(b) शून्यकरणीय
(c) वैध
(d) अवैध
(a) कर सकती है
(b) नहीं कर सकती है
(c) न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है
(d) उपर्युक्त मे से कोई नहीं
(a) विवाह के पक्षकार
(b) पक्षकार के रिस्तेदार
(c) कोई अन्य व्यक्ति
(d) उपर्युक्त मे से कोई नही
(a) शून्य होता है
(b) शून्यकरणीय है
(c) वैध है
(d) उपर्युक्त मे से कोई नहीं
(a) भविष्यलक्षी
(b) भूतलक्षी
(c) उपरोक्त दोनों
(d) उपरोक्त मे से कोई नहीं
(a) जिला न्यायालय
(b) सेशन न्यायालय
(c) उच्च न्यायालय
(d) उच्चतम न्यायालय
(a) पति को सिविल कारागार में निरूद्धि करके की जा सकेगी
(b) पति की सम्पत्ति की कुर्की द्वारा
(c) उपरोक्त a या b या दोनों द्वारा
(d) उपरोक्त मे से कोई नहीं
(a) विवाह विछेद
(b) शून्य विवाह
(c) न्यायिक पृथक्करण
(d) शून्यकरणीय विवाह
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LECTURE-7
हिन्दू विधि
MAINS – QUESTIONS
- हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 के अन्तर्गत किन आधारों पर पति-पत्नी विवाह-विच्छेद की मांग कर सकते है विवेचना कीजिए?
- हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 के तहत पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद कब प्राप्त होता है समझाइए?
- हिन्दू विवाह अधिनियम के तहत क्रूरता के अर्थो का विश्लेषण कीजिये।
- अपील का प्रावधान था परन्तु अपील को पर्यवसन काल (समय समाप्त) मे अपील नहीं की गई।
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Lecture- 7
हिन्दू विधि
धारा-13 विवाह-विच्छेदः धारा 13 मे विवाह-विच्छेद का उपबन्ध किया गया है।
• विवाह-विच्छेद का अर्थ होता है विवाह का विखण्डन अर्थात विधि या सक्षम न्यायालय द्वारा वैवाहिक सम्बन्धों को समाप्त कर देना विवाह-विच्छेद कहा जाता है।
• विवाह-विच्छेद के आधारों को तीन वर्ग मे बाट सकते है।
1) वे आधार जो पति एवं पत्नी को एक समान रूप से प्राप्त है धारा 13(1)(i) से (ix) तक
2) वे आधार जो केवल पत्नी की प्राप्त है। धारा- 13(2) (i),(ii),(iii),(iv)
3) पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद 13(b)
Note: धारा 13(a) और 13(b) 27-05-1976 मे जोडा गया है।
धारा 13(b) को सहमति का सिद्धान्त कहा जाता है।
• 13(1) वे आधार जो पति-पत्नी दोनों को प्राप्त है।
1) जारता
2) क्रुरता
3) अभित्याग
4) धर्म परिवर्तन
5) विकृतचित्ता
6) कोढ़
7) यौन रोग
8) सन्यासी
9) 7 वर्ष से लापता होना
• 13(2) वे आधार जो केवल पत्नी को प्राप्त है।
1) पति द्वारा दूसरा विवाह करना।
2) पति द्वारा बलात्कार करना या गुदा मैथून या पश गमन। [IPC 377]
3) भरण-पोषण देने मे अक्षम होना।
4) यौवन का विकल्प।
धारा 13(A) : विवाह-विच्छेद की कार्यवाही मे वैकल्पिक अनुतोषः
धारा 13(A) के अनुसार न्यायालय विवाह-विच्छेद की याचिका मे अज्ञाप्ती (डिक्री) पारित करने की बजाय न्यायिक पृथृक्करण का वैकल्पिक उपचार प्रदान कर सकता है।
– धर्म परिवर्तन, संसार की त्याग, 7 वर्ष से लापता हो तब धारा 13(क) लागू नही होती है।
– धारा-13(क) 27-05-1976 मे जोडी गई है यह भूतलक्षी प्रभाव की है।
धारा 13(ख) पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेदः
– HMA 1955 की धारा 13(B) मे इसका उपबन्ध है।
– धारा 13(B) 27-05-1976 मे जोडी गई है।
– इसे सहमति का सिद्धान्त भी कहा जाता है।
– इसे धारा का प्रभाव भूतलक्षी है।
पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद की परिभाषाः
विवाह के दोनों पक्षकार आपसी सहमति से सक्षम न्यायालय के द्वारा वैवाहिक सम्बन्धों को समाप्त कर देना पारस्परिक सहमति से विवाद-विच्छेद कहलाता है।
– इस धारा के अन्तर्गत दोनों पक्षकार सयुक्त रूप से याचिका लाते है।
– याचिका प्रस्तुत करने की सूचना के 6 माह वाद किन्तु 18 माह से पूर्व याचिका वापस ली जा सकती है।
पारस्परिक सहमति विवाद-विच्छेद क्या होता है
– धारा 13(b)(i) के अन्तर्गतः- विवाह के दोनों पक्षकार मिलकर जिला न्यायालय मे विवाद-विच्छेद की डिक्री
द्वारा विवाह का विघटन के लिए निम्न याचिका प्रस्तुत कर सकते है।
a) पक्षकार एक वर्ष या उसे अधिक समय से अलग-अलग रह रहे हो।
b) वे साथ-साथ रहने मे असमर्थ है।
c) उन्होंने पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद करना स्वीकार किया है।
– धारा 13(b)(ii):- न्यायालय विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित कर देगा और विवाह डिक्री की तारीख से विघटित हो जायेगा
1) याचिका प्रस्तुत किये जाने के 6 माह बाद एंव 18 माह पूर्व दोनों पक्षकारों द्वारा किये गये प्रस्ताव पर यदि याचिका वापस न ली गई हो।
2) न्यायालय पक्षकारों को सूनने के पश्चात एवं जाँच के पश्चात् न्यायालय को यह समाधान हो गया है कि याचिका मे वर्णित कथन सही है।
1) Case- श्रीमती गुरूवचन कौर बनाम प्रतिम सिंह
प्रस्तुत वाद मे न्यायालय द्वारा यह बताया गया है कि पारस्परिक सहमति के आधार पर विवाह विच्छेद का आधार कमजोर है यह हमारे संस्कृति के प्रतिकूल है।
2) Case- अमर दीप सिंह बनाम हरवीन कौर [A.I.R 2017]
प्रस्तुत वाद मे न्यायालय द्वारा HMA 1955 धारा 13(B) की उपधारा(2) मे वर्णित 6 माह की प्रतिक्षा अवधि आदेशात्मक न होकर निदेशात्मक होगा।
विचारण न्यायालय अपने विवेक अनुसार प्रत्येक मामले की परिस्थितियों को ध्यान मे रखते हुए और कुछ शर्तो को पूर्व होने पर उक्त 6 माह की अवधि की छूट प्राप्त कर सकता है।
– धारा 14:1) विवाह के एक वर्ष के अन्दर तलाक के लिए कोई याचिका पेश न की जायेगी। अर्थात
2) विवाह के एक वर्ष के बाद ही विवाह-विच्छेद की याचिका पेश की जायेगी।
Note: इस धारा को Fair & Trail का नियम कहा जाता है।
• अपवादः इस धारा के दो अपवाद है।
1) याची को असाधारण कष्ट हो।
2) प्रतिपक्षी की असाधारण दुराचारिता का।
– धारा 15 विवाह-विच्छेद प्राप्त व्यक्ति कब पुनः विवाह कर सकेगाः
यद्पि विवाह का विघटन विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित होने की तिथि से हो जाता है। परन्तु विवाह-विच्छेद की डिक्री पारित होने के तुरन्त बाद पक्षकारों को पुनः विवाह करने का अधिकार नही होता है। धारा 15 के अनुसार शर्तो मे से कोई शर्त पूरा होने के बाद ही पक्षकार पुनः विवाह कर सकता है।
1) डिक्री पारित हो गई उस डिक्री के विरूद्ध अपील का कोई प्रावधान नहीं था।
2) डिक्री के विरूद्ध अपील का प्रावधान था परन्तु अपील खारिज हो गई।
3) यदि अपील करने का अधिकार है किन्तु समय सीमा बीत गया है|
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LECTURE – 7
हिन्दू विधि
Pre Questions
- हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 13(B) को कब जोडा गया है?
(a) 27/5/1976 मे
(b) 26/5/1976 मे
(c) 27/3/1976 मे
(d) 27/1/1976 मे
- निम्न मे से वे विवाह विच्छेद के कौन से आधार है जो केवल पत्नी को प्राप्त है?
(a) पति द्वारा दूसरा विवाह करने
(b) पति द्वारा विवाह के दिन से बलात्कार या गुदामैथुन का दोषी होना
(c) भरण पोषण देने मे अक्षम होना
(d) उपर्युक्त सभी
- विवाह विच्छेद से सम्बन्धित उपबन्ध है-
(a) धारा 13 मे
(b) धारा 12 मे
(c) धारा 14 मे
(d) धारा 15 मे
- निम्न मे से कौन सी धारा विवाह-विच्छेद की कार्यवाही मे वैकल्पिक अनुतोष से सम्बन्धित है
(a) धारा 13-क
(b) धारा 13-ख
(c) धारा 13-ग
(d) धारा 14
- पारस्परिक सहमति से विवाह विच्छेद के लिये आवश्यक है कि पक्षकार अलग रह रहे हो
(a) दो वर्ष या उससे अधिक समय से
(b) तीन वर्ष या उससे अधिक समय से
(c) एक वर्ष या उससे अधिक समय से
(d) उपर्युक्त मे से कोई नहीं
- निम्न मे से किस वाद मे यह कहा गया है कि विचारण न्यायालय अपने विवेकानुसार प्रत्येक मामले की परिस्थितियों को ध्यान मे रखते हुए और कुछ शर्तो के पूर्ण होने पर उक्त 6 माह की अवधि की छूट प्राप्त कर सकता है।
(a) श्रीमती गुरूवचन कौर बनाम प्रतिम सिंह
(b) अमर दीप सिंह बनाम हरबीन कौर
(c) शुशीला बनाम नानावती
(d) लक्ष्मण बनाम मीना
- विवाह की कितनी अवधि के अन्दर तलाक के लिए कोई याचिका पेश न की जायेगी
(a) दो वर्ष के अन्दर
(b) तीन वर्ष के अन्दर
(c) एक वर्ष के अन्दर
(d) उपर्युक्त मे से कोई नहीं
- विवाह विच्छेद प्राप्त व्यक्ति पुनः विवाह कब कर सकेगे?
(a) डिक्री पारित हो गई है और उसके विरुद्ध अपील का कोई प्रावधान नहीं है
(b) डिक्री के विरुद्ध अपील का प्रावधान था परन्तु अपील खारिज हो गई है
(c) उपरोक्त दोनों
(d) उपरोक्त मे से कोई नहीं
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LECTURE-8
हिन्दू विधि
MAINS – QUESTIONS
- शून्य एवं शून्यकरणीय विवाह से उत्पन्न बच्चे की वैधता क्या होगी स्पष्ट करे?
- विवाह से सम्बन्धित किसी मामले का क्षेत्राधिकार क्या होगा स्पष्ट करे?
- कोई हिन्दू पत्नी अपना वाद कहाँ दायर कर सकती है?
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Lecture- 8
हिन्दू विधि
धारा-16 शून्य एव शून्यकरणीय विवाह से उत्पन्न बच्चे की वैधताः
– शून्य एव शून्यकरणीय विवाह मे उत्पन्न बच्चा वैध होता है।
धारा-17 द्विवाह के लिए दण्डः
– जो व्यक्ति एक पत्नी के होते हुये दूसरा विवाह करता है उसका दूसरा विवाह शून्य होता है वह द्विवाह के लिए दण्ड का भागी होता है इस प्रकार के दण्ड का उल्लेख IPC की धारा 494 एंव 495 मे वर्णित है।
धारा-18 हिन्दू विवाह के लिये कुछ शर्तो के उल्लंघन के लिए दण्डः
धारा 18(a)- बाल विवाह के लिये दण्ड- 2 वर्ष कारावास या 1 लाख जुर्माना अथवा दोनों
धारा 18(b)- प्रतिषिद्ध नातेदारी एव सपिण्ड सम्बन्ध मे किये गये विवाह के लिए दण्ड- 1 माह का सादा कारावास या 1 हजार जुर्माना या दोनों
धारा-19 वह न्यायालय जहाँ अर्जी उपस्थित की जायेगी
i) यह न्यायालय का अर्थ है जिला न्यायालय
ii) विवाह सम्बन्धित कोई भी मामला सक्षम जिला न्यायालय मे निम्न क्षेत्राधिकार मे होगा।
1) जहाँ विवाह अनुष्ठित हुआ हो।
2) विपक्षी याचिका प्रस्तुत करने की तिथि मे निवास करता हो।
3) जहाँ पक्षकार अन्तिम बार साथ-साथ रहा हो।
4) जहाँ याची पत्नी हो और जहाँ याचिका प्रस्तुत किये जाते समय निवास कर रही हो। यह संशोधन द्वारा 23-12-2003
5) याची निवास कर रहा है या कर रही है।
याचिका की अन्तवस्तु और सत्यापनः
– यह धारा CPC 1908 लागू होने की घोषणा करता है I
– विवाह विधि संशोधन अधिनियम द्वारा धारा-21(A) धारा 21(B), एवं धारा 21(C) 27-05-1976 मे जोडी गई है।
धारा 21(A) : कुछ मामलों मे अर्जियो के अन्तरित करने की शक्तिः धारा 21(A) के अनुसार वादों की बहुल्यता को रोकने के लिए न्यायालय याचिका को एक न्यायालय से दूसरे न्यायालय मे अन्तरण कर देगा।
धारा 21(B): इस अधिनियम के अधीन अर्जियो के विचारण और निपटारे से सम्बन्धित विशेष उपबन्धः
(1) इसमें न्यायालय अर्जी पर दिन प्रतिदिन सुनवाई कर सकेगा।
(2) समन की तामील होने पर न्यायालय 6 माह के भीतर अर्जी की सुनवाई समाप्त कर सकेगा।
धारा 21(C): दस्तावेजी साक्ष्य ग्रहयता से सम्बन्धित हैः
– दस्तावेजी साक्ष्य को ज्यादा महत्व नही दिया जाता है परन्तु कुछ मामलों मे जो पक्षकार अपने कथनों को न्यायालय के समक्ष स्पष्ट रूप से मौखिक से नहीं बता सकते है
– जैसे- (1) जारता (2) क्रुरता
– इन अवस्था मे वह न्यायालय के समक्ष अपने कथनों को दस्तावेजी साक्ष्य के रूप मे पेश करते है।
धारा 22: कार्यवाहियों का बन्द कमरे मे होना और उसका मुद्रण या प्रकाशन न किया जानाः
1) इस धारा मे गोपीनय विचारण (Camera Taril) उपबन्ध किया है।
2) ऐसी किसी भी कार्यवाही का मुद्रण या प्रकाशन नही होगा।
3) उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय अनुमति के बिना ऐसी कार्यवाही का मुद्रण और प्रकाशन जा नहीं सकता है I
4) यदि कोई व्यक्ति इस शर्त का उल्लंघन करता है तो वह 1 हजार रू. के लिए जुर्माना के लिए दण्डनीय होगा।
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LECTURE -8
हिन्दू विधि
P.T Questions
- शून्य विवाह से उत्पन्न बच्चा होगा
(a) वैध
(b) अवैध
(c) उसका कोई अस्तित्व नहीं होगा
(d) उपर्युक्त मे से कोई नहीं
- निम्न मे से कौन सी धारा मे द्विवाह के लिए दण्ड का उपबन्ध किया गया है।
(a) धारा 16
(b) धारा 17
(b) धारा 17
(d) धारा 19
- विवाह अधिनियम की धारा 18(b) के अनुसार प्रतिषिद्ध नातेदारी मे किये गये विवाह के लिए निर्धारित दण्ड है
(a) 1 माह का कारावास या 2 हजार जुर्माना या दोनों
(b) 1 माह का कारावास या 1 हजार जुर्माना या दोनों
(c) 2 माह का कारावास या 1 हजार जुर्माना या दोनों
(d) उपर्युक्त मे से कोई नहीं
- विवाह से सम्बन्धित कोई भी मामला वहाँ उपस्थापित किया जायेगा-
(a) जहाँ विवाह अनुष्ठित किया गया है
(b) जब विपक्षी याचिका प्रस्तुत करने की तिथि से निवास करता है
(c) जहाँ पक्षकार अन्तिम बार साथ-साथ रहे हो
(d) उपर्युक्त सभी
- (5) इस अधिनियम के अधीन न्यायालय किसी अर्जी की सुनवाई कितनी अवधि के भीतर समाप्त कर सकेगा
(a) समन की तामील होने पर 12 माह के भीतर
(b) समन की तामील होने पर 3 माह के भीतर
(c) समन की तामील होने पर 6 माह के भीतर
(d) समन की तामील होने पर 2 माह के भीतर
- निम्न मे से कौन सी धारा दस्तावेजी साक्ष्य की ग्राहयता से सम्बन्धित है
(a) धारा 21
(b) धारा 21-(क)
(c) धारा 21-(ख)
(d) धारा 21-(ग)
- निम्न मे से कौन सी धारा कैमरा ट्रायल से सम्बन्धित है।
(a) धारा 22
(b) धारा 23
(c) धारा 24
(d) धारा 25
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LECTURE-9
हिन्दू विधि
भरण-पोषण
MAINS – QUESTIONS
- सक्षिप्त टिप्पणी लिखे
(क) विवाह के समय उपहार या भेट मे दी गई उस सम्पत्ति का न्यायालय द्वारा निवर्तन जो पति-पत्नी दोनों की हो
(ख) मुकदमे के दौरान भरण-पोषण का और कार्यवाही का खर्च
(ग) स्थायी भरण-पोषण
(घ) वादकालिन तथा स्थायी-भरण पोषण में अंतर करें
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Lecture- 9
हिन्दू विधि
भरण-पोषण
धारा24 धारा 25
1) अन्तरिम भरण-पोषण होता है इसको वादकालीन भरण-पोषण भी कहा जाता है 1) धारा 25 स्थायी भरण-पोषण होती है।
2) धारा 24 Pendent Lite के बारे मे बताती है।
धारा 24: 1) इस धारा मे अन्तरिम भरण-पोषण की बात की गई है। इसे वादकालीन भरण-पोषण भी कहते है। क्योंकि यह वाद लंबन के दौरान दी जाती है
2) जिसमें वाद की कार्यवाही का खर्च भी शामिल है।
3) यह भरण-पोषण पति-पत्नी दोनों को सामन रूप से प्राप्त करने का अधिकार है।
4) अग्रेजी विधि मे इस आधार का भरण-पोषण केवल पत्नी अपने पति से माँग सकती है।
5) वह भरण-पोषण जो कार्यवाही के प्रारम्भ होने से डिक्री पास होने तक न्यायालय की आज्ञा द्वारा एक पक्षकार दूसरे पक्षकार को दिया जाता है उसे वादकालीन भरण-पोषण बोलते है।
6) यह वैवाहिक कार्यवाही के उपचार मे माँगा जा सकता है। चाहे वह न्यायिक प्रथृक्करण हो या विवाह-विच्छेद।
7) पक्षकार को आवेदन करना आवश्यक है
8) इसमें भरण-पोषण की राशि निर्धारित करना न्यायालय के विवेक पर होता है।
CASE: रामपाल सिंह बनाम श्रीमती निशा
धारा 24(ii) धारा 24(ii) के अन्तर्गत प्रार्थना-पत्र 60 दिनों के अन्तर्गत सन कर निर्णित कर दिया जायेगा।
धारा 25: स्थायी भरण-पोषणः
1) इस धारा को स्थायी भरण-पोषण एव निर्वाह वृर्तिका उपबन्ध है|
2) इसके लिए आवेदन पति या पत्नी में से कोई पक्षकार कर सकता है|
3) निवर्हिक (alimony) का अर्थ पौसिटक आहार अर्थात् ऐसा भत्ता जो पालन एवम् भरण-पोषण के लिए दिया जाता है।
– धारा 25 के अन्तर्गत डिक्री पारित करते समय न्यायालय निम्न बातों को ध्यान मे रखता है।
(i) पक्षकारों की आय [Income]
(ii) पक्षकारों की चल और अचल सम्पत्ति
(iii) पक्षकारों का आपस मे आचरण
(iv) पक्षकारों की हैसियत
(v) भविष्य की संभावना
(vi) पक्षकारों की सामाजिक स्थिति
(vii) अन्य आधार जो न्यायालय की दृष्टि मे असंगत हो।
धारा-26 सन्तति की अभिरक्षाः
1) धारा 26 के अन्तर्गत न्यायालय अवयस्क सन्तति की अभिरक्षा भरण-पोषण और शिक्षा के बारे मे किसी भी कार्यवाही मे अन्तरिम डिक्री दे सकेगा।
2) ऐसा आवेदन सूनकर 60 दिन के अन्दर निष्पादित कर दिया जायेगा।
3) बच्चे की इच्छा पर विशेष ध्यान रखा जाता है।
4) 9 माह के बच्चे को कल्याण हेतु पिता की बजाय माता की अभिरक्षा मे रखने की अनुमति दी जानी चाहिए।
धारा-27 सम्पत्ति का व्ययनः
विवाह या विवाह के समय आपस मे भेंट की गई सम्पत्ति पति-पत्नी की सयुक्ततः अधिकार होता है। इसके सम्बन्ध मे न्यायालय ऐसी डिक्री पारित करेगा जैसा वह उचित समझे।
धारा-28 डिक्री और आदेश की अपीलः
इस अधिनियम मे वर्णित न्यायालय द्वारा दी गई सभी डिक्री और आदेश की अपील सक्षय न्यायालय मे हो सकेगी
अपवाद- धारा 24 के अधीन पारिवारिक न्यायालय द्वारा पारित अन्तरिम भरण-पोषण के अन्तवर्ती आदेश के विरूद्ध कोई अपील नहीं होगी। ऐसे आदेश के विरूद्ध भारतीय संविधान के अनु. 226 के अधीन रिट याचिका पोषणयी है।
– ऐसे आदेश और डिक्री की तिथि से 90 दिन के अन्दर की जायेगी। उच्च न्यायालय मे की जायेगी।
Note: 2003 से पूर्व अपील की अवधि 30 दिन थी परन्तु 2003 मे संशोधन करके अपील की अवधि 90 दिन कर दी है। [अपील का अधिकार विधिक अधिकार होता है]
धारा 28(A) डिक्री या आदेश मे परिवर्तनः
सक्षम न्यायालय द्वारा डिक्री या आदेश की कार्यवाही मे रीति अनुसार परिवर्तन किया जा सकता है।
धारा 29 व्यावृत्ति (Savings):
हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 विशेष विवाह अधिनियम 1954 को प्रभावित नही करेगा।
धारा 30 निरसन (Repeals) : इस धारा को निरसन अधिनियम 1960 मे हटा दिया गया है।